मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ
रामावतार त्यागी जी की यह कविता लोक-जीवन में गहरी पैठ गई है। लाखों लोगों ने भाव-विभोर हो कर इसे गाया है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यकाल के तीन साल पूरे होने पर जनता को संबोधित करते समय रामावतार त्यागी जी की ये पंक्तियाँ उद्धृत की थीं। इस गीत की अप्रतिम लोकप्रियता ने इसे कालजयी बना दिया है। इतने जनप्रिय लेखन के बाद भी आज रामावतार त्यागी के गीत तो सबके अधर पर हैं, परंतु उनका नाम नहीं। जब रचनाएँ, रचनाकार से अधिक प्रसिद्ध हो जाएँ, तो कवि कर्म सफल जानिए। फिर भी त्यागी जी की यह पंक्ति बरबस याद आती है,
बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो, जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं
चालीस के दशक में जब हिंदी कविता में प्रगतिवाद का परचम लहरा रहा था, प्रयोगवाद की हवा चल रही थी, शोषण से मुक्ति और बौद्धिक चिंतन के स्वर काव्य में मुखर हो गए थे, उसी समय त्यागी के गीतों ने एक नएपन और पैनेपन के साथ मंच पर प्रवेश किया। उनकी रचनाएँ सत्ता से प्रश्न करती हुईं, मानव के आत्मविश्वास को हताशा के दल-दल से बाहर खींच लाती हैं। उन्हें किसी संकीर्ण वाद में डालने से बेहतर, आधुनिक कविता का उन्नायक कहा जाना श्रेयस्कर होगा।
लेखन की खूबियों के बावजूद त्यागी जी का साहित्यिक कद बहुत बड़ा नहीं था। मंच पर भी उनकी अदायगी में कोई ख़ास बात नहीं थी। यह उनके अपने समवयस्क नीरज जैसे मशहूर नहीं होने का एक कारण अवश्य बना होगा।
प्रश्न उठता है कि रामावतार त्यागी यदि बड़े साहित्यकार नहीं थे, तो क्या थे?
एक ऐसा सधा हुआ गीतकार, जिसकी हर पंक्ति आपको खींच कर अपने पास बैठा लेती है!
जो स्वयं गहन अवसाद में रह कर भी मानव जीवन का शोभा-गीत गाता रहा, कौन है वह रामावतार त्यागी?
सदन का अकेला दिया?
बहारों का अकेला वंशधर?
सतरंगी गीतों का एक निकाय?
या मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोने वाला?
यह एक ऐसा कवि है, जिसकी रचनाओं की पंक्तियों को इस्तेमाल करके ही यह पूरा आलेख लिखा जा सकता है। हम इस लोभ का संवरण कर, उनके जीवन के माटी भरे पथ पर चलते हैं,
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर,
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो,
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है!
रामावतार जी का जन्म १७ मार्च १९२५ में संभल ज़िले के कुरावली गाँव में हुआ (उनकी जन्मतिथि ८ जुलाई भी मिलती है )। रामावतार सांवले रंग, तीखे नाक-नक्श का बालक था। कहने को तो उसका परिवार ज़मींदार ब्राह्मण वर्ग का था, परंतु आपसी रंजिशों ने घर-आँगन के द्वार आर्थिक परेशानियों के लिए खोल दिए थे। बचपन से ही रामावतार के मन में कुटुंब में व्याप्त संकीर्णता और रूढ़िवादिता के ख़िलाफ़ विद्रोह पलता रहा। उनका मन घर में नहीं लगा। परंतु गाँव की माटी और माँ से उनका रिश्ता अटूट रहा।
ओ शहर की भीड़ अब मुझको क्षमा दो
लौट कर मैं गाँव जाना चाहता हूँ!
तू बहुत सुंदर, बहुत मोहक
कि अब तुझसे घृणा होने लगी है,
अनगिनत तन-सुख भरे हैं, शक नहीं है
किंतु मेरी आत्मा रोने लगी है
गाँव की वो धूल जो भूली नहीं है
फिर उसे माथे लगाना चाहता हूँ!
१९४१ में, सोलह साल की उम्र में उनका विवाह हुआ। दुर्भाग्यवश पत्नी कर्कशा और अनपढ़ थीं, सो इस विवाह से उनके बंजर जीवन में सुख का कोई सोता नहीं फूटा। कालांतर में वे पत्नी से विलग हो गए। बाद में कुछ प्रेम प्रसंगों की आहट भी उनके जीवन की सजावट नहीं बन सकी। सो रूखी हुई सी राहों पर आगे बढ़ते हुए, त्यागी ने फ़िल्म 'ज़िंदगी और तूफ़ान' के एक गीत में अपनी व्यथा पिरोई और वह गीत लाखों दिलों की धड़कन बन बैठा-
"एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले,
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले।"
वैवाहिक जीवन से निराश, वे अपनी माँ से आगे बढ़ने की प्रेरणा ले कर पढ़ने लगे। चंदौसी (मुरादाबाद) से बी० ए० करने के बाद, हिंदू कॉलेज से एम० ए० करने की इच्छा लेकर वे दिल्ली विश्वविद्यालय चले आए और यहीं के हो गए। यहीं इनकी लेखकीय यात्रा आरंभ हुई और इनकी लिखी कविताओं का प्रकाशन होने लगा। कवि सम्मेलनों और मुशायरों में इन्हें बुलाया जाता- लालकिले से लेकर छोटे-मोटे कस्बों तक।
प्रेम, करुणा और आत्मोत्थान उनके मुख्य स्वर रहे। फिर यह प्रेम चाहे व्यक्ति, देश या अपनी संस्कृति किसी से भी क्यों न रहा हो। वियोगी हरि और महावीर अधिकारी के सानिध्य में रामावतार त्यागी संपादन का कार्य करने लगे। उन्होंने पत्र, पत्रिकाओं के संपादन के क्रम में 'समाज' और 'प्रगति' का संपादन किया; 'हिंदुस्तान टाइम्स' के उप संपादक रहे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उन्हें राजीव गाँधी और संजय गाँधी को हिंदी वाचन सिखाने हेतु निजी शिक्षक के रूप में भी नियुक्त किया। किंतु कोई भी नौकरी उनको लंबे समय तक रास न आती थी। आर्थिक संघर्ष ने उनके व्यक्तित्व को तराशा, परंतु जीवन पर्यंत उनको आर्थिक स्थिरता नहीं मिली।
संपादन के साथ-साथ त्यागी जी ने बेशुमार गीत, ग़ज़ल, रुबाईयाँ और कविताएँ लिखीं, जिससे इनकी पीड़ाओं को स्वर मिला। रामावतार जी गीतों के लिए बने थे, जीवन के दर्द उनको लिखने का मसौदा देते रहे। उनके गीतों में एक सामाजिक असंतोष की भावना और मानवोत्थान की नवीन संभावना का एक उदात्त स्वर न्यूनाधिक व्याप्त है,
चाहा मन की बाल-अभागिन पीड़ा के फेरे फिर जाएँ
उठकर रोज़ सवेरे मैंने, देखीं हाथों की रेखाएँ
वे स्वयं आशा और अवसाद में डूबते-उतराते रहे, परंतु उन्होंने पाठकों को एक से बढ़ कर एक आशा, विश्वास और जागृति के गीत दिए।
हारे थके मुसाफ़िर के चरणों को धोकर पी लेने से
मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है।
कोई ठोकर लगी अचानक
जब-जब चला सावधानी से
पर बेहोशी में मंज़िल तक
जा पहुँचा हूँ आसानी से
रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से
मैंने अक्सर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है!
लगता है कि वे अपने जीवन को ही गीतों में ढाल रहे थे।
त्यागी दिल्ली के गुलमोहर पार्क में रहते थे, जहाँ बच्चन, क्षेमचंद्र सुमन जैसे लेखक भी रहा करते थे। उनके मित्र क्षेमचंद्र ने राजपाल प्रकाशन से निकली अपनी किताब 'आज के लोकप्रिय हिंदी कवि - रामावतार त्यागी' में उनके बारे में खुल कर लिखा है। क्षेमचंद्र लिखते है - "उसका व्यक्तित्व एवं पूरा जीवन ही असंगतियों से रंगा हुआ है, और शायद उसकी कविता में भी उनके स्वभाव की ये असंगतियाँ स्पष्ट रूप से उतरी हैं।"
उनके दूसरे घनिष्ठ मित्र शेरगंज गर्ग लिखते हैं- "रामावतार त्यागी के बारे में उनके दोस्तों, परिचितों, प्रशंसकों की राय हमेशा एक रही है- बेहद हसीं शायर और गीतकार, मगर स्वभाव से बहुत हठीला और गर्वीला।"
कई अलग-अलग वक्तव्यों से प्रतीत होता है कि त्यागी हठी, विरोधाभास से घिरे, उलझे और उखड़े हुए होंगे, परंतु वे अपने कौल पर अडिग रहने वाले थे। एक साथ ही उनके हृदय में नेह और घृणा का अतिरेक उमड़ने लगता था। त्यागी के गीतों से उनकी प्रतिबद्धता तो साफ़ झलकती ही है, दुःख भी पारदर्शी होकर चमकने लगता है; परंतु उनके गीतों में निराशा पर सदैव आशा की विजय होती है।
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;
मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!
पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ
आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को
एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ;
मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ!
पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!
त्यागी की करीब पंद्रह पुस्तकों में उनका रचना संसार निखर कर आया है। ऐतिहासिक तथ्यों से लैस कविता - 'मैं दिल्ली हूँ' अपने में ऐतिहासिक कविता का प्रतिमान है। उनकी कुछ कविताएँ उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गई हैं - उनमें लेख के आरंभ में दी गई कविता भी शामिल है। अपनी बहुचर्चित और लोकप्रिय कविता - 'एक भी आँसू न कर बेकार' में वह लिखते हैं,
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है
कर स्वयं हर गीत का शृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाए!
त्यागी के गीतों पर बालस्वरूप राही जी कहते हैं, "त्यागी की बदनसीबी यह है कि दर्द उसके साथ लगा रहा है, उसकी ख़ुशनसीबी यह है कि दर्द को गीत बनाने की कला में वह माहिर है। गीत को जितनी शिद्दत से उसने लिया है, वह स्वयं में एक मिसाल है।"
आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास त्यागी के गीतों की विस्तारपूर्वक चर्चा के बिना लिखा ही नहीं जा सकता। रामधारी सिंह दिनकर उनके गीतों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, "त्यागी के गीतों में यह प्रमाण मौजूद है कि हिंदी के नए गीत अपने साथ नई भाषा, नए मुहावरे, नई भंगिमा और नई विच्छिति ला रहे हैं। त्यागी के गीत मुझे बहुत पसंद आते हैं। उसके रोने, उसके हँसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहाँ तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है जो मन मोह लेती है।"
इन पंक्तियों में वह गर्व छलक पड़ता है,
मंदिर ने बस इसीलिए तो मेरी पूजा ठुकरा दी है,
मैंने सिंहासन के हाथों पुजने से इंकार कर दिया
जो भी दंड मिलेगा कम है, मैं उस मुरली का गुंजन हूँ
जिसने जग के आदेशों पर बजने से इंकार कर दिया
रामावतार त्यागी जी के संपादन में एक कविता संग्रह १९५३ में निकला -'राजधानी के कवि' जिसमें दिल्ली के ६१ कवियों की कविताएँ संगृहीत थीं। यह नई प्रतिभाओं को सामने लाने का सामूहिक, सांस्कृतिक प्रयत्न था। इसके संपादकीय में त्यागी ने लिखा - "कविता का प्रकाशन मूलतः एक सांस्कृतिक उत्थान का कार्य है, व्यापार बाद में।" किताब हिंदी के तमाम प्रवाहों को एक साथ प्रस्तुत करती अपने तरह की अनूठी पहल थी। साथ ही यहाँ वे आलोचक की दृष्टि के बारे में जो लिखते हैं, वह शायद उनके आंतरिक दुःख और रोष का ही विस्तार था, इसलिए यहाँ वह जस का तस प्रस्तुत है, "आज हिंदी-कविता का मूल्यांकन करने वाली दो कसौटियाँ हैं - एक आलोचक दृष्टि और दूसरी लोक-दृष्टि (लोक-रुचि नहीं)। आलोचकों की दृष्टि -क्षमता साहित्यिक पत्रों और आलोचना-पुस्तकों में देखने को मिलती है और लोक-दृष्टि की कवि-सम्मेलनों में। 'कवि-सम्मेलन की कविता' और 'छपी हुई कविता' में भेद करके आज की नई कविता का मूल्यांकन संभव नहीं है। यह कहना कि कवि सम्मेलन में घटिया कविताएँ ही जमती हैं और पत्रों तथा पुस्तकों में उत्कृष्ट कविताएँ छपती हैं, भ्रम है। किसी कवि को 'कवि -सम्मेलन का कवि' कह कर न तो उसकी उपेक्षा की जा सकती है, और न केवल छपी होने के कारण किसी कविता को उत्तम काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है…"
आलोचकों पर उनके कठोर वक्तव्य से साफ़ होता है कि न तो त्यागी को अपनी बात कहने में कभी संकोच हुआ, न कभी उन्होंने भद्रता के कोई मुखौटे ही पहने। जीवन की उदास शामों, कठिन चुनौतियों को प्रखर अभिव्यक्ति देने वाले रामावतार त्यागी अपने गहरे अवसाद पूर्ण गीतों में भी अभिव्यक्ति के ऐसे आयाम प्रस्तुत करते थे, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।
१२ अप्रैल १९८५ में मात्र साठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपनी आँखें सदा के लिए मूँद लीं। प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में उनके छोटे भाई एवं साहित्यकार राजेंद्र त्यागी एक साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं।
उस अप्रतिम और बदनाम गीतकार को उनकी ही पंक्ति से श्रद्धांजलि अर्पित,
"जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!"
रामावतार त्यागी : जीवन परिचय |
जन्म | १७ मार्च (या ८ जुलाई) १९२५ , कुरकावली ग्राम, संभल |
निधन | १२ अप्रैल १९८५ |
माता | भागीरथी |
पिता | उदल सिंह त्यागी |
कर्मभूमि | दिल्ली |
व्यवसाय | संपादक - मासिक 'समाज', त्रैमासिक 'प्रगति'। प्रधान उपसंपादक दैनिक 'नवभारत टाइम्स', दिल्ली। कवि, फ़िल्म गीतकार।
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शिक्षा एवं शोध |
उच्च शिक्षा | चंदौसी डिग्री कॉलेज से स्नातक एम० ए० - हिंदी, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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साहित्यिक रचनाएँ |
कविता संग्रह | नया ख़ून (१९५३ ) मैं दिल्ली हूँ (१९५९ ) - (बाल काव्य संग्रह) सपने महक उठे (१९६५) दिल्ली जो एक शहर था गुलाब और बबूल वन (१९७३ ) गाता हुआ दर्द (१९८२) लहू के चंद कतरे (१९८४) (ग़ज़ल संग्रह) आठवाँ स्वर गीत सप्तक-इक्कीस गीत गीत बोलते हैं (१९८६, मरणोपरांत प्रकाशित हुआ)
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अनुवाद | |
उपन्यास एवं कहानियाँ | |
पत्र साहित्य | |
पुरस्कार व सम्मान |
'मैं दिल्ली हूँ' बाल काव्य संग्रह, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा पुरस्कृत। 'आठवाँ स्वर' उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सम्मानित।
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संदर्भ
लेखक परिचय
शार्दुला नोगजा (जन्म मधुबनी, बिहार)
शार्दुला एक सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था 'कविताई-सिंगापुर' भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती है। शार्दुला 'हिंदी से प्यार है' की कोर टीम से 'साहित्यकार-तिथिवार' परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं।
shardula.nogaja@gmail.com
उम्दा आलेख!
ReplyDeleteशार्दुला जी को असीम शुभकामनाएं!!
शार्दुला जी आपने उनके काव्य और जीवन या कह लीजिए जीवन और काव्य के हर पहलु को छूते हुए पूरी रवानगी से लिखा है, बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteशार्दुला जी नमस्ते।
ReplyDeleteआपका यह लेख भी हर लेख की तरह बहुत उम्दा है। लोक साहित्यकार रामवतार त्यागी जी को पढ़ने में जिस प्रकार ऊर्जा मिलती है उसी प्रकार आपका यह लेख भी पाठक को ऊर्जावान बना देता है। पढ़ने में रोचकता बनी रही और बीच बीच में आती कविताओं की पंक्तियाँ भावविभोर करती रही। आपको इस उत्तम लेख के लिये हार्दिक बधाई।
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
ReplyDeleteकाम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
इन पंक्तियों को लिखने वाला कवि साधारण तो नहीं हो सकता। शाार्दुला जी, आपने बड़ी सुंदर प्रस्तुति से त्यागी जी के जीवन एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है। बधाई, शुभकामनाएँ। 💐💐
अपने विचारों, भावनाओ और संवेदनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है लेखन, जो रामावतार त्यागी जी के काव्य रचना के अभिकरण से सहजता और सुगमता के साथ पाठकों के दिल मे उतर जाती हैं। हिंदी पाठ्य पुस्तकों में आपकी काव्य रचना यह प्रमाणित करती हैं कि हिंदी भाषा के गीत नयी मुद्रा में रचित कर साहित्यसंसार में एक शीर्षक समाधान है। आज शार्दूला जी द्वारा लिखित आलेख आदरणीय त्यागी जी के रचनाओं की गहन अनुभूतियाँ से मुखरित कर रहा है। आपके लेख से गहन संवेदना,आस्था और विश्वास के गीतों का प्रमुख रूप से संक्षिप्त विवेचन पढ़ने मिल रहा है। इस सार्थक आलेख के लिए आपका आभार और हमेशा की तरह अति सुंदर, अप्रतिम लेख प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteरामवतार त्यागी जी पर आलेख पढ़कर दिल बाग़-बाग़ हो गया। उनके अद्भुत व्यक्तित्व और अतुलनीय कृतित्व का क्या समृद्ध खाका खींचा है शार्दुला आपने। मन समर्पित, तन समर्पित और अब यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ - आज मेरे जैसे कई अन्य लोगों को इन पंक्तियों के लेखक के बारे में मालूम चला। पाठक को बाँधकर रखने वाले सुगठित, रोचक और प्रवाहमय आलेख के लिए शार्दुला जी को बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसाहित्यकार तिथिवार के इस सहृदय और सरस परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏🏻🌸🌼 आप सब की आत्मीय टिप्पणियों से मेरा दिन बन गया! आप सब समय दे कर पढ़ते हैं, टिप्पणियाँ देते हैं, कई लोग लेख को अन्य लोगों को अग्रेषित भी करते हैं, जिससे दूर दराज़ से हमें संदेश मिलते हैं, यही हमारा ईंधन है, हमारी ऊर्जा बनाए रखता है।
ReplyDeleteत्यागी जी को जितना समझा यह जाना कि परिवार का कितना बड़ा योगदान होता है हमारी किस्मत बनाने या बिगाड़ने में वह इसके अग्रणी उदाहरण हैं। अभी हिमांशु जी के जीवन में देखा कि उनकी पत्नी के सहयोग से जीवन दुख के मरुस्थल में भी सुखमय रहा। दूसरी बात ज़ुबान की मिठास बहुत से संकट टाल देती है।
आज होली पर यही शुभकामना कि आप सब सपरिवार सुखी, और सजल रहें! 🙏🏻🌸🍀🌼🌹
शार्दूला जी बहुत शोधपरख और दिलचस्प लेख है आपका त्यागी जी पर। आपके परिश्रम और प्रतिभा को नमन। आपको
ReplyDeleteढेरों बधाइयाँ, इस तरह साहित्यकारों को सबसे जोड़ने का। प्रेरक हैं ये जीवन जो सर्जनात्मक को समर्पित हैं।
बेहतरीन प्रस्तुति शार्दुला
ReplyDeleteउन्हें कई बार सुनने का और एक बार दिल्ली में मिलने का सौभाग्य मुझे मिला है। बचपन से ही उनके गीतों को पढ़ कर सुनकर गेयता और शब्द सौंदर्य सीखा है .
इस आलेख के लिए साधुवाद
जीवन की व्यथाओं, निराशा, उसके प्रति असंतोष को गीतों में पिरोना और उसे स्वर प्रेम, करुणा और आत्मोत्थान का देना - अद्भुत कला में पारंगत थे रामावतार त्यागी जी।
ReplyDeleteशार्दुला, इस लेख के माध्यम से उन्हें बख़ूबी जानने-समझने का मौक़ा मिला। अब उनके गीतों का स्वर मन की अधिक गहराइयों तक पहुँचेगा। इस परिचय के लिए तहे दिल से शुक्रिया और बधाई।