कहने वाला यह शायर, शायद यही सोचकर महज़ ४४ साल की उम्र में चला गया| क्या जाते हुए अपनी पत्नी से यह कहकर रुख़सत हुआ होगा, कि तुम्हें मेरी भी उमर लग जाए!
असमय गुज़र जाने वाले दुष्यंत कुमार लिख गए हैं,
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे।
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे,
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे।
दुष्यंत कुमार को याद करने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत हो ही नहीं सकती| वे तो बहाने, बिना-बहाने याद किए जाने वाले ग़ज़लकार हैं। कभी उनके शेरों से राजनीतिक गलियारों में भी हड़कंप मच जाया करता था।
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।
उनका यह जुमला हर राजनीतिक खेमे में खूब उछला। चुटीले फ़िल्मी संवाद तो लोगों को देर तक याद रहते हैं, लेकिन दुष्यंत कुमार की हर ग़ज़ल, हर ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में इंकलाब लाने वाला है। हालाँकि, वे केवल नारे नहीं हैं, ख़ुद दुष्यंत कुमार ही तो कहते हैं, "सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। ग़ज़ल में हर शेर दूसरे से अलग होता है, लेकिन उनकी ग़ज़लें ऐसा लगता है, एक ही मनःस्थिति में लिखी गई हैं।" ग़ज़ल का न तो शीर्षक होता है, न भूमिका। तब भी वे ‘साये में धूप’ की भूमिका में एक तरह की स्वीकारोक्ति करते हुए लिखते हैं- 'मैं उर्दू नहीं जानता, शहर को नगर लिखा जा सकता था, लेकिन मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है; जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं।' वे इसलिए बड़े आराम से कह पाते हैं,
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।
उन्होंने उर्दू शब्दावली के साथ खड़ी बोली का प्रयोग किया है। मैं और तू की शैली है। अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि-
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
ऐसा लगता है, जैसे उस समय के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य की गहरी चोट दुष्यंत कुमार को अंगार बना देती है। वे कहते हैं-
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
वे व्यंग्य कसते हैं,
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
पहले शे’र में चिराग शब्द बहुवचन में आता है, फिर दूसरी बार एक वचन में। अर्थ और काव्य की दृष्टि से यह कितना अद्भुत प्रयोग है-
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ के असर के लिए।
यहाँ पत्थर पिघल में अनुप्रास अलंकार दिखता है।
उनकी आवाज़ का असर ऐसा रहा है कि उनके इस संग्रह ने उन्हें देश-विदेश के साहित्य-प्रेमियों के दिलों तक पहुँचा दिया। इस संग्रह का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन के सहयोगी राधाकृष्ण प्रकाशन ने १९७५ में किया था। ऐसा नहीं है, कि उन्होंने केवल इतना ही लिखा। ‘एक कंठ विषपायी’ शीर्षक से लिखा उनका गीति-नाट्य हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण और प्रशंसित कृति है। उन्होंने नाटक, काव्य-गीति नाटक भी लिखे; लेकिन जैसा कि पहले कहा, वे सबसे अधिक अपने इस संग्रह (साये में धूप) की वजह से ही जाने गये। इस संग्रह से एक शेर पेश है-
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
अपने जीवनकाल के अंतिम वर्ष उन्होंने जहाँ गुज़ारे, उस भोपाल (मध्यप्रदेश) में उनके नाम की एक सड़क बन गई है; लेकिन उनके नाम का सभागृह अब नहीं रहा। जैसे उनकी जन्मस्थली राजपुर नवादा गाँव, बिजनौर (उत्तरप्रदेश) की वह हवेली; जहाँ उनकी याद में संग्रहालय स्थापित होना चाहिए था, खंडहर बनती जा रही है। उनकी कई अनमोल रचनाएँ, साहित्यिक दस्तावेज़, पुरातन धरोहरों-पुस्तकों-रजिस्टरों को दीमक चाट गई, तीन संदूक गल चुके और ग्रामोफ़ोन भी टूटा-फूटा पड़ा है। भारत सरकार ने २००९ में उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया। हालाँकि इतने बड़े साहित्यकार की जन्म तिथि को लेकर भी हमेशा ऊहा-पोह की स्थिति रहती है। दुष्यंत कुमार की किताबों में उनके जन्म की तारीख १ सितंबर १९३३ लिखी है। लेकिन दुष्यंत साहित्य पर अधिकार से बात कहने वाले विजय बहादुर सिंह बताते हैं, कि उनकी जन्मतिथि २७ सितम्बर १९३१ है। जहाँ तक दुष्यंत कुमार के साहित्यिक-जीवन की बाते करें, तो वह इलाहबाद (अब प्रयागराज) की संस्था ‘परिमल’ की साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है। उन्होंने वहाँ ‘नए पत्ते’ जैसे महत्वपूर्ण पत्र के लिए लिखना भी शुरू किया था। वे आकाशवाणी से जुड़े और उसके बाद मध्यप्रदेश के राजभाषा विभाग में काम किया।
उनके युवा-मन से आता है-
कल माँ ने यह कहा
कि उसकी शादी तय हो गयी कहीं पर
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किंतु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हो मुझको
मेरा कमरा औ’ मेरा घर।
ग़ज़ल में भी ये स्वर हैं, कि ‘तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ’ या ‘तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया’ या ‘तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा’ या ‘फिर कर लेने दो प्यार प्रिये’; लेकिन वे जाने जाते हैं, अपने आक्रोश के स्वरों के कारण ही। उनके आक्रोश में पीड़ा है-
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
और उम्मीद भी-
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिये में तेल-सी भीगी हुई बाती तो है।
उससे भी कहीं अधिक आशा यहाँ दिखती है-
कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
केवल ५२ ग़ज़लों का संग्रह है, ‘साये में धूप’, लेकिन यह एक कैलाइडोस्कोप है; जिसे जितनी बार देखो, उतनी बार उतने अलग कोण उसमें से नज़र आते हैं। दुष्यंत कुमार को पढ़ना खुद को समृद्ध करना हो जाता है| उनके शब्द हैं-
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
उम्मीद है, कि उनका लिखा पढ़ने से मेरा हिंदुस्तान भी समृद्धि की राह पकड़ेगा; समृद्धि केवल आर्थिक ही तो नहीं होती न!