आठ साल की उम्र में पास-पड़ोस की किसी बारात को देख बालिका ने सहज पूछ लिया ‘मेरा दूल्हा कौन?’ और माँ ने उतनी ही सहजता से कान्हा की मूर्ति की ओर इशारा कर कह दिया, ‘ये है तेरा दूल्हा’। जब तेरह साल की आयु में विवाह की बात आई तो फूट-फूटकर रोने लगी, काफ़ी समझाने-बुझाने के बाद मानी और इस वादे पर राज़ी हुई कि अपने साथ कान्हा की मूरत भी ससुराल ले जा सकती है। यह कथा सभी को पता है। यह विलक्षण कथा है, छोटी मीरा की, जो मीराबाई हुई और फिर संत मीरा हो गई। क्या आठ साल की आयु इतनी परिपक्व हो सकती है, कि किसी को पति मान लिया जाए और न केवल पति मान लिया जाए, बल्कि उससे ऐसी पक्की गाँठ बाँध ली जाए, कि किसी के छुड़ाए न छूटे; तेरह वर्ष की आयु में किसी और से शादी होने पर बड़ी निर्भयता से यह कहने की हिम्मत रख सके, कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई, जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई’?
इतना परिपक्व और निडर प्रेम इतनी छोटी उम्र में कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भी मीरा ने स्वयं ही दिया है। वे कहती हैं, कि पूर्व जन्म में वह कृष्ण की गोपी ललिता थी। कृष्ण के साथ जिस तरह राधा का नाम लिया जाता है, वैसे ललिता का भले ही न लिया जाता हो, लेकिन मीरा का निश्चित ही लिया जाता है। चित्तौड़गढ़ के किले में एक मंदिर भी है, जिसमें कृष्ण संग राधा नहीं, बल्कि मीरा है। कहते हैं, वे इसी मंदिर में रहती थीं। राजमहल के सारे भोग-विलास छोड़ मंदिर में रहना, ‘लोकलाज तजि नाची’ कहना और कहना कि ‘सोना जैसी पीली पड़ गई, लोग बताए म्हने रोग, रोग-वोग म्हने कछु नहीं है, संत मिलन को जोग’, क्या इतना ही सरल रहा होगा, जितना अभी यह लिख पाना है।
मीराबाई अपने समय की क्रांतिकारी हैं। वे कृष्ण को अपना पति मानती हैं, लेकिन दुनिया तो उदयपुर के महाराज भोजराज को उनके पति के रूप में जानती है। मीरा का विश्वास कहता है, कि कृष्ण हमेशा उनके साथ होते हैं, साथ उठते-बैठते हैं, चलते-फिरते हैं; अब भला कौन विश्वास करेगा उनकी इस बात पर? लोग जो उनके बारे में कहा करते थे, उसको वे खुद कुछ ऐसे बयान करती हैं - ‘दीवानी कहलाने लगी, ऐसी लागी लगन’। पति एक दिन खुद अपने आपको नीले रंग में रंगकर और कृष्ण सा रूप धारण कर सामने आते हैं, कि अब तो मीरा उनकी ओर आकृष्ट होगी। लेकिन मीरा सुध-बुध खोकर भी कृष्ण के सच्चे रूप को पहचानती थीं, वह किसी दूसरे को कृष्ण रूप में नहीं स्वीकारती हैं।
वे संत रैदास को अपना गुरू मानते हुए कहती हैं, कि ‘नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ; मीरा ने गोबिंद मिल्याजी, गुरू मिलिया रैदास’। मीरा को न तो पीहर से मतलब है, न ससुराल से, न पिया से, मीरा को केवल गोविंद चाहिए।
इतिहास के पन्ने इन कहानियों से परिपूर्ण हैं, कि कैसे देवर राणा विक्रमजीत ने मीरा को प्रसाद में विष देकर मारना चाहा था और मीरा उस विष को पी भी गई थीं। सब इस प्रतीक्षा में रहे, कि मीरा को अब कुछ तो होगा, लेकिन मीरा भली-चँगी रहीं। पति की मृत्यु के बाद भी मीरा ने शृंगार करना जारी रखा, तो ननद उदाबाई ने उनके शृंगारदान में साँप रखवा दिए। लेकिन कहते हैं, कि वे साँप पुष्पों के हार बन गए थे। वैसे भी मीराबाई लिखती हैं –‘मोती मूँगे उतार, बनमाल पोई’।
पति की मृत्यु पर उस काल की रीत के अनुसार मीरा को सती किया जाना था, लेकिन मीरा सती होने से इनकार कर देती हैं, वे कहती हैं -‘ऐसे वर का क्या करूँ, जो जीवे-मर जाए’, और आगे लिखती हैं, कि यदि कृष्ण को वर चुन लिया है तो ‘चूड़ियाँ अमर हो जाएँगी’। जब मीरा को मारने की कोशिशें हद से ज़्यादा बढ़ गईं, तब मीरा ने तुलसीदास को एक पत्र लिखकर उनसे उनकी राय माँगी। तुलसीदास ने जवाब में लिखा, कि ‘उन्हें त्याग दो, जो तुम्हें समझ नहीं सकते हैं। भगवान के प्रति प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है; दूसरे रिश्ते झूठे और वक़्ती होते हैं।’
अपने आराध्य का साथ पाने की चाह जिसके मन में हो उसे शेष हर मोह से विरक्त होना ही पड़ता है। कुछ विरक्ति ख़ुद बख़ुद हो जाती है, कुछ काल करवा देता है। बाल्यावस्था में ही माँ का देहांत हो गया था। विवाह के कुछ साल बाद ही पति, फिर पिता और एक युद्ध में श्वसुर का भी देहांत हो गया।
कहते हैं, कि मीरा के जीवन में बड़ा परिवर्तन तब आया, जब तत्कालीन बादशाह और उनका वज़ीर वेश बदलकर मीरा के गीत सुनने चित्तौड़गढ़ के मंदिर आ पहुँचे। उन्होंने मीरा के चरण स्पर्श किए और क़ीमती जवाहरात की माला कृष्ण की मूर्ति के आगे रख दी। जैसे ही राणा को ये सूचना मिली, वह बेहद क्रोधित हुए और उन्होंने ग़ुस्से में मीरा से कहा, कि ‘जाकर डूब मरो और जीवन में कभी भी अपना चेहरा मत दिखाना।’ कहते हैं मीरा तो डूबने के लिए निकल भी गई थीं, लेकिन पीछे से कृष्ण ने उनका हाथ थाम उन्हें बचा लिया और उनसे कहा कि वे वृंदावन में जाकर रहें। फिर क्या था, वृंदावन में वे पूरी तरह कृष्ण की भक्ति में रम गईं। तब जीव गोसाँई वृंदावन में वैष्णव संप्रदाय के मुखिया थे। मीरा जीव गोसाँई के दर्शन करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने मीरा से मिलने से मना कर दिया। उन्होंने मीरा को संदेश भिजवाया, कि वे किसी औरत को अपने सामने आने की इजाज़त नहीं देंगे। मीराबाई ने इसके जवाब में अपना संदेश भिजवाया - ‘वृंदावन में हर कोई औरत है, अगर कोई पुरुष है तो केवल गिरधर गोपाल, लेकिन आज मुझे पता चला कि वृंदावन में कृष्ण के अलावा कोई और पुरुष भी है।’ इस जवाब से गोसाँई शर्मिंदा हो गए और स्वयं मीरा से मिलने आए।
बाबर का हमला मीराबाई के जीवनकाल के दौरान हुआ। उनका दौर एक ओर से राजनैतिक उथल-पुथल का था और दूसरी ओर भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। मीरा के पदों में रहस्यवाद और निर्गुण-सगुण भक्ति दिखती है। मीरा की उपलब्ध सात-आठ कृतियों में वैष्णव भक्ति का माधुर्य दिखता है। जैसे स्वभाव से वे किसी बंधन में नहीं बंधी थीं, वैसे ही उनके पद भी भाषाओं के बंधन से मुक्त हैं। मीरा के पदों की भाषा में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण है। हिंदी, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फ़ारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथिली, पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी का प्रयोग भी दिखता है। (संदर्भ मीरा ग्रंथावली भाग दो) मीराबाई के पदों में शृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से दिखता है। इन पदों में अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग दिखता है, लेकिन कहीं भी वो सायास किया गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
इतना परिपक्व और निडर प्रेम इतनी छोटी उम्र में कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भी मीरा ने स्वयं ही दिया है। वे कहती हैं, कि पूर्व जन्म में वह कृष्ण की गोपी ललिता थी। कृष्ण के साथ जिस तरह राधा का नाम लिया जाता है, वैसे ललिता का भले ही न लिया जाता हो, लेकिन मीरा का निश्चित ही लिया जाता है। चित्तौड़गढ़ के किले में एक मंदिर भी है, जिसमें कृष्ण संग राधा नहीं, बल्कि मीरा है। कहते हैं, वे इसी मंदिर में रहती थीं। राजमहल के सारे भोग-विलास छोड़ मंदिर में रहना, ‘लोकलाज तजि नाची’ कहना और कहना कि ‘सोना जैसी पीली पड़ गई, लोग बताए म्हने रोग, रोग-वोग म्हने कछु नहीं है, संत मिलन को जोग’, क्या इतना ही सरल रहा होगा, जितना अभी यह लिख पाना है।
मीराबाई अपने समय की क्रांतिकारी हैं। वे कृष्ण को अपना पति मानती हैं, लेकिन दुनिया तो उदयपुर के महाराज भोजराज को उनके पति के रूप में जानती है। मीरा का विश्वास कहता है, कि कृष्ण हमेशा उनके साथ होते हैं, साथ उठते-बैठते हैं, चलते-फिरते हैं; अब भला कौन विश्वास करेगा उनकी इस बात पर? लोग जो उनके बारे में कहा करते थे, उसको वे खुद कुछ ऐसे बयान करती हैं - ‘दीवानी कहलाने लगी, ऐसी लागी लगन’। पति एक दिन खुद अपने आपको नीले रंग में रंगकर और कृष्ण सा रूप धारण कर सामने आते हैं, कि अब तो मीरा उनकी ओर आकृष्ट होगी। लेकिन मीरा सुध-बुध खोकर भी कृष्ण के सच्चे रूप को पहचानती थीं, वह किसी दूसरे को कृष्ण रूप में नहीं स्वीकारती हैं।
वे संत रैदास को अपना गुरू मानते हुए कहती हैं, कि ‘नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ; मीरा ने गोबिंद मिल्याजी, गुरू मिलिया रैदास’। मीरा को न तो पीहर से मतलब है, न ससुराल से, न पिया से, मीरा को केवल गोविंद चाहिए।
इतिहास के पन्ने इन कहानियों से परिपूर्ण हैं, कि कैसे देवर राणा विक्रमजीत ने मीरा को प्रसाद में विष देकर मारना चाहा था और मीरा उस विष को पी भी गई थीं। सब इस प्रतीक्षा में रहे, कि मीरा को अब कुछ तो होगा, लेकिन मीरा भली-चँगी रहीं। पति की मृत्यु के बाद भी मीरा ने शृंगार करना जारी रखा, तो ननद उदाबाई ने उनके शृंगारदान में साँप रखवा दिए। लेकिन कहते हैं, कि वे साँप पुष्पों के हार बन गए थे। वैसे भी मीराबाई लिखती हैं –‘मोती मूँगे उतार, बनमाल पोई’।
पति की मृत्यु पर उस काल की रीत के अनुसार मीरा को सती किया जाना था, लेकिन मीरा सती होने से इनकार कर देती हैं, वे कहती हैं -‘ऐसे वर का क्या करूँ, जो जीवे-मर जाए’, और आगे लिखती हैं, कि यदि कृष्ण को वर चुन लिया है तो ‘चूड़ियाँ अमर हो जाएँगी’। जब मीरा को मारने की कोशिशें हद से ज़्यादा बढ़ गईं, तब मीरा ने तुलसीदास को एक पत्र लिखकर उनसे उनकी राय माँगी। तुलसीदास ने जवाब में लिखा, कि ‘उन्हें त्याग दो, जो तुम्हें समझ नहीं सकते हैं। भगवान के प्रति प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है; दूसरे रिश्ते झूठे और वक़्ती होते हैं।’
अपने आराध्य का साथ पाने की चाह जिसके मन में हो उसे शेष हर मोह से विरक्त होना ही पड़ता है। कुछ विरक्ति ख़ुद बख़ुद हो जाती है, कुछ काल करवा देता है। बाल्यावस्था में ही माँ का देहांत हो गया था। विवाह के कुछ साल बाद ही पति, फिर पिता और एक युद्ध में श्वसुर का भी देहांत हो गया।
कहते हैं, कि मीरा के जीवन में बड़ा परिवर्तन तब आया, जब तत्कालीन बादशाह और उनका वज़ीर वेश बदलकर मीरा के गीत सुनने चित्तौड़गढ़ के मंदिर आ पहुँचे। उन्होंने मीरा के चरण स्पर्श किए और क़ीमती जवाहरात की माला कृष्ण की मूर्ति के आगे रख दी। जैसे ही राणा को ये सूचना मिली, वह बेहद क्रोधित हुए और उन्होंने ग़ुस्से में मीरा से कहा, कि ‘जाकर डूब मरो और जीवन में कभी भी अपना चेहरा मत दिखाना।’ कहते हैं मीरा तो डूबने के लिए निकल भी गई थीं, लेकिन पीछे से कृष्ण ने उनका हाथ थाम उन्हें बचा लिया और उनसे कहा कि वे वृंदावन में जाकर रहें। फिर क्या था, वृंदावन में वे पूरी तरह कृष्ण की भक्ति में रम गईं। तब जीव गोसाँई वृंदावन में वैष्णव संप्रदाय के मुखिया थे। मीरा जीव गोसाँई के दर्शन करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने मीरा से मिलने से मना कर दिया। उन्होंने मीरा को संदेश भिजवाया, कि वे किसी औरत को अपने सामने आने की इजाज़त नहीं देंगे। मीराबाई ने इसके जवाब में अपना संदेश भिजवाया - ‘वृंदावन में हर कोई औरत है, अगर कोई पुरुष है तो केवल गिरधर गोपाल, लेकिन आज मुझे पता चला कि वृंदावन में कृष्ण के अलावा कोई और पुरुष भी है।’ इस जवाब से गोसाँई शर्मिंदा हो गए और स्वयं मीरा से मिलने आए।
बाबर का हमला मीराबाई के जीवनकाल के दौरान हुआ। उनका दौर एक ओर से राजनैतिक उथल-पुथल का था और दूसरी ओर भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। मीरा के पदों में रहस्यवाद और निर्गुण-सगुण भक्ति दिखती है। मीरा की उपलब्ध सात-आठ कृतियों में वैष्णव भक्ति का माधुर्य दिखता है। जैसे स्वभाव से वे किसी बंधन में नहीं बंधी थीं, वैसे ही उनके पद भी भाषाओं के बंधन से मुक्त हैं। मीरा के पदों की भाषा में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण है। हिंदी, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फ़ारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथिली, पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी का प्रयोग भी दिखता है। (संदर्भ मीरा ग्रंथावली भाग दो) मीराबाई के पदों में शृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से दिखता है। इन पदों में अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग दिखता है, लेकिन कहीं भी वो सायास किया गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
मीराबाई के ‘जीवन प्राण आधार’ प्रभु हैं, वे कोई परीक्षक नहीं हैं। मीरा को किसी से प्रशंसा नहीं सुननी है, किसी को अपने पद दिखाकर कोई तमग़ा नहीं लेना है। मीरा के पद जैसे ‘दासी जनम-जनम की’, श्रीकृष्ण से अरज करते लिखे गए पद हैं, जिसमें ‘प्रभु किरपा कीजौ’ कहा जा रहा है। जिससे कृपा माँगी जाती है, जब उसके लिए कुछ लिखा जाता है, वह पूरे दिल से आता है। तब भाव प्रधान हो जाता है और भाषा गौण हो जाती है। ‘साँवरा म्हारी प्रीत निभाज्यो जी...’ एक ही बात है, अलग-अलग तरीके से कि ‘मेरो मन राम हि राम रटै...’ इन मुक्तक गेय पदों को उत्तर भारत, गुजरात, बिहार और बंगाल तक में गाया जाता है, क्योंकि उनमें एक अनोखी संगीतात्मकता है।
हृदय की पीड़ा, विरह की अग्नि और कृष्ण मिलन की आस से ओतप्रोत मीरा का हर पद हरि की भक्ति में आकंठ डुबो देता है। ‘पग घुँघरू बाँध मीरा’ नाचती है और हर बार यही पूछती है ‘प्रभु कब रे मिलोगे!’ कहते हैं, कि प्रभु से मिलन की आस में अपने मृत्यु वर्ष की जन्माष्टमी पर मीरा पूछ बैठती है, कि ‘क्या आप मुझे बुला रहे हैं?’ उनकी मृत्यु के संदर्भ में कई कहानियाँ मिलती हैं। अनुमानित है, कि लगभग १५४६ ईस्वी में अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में मीराजी द्वारकापुरी पहुँची। संत मंथन सारानुसार एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में बहुत तेज़ आँधी-तूफ़ान के चलते मीराजी की कुटिया में दीए से आग लग गई, कृष्ण प्रेम और ध्यान में मग्न मीरा को उसके बाद किसी ने नहीं देखा। मीराजी सशरीर ही श्रीकृष्ण के विग्रह में समा गईं।
हृदय की पीड़ा, विरह की अग्नि और कृष्ण मिलन की आस से ओतप्रोत मीरा का हर पद हरि की भक्ति में आकंठ डुबो देता है। ‘पग घुँघरू बाँध मीरा’ नाचती है और हर बार यही पूछती है ‘प्रभु कब रे मिलोगे!’ कहते हैं, कि प्रभु से मिलन की आस में अपने मृत्यु वर्ष की जन्माष्टमी पर मीरा पूछ बैठती है, कि ‘क्या आप मुझे बुला रहे हैं?’ उनकी मृत्यु के संदर्भ में कई कहानियाँ मिलती हैं। अनुमानित है, कि लगभग १५४६ ईस्वी में अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में मीराजी द्वारकापुरी पहुँची। संत मंथन सारानुसार एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में बहुत तेज़ आँधी-तूफ़ान के चलते मीराजी की कुटिया में दीए से आग लग गई, कृष्ण प्रेम और ध्यान में मग्न मीरा को उसके बाद किसी ने नहीं देखा। मीराजी सशरीर ही श्रीकृष्ण के विग्रह में समा गईं।
लेखक परिचय
स्वरांगी साने कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ-लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ आदि क्षेत्रों में सक्रिय हैं। इनका काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” २००२ में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित हुआ और “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान से वर्ष २०१९ में प्रकाशित हुआ।
बचपन में जब समझ नही थी तब भी मीरा का चरित्र परिवार की उस सदस्या की तरह प्रभावित करता था ,जो अपने मन की आवाज सुनना जानती थी,स्त्री मन का यह साहस प्रभावित करने वाला है,और प्रेम की निश्छलता अनुकरणीय..
ReplyDeleteसुंदर आलेख के लिए धन्यवाद स्वरांगी जी,यह संग्रहीय है ।
बहुत बहुत आभार आपका, आपकी टिप्पणी से लिखने का उत्साह बढ़ा है
Deleteमीराबाई के व्यक्तित्व का व्यापक परिचय देता हुआ आलेख, हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका
Deleteमीराबाई एक अनन्य कृष्ण भक्त और एक महान रचनाकार थी।उनकी कविता में सादगी व सरलता है। कविता में प्रेम की गंभीर अभिव्यंजना है, जिसमें विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। इस महान संत रचनाकार पर स्वरांगी जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा है। इस लेख के लिए स्वरांगी जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteआदरणीय दीपक जी, अदनी सी कोशिश की है, आपको पसंद आई, बहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteबचपन से मीराबाई की कृष्ण को लेकर उनकी भक्ति और प्रेम की कहानियां सुनते और पढ़ते आ रहें हैं। परंतु आज के इस लेख ने प्रत्यक्ष रूप से मीराबाई की भक्ति और प्रेम का साक्षात्कार कराया हैं। *'ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन'* (कृष्ण के प्यार में) इस भजन से ज्यादा यह लेख पढ़ने के बाद एक सुखद अनुभव हो रहा हैं। काफी कड़ी मेहनत, शोध और बारीकियों को ध्यान में रखकर एक एक शब्द से इसे गढ़ा गया हैं। अप्रतिम लेखन और सुंदर आलेख। स्वरांगी जी आपकी लेखनी कमाल की हैं। आपके प्रयासों को और आपको हार्दिक बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।💐👌👏👏
ReplyDeleteदार ए सलाम, तंज़ानिया से🙏🙏
बहुत बहुत धन्यवाद सूर्यकांत जी, आपको पसंद आया बहुत आभारी हूँ
Deleteसुंदर लेख है, स्वरांगी जी । मेरी आयु आठ - नौ वर्ष की रही होगी जब उदयपुर के हमारे घर के बरामदे में आटा माँगने वाली माई आया करती थी । वह बरामदे में खम्भे से टेक लगाकर बैठ जाती , झोले में से मजीरे निकालती और गाना शुरू करती : “छोटी सी मीराबाई प्रभु का भजन करवा चाली रे ! नन्ही सी मीराबाई हरि का भजन करवा चाली रे !” माँ मुझे कटोरी में आटा डाल कर कहतीं कि माई के झोले में ठीक से डालना , आटा गिरना नहीं चाहिए । मैं झोले में आटा डालता तो माई गाना बंद कर देती और उठने का उपक्रम करती । मैं कहता : बंद क्यों कर दिया । और गाओ ना । वह मुस्कुराती और पूरा भजन सुनाती । उसके जाने के बाद बाल जिज्ञासा माँ से पूछती : यह मीराबाई कौन है ? वह मुस्कुरा कर कहतीं : भक्तिन है भगवान की । जैसे तू ध्रुव की , प्रह्लाद की , कबीर की , रैदास की कथा सुनता है ना , वैसे ही । जैसे जैसे बड़ा होता गया , यह समझ में आता गया कि मीरा को समझने का अर्थ है देह से परे प्रेम को समझना । प्रेम और भक्ति के उस अतिरेक पर पहुँचना जहाँ देह का होना , ना होना , या किसी भी रूप में होना कोई मायने नहीं रखता । मीरा के जीवन ने देहातीत प्रेम को समझना हम सबके लिए सरल बना दिया । मेवाड़ में किसी को सांसारिक मोह से ,भावुकता से बचाना होता है , यह कहना होता है कि स्थित- प्राज्ञ बनो तो उसे पहले उपनिषद का सार नहीं पढ़ाते , उसे गीता का गहरा ज्ञान नहीं बताते , उसे बड़ी सहजता से मीरा के भजन सुनाते हैं और उसे बात समझ में आ जाती है :
ReplyDeleteकरना फ़क़ीरी , फिर क्या दिलगीरी , सदा मगनमय रहना जी ! कोई दिन हाथी , कोई दिन घोड़ा , कोई दिन पैदल चलना जी । 🙏
हरप्रीत जी आपकी प्रतिक्रिया जैसे इस आलेख को ही आगे बढ़ा रही है, आपका मनन-अवलोकन स्तुत्य है। बहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteप्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा होने पर दोनों एक ही हो जाते हैं, मीरा ने अपने जीवन से इसे पूर्णतः सिद्ध कर दिया। जीवंत भाषा और धाराप्रवाह शैली में कहानीनुमा लिखा अत्युत्तम लेख। स्वरांगी जी ने आलेख पूरी तन्मयता और प्यार से लिखा है, उनको बेहतरीन लेखन की बहुत बहुत बधाई और हार्दिक आभार।
ReplyDeleteप्रगति जी आपका स्नेह अगाध अबाध बना रहे, स्नेह ही तो जीवन की कुंजी है। बहुत बहुत धन्यवाद आपका
ReplyDeleteमीरा का प्रेम मानव समझ से परे है| या प्रेम शायद ऐसा ही होता है--- समझ से परे| तर्क के साथ प्रेम नहीं किया जा सकता, प्रेम सिर्फ प्रेम से ही कर सकते हैं| सर्वस्व न्योछावर करके प्रेम करना आज के युग में असम्भव सा लगता है| किन्तु मीरा की कहानी जबतक संसार में व्याप्त है, एक आस ज़रूर है कि पुनः ऐसा प्रेम देखने को मिल जाये| इस सुन्दर लेख के लिए स्वरांगी, आपको बहुत-बहुत बधाई|
ReplyDeleteऋचा जी,
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर आलेख की रचना की हैं आपने। एक एक दोहे की प्रस्तुतिकरण बड़े ही सुरुचिपूर्ण और सृजात्मक तरीके से किया गया हैं। पाठशाला में कई बार रहीम के दोहे पढ़े गए और परीक्षाओ में उनके ऊपर विस्तृत उत्तर भी लिखे गए परंतु आज आपके लेख ने उन सारे दोहों के वास्तिवकता से परिचय कराया हैं। आपकी कलम बहुत खूबसूरत लिखाई करती हैं। बहुत बहुत बधाई आपको और कलम चलती रहे कभी रुकने मत दीजियेगा 👍👏👏🙏💐💐
दार ए सलाम, तंज़ानिया🙏🙏
स्वारांगी जी, मीरा के कृष्ण प्रेम को कितनी सादगी और सुगमता से आपने शब्दों में पिरोया है।
ReplyDeleteजितना माधुर्य मीरा के पदों में है, उतनी ही लोच आपके शब्दों में।
बहुत सुंदर।
मीरा बाई को पढना फिर समझना भक्ति की पराकाष्ठा है. ज़ब ज़ब भक्ति ज्ञान और वैराग की तुलनात्मक बात होती है तो भक्ति मार्ग से प्रभु को पाने मे मीरा वाई का स्थान पहला होता है, नरसी, मीरा, तुलसी इत्यादि भक्ति कालीन अद्वितीय भक्त रहे हैँ. मीरा के बारे मे जितना लिखा जाय उतना कम. मेरा एक खंड काव्य लेखनधिन है अतःबविषय शोध के लिए सामग्री इक्कठा की कई जानकारियां मिल रहींहैँ. स्वरंगी ससाने जी ने मीरा के सभी आयामों को छुए हैँ और कुशलता से सागज़ और सरल शब्दों मे हमें परिचित कराया. मीरा की पद रचना मे साहित्य की संपूर्णता झलकती है. स्वराँगी जी साधुवाद.
ReplyDeleteमीरा का चरित्र इतना समा गया था कि बचपन में कि मैं भी भजन गाना और लिखना शुरू कर दिया था।मेरी धाय माँ ने मेरा अध्यात्मिक रुझान देख कर मीरा ही घर का नाम रख दिया था। मीरा का इतना सूक्ष्म परिचय आपके आलेख ने इतना जीवंत किया कि रोमांचित कर दिया। बहुत बहुत आभार इस आलेख के लिए।
ReplyDeletesukh
हार्दिक बधाई, स्वरांगी जी, संत मीरा बाई की जानकारी बहुत आसान,सहज भाषा में प्रस्तुत की है। नीरजा जी ने स्वर देकर लेख अधिक रोचक बना दिया है। 👌💐
Deleteबहुत ही सुंदर वर्णन
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