१९७० के दशक के अंतिम चरण में, जब मैं पहली या दूसरी कक्षा में रही होऊँगी, घर पर छोटी बुआ मोहल्ले के कुछ बच्चों को पढ़ाती थीं। उनकी पाठ्य पुस्तकों के कुछ गीत बड़े मधुर थे। वे बोलकर याद करते और आसपास खेलते हुए मुझे अनायास याद हो जाते। उनमें से एक जो अब तक मेरी स्मृतियों में गूँजता है -----
वीर तुम बढ़े चलो धीर तुम बढ़े चलो,
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो --------’
बड़े होकर पता चला कि उन पंक्तियों को लिखने वाले श्रेष्ठ कवि थे "द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी"। उनका लिखा एक अन्य कालजयी गीत जिसे खेल-खेल में गाते हुए हर बच्चा बड़ा हुआ है -----
वस्तुतः वह समय ऐसा था, कि हर बच्चे की जिह्वा पर ये गीत रहते थे। उस काल-खंड में ऐसे अनेक गीतों के मुखड़े जन जागरण और सांप्रदायिक सद्भाव के विज्ञापन के रूप में प्रसारित किए गए और सराहे गए। बालगीत 'हम सब सुमन एक उपवन के’ की पहली पंक्ति को तो एक समय उत्तर प्रदेश सरकार ने कौमी एकता का बोध जगाने वाली विज्ञापन पंक्ति के रूप में प्रयोग किया।
उनके कितने ही गीत ऐसे हैं, जिन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों ने बचपन में पढ़ा और गुनगुनाया है।
जैसे ------
श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी - एक ऐसे साहित्यकार, जिन्होंने कालजयी साहित्य की रचना तो की ही, अनुपम बाल साहित्य का सृजन भी किया। बाल साहित्य का सृजन वही साहित्यकार कर सकता है, जो अपनी विद्वत्ता,अनुभव की गहनता और लेखन की दक्षता को बालमन की सहजता और सरलता में डुबो दे। इसके लिए स्वयं बच्चों जैसा मन और मस्तिष्क बनाना होता है। श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी में यह सभी गुण विद्यमान थे।
१ दिसम्बर, १९१६ को आगरा (उ.प्र.) के रोहता गाँव में जन्मे श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी थे। उनकी शिक्षा आगरा में हुई। बच्चों के लिए लिखे जाने वाले गद्य और पद्य साहित्य में कठिन शब्दों और भावों को देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती थी। उनका मानना था, कि कठिन शब्दावली के कारण बच्चे उन गीतों को याद नहीं कर पाते। उनका मत था कि यदि बच्चों को अच्छे और सरल भावपूर्ण गीत दिए जाएँ, तो वे अवांछनीय फिल्मी गीत नहीं गाऐंगे। अतः उन्होंने स्वयं ही इस क्षेत्र में उतरकर श्रेष्ठ साहित्य के सृजन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। शिक्षा परिषद व शिक्षा विभाग से जुड़े होने के नाते उन्होंने यह बीड़ा उठाया कि ४ से १४ साल के बच्चों के लिए ऐसे गीत लिखे जाएँ, जो उनमें संस्कार पैदा करें| साथ ही वे छंद व कथ्य की दृष्टि से उत्तम हों। उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ कवियों की रचनाएँ पाठ्यक्रम में रखवाईं, ताकि बच्चों का मानसिक स्तर उन्नत हो।
उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का बड़ा चाव था। पढ़ने के लिए वह इंग्लैण्ड भी गये, पर आजीविका के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा क्षेत्र को चुना। अनेक महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए वह शिक्षा निदेशक और निदेशक (साक्षरता निकेतन) जैसे पदों पर पहुँचे। वह उत्तर प्रदेश सरकार में शिक्षा सचिव के पद पर भी रहे। उनके कई कालजयी गीत आज भी हिंदी के पाठ्यक्रम में हैं और बच्चे उन्हें बड़ी रुचि से पढ़ते हैं।
शिक्षा और कविता को समर्पित द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जीवन बहुत ही चित्ताकर्षक और रोचक है। उनकी पुस्तक ‘हम सब सुमन एक उपवन के’ का अनुवाद उर्दू भाषा में, 'हम सब फूल एक गुलशन के' शीर्षक से हुआ। इस पुस्तक के एक गीत ‘हम सब सुमन एक उपवन के’ को उत्तर प्रदेश सूचना विभाग ने अपनी होर्डिगों में प्राय: सभी ज़िलों में प्रचारित किया। बाल-साहित्य समीक्षक कृष्ण विनायक फड़के इस गीत से इतना प्रभावित हुए, कि उन्होंने अपनी वसीयत में ही लिख दिया, कि उनकी शवयात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ के बदले बच्चे मिलकर यह गीत गाएँ, तो उनकी आत्मा को बहुत शांति मिलेगी। फड़के जी का मानना था, कि अंतिम समय भी पारस्परिक एकता का संदेश दिया जाना चाहिए। वह दृश्य सर्वथा अभिनव और अपूर्व था, जिसमें एक शवयात्रा ऐसी निकली जिसमें बच्चे मधुर धुन से गाते हुए चल रहे थे-----'हम सब सुमन एक उपवन के'। किसी गीत को इतना बड़ा सम्मान, माहेश्वरी जी की बालभावना के प्रति आदर भाव ही था। माहेश्वरी जी ने बाल साहित्य पर २६ पुस्तकें लिखीं। इसके अतिरिक्त पाँच पुस्तकें नवसाक्षरों के लिए लिखीं।
उन्होंने अनेक काव्य संग्रह और खंड काव्यों की भी रचना की। बच्चों के कवि सम्मेलन का प्रारंभ और प्रवर्तन करने वालों के रूप में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का योगदान अविस्मरणीय है। माहेश्वरी जी की कई कविताएँ केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, प. बंगाल, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में तथा ‘राष्ट्रीय तथा शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (एन.सी.ई.आर.टी.), नई दिल्ली के हिंदी भाषा एवं साहित्य के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं।
उ.प्र. के शिक्षा सचिव के रूप में उन्होंने शिक्षा के व्यापक प्रसार और स्तर के उन्नयन के लिए अनथक प्रयास किए। उन्होंने कई कवियों के जीवन पर वृत्त चित्र बनाकर उन्हें याद करते रहने के उपक्रम दिए। सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जैसे महाकवि पर उन्होंने बड़े जतन से वृत्त चित्र बनाया। यह एक कठिन कार्य था, लेकिन उसे उन्होंने पूरा किया। बड़ों के प्रति आदर-सम्मान का भाव माहेश्वरी जी जितना रखते थे, उतना ही प्रेम उदीयमान साहित्यकारों को भी देते थे। उन्होंने आगरा को अपना काव्यक्षेत्र बनाया। केंद्रीय हिंदी संस्थान को वह एक तीर्थस्थल मानते थे। इसमें प्राय: भारतीय और विदेशी हिंदी छात्रों को हिंदी भाषा और साहित्य का ज्ञान दिलाने में माहेश्वरी जी का अवदान हमेशा याद किया जाएगा। उनके लिए कहा जाता है, कि वह गृहस्थ संत थे।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ‘बाल गीतायन’ को रचकर बच्चों के गांधी के नाम से मशहूर हो गए। ‘बाल गीतायन’ में उन्होंने बच्चों को १७६ कविताओं का तोहफा दिया था। उनकी कविताएँ आज भी बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं। उनकी हर रचना से बाल मन आज भी प्रेरित होता है। उनकी अन्य रचनाएँ देश प्रेम, वीरता, प्रकृति आदि पर आधारित हैं। आपकी पहली पुस्तक १९४६ में प्रकाशित हुई। उनकी 'क्रौंच-वध’ व ‘सत्य की जीत’ खंड काव्यों सहित अनेक कविताएँ विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक पाठ्यक्रमों मे शामिल हैं। उनकी पुस्तक बाल गीतायन एक ऐसी अनूठी पुस्तक है, जिसकी प्रत्येक कविता चित्रित है; और सभी कविताएँ वय क्रमानुसार सम्मिलित हैं। इस प्रकार की अनूठी पुस्तक इससे पहले और नहीं थी। हिंदी के विख्यात साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा जी ने इसे राष्ट्रीय निधि की संज्ञा दी थी।
माहेश्वरी जी को उनके साहित्यिक अवदान के लिए अनेक पुरस्कार मिले। १९७७ में आपको उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त हुआ। साथ ही हिंदी भाषा व साहित्य की विशिष्ट सेवा के लिए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के कर-कमलों से एक भव्य समारोह में ताम्र-पत्र और उत्तरीय प्रदान किए गए। इसके अतिरिक्त विभिन्न अवसरों पर आपको अनेक सरकारी संस्थानों, मंत्रीगणों द्वारा सम्मानित किया गया। राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी जी ने भी उनकी पुस्तकों की मुक्त कंठ से सराहना की।इलाहाबाद में ही माहेश्वरी जी ने 'गुंजन' नामक संस्था भी बनाई, जिसकी गोष्ठियाँ हिंदी साहित्य सम्मेलन के कक्ष में समय-समय पर होती रहती थीं।
माहेश्वरी जी के काव्य कृतित्व पर विश्वविद्यालय स्तर पर पी-एच.डी, एम.ए, तथा एम.एड के विद्यार्थियों द्वारा कई शोध प्रबंध लिखे गए हैं और लिखे जा रहे हैं। उनके दिवंगत होने के पश्चात भी उनकी रचनाओं का प्रकाशन रुका नहीं। अपनी आत्मकथा ‘सीधी राह चलता रहा’, जिसे उन्होंने मृत्यु के दो घंटे पहले पूर्ण की थी, उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुई और सराही गयी। इसके अतिरिक्त स्वर्गीय माहेश्वरी की ‘साहित्य सर्जना’,’मेरी कविता का हर बोल तुम्हारा है’ (स्वर्गीय माहेश्वरी साहित्य पर आलेख संग्रह) तथा ‘रेनबो’-बाल कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हुए।
उल्लेखनीय है कि मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विज्ञान भवन, नई दिल्ली में युवा कांग्रेस को संबोधित करते हुए स्वर्गीय माहेश्वरी की कविता का हवाला दिया। प्रसिद्ध गायिका उषा उत्थुप ने भी संसद के सेंट्रल हॉल में प्रधान मंत्री और मंत्रियों की विशिष्ट उपस्थिति में उनकी कविता गाई। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की रचनाएँ न केवल बालकों और आमजन की, अपितु देश के हर वर्ग की प्रेरणा का स्त्रोत थीं, हैं एवं सदैव रहेंगी। युगों-युगों तक हमारा मार्ग प्रशस्त करने वाली इन कृतियों के रचनाकार को कोटिश: नमन।
संदर्भ -
‘द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी: सृजन और मूल्यांकन', ओम निश्चल, किताबघर प्रकाशन।
लेखक परिचय:
भावना सक्सैना दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी व हिंदी में स्नातकोत्तर हैं तथा स्वर्ण पदक प्राप्त हैं। 28 वर्ष से अधिक का शिक्षण, अनुवाद और लेखन का अनुभव है। इनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें एक पुस्तक सूरीनाम में हिंदुस्तानी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम है। एक कहानी संग्रह ‘नीली तितली’ व एक हाइकु संग्रह ‘काँच-सा मन’ है। हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। संप्रति भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल – bhawnasaxena@hotmail.com
भावना जी...बहुत ही सुंदर तरीके से आपने द्वारिका जी के जीवन को प्रस्तुत किया,अप्रतिम लेख
ReplyDeleteशानदार आलेख
ReplyDeleteभावना जी को हार्दिक बधाई
द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी के कृतित्व और उसके महत्व पर प्रकाश डालता उत्तम लेख। इसे पढ़कर बचपन में उनके गीतों को हरदम गाना याद आ गया। भावना जी, अप्रतिम लेख के लिए शुक्रिया और बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteकालजयी रचनाकार द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की साहित्यिक यात्रा को वर्णित करता हुआ बहुत ही बढ़िया लेख। भावना जी को रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteभावना जी , आपका लेख बड़ा रोचक और जानकारीपूर्ण है । द्वारिका प्रसाद जी ने सचमुच अपने जीवन से हमें सिखाया कि “ सीधी राह चला चल” जीना कितना सदुपयोगी और अर्थपूर्ण होता है । आज के युग में जब सरलता को बहुधा मूर्खता समझा जाता है एवं विषमता को बुद्धिजीवी होने का प्रमाण माना जाता है , द्वारिका प्रसाद जी का व्यक्तित्व हम सब के लिए प्रेरणा स्त्रोत है । संत कबीर ने ठीक ही कहा था :
ReplyDeleteकबीर बेड़ा जर्जरा
फूटे छेंक हज़ार ।
हरुए हरुए तर गए
डूबे जिन सिर भार । 🙏
उनके कितने ही गीत ऐसे हैं जिन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों ने बचपन में पढा और गुनगुनाया है एकदम सही...
ReplyDelete*भावना जी,*
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत तरीके से आपने आदरणीय श्री द्वारिका प्रसाद जी के जीवन और उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला हैं। अतिउत्तम लेख। जितनी सराहना की जाए कम हैं बस इतना ही कहूंगा आपको हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं और साथ ही दीपा जी का धन्यवाद जिनकी वजह से यह सुंदर लेख वाचन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।👌👌💐👏👏👏🙏🙏
बढ़िया लेख भावना जी। बधाई
ReplyDeleteडॉ. हर्षबाला शर्मा
मेरा सौभाग्य है कि आगरा में उनसे कई मुलाकातें हुईं, उन्होंने मुझे मान सम्मान दिया, स्नेह दिया। अपनी पुस्तकें भेंट कीं। उनके कई पत्र मेरे व्यक्तिगत धरोहर है। उन्श्रउन्हें श्रद्धा सुमन। मन
ReplyDeleteभावना जी, बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक आलेख है आपका । पढ़ते पढ़ते बचपन की स्मृतियाँ घिर गईं और सारी रचनाएँ याद आ गईं । अध्यापन काल में इन रचनाओं को बच्चों को पढ़ाया था । आपको बधाई
ReplyDeleteमौजूदा जानकारियों ने इस आलेख को बहुत रोचक बनाया है और कवि की रचनाओं की प्रासंगिकता को प्रतिपादित किया है। साधुवाद
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