आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रारंभिक युग में किसी ने कब सोचा था कि हिमालय की गोद में स्थित अल्मोड़ा के नैसर्गिक सौंदर्य के मध्य विकसित होता, नदियों की निर्मलता से पारदर्शिता सहेजता एक कुशाग्र बालक मानव मन की पीड़ाओं और ग्रंथियों को इतनी बारीकी से देख सकेगा, कि आधुनिक हिंदी साहित्य के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों का प्रणेता बन जाएगा। यह अन्वेषक मन था - बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, विचारक, कवि, उपन्यासकार और संपादक इलाचंद्र जोशी का। इलाचंद्र जी आत्मसम्मान से परिपूर्ण, परिपक्व किंतु सहज-सरल व्यक्ति थे। उनमें मन की जटिलताओं को अपने लेखन के माध्यम से तर्कसंगत ढंग से समझने-समझाने की कला थी।
इलाचंद्र जोशी ने मनोवैज्ञानिक लेखक के रूप में अपार प्रसिद्धि प्राप्त की, किंतु अल्मोड़ा के प्राकृतिक सौंदर्य ने इनके साहित्य में काव्यगत सौंदर्य को जीवित रखा। इन्होंने अपने चरित्रों की मानसिक स्थिति का जैसा सजीव चित्रण किया, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
'बिना अंधकार की कल्पना किए प्रकाश के महत्व को नहीं समझा जा सकता' कहने वाले सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक लेखक 'इलाचंद्र जोशी" का जन्म १३ दिसंबर, १९०३ अर्थात माघ माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को संवत् १८५६ में अल्मोड़ा में हुआ। बुद्धिजीवी परिवार में जन्मे इलाचंद्र जोशी के पिता चंद्रवल्लभ जोशी, अल्मोड़ा में अंग्रेज़ी के अध्यापक थे। वह साहित्य दर्शन के गंभीर विचारक थे एवं ललित कलाओं में गहरी रुचि रखते थे। अल्मोड़ा में उनके द्वारा खुलवाया पुस्तकालय इस तथ्य का साक्षी है। इसमें तत्कालीन साहित्य के विभिन्न विषयों की उत्कृष्ट पुस्तकें संग्रहित हैं। माता लीलावती देवी धार्मिक विचारों की महिला थी। विलक्षण प्रतिभा के धनी इलाचंद्र जोशी जी बचपन से ही बुद्धिमान थे। उनका मन पारंपरिक शिक्षा प्रणाली में नहीं रमता था। उन्होंने अपनी माँ के धार्मिक विचारों से प्रेरित होकर रामायण एवं महाभारत का अध्ययन किया। बाल्यावस्था में ही कुमारसंभवम, रघुवंशम, अभिज्ञान शाकुंतलम आदि के साथ कीट्स, शैली, गोथे, वर्ड्सवर्थ, दास्तोवस्की, चेखव, बंकिम चन्द चटर्जी को भी आत्मसात कर लिया था। वे स्वयं कहते हैं, "जब से मैंने अल्मोड़ा के प्राकृतिक परिवेश में होश संभाला है, तब से अपने भीतर एक लेखक को उभरते महसूस किया है।" कुमाऊँ और कुमाउँनी भाषा के क्षेत्रीय अनुभव उन्हें सीमित लगे, इसीलिए हाईस्कूल के बाद वे कलकत्ता जाकर 'कलकत्ता समाचार’ में काम करने लगे। भारतीय एवं विदेशी साहित्य का व्यापक अध्ययन करने वाले जोशी जी पर रवींद्रनाथ टैगोर के व्यक्तिव का प्रभाव था, किंतु सतत् लिखने की प्रेरणा उन्हें शरतचंद्र जी से मिली।
यद्यपि उनका जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा, आजीविका हेतु लॉन्ड्री तक खोलने वाले इलाचंद्र जोशी ईमानदारी और धैर्य से सब सहते रहे। कहते हैं, जोशी जी की पत्नी हरिप्रिया जोशी धर्म एवं छुआछूत का कठोर पालन करती थी। किंतु मानवता की भावना से परिपूर्ण जोशी जी ने अपने बच्चों को मानवधर्म के संस्कार दिए और अपने लेखन के माध्यम से समाज में भी इन भावनाओं को बढ़ावा दिया। उनके मन में गरीबों और अछूतों के प्रति उदारता थी।
बहुभाषी एवं विदेशी लेखकों का प्रभाव
जोशी जी बहुभाषी थे। उन्होंने हिंदी के साथ-साथ बांग्ला, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, संस्कृत, जर्मन जैसी भाषाओं का भी अध्ययन किया जिसका प्रभाव उनके साहित्यिक भाषाशैली पर स्पष्ट परिलक्षित होता है।
बचपन से ही दूसरों की मुद्राओं को देखकर मनोवैज्ञानिक अध्ययन की आकुलता एवं निजी मनोवैज्ञानिक उलझनों की विचलन से मात्र 12 वर्ष की आयु में पड़ोस में रहने वाली अल्हड़ लड़की से प्रेरणा प्राप्त कर उन्होंने अपनी पहली मनोवैज्ञानिक कहानी 'सजनवा' लिखी।
बीसवीं सदी के उनके साहित्य में काम प्रवृति के स्वच्छंद रूप के कारण कुछ आलोचक उन्हें फ्रायड से प्रभावित मानते है, किंतु जोशी ने स्वयं कहा, 'लोग खोजते नहीं, बिना सोचे कह देते हैं कि मैं फ्रायड से प्रेरणा लेता हूँ'। फ्रायड ने 'लिबिडो और इडियस' के सिद्धांत द्वारा जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति के समस्त क्रियाकलाप को काम प्रवृति से संचालित माना, जबकि इससे पृथक जोशी का मत है, कि काम प्रवृति को सरलतम रूप से लेकर उच्चतम रूप तक अनेक महत्वपूर्ण सोपानों द्वारा समझा जाता है। इसमें मनोविज्ञान के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विकृतियों का सम्मिलित प्रभाव मानव पर पड़ता है। जोशी जी के उपन्यासों में हमें व्यक्तिगत मनोविज्ञान का यही रूप मिलता है। इंडियन प्रेस द्वारा प्रकाशित जोशी जी की पुस्तक 'दैनिक जीवन और मनोविज्ञान' मन की परतों को खोलने का दुर्लभ स्रोत है। भारतीय दर्शन एवं वेदों से प्राप्त संस्कारों में जोशी जी की अमिट आस्था थी। जोशी जी ने अहम। z
को फ्रायड के ईगो का पर्याय न मानकर भारतीय दर्शन का प्रतिरूप माना। उन्होंने व्यक्तिगत अहम को सामूहिक अहम से एकीकार किया। उपनिषद काल को मनोविज्ञान का प्रारंभिक बिंदु मानने वाले जोशी जीव एवं आत्मा की सबलता से भी सहमत थे।
इलाचंद्र जोशी जी के लेखन की विशेषताएँ
पैनी समीक्षात्मक दृष्टि वाले जोशी जी ने अपने पात्रों की हत्या एवं आत्महत्या को पाठकों के समक्ष इस रोचक शैली में प्रस्तुत किया कि वे कुंठाओं, आर्थिक, सामाजिक, वंशानुगत, व्यक्तिगत एवं बाह्य कारणों का परिणाम लगे। जोशी जी ने लेखन में सफेदपोश अपराध को प्रमुखता दी।
आरोपण की मनोवैज्ञानिक स्थिति को एवं दिवास्वप्न द्वारा इच्छाओं की पूर्ति को जोशी जी ने अपने उपन्यासों में अति सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया। जहाँ एक ओर स्वप्नों को भूत, भविष्य, वर्तमान से जोड़ा; वहीं अपने औपन्यासिक चरित्रों के माध्यम से ये सिद्ध करने का प्रयास भी किया कि स्वप्न मानसिक रोगों का परिणाम होते हैं। ऐसा मनोवैज्ञानिक चित्रण हिंदी साहित्य में दुर्लभ ही देखने को मिलता है।
इलाचंद्र जोशी का रचना संसार
रोचक तथ्य
इलाचंद्र जोशी के बड़े भाई डॉ. हेमचंद्र जोशी विदेश में जाकर भाषा विज्ञान में शोध करने वाले पहले भाषा वैज्ञानिक के रूप में हिंदी साहित्य एवं भाषा जगत् में प्रसिद्ध हुए। कहते हैं, जिस प्रकार श्याम बिहारी मिश्र एवं शुकदेव बिहारी मिश्र की जोड़ी ‘मिश्र बंधु’ के नाम से विख्यात थी, वैसे ही हेमचंद्र जी एवं इलाचंद्र जोशी की जोड़ी पत्रकारिता एवं समालोचना के क्षेत्र में 'जोशी बंधु' के नाम से अति प्रसिद्ध रही है। और दोनों ‘जोशी बंधु’ हिंदी की लोकप्रिय पत्रिका धर्मयुग के पहले संपादक भी थे।
संदर्भ
विकिपीडिया, गद्यकोश, भारत कोश
इलाचंद्र जोशी- साहित्य अकादमी (www.hindisamay.com)
आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास
सृजन सरोकार: आलोचना इलाचंद्र जोशी का साहित्य एवं मनोविज्ञान- डॉ यास्मीन सुल्ताना
लेखक परिचय
डॉ. शिप्रा शिल्पी सक्सेना शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार हैं। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक, हिंदी एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में डॉक्टरेट प्राप्त की। इनके अनेक लेख, कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘सृजनी ग्लोबल’ की सह संस्थापिका भी हैं। डॉ. शिप्रा वर्तमान में यूरोप के साहित्य समाचार की यूरोप संपादक एवं मीडिया इंस्ट्रक्टर के रूप में कोलोन, जर्मनी में कार्यरत हैं।
मनोवैज्ञानिक साहित्य लेखन के महारथी इला चंद्र जोशी जी का व्यक्तिगत जीवन काफी संघर्षों भरा रहा। फिर भी प्रकृति एवं साहित्य से लगाव की वजह से वो जीवन के कठिन पथ में भी साहित्य सृजन में जुटे रहे और अपनी विशेष पहचान बना पाए। डॉ. शिप्रा जी ने बहुत सुंदर रूप में जोशी जी की साहित्यिक यात्रा को इस लेख में सँजोया है। शिप्रा जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteइला चंद्र जोशी कितनी विलक्षण मनोवैज्ञानिक समझ रखते होंगे कि १२ वर्ष की आयु में ही पड़ोस की बालिका की मनःस्थिति से प्रभावित होकर कहानी 'सजनवा' लिख डाली। यह बहुत ख़ुशी की बात है हिंदी साहित्य के लिए कि वे अपनी प्रतिभा को बचपन से पहचानते थे और उन्होंने अपना जीवन उसको समर्पित कर दिया। शिल्पा ने बेहतरीन तरीके से हमारे सामने उनके जीवन और सृजन की कहानी रखी है। शिल्पा को इस उम्दा लेखन के लिए बधाई और तहे दिल से शुक्रिया।
ReplyDelete'स्वप्न मानसिक रोगों का परिणाम होते हैं' - अद्भुत! आपने एक अत्यंत कठिन विषय और गूढ़ लेखक को सरल कर हमारे समक्ष रखा - यह एक सँजो कर रखने वाला लेख है। बधाई और आभार, शिप्रा जी।
ReplyDeleteमनोवैज्ञानिक विश्लेषण की विशेषता वाले श्रेष्ठ उपन्यासकार के जीवन का सुंदर सटीक चित्रण।
ReplyDeleteएक विवरणात्मक और रोचक आलेख जो रचनाकार के मन की बात समझाता हुआ लेखक के सुन्दर लेखन का भी द्योतक है. साधुवाद
ReplyDelete