वर्त्तमान उत्तराखंड राज्य में कुमाऊँ मंडल के कौसानी ग्राम में जन्मे सुमित्रानंदन पंत के जन्म के कुछ घंटों बाद ही, उनकी माता का देहांत हो जाने से, उनका लालन-पालन उनके पिता और दादी की वात्सल्यमयी छाया में हुआ। दोनों की मधुर स्मृतियाँ कवि के मन में सदैव संचित रहीं। उनके पिता, गंगादत्त पंत ज़मींदार थे और कौसानी राज्य में कोषाध्यक्ष का काम करते थे। 'साठ वर्ष - एक रेखांकन' में पंत जी ने बाल्यकाल के प्राकृतिक और मानवीय वातावरण का सुंदर चित्रण किया है और कुर्मांचल क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य से कविता लिखने की प्रेरणा मिलने की बात की है -
"कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कुर्मांचल प्रदेश को है। कवि जीवन से पहले भी मुझे याद है, मैं घंटों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्य को एकटक देखा करता था।"
पंत जी के बचपन का नाम गुसाईं दत्त था। अल्मोड़ा के स्कूल में भर्ती होने के समय बालक गुसाईं दत्त ने अपना नाम परिवर्तित किया और तब से ही वे सुमित्रानंदन के नाम से जाने गए। शिक्षा के सिलसिले में अल्मोड़ा से काशी और वहाँ से प्रयाग के म्योर सैंट्रल कॉलेज में अपने बड़े भाई के साथ छात्रावास में रहते समय, सन १९२१ में गाँधी जी की प्रेरणा से असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और स्वाध्याय तथा कविता लिखने में पूरी तरह से तल्लीन हो गए।
छायावाद के प्रमुख स्तंभ, सुमित्रानंदन पंत प्रकृति और सौंदर्य के सुकुमार कवि के रूप में जाने जाते हैं। हिमालय की सुरम्य प्रकृति की गोद में अपना शैशव व्यतीत करने के कारण, प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति उनके मन में एक नैसर्गिक आकर्षण और जुड़ाव उनकी समस्त रचनाओं में एक अंतर्धारा की भाँति विद्यमान है।
पंत जी के रचनाकाल का विस्तार सात वर्ष की आयु से शुरू होकर, जब उन्होंने चौथी कक्षा में पढ़ते समय अपना प्रथम छंद लिखा, सात दशकों की संवेदना और चिंतन को समेटे हुए है। इस लंबे रचनाकाल में कवि की संवेदना और बौद्धिकता में निरंतर विकास हुआ है। जीवन के अनुभव और देश की राजनीतिक स्थिति तथा बौद्धिक और दार्शनिक विचारधारा ने कवि की चेतना को सदैव विकसित किया है। पंत की रचनाओं में संवेदना की दृष्टि से निरंतर विकसनशीलता के दर्शन होते हैं। प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति के सुकुमार रूप की छवि दिखाई देती है। ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ को शब्द, लय और ताल में बाँध कर छायावादी अभिव्यंजना शैली में लिखी गई कविताएँ उस काल की उत्कृष्ट निधि हैं। पर कवि का सजग मन निरंतर चिंतनशील रहा है और ‘पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश’ के मोह से उतरकर यथार्थ के धरातल पर आकर प्रगतिवादी विचारधारा को छायावाद की प्रांजल भाषा शैली में प्रस्तुत करने लगा। चेतना के विकास के तीसरे चरण में पंत पर अरविंद दर्शन की मुहर लग गई थी। उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन पड़ाव हैं - छायावादी कविता काल, समाजवादी, प्रगतिशील रचनाकाल और अरविंद दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी रचनाकाल।
सन १९०७ -१९२८ का काल पंत के कवि जीवन का प्रथम चरण है। इस अवधि में कवि ने प्रकृति के अंचल में रहकर कविता लिखी। प्रकृति का पल-पल परिवर्तित वेश उसे मुग्ध करता है। प्रकृति और सौंदर्य के अभिभूत करने वाले चित्र और भाषा का माधुर्य तथा सौष्ठव, पंत की कविता की विशेषता होने के साथ छायावादी कविता को भी परिभाषित करते हैं। इस चरण की रचनाओं में कवि प्रकृति के सुरम्य रूप के प्रति मंत्रमुग्ध है और उसका बिंबविधान शब्दों की तूलिका से प्राकृतिक दृश्य का चित्रांकन करने में सक्षम है -
" पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार
जिसके चरणों में पड़ा ताल
दर्पण सा फैला है विशाल। "
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार
जिसके चरणों में पड़ा ताल
दर्पण सा फैला है विशाल। "
काशी में अध्ययन करते समय कवि सरोजिनी नायडू, रवींद्र नाथ टैगोर, और अंग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों की रचना से परिचित हुए; विशेषकर रवींद्रनाथ से साक्षात्कार से प्रभावित होकर अंत:संकल्पित होकर काव्य रचना में लगे। इस काल में रची गई ‘उच्छवास’ और ‘ग्रंथि’ में वय:संधिक अतींद्रिय प्रेमभाव और अस्पष्ट आंतरिक आकुलता के स्वर मुखर हैं। उस काल में रची गई ‘छाया’ और स्वप्न रचनाओं को काव्य मर्मज्ञों की प्रशस्ति मिली। सन १९२८ में ‘पल्लव’ के प्रकाशन से साहित्य जगत में पंत को छायावाद के वरिष्ठ कवि की पहचान मिली। अंग्रेज़ी के कवि बायरन का कथन, ‘एक दिन सुबह मेरी नींद खुली तो मैंने अपने को यश से घिरा हुआ पाया’, पंत पर पूरी तरह से चरितार्थ होती है। यह काल ‘वीणा-पल्लव’ काल के नाम से अभिहित है। कहीं प्रकृति आलंबन रूप में और कहीं मानसिक विषाद की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के रूप में चित्रांकित है -
'' मेरा पावस ऋतु सा जीवन
मानस-सा उमड़ा अपार मन
गहरे धुंधले धुले साँवले
मेघों से मेरे भरे नयन! ''
मानस-सा उमड़ा अपार मन
गहरे धुंधले धुले साँवले
मेघों से मेरे भरे नयन! ''
इन पंक्तियों में मानो कवि का विषाद-विदग्ध मन पावस ऋतु के उमड़ते बादलों के साथ बरस पड़ा। म्योर कॉलेज छोड़ने के बाद कवि के अंतर्मन का अकेलापन ‘गुंजन’ की कविताओं में मुखर है। इसमें कवि की काव्य साधना का नवीन पक्ष उद्घाटित होता है, जो प्रकृति और मानव सौंदर्य के प्रति नवीन उन्मेष के साथ मानव के प्रति उसकी मंगल कामना और नवीन कला-चेतना की सूचना देता है। सन १९३१ में पंत कालाकांकर चले गए और इनके अगले दस वर्ष वानप्रस्थ स्थिति में ज्ञान-साधना और पशु-पक्षियों के साथ व्यतीत हुए। उस समय पंत ने ‘ज्योत्स्ना’ जैसे मन:कल्प की रचना की, जो उनकी केंद्रीय रचना मानी जा सकती है। गाँधीवादी और मार्क्सवादी विचारधाराओं को लेकर कवि के अंतर्संघर्ष की गूँज ‘युगांत’ और ‘ग्राम्या’ में स्पष्ट सुनाई देती है -
'' जीवन की क्षण धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित
मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर
और कौन सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर? ''
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित
मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर
और कौन सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर? ''
सन १९४० में पंत कालाकांकर के स्वप्न-नीड़ से बाहर आए और सन १९४२ में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के संत्रस्त वातावरण में ‘लोकायन’ नामक एक व्यापक संस्कृति-पीठ की योजना बनाई। इस काल में कवि ने उदय शंकर के ‘कल्पना’ चित्र के लिए गीत लिखे और मद्रास-प्रवास के समय पहली बार अरविंद की दार्शनिक एवं साधनात्मक प्रवृत्तियों के संपर्क में आए। इस अवधि को कवि ने अपना ‘नवमानवता का स्वप्न काल’ कहा है। ‘स्वर्णधूलि’ से ‘उत्तरा’ तक के काव्य में कवि की अरविंदवादी चेतना के दर्शन होते हैं। प्रयाग लौटने के उपरांत कुछ वर्षों तक ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े रहे साथ ही ‘रजत शिखर’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण’ नामक काव्य रूपक प्रकाशित हुए।
पंत का संपूर्ण कृतित्व हिंदी साहित्य की आधुनिक चेतना का प्रतीक है। युगधर्म के भौतिक, सामाजिक और नैतिक पहलुओं के साथ पंत का काव्य आध्यात्मिक चेतना के सूत्र भी समानांतर लेकर चलता है। वस्तुत: पंत ने प्रकृति, नारी सौंदर्य और मानवजीवन को देखने की मध्यवर्गीय जीवनदृष्टि को परिष्कृत किया है। आधुनिक हिंदी कविता को व्यक्तिमत्त, भाषा सामर्थ्य तथा नई छंद दृष्टि प्रदान करते हुए, उन्होंने खड़ी बोली की अभिव्यंजना शक्ति का संवर्द्धन किया है, यह उनकी महती उपलब्धि है। उनकी गद्य रचनाएँ भी उनके चिंतन और जीवन दर्शन को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करती हैं। उनकी आत्मकथात्मक रचना ‘साठ वर्ष - एक रेखांकन’ उनके जीवन के विभिन्न पड़ावों को मार्मिक रूप से प्रस्तुत करती है। साहित्य की विविध विधाओं में सृजन करते समय उनके कवि हृदय का ही विस्तार और प्रसार अभिव्यक्त है।
संदर्भ
- हिंदी साहित्य कोश भाग २,
- प्रसाद, निराला, महादेवी, पंत की श्रेष्ठ रचनाएँ, वाचस्पति पाठक
- साठ वर्ष - एक रूपांकन, सुमित्रानंदन पंत
- पल्लव : सुमित्रानंदन पंत
लेखक परिचय
एम बी ई, पेशे से अध्यापन
देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में रुचि
केंब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा में हिंदी की मुख्य परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत।
छायावाद के प्रमुख स्तंभ एवं प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत जी के जीवन एवं साहित्य को रेखांकित करता हुआ एक उत्तम लेख है। इस रोचक पठनीय लेख के लिए डॉ.अरुणा जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteआपने बहुत सुंदर लेख लिखा है , अरुणा जी। पंत जी के रचना संसार का क्रमवार विकास एवं उन्नति का पूरा विवरण मिलता है। हम जैसे साहित्य प्रेमियों के अतिरिक्त यह विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के लिए भी बहुत अच्छा स्त्रोत है। पंत जी की जीवन-यात्रा की भी जानकारी मिली। आपको इस सुंदर एवं ज्ञानवर्धक लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteप्रकृति की गोद में पले-बढ़े सुमित्रानंदन पंत को मुख्यतः प्रकृति कवि ही माना जाता है। अरुणा जी, आपने उनकी साहित्य और विचारधारा यात्रा को अद्भुत और रोचक ढंग से प्रस्तुत कर मेरे लिए उनकी बहुआयामी प्रतिभा के नए द्वार खोले हैं। इस जानकारी के आधार पर अब उनका साहित्य पढ़ते समय मुझे निश्चित ही नए अर्थ और रंग दिखेंगे। आपका ह्रदय तल से आभार और बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteआदरणीय अरुणा जी की कलम से प्रकृति सुकुमार छायावादी युग के कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी का साक्षात्कार हुआ हैं। अपने ह्रदयस्पर्शी लेखन और निर्भीक व्यक्तित्व के कारण पदम् विभूषण पंत जी हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तम्भ रहे हैं जिन्होंने अपने स्वाभिमान से कभी समझौता नही किया। स्कूल के दिनों से ही हिंदी पाठ्य पुस्तक से इनकी रचनायें पढ़ने मिली थी। आज अरुणा जी के आलेख ने वह यादें ताजा कर दी। प्रयागराज में बेलीरोड स्थित भवन में वे श्री हरिवंशराय बच्चन जी के साथ रहते थे। वे दोनों जहाँ रहते थे उसका नाम बसुधा (बच्चन -सुमित्रानंद धाम) रखा गया था।
ReplyDeleteआद. अरुणा जी को इस अप्रतिम एवं रोचक आलेख के लिए हार्दिक बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
पंत,प्रसाद,और निराला छायावाद के स्तंभ है।पंत जी के काव्य में प्रकृति चित्रण है।पंत जी ने कवि की परिभाषा देते हुए लिखा है
ReplyDeleteवियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान।
ढुलक कर अधरों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान।।