हिंदी साहित्य के विकास में देवभूमि
उत्तराखंड का विशेष स्थान है। उत्तराखंड तमाम तरह की बोलियों का क्षेत्र
होने के बावजूद राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास में हमेशा अपनी विशेष भूमिका निभाता रहा
है। स्वतंत्र भारत के प्रथम डी.लिट. डॉ० पीतांबर दत्त बड़थ्वाल भी उत्तराखंड देवभूमि से ही परिचय रखते हैं। डॉ० बड़थ्वाल का जन्म १३ दिसंबर १९०१ में
पौड़ी जनपद के ‘पाली’ ग्राम में हुआ। कई साहित्यकार
उनका जन्म २ दिसंबर को मानते है। गढ़वाली साहित्यकारों में यह एक विवाद का प्रश्न
बना हुआ था, कि उनका जन्म २ दिसंबर को हुआ या १३ दिसंबर को? अंत में डॉ०
भक्त दर्शन के एक पत्र के हवाले से, एक पंचाग के अनुसार, इनकी जन्म तिथि १३ दिसंबर,
शुक्रवार, सन् १९०१ को निश्चित मानी गई। इसी तिथि को डॉ० गोविन्द चातक ने भी
स्वीकार किया है। गाँववासी भी प्रतिवर्ष इसी दिन पीतांबर दत्त
बड़थ्वाल का जन्मोत्सव मनाते हैं।
उनके पिता पं० गौरीदत्त बड़थ्वाल प्रतिष्ठित
व्यक्ति और ज्योतिष तथा कर्मकांडी विद्वान थे। वे साहित्य प्रेमी तथा धार्मिक व्यक्ति थे। दुर्भाग्यवश ४० वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके मन में अपने
बच्चों को शिक्षित, सभ्य और
सुसंस्कृत बनाने की बहुत इच्छा थी। परन्तु होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। उनकी मृत्यु के
समय पीतांबर मात्र १० वर्ष के थे। उनका पालन पोषण उनके नि:संतान ताऊ
मनीराम बड़थ्वाल ने किया।
पीतांंबर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। पढ़ाई के प्रति उनका झुकाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही
गया। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। उनके प्रथम शिक्षक पौड़ी ग्राम के श्री
शिवराम सिंह थे। फिर क्रमश: अंग्रेज़ी के श्री परमेश्वर सहाय नैथानी और हिन्दी, संस्कृत, व्याकरण, ज्योतिष के
प्रकांड विद्वान पं० योगेन्द्र कृष्ण दुर्गादत्य शास्त्री रहे। हाईस्कूल की पढ़ाई
के लिए वे मामा जी के सहयोग से लखनऊ गये। वहाँ उनकी भेंट अपने प्रथम गुरु पं०
श्याम सुंदर खन्ना से हुई। हाईस्कूल व इंटरमीडिएट
करने के उपरांत वे डी.ए.वी. कॉलेज में स्नातक के लिए प्रविष्ट हुए। इसी दौरान
पिता तुल्य ताऊ का निधन हो गया। इस दुःख ने उन्हें इतना झकझोर दिया था, कि वे स्वयं
भी अस्वस्थ रहने लगे जिससे उनकी पढ़ाई दो वर्ष बाधित रही। तत्पश्चात् उन्होंने
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक में प्रवेश लिया और यहीं से हिन्दी में स्नातकोत्तर
किया। वहाँ उन्होंने डॉ० श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, अयोध्या सिंह
उपाध्याय ’हरिऔध’, लाला भागदीन
जैसे गुरुओं की छत्रछाया में अव्वल स्थान में परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके अद्भुत
व्यक्तित्व एवं अध्ययन को देखकर गुरु श्याम सुन्दर दास जी ने उन्हें शोधकार्य हेतु
अवैतनिक संचालक नियुक्त किया। यहीं शोध-संचालक के पद पर रहते हुए उन्होंने एल.एल.बी.
की परीक्षा प्रथम क्षेणी में उत्तीर्ण की।
उस काल की परंपराओं के अनुसार, मात्र १३ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह सावित्री
बड़थ्वाल से हो गया था। सावित्री देवी धीर, गंभीर एवं सुख-दुःख में सदैव साथ देने वाली
महिला थीं। बड़थ्वाल जी की कुल 8 संतानें हुई। बड़ी संतान पुत्री हुई, जो शारीरिक और मानसिक
रूप से दुर्बल थी और मात्र ३२ वर्षों का जीवन लेकर लेकर आई थी। उसके बाद
लगातार तीन पुत्रियाँ हुईं - सत्यभामा, प्रसन्ना देवी, दमयन्ती; तथा चार पुत्र हुए जो शारीरिक और
मानसिक दुर्बलता के कारण असमय ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। अपने जीवनकाल
में अपनों की मृत्यु का कष्ट उन्हें आजीवन सालता रहा। चिंताएँ मानों
उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थीं, और उन्होंने हमेशा पारिवारिक और शारीरिक रूप से कष्ट
में जीवन व्यतीत किया।
डॉ० बड़थ्वाल दुबले पतले शरीर वाले, गाँधीवादी, सादा जीवन- उच्च विचार के समर्थक, मितव्ययी, निर्भीक, ईमानदार, योगी, व्यायाम-प्रिय, स्वाभिमानी, पशु प्रेमी, प्रकृति प्रेमी, व्यवहार कुशल, संभाषण कला में
निपुण, आदर्श अध्यापक, सुधारवादी, भगवत भक्ति वाले
व्यक्ति थे। बहुत कम उम्र में ही वे
विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गये थे। इस भूमिका को उन्होंने पूरे जोश
और तत्परता से निभाया तथा उर्जा से भरपूर रहते हुए, विद्यार्थियों के कल्याण की
कामना करते हुए, उन्हें नए वैचारिक लेखन के लिए प्रेरित करते रहे। वे
साहित्यप्रिय होने के साथ-साथ सामाजिक सुधारवादी भी थे। उन्होंने अपने जन्म स्थान
में भी कई सामाजिक सुधार के कार्य किये।
उन्होंने अंग्रेज़ी निबंध भी लिखे, लेकिन
अस्वस्थता के कारण प्रकाशित नहीं कर पाये। उनके निधन के बाद डॉ० संपूर्णानंद तथा डॉ० भगीरथ मिश्र ने क्रमश: ‘योग प्रवाह’ और ‘मकरंद’ नाम से प्रकाशित किया। हिंदी के प्रति
प्रेम एवं आस्था के साथ हिंदी की सेवा में संलग्न कानपुर में रहते हुए भी अपने
जन्मस्थान, पौड़ी की
पहाड़ियों के प्रति उनका प्रेम सदा बना रहा। उन्होंने यहीं से ‘हिलमैन’ पत्र निकाला और
श्रीनगर गढ़वाल से बहुत छोटी उम्र में ही हस्तलिखित पत्रिका ‘मनोरंजनी’ का संपादन किया।
खराब स्वास्थ्य के कारण अध्ययन/मनन करके उन्होंने प्राणायाम, विज्ञान, कला और
ध्यान हो, आत्मचकित्सा
जैसी पुस्तकें भी निकाली।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है, कि डॉ०
पीतांबरदत्त बड़थ्वाल दार्शनिक, शोधकर्ता, विश्लेषक और निबंधकार थे। उन्होंने मध्ययुगीन
सिद्धों और नाथों की वाणी को खोजने और उनके विश्लेषण का अद्वितीय कार्य किया था। उन्होंने साहित्य में कई
नई मान्यताएँ स्थापित कीं और लेखन की नई प्रणालियाँ चलाईं, जिनका अनुसरण उनके
परवर्ती साहित्यकारों ने भी किया और जिससे हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ।
विशेष : उत्तराखंड में पीतांबरदत्त बड़थ्वाल भाषा संस्थान है, जहाँ विभिन्न तरह के भाषा साहित्य पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते है तथा भाषा प्रोत्साहन के लिए कार्य होते रहते है। यह राज्य सरकार के संरक्षण के अंतर्गत आता है।
पीतांबर दत्त
बड़थ्वाल : जीवन परिचय |
|
जन्म |
१३ दिसंबर १९०१ |
निधन |
२४ जुलाई १९४४ |
जन्मभूमि/ कर्मभूमि |
पाली- ग्राम, पौड़ी जिला, उत्तराखंड बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय, वाराणसी |
पिता |
श्री गौरीदत्त बड़थ्वाल |
पत्नी |
श्रीमती सावित्री देवी |
शिक्षा एवं
शोध |
|
एम० ए० |
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, १९२८(हिन्दी) प्रथम
श्रेणी से उत्तीर्ण |
पीएच.डी. |
“हिंदी काव्य
में निर्गुणवाद” (१९३१ में शोध-पत्र जमा) १९३३ में दीक्षांत समारोह में डी.लिट. की उपाधि हिंदी में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले स्वतंत्र भारत के पहले व्यक्ति; द निर्गुण स्कूल ऑफ़ हिन्दी पोयट्री - अंग्रेज़ी में शोध प्रबंध |
डिप्लोमा |
१९२९ में एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण |
गुरु |
पं.रामचंद्र शुक्ल और बाबू श्याम सुन्दर दास |
साहित्यिक
रचनाएँ |
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रचनाएँ |
गोरखबानी, रामानन्द की हिन्दी रचनाएँ, सूरदास, हिन्दी काव्य
में निर्गुण संप्रदाय, योग प्रवाह, मकरंद, संक्षिप्त रामचंद्रिका तथा हस्तलिखित ग्रंथों का चौदहवाँ, पन्द्रहवाँ
तथा त्रैमासिक विवरण ग्रंथ “गोस्वामी तुलसीदास तथा रूपक रहस्य” गुरु
बाबू श्याम सुन्दर दास के साथ संयुक्त लेखन |
लोक साहित्य |
गढ़वाल में गोरखा शासन, पंवाडे या
गढ़वाल की वीर गाथाएँ |
पुरस्कार व
सम्मान |
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हिंदी साहित्य के विषय में ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि पाने
वाले प्रथम भारतीय व्यक्ति |
|
एम. ए. परीक्षा में ‘छायावाद’ पर विद्वतापूर्ण
निबंध लिखने पर पुरस्कार स्वरूप हिंदी विभाग के अंतर्गत शोध कार्य पर नियुक्त
|
|
काशी–नागरी–प्रचारिणी सभा के अनुसंधान-विभाग का
अवैतनिक संचालक (ऑनरेरी सुपरिटेन्डेन्ट, सर्च ऑफ़ हिन्दी मैनुसक्रिप्ट्रस) नियुक्त |
सन्दर्भ
१. गढ़वाल दी दिवंगत विभूतियां पृ.स. २३८
२. डॉ० बड़थ्वाल स्मारक ट्रस्ट परिचय, पुस्तिका पृ.स. ०९
३. डॉ० बड़थ्वाल स्मारक ट्रस्ट परिचय, पुस्तिका पृ.स. ३७
४. सत्यपथ - डॉ० बड़थ्वाल स्मृति अंक १९७६ पृ.स. १५
लेखक परिचय
डॉ० रेखा सिंह: असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग, राष्ट्रीय महाविद्यालय, गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत)
शोधपत्र – २० राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय लघु कहानियाँ, शोध प्रबंध प्रकाशानार्थ
पुरस्कार – भाषा सहोदरी सम्मान, साहित्य संचय सम्मान
डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल के संयमी व्यक्तित्व और समृद्ध कृतित्व से परिचित कराता अनुपम लेख। इस छोटे आलेख में उनके जीवन के सभी मुख्य पहलुओं और साहित्य की उनकी सभी गतिविधियों को उम्दा तरीके से पेश किया गया है। रेखा सिंह जी का तहे दिल से इस भेंट के लिए आभार और अद्भुत लेखन के लिए बधाई।
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ReplyDeleteस्वतंत्र भारत के प्रथम डी.लिट. डॉ० पीतांबर दत्त बड़थ्वाल के साहित्यिक योगदान को उल्लेखित करता बहुत सुंदर लेख। रोचक लेख के लिये रेखा जो को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteउत्तराखंड देवभूमि से स्वतंत्र भारत के पहले डी.लिट., दार्शनिक , शोधकर्ता , निबंधकार डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय कराता हुआ बहुत सुंदर लेख। पूरा लेख पढ़ते हुए रोचकता बराबर बनी रही। सुन्दर और समृद्ध लेख के लिए रेखा जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteरेखा सिंह जी, यह बहुत ज़रूरी लेख था! जो लेखक सबकी ज़ुबान पर हैं, उन पर तो कोई भी लिख सकता है, पर जो गहरा और नींव का काम कर गए, उनको पार्श्व से आगे लाना मुश्किल परन्तु महत्वपूर्ण काम है! साधुवाद। मैं बहुत समय से भक्ति काव्य पर कुछ ठोस पढ़ना चाह रही थी। अब पता चल गया कि पीतांबर जी के विश्लेषण पढ़ने चाहिए! शुक्रिया 🙏🏻 🌼
ReplyDeleteगहन एवं विस्तृत जानकारी आपके लेख द्वारा प्रस्तुत
ReplyDelete👌👌
डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने अपने छोटे से जीवन में पहाड़ से दुखों और बीमारियों को झेलते हुए कैसे-कैसे बृहत काम सिद्ध किए - अचंभित हूँ। आभार और साधुवाद, रेखा सिंह जी
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