Saturday, December 18, 2021

आपनी बडाई जाहि भावै, सो हमें न भावै: महाकवि देव

Mahakavi Dev Jeevan Parichay Biography


तुलसी ससि पुनि सूर रवि, केशव उड्ड उपमान ।

पै भाषा मैं देव कवि, केवल देव समान ।।


हिंदी साहित्य के सूर्य महाकवि सूरदास और चंद्रमा गोस्वामी तुलसीदास तथा नक्षत्र-सदृश आचार्य केशव के साथ महाकवि देवदत्त की तुलना करते हुए मिश्रबंधुओं ने कहा था कि- देव वह व्योम-मंडल हैं, जिसमें सूर्य, चंद्रमा और नक्षत्रादि सभी अपनी कक्षा में घूमा करते हैं।

रीतिकाल हिंदी साहित्य का एक सशक्त एवं आकर्षक युग माना गया है। देव कवि का रीतिकाल में एक विशिष्ट स्थान है। वे सबसे अधिक व्यापक अनुभव के कवि हैं। एक ओर वे लौकिक श्रृंगार में डूबे, तो दूसरी ओर घोर विरक्ति में। एक ओर वे यदि तुलसी जैसे संत कवियों के समकक्ष है, तो दूसरी ओर सूर के काव्य की झलक भी मिलती है। महाकवि देव रीतिकाल के ऐसे समर्थ कवि हैं, जिन पर संपूर्ण हिंदी काव्य-साहित्य गर्व करता है। 

हिंदी साहित्य की विद्यार्थी होने के नाते रीतिकाल मेरा प्रिय विषय रहा। रीतिकाल में देव को पढ़ते समय मुझे सदैव आभास होता रहा, कि देव की काव्य प्रतिभा अप्रतिम है। जब मुझे देव की जन्मभूमि इटावा ज़िले में सेवा का अवसर मिला, तो फिर स्वाभाविक था कि यह आकर्षण और बढ़ गया। एक शोधार्थी के रूप में जिज्ञासा भाव सदैव मेरे केंद्र में रहा। देव कवि को भी इसी दृष्टि से जानना मेरे लिए रुचिकर रहा। 

देव का जन्म इटावा नगर के मध्य स्थित लालपुर मोहल्ले में पं. बिहारी लाल दुबे के घर हुआ था। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण कश्यप गोत्रीय द्विवेदी वंश परंपरा से संबंधित थे। उनकी पत्नी कुसमरा की थी। देव यदि इटावा में अवतरित हुए, तो कुसमरा में पंचतत्व को प्राप्त किया, अतः इटावा और कुसमरा दोनों ही स्थानों के लोगों का उन पर अधिकार है, इसे प्रकट करना सार्थक है।

देव उस अठारहवीं शताब्दी के कवि हैं, जिसमें सब कुछ बिखर रहा था, साम्राज्य टूट रहे थे, सामंत उभर रहे थे, भक्ति बाह्याचार में चली जा रही थी, मानव को कहीं भी शांति नहीं मिल रही थी, संबंधों में अविश्वास था, ऐसे समय में भक्ति युग के बाद मानवीय-मूल्यों की परीक्षा का जिन्हें अवसर मिला उन्होंने इन्हें कवि होकर परखा, अपने कर्म में पूरी निष्ठा रखी, सजगता बरती, मनुष्य को जोड़ने वाले व्यापार की सूक्ष्म अर्थवत्ता की पहचान कराई और आस्तिक भाव की धुरी संभाल रखी थी। 

देव का जीवन संघर्षमय रहा, जिस समय महाकवि देव की कविता-मरीचि-मालिकाएँ दिगंतों को धवलित कर रही थीं; उस समय दिल्ली के राज सिंहासन पर मुगल-कुल-धूमकेतु औरंगजे़ब था। इसके तृतीय पुत्र का नाम आजमशाह था। वह बड़ा गुणज्ञ, वीर एवं साहित्यानुरागी था। कविवर देव को ऐसे ही आश्रयदाता की तलाश थी। देव ने इनका आश्रय ग्रहण किया। विभिन्न उत्थान- पतन के चलते अनेक परिवर्तन हुए। औरंगजे़ब की मृत्यु हो गई। युद्ध में आजमशाह भी मारे गये। उनकी मृत्यु के साथ ही देव का संपर्क भी दिल्ली दरबार से छूट गया। दूसरे आश्रयदाता के रूप में इन्हें भवानीदत्त वैश्य मिले, जिनके नाम पर इन्होंने 'भवानी-विलास' लिखा। कुछ समय बाद देव इटावा के शुभकर्ण सिंह के पुत्र कुशल सिंह के यहाँ गये और उनके नाम से 'कुशल-विलास' लिखा। उन्हें कोई ऐसा स्थायी आश्रयदाता नहीं मिला, जो उनकी भौतिक आवश्यकताओं से उन्हें मुक्ति दे पाता। अत्यंत वृद्धावस्था तक उन्हें आश्रयदाता की तलाश में छोटे-बड़े राजाओं-नवाबों के दरबार में भटकना पड़ा। उनका स्वाभिमानी हृदय इससे कष्ट पाता रहा। देव राज्याश्रयी अवश्य थे, पर किसी की प्रशंसा या चाटुकारिता करना उन्हें स्वीकार नहीं था-

आपनी बड़ाई जाहि भावै सो हमें न भावै,

राम की बड़ाई सुनि देयगो सु देयगो।


परंतु तत्कालीन परिवेश के कारण अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति इन्हें राजाओं की प्रशंसा में कतिपय छंद लिखने पड़े, जिसकी पीड़ा इन्हें कष्ट देती रही। उनकी इस पीड़ा को व्यक्त करता हुआ अत्यंत मार्मिक छंद प्रस्तुत है-


देव जियै जब पूछौ तौ प्रेम को पार कहूँ लहि आवत नाहीं।

सो सब झूठ मतै मन के बकि मौन सोऊ सहि आवत नाहीं।

ह्वै नंद नंद तरंगनि को मन फेन भयो गहि आवत नाहीं।

चाहे कह्यो बहुतेरो कछूपै कहा कहिए कहि आवत नाहीं।


कवि देव एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। उन्होंने ब्रजभाषा में ही अपनी रचनाएँ लिखीं। उन्हें ७२ ग्रंथों का रचयिता माना जाता है। अब तक उनके कतिपय ग्रंथ ही उपलब्ध हो पाए हैं। 'भवानी-विलास', 'सुमिल-विनोद', 'कुशल-विलास' में आश्रय दाताओं के जीवन से संबंधित छंद मिलते हैं।  

सोलह वर्ष की अवस्था में 'भाव-विलास' जैसे उत्कृष्ट ग्रंथ की रचना की। 94 वर्ष की अवस्था में 'सुखसागर-तरंग' ग्रंथ के माध्यम से शृंगार रस एवं नायिका-भेद को समग्र रूप में प्रस्तुत किया। इतनी बड़ी उम्र में ग्रंथ का सफल निर्वाह करना कम प्रशंसनीय नहीं है। देव का प्रौढ़तम ग्रंथ 'शब्द-रसायन' है, जिसमें उनके आचार्य और कवि दोनों रूपों के भव्य-दर्शन होते हैं। देव का रचनाफलक अन्य रीतिकालीन कवियों की तुलना में काफी विस्तृत है।

प्रचुर रीतिग्रंथों की रचना के अतिरिक्त उन्होंने संगीत संबंधी ग्रंथ 'राग-रत्नाकर', श्रीकृष्ण के चरित्र पर १५० छंदों का लघु खंडकाव्य 'देव-चरित्र', 'प्रबोध-चंद्रोदय' की शैली पर रचित पद्यमय दार्शनिक नाटक 'देव-माया-प्रपंच', 'जगद दर्शन', 'आत्म दर्शन',' तत्व दर्शन' और 'प्रेम पचीसी' जैसी चार पचीसियों वाली कृति 'देव शतक' जैसी कृतियाँ भी लिखी।


काव्यभाषा

काव्य में प्रयुक्त शैली, भाषा, अलंकार, मुहावरे-लोकोक्तियाँ, छंद, शब्द-शक्तियाँ काव्य भाषा के आयाम होती हैं। कवि देव के काव्य में उपर्युक्त आयामों का पूर्णतः सफल निर्वाह किया गया है। सूर, तुलसी, केशव, भूषण, बिहारी ने अपने काव्य में परंपरागत चली आ रही ब्रजभाषा को स्थान दिया। कवि देव की भाषा में भी ब्रज को इन कवियों की भाँति महत्वपूर्ण स्थान मिला। इन्होंने ब्रजभाषा में प्रस्तुत छंद इस प्रकार रचा है, कि एक-एक शब्द कर्णप्रिय एवं सार्थक है- 


पॉयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिनि में धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।।

माथे किरीट, बड़े दृग चंचल, मंद हंसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जै मंदिर-दीपक सुन्दर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई।।


काव्य की भाषा ऐसी होनी चाहिए, कि कवि के भाव स्वतः ही प्रकट हो जाएँ। पाठक को लेखक या कवि के भाव तक पहुँचने में अल्पतम समय लगे। इस कार्य को करने में जो अधिक और अनावश्यक शब्दों का आश्रय नहीं लेती, वही उत्तम काव्यभाषा होती है। हमारे कवि देव की काव्य भाषा इसी श्रेणी में आती है। छंद भावोद्रेक तथा भावों को तीव्रता प्रदान करते हैं। कवि देव ने वर्णिक, मात्रिक सभी छंदों का प्रयोग किया है। देव ने ३३ वर्णों की एक नवीन घनाक्षरी की उदभावना की, जो ‘देव घनाक्षरी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। रस-निरूपण में रीतिकालीन कवियों के मध्य देव का स्थान उच्चकोटि का है। शृंगार के संबंध में देव की अपनी मान्यताएँ हैं, जिनकी महनीयता उन्होंने अपनी सशक्त वाणी का विनियोग करते हुए तर्क पुष्ट प्रमाणों द्वारा यथास्थल प्रस्तुत की है।


विमल सुद्ध सिंगार रस 'देव' अकास अनंत।

                 उड़ि-उड़ि खग ज्यों ओर रस बिबस न पावत अंत ।। (शब्द रसायन)


अर्थात् शृंगार रस उस विमल (निर्मल) और शुद्ध अनंत आकाश की भाँति है, जिसमें अन्य रस पक्षी की भाँति उड़-उड़ कर थक जाते हैं और उसका पार नहीं पाते।

कवि अपनी काव्य-भाषा में ऐसे शब्दों का चयन करता है जो रमणीय, मनोहारी तथा सरल हों। देव का शब्द-भंडार अत्यंत समृद्ध एवं विशुद्ध है। तत्सम शब्दों से युक्त निम्न उद्धरण द्रष्टव्य है-


श्री वृंदावन चंद चरण जुग चरचि चित्त धरि।

दलि मल कलिमल सकल कलुष दुख दोष मोष करि।।

गौरिसुत गौरीस गौरि गुरुजन गुन गाये।

भुवन मातु भारती सुमिरि भरतादिक ध्याये।।


उपर्युक्त उद्धरण में चरण, कलुष, गुरु आदि तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।

मधुर, ललित, क्लिष्ट शैली के भी उद्धरण उनके काव्य-सौंदर्य को बढ़ाते हैं। राधा-कृष्ण के कथनों, प्रति-कथनों में देव ने जो व्यंग्य का चित्र खींचा है, वह उनकी व्यंग्यात्मक अथवा तीक्ष्ण शैली को प्रकट करता है, जो देखते ही बनता है-


राजपौरिया के रूप राधे को बनाइ ल्याई, गोपी मथुरा ते मधुवन की लतान में।

टेरि कह्यो कान्ह सों, चलो हो कंस चाहे तुम्हें, काके कहे लूटत सुने हौ दधि दान में।।

संग के न जाने गये डगरि डराने देव, स्याम ससवाने से पकरि करेपानि में।

छूटि गयो छल सों छबीली की बिलोकनि में, ढीली भई भौहें वा लजीली मुसकानि में।।


कवि द्वारा संगीतात्मक, उदात्त, दार्शनिक शैली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।

देव ने नायिका-भेद इतने किए, जितने किसी अन्य कवि ने नहीं किए। उनकी इन्हीं सब विशेषताओं को देखकर मिश्रबंधु ने उन्हें ‘हिंदी का मम्मट’ कहकर आचार्य पद से विभूषित किया है। जब हम प्राचीन अथवा देव के पूर्ववर्ती कवियों से कवि देव की तुलना करते हैं, तो स्पष्ट ही हम पाते हैं, कि देव की मौलिक विवेचना केशव आदि कवियों से भी श्रेष्ठ है।

देव की प्रशंसा करने वालों में मिश्रबंधु, भागीरथ मिश्र ही नहीं थे, अपितु 'शिव सिंह सरोज’ के रचयिता शिव सिंह भी हैं।  देव के विषय में उनका मत है- यह महाराज अद्वितीय अपने समय के भामह-मम्मट के समान भाषा-काव्य के आचार्य हो गए हैं। शब्दों में ऐसा समाव कहाँ है, जिनसे इनकी प्रशंसा की जावे।

एक स्वाभिमानी व्यक्ति को अपने अनुकूल वातावरण मिलना बहुत कम संभव होता है। देव ने अनुकूल परिस्थिति की तलाश करते हुए विभिन्न संघर्षों को झेलते हुए हिंदी साहित्य को जो साहित्य संपत्ति दी, वह अमूल्य तथा अक्षय निधि है। देव अपने काल के सर्वश्रेष्ठ कवि एवं आचार्य थे।


संदर्भ


  • देव और उनकी कविता : डॉ० नगेंद्र - नेशनल पब्लिकेशन हाउस, दिल्ली
  • रीतिकाव्य की भूमिका तथा देव : डॉ० नगेंद्र – गौतम बुक डिपो, दिल्ली 
  • देव-दुंदुभी : कुश चतुर्वेदी – इटावा हिंदी सेवा निधि
  • देव की दीपशिखा : भूमिका-संपादन- विद्यानिवास मिश्र (वाणी प्रकाशन)
  • देव की काव्य भाषा : डॉ० मंजू यादव
  • देव और उनका रस विलास : डॉ० दीन दयाल – नवलोक प्रकाशन, भजनपुरा, दिल्ली


लेखक परिचय


डॉ. मंजू यादव
रुचि- विभिन्न विधाओं में लिखना व पढ़ना
प्रकाशन- देव की काव्य भाषा (पुस्तक), विभिन्न पत्रिकाओं में लेख,कविता, कहानी आदि
सम्मान- मानस संगम शिवाला कानपुर के अंतरराष्ट्रीय मंच व इटावा हिंदी सेवा निधि द्वारा।
संप्रति– प्रवक्ता (हिंदी), जनता विद्यालय इण्टर कॉलेज बकेवर, इटावा, उत्तरप्रदेश।
संपर्क- 7906920609
ई-मेल-  my4973898@gmail.com 

2 comments:

  1. इस लेख के माध्यम से रीतिकाल हिंदी साहित्य के महाकवि देव के जीवन एवं साहित्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिली। इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए मंजू जी को हार्दिक बधाई।

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  2. मंजू जी आपने पूरी श्रद्धा और लगन से महाकवि देव के जीवन, कृतित्व और हिंदी-काव्य में उनके योगदान का अध्ययन कर यह अप्रतिम लेख हम सबको भेंट किया है। रीतिकाल की स्तुति-गान की परम्पराओं का निर्वहन करते हुए भी महाकवि देव ने अपने ह्रदय के उद्गारों से हमें समृद्ध किया। मंजू जी, इस लेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और शुक्रिया।

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