किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में उसके आरम्भिक जीवन का बहुत महत्त्व
होता है। बाल्यावस्था और किशोरावस्था का परिवेश, संस्कार और घटनाएँ
उसके व्यक्तित्व निर्माण में तन्तु-आधार का कार्य करती हैं। श्री यशपाल जैसे
कालजयी रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण का अध्ययन इसीलिये और भी अनिवार्य हो जाता
है, क्योंकि वे ‘कलम का सिपाही’ होने के साथ-साथ माँ भारती की ग़ुलाम-बेड़ियों को काटने में तत्पर किन्हीं
अर्थों में ‘बंदूक के सिपाही’ भी थे। सामाजिक-जीवन को बारीकी से समझने और
उसके अंतर्विरोधों से कलम के ज़रिये जूझने के कारण एक सजग, सक्रिय, परिवेश से चौकन्ने
नागारिक भी थे।
यशपाल वर्तमान हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा नामक स्थान के निवासी श्री हीरालाल जी के पुत्र थे। उनके पिता एक साधारण व्यवसायी थे। यशपाल की माँ, श्रीमती प्रेम देवी एक साहसी एवं संघर्षशील महिला थीं। यशपाल के व्यक्तित्व निर्माण में उनकी अहम् भूमिका थी। बेटे की शिक्षा के लिए उन्होंने फ़िरोज़पुर छावनी में अध्यापिका की नौकरी की। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में किसी भारतीय, वह भी पहाड़ी अंचल की साधारण महिला, का इस तरह नौकरी करना सोये हुए समाज को उकसाने के लिये काफ़ी था। परम्परावादी समाज ने यदि यशपाल की माँ के इस कृत्य का विरोध किया हो तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक न था, किन्तु आर्य समाजी सिद्धांतो से प्रभावित उनकी माँ द्वारा उठाया गया यह क़दम, लीक से हट कर उठाया गया एक स्तुत्य प्रयास था| अन्यथा कौन जाने, यशपाल जैसा कृतिकार हिन्दी को मिलता भी या नहीं? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विचार और व्यवहार दोनों स्तरों की क्रांति-दर्शिता नवजात बेटे यशपाल को दूध की घुट्टी और संस्कार के रूप में माँ से विरासत में मिली।
आठ साल की आयु में यशपाल को विद्याध्ययन के लिये गुरुकुल कांगड़ी भेजा गया। वहाँ का परिवेश संयमित जीवन, राष्ट्रप्रेम की प्रखरता और विदेशी दासता से बग़ावत की भावना से ओत-प्रोत था। ग़रीबी का अहसास और उसके ख़िलाफ़ तन कर खड़े होने का आत्मविश्वास तथा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह के भाव, ये दो तत्व गुरुकुल कांगड़ी के आँगन से ही यशपाल के व्यक्तित्व के अंग बन गये।
उनकी गुरुकुल कांगड़ी के बाद की पढ़ाई फ़िरोज़पुर छावनी में हुई, जहाँ उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ एक स्कूल में अध्यापन भी शुरू कर दिया था। उनकी निष्ठा, लगन और दायित्व-बोध को देखते हुए स्कूल की प्रबंध-समिति ने उन्हें प्रधानाध्यापक का दायित्व सौंप दिया था। वे अध्ययन व अध्यापन के साथ-साथ घर के काम में माँ का हाथ भी बँटाते। उनका ऐसा करना माँ के प्रति अनन्य भक्ति, पारिवारिक दायित्व-बोध और ‘सादा-जीवन, उच्च-विचार’ का साक्षात् उदाहरण है।
उन्होंने कांग्रेसी आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए फ़िरोज़पुर छावनी में विदेशी कपड़ों की होली जलायी| ग्रामीण क्षेत्रों में यात्राएँ कर राजनैतिक चेतना और जन-जागृति के कार्य किये। वे मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रविष्ट हुए। वहीं उनका परिचय भगत सिंह, सुखदेव और भगवती चरण वर्मा आदि क्रान्तिकारियों से हुआ। इतिहास और राजनीति के सुयोग्य शिक्षक पण्डित जयचंद्र विद्यालंकार के सान्निध्य में इस कॉलेज में रहकर यशपाल की दृष्टि पैनी और अधिक प्रखर हुई। वहीं पर हिन्दी के प्राध्यापक और प्रसिद्ध साहित्यकार उदय शंकर भट्ट के सान्निध्य में साहित्यिक प्रवृत्ति को समुचित मनोभूमि मिली। वहाँ रहते हुए यशपाल एक ओर मेधावी छात्र की अध्ययन-प्रवीणता, दूसरी ओर राजनैतिक-चेतना में सक्रियता और तीसरी ओर शिक्षकीय-वृत्ति कर जीवन-समर के तीन-तीन मोर्चों पर एक साथ संघर्ष कर रहे थे।
स्नातक होने के बाद यशपाल की आगामी जीवन-यात्रा उनकी क्रान्त्तिकारी साधना का गौरवमयी रेखांकन है। सन् १९२१ में चौरी-चौरा काण्ड की प्रतिक्रिया में गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया, जिस पर देश भर में गम्भीर प्रतिक्रिया हुई; विशेषकर नवयुवकों के मन में यह भावना घर कर गयी कि उग्र-क्रान्ति ही देश को आज़ादी दिला सकती है। तब ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र दल’ और ‘नौजवान भारत सभा’ ये दो मंच उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने का कार्य कर रहे थे। यशपाल उनमें शामिल हो गये। सन् १९२८ में ‘लाला लाजपत राय’ पर हुए लाठी प्रहार का बदला ‘साण्डर्स का वध’ करके लिया गया और उसके एक वर्ष बाद भगत सिंह ने दिल्ली असेम्बली में बम विस्फोट किया था। इन हरकतों से अंग्रेज़ी सत्ता के हाथ-पैर हिल गये और उनका खुफ़िया-तन्त्र सतर्क हो गया। लाहौर में बम फ़ैक्ट्री पकड़ी गयी। यशपाल वहाँ से फ़रार हो कर भगवती चरण के साथ किसी दूसरी जगह की तलाश कर क्रांतिकारी गतिविधियाँ करने लगे। इस नये स्थान रोहतक में वेश और नाम बदल कर यशपाल ने एक वैद्य लेखराम के यहाँ नौकरी कर ली। सन् १९२९ में ‘वायसराय लार्ड इरविन’ की गाड़ी को बम विस्फोट से उड़ा देने की योजना के वे प्रमुख सूत्रधार थे और अभिनयकर्त्ता भी। आख़िरकार यशपाल ने जीवन को दाँव पर लगाकर यह कार्य भी पूरी वीरता के साथ सम्पन्न किया और गोरी-सत्ता की आँखों में धूल झोंककर फिर विलीन हो गये।
यशपाल की राजनैतिक चेतना कांग्रेस से शुरू अवश्य हुई थी, किंतु उनकी आंतरिक संरचना और झुकाव समाजवादी थे। १९३१ में ‘हिंदुस्तान-समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ नामक संगठन, जिसका नेतृत्त्व चंद्रशेखर आज़ाद कर रहे थे, के सक्रिय सदस्य के रूप में उनका समाजवादी व्यक्तित्व उद्घाटित होने लगा। उसी वर्ष प्रयागराज में चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में मृत्यु के बाद, संगठन के नेतृत्व का भार यशपाल पर आ पड़ा। कुछ समय पश्चात पुलिस से हुई एक मुठभेड़ में यशपाल गिरफ़्तार कर लिये गये। जेल में उनके पास पढ़ने-लिखने का समय होता था। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन की शुरूआत हुई। जेल में ही उनकी शादी क्रांतिकारी आंदोलन की बड़ी समर्थक प्रकाशवती कपूर से हुई थी।
जेल में लिखी लगभग २० कहानियाँ, १९३९ में कहानी संग्रह “पिंजड़े की उड़ान” में छपीं।१९४१ में प्रकाशित पहले उपन्यास “दादा कामरेड” में लेखक ने अपने राजनीतिक और सामाजिक विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने भूमिका में लिखा है, “संसार में आज भी अनेक वादों-पूँजीवाद, नाज़ीवाद, गाँधीवाद, समाजवाद का संघर्ष चल रहा है। इस विचार संघर्ष की नींव में परिस्थितियों, व्यवस्था, और धारणाओं में सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न है। इन वादों के सामंजस्य से उत्पन्न समन्वय ही मनुष्य की नई सभ्यता का आधार होगा। मनुष्य होने के नाते हम इस संघर्ष की उपेक्षा नहीं कर सकते। इस संघर्ष के परिणाम के सम्बन्ध में हमारी चिंता की भावना नहीं, स्वयं अपने और समाज के जीवन की चिंता है।” इस उपन्यास में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध सक्रिय एक गुप्त क्रांतिकारी दल और उसके अंतर्विरोध दिखाए गए हैं। इसके आलावा लेखक ने स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध मार्क्सवादी दृष्टिकोण से दिखाने और समझाने की कोशिश की है। इस उपन्यास का स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से आज भी बहुत महत्त्व है। यह इतना अधिक प्रसिद्ध हुआ कि इसके कई संस्करण निकाले गए तथा कई भारतीय भाषाओं में अनूदित किया गया।
यशपाल की लेखनी सदा वामपंथी विचारधारा से प्रेरित रही, इसीलिए उनके लेखन में समाज के शोषित और पीड़ित लोगों पर विशेष ज़ोर है। आमतौर पर उनकी कहानियों का आधार पारिवारिक घटनाएँ होती हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साक्षी यशपाल का नाम हिन्दी साहित्य के शीर्ष साहित्यकारों में लिया जाता है और हमेशा लिया जायेगा।
परिचय-वृत्त |
|
नाम |
यशपाल |
जन्म |
०३ दिसम्बर १९०३, फ़िरोज़पुर छावनी (पंजाब) |
माता-पिता |
श्रीमती प्रेम देवी- श्री हीरा लाल |
शिक्षा |
बी.ए. (नेशनल कॉलेज, लाहौर) |
साहित्यिक रचनाएँ |
|
कहानी संग्रह |
पिंजरे की उड़ान, तर्क
का तूफ़ान, वो दुनिया, ज्ञानदान, अभिशप्त, फूलों का
कुर्ता, धर्मयुद्ध, सच बोलने की भूल, तुमने
क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ, भूख के तीन दिन |
उपन्यास |
दादा कामरेड, देशद्रोही, दिव्या, झूठा
सच, गीता पार्टी कामरेड, बारह घण्टे, अमिता, मनुष्य के रूप, अप्सरा का श्राप, क्यों फँसे, तेरी मेरी उसकी बात |
कथात्मक जीवनी |
सिंहावलोकन |
निबंध |
बीबी जी कहती हैं मेरा चेहरा रोबीला है, न्याय
का संघर्ष, रामराज्य की कथा, गांधीवाद की शव परीक्षा, मार्क्सवाद |
पुरस्कार व सम्मान |
|
सोवियत
भूमि नेहरू पुरस्कार (१९६९) पद्म
भूषण (साहित्य-शिक्षा) (१९७०) साहित्य
अकादमी पुरस्कार भारतीय
डाक विभाग द्वारा ५ रु. मूल्य का डाक टिकिट प्रकाशित किया गया
(२००३) |
|
निधन |
२६ दिसम्बर १९७६, वाराणसी (उ.प्र.) |
संदर्भ-
- १. सिंहावलोकन भाग-१,२,३– यशपाल
- २. झूठा सच (उपन्यास) – यशपाल
- ३. दिव्या (उपन्यास) – यशपाल
- ४. दादा कॉमरेड (उपन्यास)-- यशपाल
लेखक परिचय:
शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिन्दी, अँग्रेज़ी), एम.फ़िल. (हिन्दी)
अध्यापन- विगत २५ वर्षो से हिन्दी
(भाषा-साहित्य)
सम्प्रति- उच्च माध्यमिक शिक्षक – हिन्दी, शासकीय बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, जैतवारा, सतना (म.प्र), भारत
वाह! यशपाल जी का सुंदर परिचय
ReplyDeleteयशपाल जी पर बढ़िया लेख
ReplyDeleteअरविंद जी, यशपाल जी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व निर्माण से लेकर साहित्यिक यात्रा पर आपने बहुत रोचक आलेख लिखा है। आपकी भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ है। बधाई आपको।
ReplyDeleteयशपाल जी के व्यक्तित्व निर्माण की मुख्य घटनाओं को उजागर करता यह लेख उनके कृतित्व को सुंदरतर तरीके से प्रकाशमान करता है। विचारों को कहानियों में परिवर्तित करने की अनोखी क्षमता रखने वाले लेखक को सलाम। अरविन्द जी, आपने उनके जीवन और रचनाओं के साथ पूर्णतः न्याय किया है, आपका बहुत आभार और सहृदय बधाई।
ReplyDeleteस्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले एवं क्रांतिकारी यशपाल जी के जीवन पथ निर्माण से लेकर साहित्य में उनकी प्रभामयी यात्रा को लेख में बहुत अच्छे से पिरोया है। एक बढ़िया लेख के लिए अरविंद जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअरविंद जी, यशपाल जी के क्रांतिकारी जीवन तथा साहित्यिक यात्रा पर आपने बहुत रोचक आलेख लिखा है। यशपाल जी मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं । उनका उपन्यास 'झूठा सच' एक अविस्मरणोय रचना है। साधुवाद !
ReplyDelete-आशा बर्मन ,हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा
शानदार व्यक्तित्व पर एक शानदार आलेख! पढ़ते-पढ़ते किसी फ़िल्म को देखने की सी अनुभूति हो रही थी। बहुत आभार और साधुवाद
ReplyDeleteआलेख का शीर्षक 'बुलेट से बुलेटिन' ही बड़ा धमाकेदार और बहुत कुछ कहने वाला है।
Deleteयशपाल जी के अकसर ठीक से न समझे जाने वाले पहलू थे ऽ यह आलेख अन के समूचे व्यक्तित्व को सच्चाई से समेटता है।
ReplyDelete