कई विधाओं में लिखने वाले हिन्दी साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर, प्रगतिशील लेखक स्वयं प्रकाश जी हिन्दी साहित्य संसार में कहानियों और उपन्यासों के लिए बहुत मशहूर हैं। भारत की आज़ादी के वर्ष में इनका जन्म मध्य प्रदेश में हुआ, जीवन के आखिरी १६-१७ वर्ष भोपाल में रहे, लेकिन उनके जीवन का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता, जिसका इनके लेखन पर गहरा असर दिखाई देता है। पैतृक घर अजमेर में और ननिहाल इंदौर में होने से इन्हें राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों की संस्कृतियाँ विरासत में मिलीं। युवा आलोचक, लेखक पल्लव के साथ बातचीत में स्वयं प्रकाश ने बताया, कि एक समय वे अभिनेता बनना चाहते थे। कुछ समय पश्चात लगने लगा, अभिनेता से बड़ा निर्देशक होता है और उसके बाद लगा अच्छे निर्देशन के लिए अच्छा लेखन ज़रूरी है तथा लेखन के लिए जीवन देखना ज़रूरी है, जिसके लिए जनमानस के जीवन से अंतरंग होना आवश्यक है।
आईये, हम उनके दिलचस्प जीवन और व्यक्तित्व से परिचित होते हैं। इंदौर में स्कूल के बाद जावरा पॉलिटेक्निक कॉलेज से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा के बाद पहली नौकरी भारतीय नौसेना में की। इस समय इनका रुझान कविताओं की तरफ अधिक हो गया था, इसलिए इस नौकरी में इनका दिल नहीं रमा। इसे छोड़कर बंबई में जो भी काम मिला, किया और एक अच्छी नौकरी की तलाश में कुछ वर्ष भटके। यह इनके जीवन का बेहद मुश्किल दौर था, रहने और खाने का कोई ठिकाना नहीं था, जिसके नतीजन बुरी तरह बीमार होकर पैतृक शहर अजमेर लौटना पड़ा। कुछ वर्ष पश्चात मद्रास में डाक-तार विभाग की छह महीने की ट्रेनिंग के बाद जोधपुर, भीनमाल, जैसलमेर, सुमेरपुर में नौकरी की। इस दौरान इन्होंने हिन्दी में बी. ए., एम. ए. तथा पी. एच. डी. कर ली। नौकरी बदलकर हिन्दुस्तान ज़िंक लिमिटेड से राजभाषा अधिकरी बनकर छह वर्ष ओडिशा के आदिवासी क्षेत्र में शीशे की खदान में कार्यरत अहिन्दी भाषी मज़दूरों को हिन्दी सिखाने का कार्य किया। वहाँ से लौटकर राजस्थान के जावर और दरीबा माइन्स में काम किया। अब तक स्वयं प्रकाश अच्छे लोगों की अच्छी बातों के बारे में ही लिखा करते थे। इस दौर की कहानियों में ख़लनायक बहुत कम होते थे। अब इनकी इच्छा यह जानने की हुई कि चोर, निक्कमे, भ्रष्ट लोग कैसे होते हैं और क्या करते हैं! इसलिए सी. बी. आई. में ट्रेनिंग करके, राजभाषा विभाग छोड़कर सतर्कता विभाग में आ गए। हिन्दुस्तान ज़िंक लिमिटेड के निजीकरण के बाद २००३ में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर भोपाल लौटकर लेखन करते रहे।
स्वयं प्रकाश का रचना संसार: बचपन से पढ़ने के अच्छे संस्कार मिले। शाम को बच्चे-बड़े मिलकर सस्वर काव्यपाठ करते, इंदौर आने वाले लेखकों, राजनीतिज्ञों के भाषण सुनते। सातवीं-आठवीं कक्षा में साहित्य पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि ख़ूब किताबें पढ़ीं और साहित्य के माध्यम से दुनिया को जाना-समझा। इन्हें नौकरी के दौरान छोटे-छोटे, दूरस्थ गाँवों और कस्बों को घूम-घूमकर देखने तथा मज़दूरों के साथ रहने और उनके जीवन से परिचित होने के अच्छे अवसर मिले, जिनका लेखक के रूप में बड़ा फ़ायदा हुआ। लिखने की शुरुआत कविता से की, लेकिन मंटो, बेदी और को पढ़ने के बाद, जिन्हें ये अपना गुरु मानते हैं, अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए कहानी लेखन पर अधिक ज़ोर देना आरम्भ किया। कहानी लेखन शैली प्रेमचंद की थी। इनकी पहली कहानी ‘प्रभाव’ सारिका में उस दौर के बड़े-बड़े लेखकों के साथ छपी और अगले ४-५ वर्षों में बहुत कहानियाँ लिखीं और छपीं। ये समाज में भेदभाव, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, जाति प्रथा, प्रशासन पर व्यंग्य या किसी भी दूसरे विषय पर अपनी गंभीर से गंभीर बात सहज और सरल शब्दों में लिखने में कुशल थे। पाठक के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव इस प्रकार सार्वजानिक करते थे, कि पाठक को लगता जैसे यह उसका अपना अनुभव है। अपनी रचनाओं में उपदेश न देकर, क्या भला है और क्या बुरा है, यह स्पष्ट कर देते थे।कहानी ‘बाबूलाल तेली की नाक’ लोककथात्मक शैली में लिखी बड़ी हृदयस्पर्शी कहानी है। इसमें जातिवाद, अत्याचार, दादागिरी, अस्पताल में प्रशासन का अमानवीय व्यवहार, इलाज के नाम पर लूट जैसी समस्याएँ दिखाई हैं और तीखा व्यंग्य कसा है। स्वयं प्रकश बहुत अधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं।स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में इनकी कहानियाँ शामिल होने से लेकर विश्वविद्यालयों में इनकी कृतियों पर अनेक शोधकार्य हो चुके हैं। बाबूलाल तेली की नाक, नीलकांत का सफ़र, पार्टीशन, नैनसी का धूड़ा, चौथा हादसा, क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है, नेताजी का चश्मा आदि कहानियाँ सबसे अधिक पढ़ी और सराही गई कहानियों में शामिल हैं।
स्वयं प्रकाश मार्क्सवाद के समर्थक थे। इसकी नींव इंदौर में उस समय के बड़े कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी के भाषणों से पड़ी, जिसका उन्होंने आगे चलकर समर्थन किया। उनकी कहानियों में शोषण के ख़िलाफ़ चेतना का भाव देखने को मिलता है।उपन्यास ‘बीच में विनय’ इसका प्रतिनिधि उदहारण है।
स्वयं प्रकाश की रचना यात्रा में एक पड़ाव ऐसा आया कि इन्हें लगा, अरे, अभी तक बच्चों के लिए तो कुछ भी नहीं लिखा! तब इनका ध्यान नन्हें पाठकों की तरफ गया। कई वर्ष बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ का सम्पादन किया और सम्पादन के अनुभव से यह महसूस किया कि बच्चों के लिए लिखना बहुत मुश्किल और चुनौतीपूर्ण काम है। इनके विचार से बाल साहित्य में कल्पनाशक्ति ज़रूर होनी चाहिए, बच्चों की जिज्ञासा वृत्ति को बढ़ावा मिलना चाहिए तथा विचार-विमर्श के लिए कुछ प्रश्न नन्हें पाठकों के लिए छोड़ देने चाहिए।
वरिष्ठ लेखक स्वयं प्रकाश ने ढाई सौ के करीब कहानियाँ लिखी हैं, अधिकाँश के पात्र और घटनाएँ यथार्थ हैं, कहीं-कहीं पर तो नाम भी वही हैं। लेकिन फिर भी अनेक घटनाओं को किसी न किसी कारणवश लेखन में जगह नहीं मिली, जिनसे पाठकों को रूबरू कराना ज़रूरी था। इसलिए ‘धूप में नंगे पॉंव’ आत्मकथात्मक पुस्तक लिखी, जो हिन्दी साहित्य की एक विशेष रचना है। विशेष इसलिए है कि यह पारम्परिक विधा से हटकर अनोखी विधा में लिखी गई है। इसे पढ़ते समय हमें कभी डायरी, कभी वृतांत, कभी कहानी का आभास होता है। लेखक ने बड़ी आत्मीयता से बीते दौर तथा अपने मित्रों को याद किया है। इसे पढ़ते समय मालूम चलता है कि लेखक ने कैसे जीवन देखा, अनुभव प्राप्त किये और कैसे-कैसे मुश्किल दौर से गुज़रे हैं। सिरोही कॉलेज में हिन्दी के अध्यापक, स्वयं प्रकाश के अभिन्न मित्र दुर्गा प्रसाद, जिनका ‘धूप में नंगे पाँव’ में कई बार नाम आता है, ने अपने स्मृति लेख में लिखा है- “उनकी सुरुचि ने मुझे उनका मुरीद बनाया। बात चाहे खाने-पीने, रहन-सहन की हो, चिट्ठी लिखने की हो, आपसी रिश्तों के निर्वहन की हो, स्वयं प्रकाश सुरुचि का पर्याय थे। कम में भी कैसे ज़िंदगी के रस को छक कर पिया जा सकता है, यह मैंने केवल उनमें देखा, उनसे सीखा भी।”
समकालीन साहित्य के लोकप्रिय कहानीकार को फ़िल्मी दुनिया का अनुभव भी था। चार हिन्दी फ़िल्मों के सहायक निर्देशक रहे, जिनमें से दो पूरी नहीं हुईं, तीसरी पूरी होने पर भी रिलीज़ नहीं हुई तथा चौथी फ़िल्म ‘दस्तक’ ख़ूब चली और उसे राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। इन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री के अनुभव अलग से भी लिखे हैं। स्वयं प्रकाश जी बहुत बढ़िया गाते थे, खूब मज़ाक करते और ख़ुद के साथ घटे क़िस्से पूरे आनन्द से सुनाते थे। पेश है जयपुर में अपने मित्र ‘लोकायत प्रकाशन’ के प्रकाशक शेखर जी को सुनाया एक क़िस्सा - “वे सरकारी दफ़्तर एक व्यक्ति विशेष से मिलने पहुँचे। चपरासी ने बताया, वे नाचने गए हैं। स्वयं प्रकाश जी ने कहा, वे नहीं हैं तो उनके सहायक से बात करना चाहेंगे। मालूम चला वे भी नाचने गए हैं। अच्छा! तो उनके उच्चाधिकारी से मिलवा दीजिए। पता चला वे भी नाचने गए हैं। वे हैरान कि दफ़्तर के समय में ऐसा कैसे हो सकता है कि एक साथ इतने सारे लोग नाचने जाएँ! उसके बाद चपरासी से पता चला कि नाचने एक छोटे से गाँव का नाम है।”
मेरे प्रिय लेखक स्वयं प्रकाश बहुत विनम्र, लज्जाशील, सहज और ईमानदार थे। ये माइन्स में नौकरी के दौरान एक बार अपने चपरासी के साथ एक कमरे में रहे और दोनों ने बारी-बारी से खाना भी बनाया। इस महान हस्ती का ७ दिसम्बर २०१९ को मुम्बई में रक्त कैंसर से निधन हो गया। रचनाकार कभी मरता नहीं, हम सब उनकी रचनाओं के माध्यम से उनसे मिलते रहेंगे। साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत संस्थान ‘स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास’ ने साल २०२१ से वरिष्ठ लेखक स्वयं प्रकाश की याद में राष्ट्रीय स्तर का वार्षिक सम्मान शुरू किया है। लेखक मनोज कुमार पांडेय को कहानी संग्रह ‘बदलता हुआ देश’ के लिए पहला पुरस्कार २०२१ में प्रदान किया गया।
सन्दर्भ:
१. https://dpagrawal.blogspot.com/2020/
२. पल्लव के साथ बातचीत
३. https://www.rachanakar.org/2008/12/blog-post_06.html लक्ष्मण व्यास से बातचीत
४. https://pratibhakatiyar.blogspot.com/2016/04/blog-post_20.html फिल्म के बारे में
५. धूप में नंगे पाँव, राजपाल प्रकाशन
लेखक परिचय:
डॉ सरोज शर्मा, भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एम.ए, पीएच.डी; रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव रखती हैं; वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा हैं।
प्रगतिशील लेखक स्वयं प्रकाश जी के साहित्य एवं व्यक्तित्व को सरोज जी ने बहुत अच्छे ढंग से इस लेख में समेटा है। सरोज जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteदीपक जी, आपके प्रोत्साहन से कृतज्ञ हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteस्वयं प्रकाश जी के जीवन का उल्लेख करती सुंदर अभिव्यक्ति...बेहतरीन आलेख सरोज जी
ReplyDeleteरश्मि, हार्दिक धन्यवाद।
Deleteसरोज जी जब पहली बार यह धाराप्रवाह लेख पढ़ा था तब ही बहुत प्रभावित हुई थी! इतना mutable व्यक्तिव हर किसी का नहीं होता कि crime branch, mines, से ले कर फ़िल्मों में काम कर ले, उसी सुगमता से जिस से गार्ड के लिए रोटी बना ले!
ReplyDeleteस्वयं प्रकाश जी पर जो पंक्तियाँ उनके मित्र ने कहीं, - उसका keyword- सुरुचि ही उनको परिभाषित करता है। एक रोचक लेख में यह सब समेटने के लिए शुक्रिया 🙏🏻 यह मक्खन लेख है 😍
Deleteशार्दुला, तारीफ़ के लिए तहे दिल से शुक्रिया। तुम्हारे शब्दों से उत्साह बढ़ता है। स्वयं प्रकाश जी बहुत ही सहज व्यक्ति थे। उन्होंने लेखन के लिए आम लोगों से मिलने और उन्हें समझने के लिए पहली नौसेना की नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरियाँ बदली। लगता है, वे जितने सहज थे और जैसी सहजता से लिखते तथा सारे काम करते थे उतनी ही सहजता से अलग-अलग नौकरियाँ भी कर लेते थे।
स्वयं प्रकाश जी की कहानियों के रंग, उनकी भावनाओं की तरंगों और जीवन के प्रति उनके रवैये से मिलवाता यह लेख बहुत दिलचस्प और धाराप्रवाह है। सरोज को इस सुन्दर लेखन की बधाई और बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteप्रगति, तुम्हें आलेख पसंद आया, हृदय से आभारी हूँ मुझे प्रेरित करने के लिए
Deleteबहुत ही सुंदर आलेख सरोज जी, वह एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा थे जिन्होंने सदैव अपने मन की सुनी और सफलता भी हासिल की, उनकी कहानियां मैंने पढ़ी हैं,उनका लेखन शानदार है।
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