ऐसा लगता है, इन पंक्तियों को श्री कामता प्रसाद गुरु जी ने अपने जीवन में अक्षरश: चरितार्थ कर दिखाया था। उन्होंने शिक्षा के द्वारा न केवल अपने व्यक्तित्व का अनूठा विकास किया, बल्कि हिंदी भाषा का मानकीकरण कर, आने वाली पीढ़ियों को एक अमूल्य भेंट भी दी। इसलिए जिस तरह 'पाणिनी' को “संस्कृत भाषा का जनक" कहा जाता है, उसी तरह 'श्री कामता प्रसाद गुरु' जी को "हिंदी भाषा और व्याकरण का पाणिनी" कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
जीवन परिचय
११ वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करके १८९३ में ये सागर के उच्च विद्यालय में शिक्षक बन गए। उसके बाद १९२६ से अंतिम दिनों तक जबलपुर ही इनकी कर्मभूमि रही, जहाँ पूरे मन से ये हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा में तल्लीन रहे। उन्होंने शिक्षा विभाग में पूरे २४ वर्ष तक कार्य किया। अपने शैक्षिक जीवन में ये हिंदी भाषा को मानक रूप देने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। अपने निबंधों से हिंदी व्याकरण के मूलभूत नियमों और व्याकरण की तरफ सबका ध्यान खींचते रहे। ये शिक्षा विभाग से सहायक शिक्षक के रूप में १९२८ में सेवानिवृत्त हुए। लगभग ३४ साल तक इन्होंने एक सच्चे गुरु और प्रख्यात शिक्षक की भूमिका निभाई और परिणामस्वरूप अनगिनत लोगों का प्यार और सम्मान इन्हें मिला। इनका नाम "गुरु" होने के पीछे भी एक रोचक तथ्य है। इनके पूर्वज कानपुर के रहने वाले थे। वहाँ के दाँगी राजाओं के यहाँ वे रानियों को शिक्षा-दीक्षा देने का काम करते थे और रानियों के गुरु के रूप में जाने जाते थे, बस वहीं से इनके पूर्वजों को ये उपाधि मिली और उन्होंने अपने नाम के आगे से पांडे हटाकर "गुरु" लगाना शुरू कर दिया।
इनकी पत्नी का नाम लीलावती गुरु था। पत्नी के अलावा इनके परिवार में चार होनहार पुत्र और एक विदुषी पुत्री थी। उनका कोई भाई-बहन नहीं था।
परिवार में ये बहुत अनुशासन प्रिय थे। ग़लत समय पर आना-जाना पसंद नहीं करते थे। हमेशा नियम से ही रहते थे। शिक्षा पर बहुत ध्यान देते थे, इनके सभी पुत्र और पुत्री अच्छी-अच्छी जगहों पर कार्यरत हुए। उनकी बेटी भी कविताएँ लिखती थीं।
साहित्यिक सफ़र
श्री कामता प्रसाद गुरु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने न केवल निबंध के क्षेत्र में अपनी कलम चलाई, बल्कि कहानी और उपन्यास भी लिखे। वे एक प्रसिद्ध कवि भी थे। उनका प्रथम काव्य संकलन "भामासुर का वध" १८९६ में प्रकाशित हुआ, तब वे मात्र बीस वर्ष के थे। बस तभी औपचारिक रूप से इनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत हुई। वे एक बहुत ही संवेदनशील कवि थे। उनकी भावात्मक कविताओं में पारिवारिक जीवन के आदर्शों और जीवन के सुखद और दुखद पहलुओं को चित्रित किया गया है। उनकी कविता "बेटी की विदा" की ये पंक्तियाँ मन को भिगो देती हैं -
हड्डी, मांस, रक्त, तन मेरा है ये बेटी न्यारी, करो इसे स्वीकार, हुई यह अब हर भाँति तुम्हारी ।
वहीं दूसरी तरफ़ वे अपनी अगली कविता "बहु की अगवानी" में कहते हैं -
"मेरी बहू, तुम्हारी बेटी, है ये भोलीभाली, लेकर सखी बनाऊँगी मैं इसे चतुर गुण वाली,
यदि अशिष्ट है ये सचमुच तो इसे शिष्ट करूँगी, अपनी स्वयं शिष्टता इसके मन में सहज भरूँगी।"
इन्होंने भाषा और साहित्य के क्षेत्र में कई नए प्रयोग भी किए। इन्होंने लगभग एक वर्ष (१९२०) तक इंडियन प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित "बालसखा" और "सरस्वती" पत्रिकाओं का संपादन किया। लखनऊ में १९१४ में हुए साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में इन्होंने हिंदी व्याकरण पर लिखा अपना लेख प्रस्तुत किया। १९१६ में जबलपुर के सप्तम हिंदी साहित्य अधिवेशन में इन्होंने व्याकरण की महत्ता पर लेख पढ़ा। उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी और माधव राव सप्रे के समर्थन पर नागिरी प्रचारिणी सभा ने इन्हें व्याकरण लिखने का उत्तरदायित्व सौंपा। इनके घर के सदस्यों से बात करने पर ये पता चला, कि उन्हें अन्य कई और भाषाओं का भी ज्ञान था और हिंदी व्याकरण लिखने से पहले इन्होंने कई और भाषाओं के व्याकरण का गहन अध्ययन किया था तथा ७ वर्षों के अथक प्रयास के बाद इन्होंने हिंदी का प्रथम प्रामाणिक व्याकरण लिखा। नागिरी प्रचारिणी सभा की संशोधन समिति ने इनकी किताब की मुखर रूप से प्रशंसा की। रामनारायण मिश्रा, रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू श्याम सुंदर दास और लज्जा शंकर झा इनके साहित्यिक मित्र थे, जिनके साथ इनका रोज़ का उठना बैठना था और साहित्यिक चर्चाएँ हुआ करती थी।
जैसा कि हमने देखा श्री कामता प्रसाद गुरु को साहित्य की कई विधाओं में निपुणता प्राप्त थी, पर देश में सबसे अधिक ख्याति उन्हें व्याकरण आचार्य के रूप में मिली। हिंदी व्याकरण की कई छोटी-मोटी पुस्तकें प्रकाशित होती रहती हैं, लेकिन इनके द्वारा लिखित व्याकरण की पुस्तक आज भी सर्व-व्यापक और मौलिक पुस्तक मानी जाती है।इनकी इस किताब में कई ग्रंथों का अध्ययन, वर्षों का अथक परिश्रम, विषय का अनुराग एवं स्वार्थ-त्याग सम्मिलित हैं। इनकी इस पुस्तक में व्याकरण की अन्य विशेषताओं के अलावा एक बड़ी विशेषता यह भी है, कि नियमों के स्पष्टीकरण के लिए इसमें जो उदाहरण दिए गए हैं, वे अधिकतर विभिन्न कालों के हिंदी के प्रतिष्ठित और प्रामाणिक लेखकों के ग्रंथों से लिए गए हैं। सामूहिक रूप से अपने गुण वैशिष्ट्य और प्रस्तुति के कारण यह पुस्तक हिंदी व्याकरण पर अब तक की सबसे प्रामाणिक और व्यावहारिक पुस्तक मानी जाती है। इसी कारण इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है।
हिंदी के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने उन्हें "हिंदी वाचस्पति" की उपाधि से विभूषित किया था। जीवन के अंतिम काल तक वे साहित्य सृजन करते रहे। हिंदी भाषा और साहित्य के इस अग्रज का शरीर जबलपुर में १६ नवंबर १९४७ को शांत हो गया। भारत सरकार ने इनके सम्मान में १९७७ में डाक टिकट जारी किया। इनका संपूर्ण जीवन मातृभाषा शोधन, परिमार्जन तथा साहित्य के विभिन्न रूपों की अभिव्यक्ति को समर्पित रहा। उनके इस चिरस्मरणीय योगदान के लिए भावी पीढ़ियाँ सदैव नतमस्तक रहेंगी।
संदर्भ
- आभार इनकी धर्मपत्नी श्रीमति प्रेमलता गुरु, पड़पोते श्री आशीष गुरु और पड़ पड़ पोती तृप्ति गुरु का।
- https://books.google.com/books/about/Hindi_Vyakaran_Grammar.html?id=xHJnDwAAQBAJ
- https://en.wikipedia.org/wiki/Kamta_Prasad_Guru
- Sahitya Sagar Ep 24 | Pandit Kamta Prasad Guru- A discussion by Dr.Ghanshyam Bharti | Pradhan Nama
लेखक परिचय
एक हिंदी शिक्षिका हैं, जो बच्चों की ज़िंदगी में एक सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश करती हैं।
हिंदी भाषा के प्रति अपने प्रेम को वे कहानी, नाटक, कविता, लेख,अनुवाद, पॉडकास्ट, रेडियो शो इत्यादि के जरिये अभिव्यक्त करने की कोशिश करती हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार एवं हिंदी व्याकरण के स्तम्भ कामता प्रसाद जी के जीवन एवं साहित्य से बखूबी परिचित कराता हुआ उत्तम लेख है। सोमा जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteहिंदी भाषा के मानकीकरण के लिए अथक प्रयास करने वाले और साहित्य को अपने सशक्त विचारों से समृद्ध करने वाले कमाता प्रसाद जी पर उत्तम लेख। सोमा जी,आपने उनके शिक्षक, लेखक, अनुवादक, आलोचक और हिंदी को व्यावहारिक व्याकरण पुस्तक देने के सभी पहलुओं को बखूबी पेश किया है; आपको इस अनुपम कार्य के लिए बहुत बधाई और शुक्रिया।
ReplyDeleteसोमा जी , श्री कामता प्रसाद गुरु पर लिखा हुआ आपका लेख अभी पढ़ा । वास्तव में हिंदी भाषा में कामता प्रसाद जी का योगदान बहुमूल्य है । मुझे लेख पढ़ते हुए बहुत अच्छा लगा।लेख का कहन रोचक कहानी की तरह आगे बढ़ता है , जैसे चित्रा मुद्गल जी वाले लेख में था । और जैसे किशोरीदास जी की सरलता के अनुसार उनका लेख भी सहज- सरल भाव में था , वैसे ही आपका लेख भी कामता प्रसाद जी की सरलता के अनुरूप ही लिखा गया है । इतने सरल और रोचक ढंग से इतनी अधिक जानकारी देने के लिए आपको धन्यवाद । 💐💐
ReplyDeleteतबियत थोड़ी ठीक न होने के चलते आदरणीय सोमा व्यास जी का लेख अभी पढ़ने का समय मिला।
ReplyDeleteशिक्षा की विस्तृत परिभाषा जानना हो तो आदरणीय श्री कामता प्रसाद गुरु जी को पढ़ना और समझना बहुत जरूरी हैं। हिंदी व्याकरण के रचियता और साहित्य को औपचारिक रूप देनेवाले गुरुजी की लेखनी से बहुत कुछ सीखने को मिला हैं। पंडित जी का हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं।आदरणीय सोमा व्यास जी के लेखन ने उनके गुण वैशिष्ट्य और साहित्यिक प्रवास से अवतारित कराया इसलिए उनका हार्दिक आभार और उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।