Friday, December 24, 2021

नारी-विमर्श के मानवीय संवेदना पक्ष की पैरोकार : उषा प्रियंवदा

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हिंदी साहित्य में उषा प्रियंवदा कथाकार के रूप में विशिष्ट पहचान रखती हैं। उन्होंने कहानियों और उपन्यास के कथानकों में जहाँ नारी-विमर्श को मानवीय संवेदना के धरातल पर प्रस्तुत किया है, वहीं नारी–समाज में अपने आत्माभिमान की भावना को जागृत करने का भी स्तुत्य प्रयास किया है। नारी-विमर्श से जुड़े मुद्दों को साहित्य में बेबाकी से अभिव्यक्त करने के कौशल के कारण, वे साहित्यकारों और पाठकों के बीच अपनी साख बनाने में सफल हुई हैं। उषा प्रियंवदा ने भारत और विदेश दोनों स्तरों पर नारी-परिवेश को नज़दीकी से देखा और अनुभव किया है, इसलिए उनके साहित्य के नारी पात्र अपने विचार, बौद्धिक स्तर, अपनी प्रतिभा, चिंतनशील प्रवृत्ति एवं संवेदनशीलता के कारण वर्तमान समाज के साथ संगति बनाने में सफल हुए हैं। 
उषा प्रियंवदा  ने विपुल साहित्य का सृजन किया है। साहित्य-लेखन के संबंध में एक जगह उषा जी अपना परिचय देते हुए लिखती हैं - " मेरा जीवन एक पुस्तक है, जिसमें एकदम कुछ खुला है और कुछ गोप्य है, जो मेरा प्राप्य और संचित पूंजी है। जो मेरी प्रेरणा का स्रोत है और उत्स है। पर जब यह कहानी या उपन्यास के माध्यम से पृष्ठों पर निखरता है, तब इतना बदला हुआ है, कि उसमें मेरा कुछ भी अंश नहीं होता। शायद आत्मकथा और गल्प में यही अंतर होता है। जीवन अनुभवों, भावनाओं, विचारों, अनुभूतियों के एक पतले से तंतु को लेकर एकदम नया संसार गढ़ सकना, उसे तरह-तरह के चरित्रों  से आबाद करना, इसी में मेरी वास्तविकता है, प्रेरणा और कल्पना का मिश्रण है। " (मेरी कहानियाँ उषा प्रियंवदा, सं - डॉ. निर्मला जैन )
लेखकीय परिस्थितियों के बारे में उषा प्रियंवदा का मानना  है - " मैं यह भी नहीं जानती, कि जो कुछ लिखा जा रहा है, वह पूरा भी होगा, या ‘अधूरे प्रारंभ’ या ‘नोट्स फॉर ए न्यू नॉवेल’ या ‘गुड बिगनिंग’ नामक फाइलों में बंद होकर बरसों उपेक्षित पड़ा रहेगा। पिता की मृत्यु के बाद संयुक्त परिवार में शिक्षित माँ की उपेक्षा और दुर्गति पर मेरे मन में कट्टर पुरुष प्रधान परंपरा पर जो क्रोध जन्मा, उसने ही मेरे जीवन की दिशाएँ निर्धारित की। आपको जानकर प्रसन्नता होगी, कि दादाजी लड़कियों की उच्चशिक्षा के हिमायती थे, तो हमें भी पढ़ने का अवसर मिला और स्कूल में हमेशा ही शिक्षकों से स्नेह और सम्मान पाया। इसी भावभूमि में लेखन शुरू हुआ और प्रारंभिक कहानियों में स्त्रियों की विवशता पूर्ण ज़िंदगी की और उनके आँसुओं से भीगी यथार्थ परिवेश के आधार पर कहानियाँ लिखीं जो ‘सरिता’ में प्रकाशित हुई। इन कहानियों ने मुझे संबल दिया है। "
अपनी सृजन प्रक्रिया की रूपरेखा उषा प्रियंवदा ने इस प्रकार दी है- ‘लिखने के लिए भी एक छोटा सा रिचुअल है। काफी देर तक विचार उमड़ते रहने पर भी हाथों से इधर उधर कुछ करती रहती हूँ। पेड़ों में पानी देना, जूड़ा खोलकर चोटी बाँधना, फर्नीचर को यहाँ से वहाँ लगाना, हर क्रिया उस क्षण को पास लाती जाती है, जिस क्षण से कलम उठाकर लिखना प्रारंभ होगा। एक बार बैठने पर फिर कुछ दुश्वार नहीं लगता, क्योंकि अदृश्य द्वार खोलकर मैं एक ऐसे संसार में चली जाती हूँ ,जो यथार्थ भी है और काल्पनिक भी, जहाँ पात्र बहुत आत्मीय हैं और बहुत अपरिचित और मनमानी करने वाले भी।’ (ज्ञानोदय-मेरी सृजन प्रक्रिया अगस्त १९६९ पृष्ठ-४५)
उषा प्रियंवदा का कथा-साहित्य पारिवारिक जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंधों के विविध पक्षों और नारी की अस्मिता,अस्तित्व बोध आदि भावनाओं के सभी आयामों को भली-भांति चित्रित करता है । वे नारी जीवन के विविध पक्षों पर अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि रखते हुए उसकी गहराई को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं। उन्होंने पारिवारिक जीवन के विविध पहलुओं को तथा स्त्री-पुरुष संबंधों के विविध आयामों को नज़दीक से परखा और अपनी लेखनी का विषय बनाया है।  रूढ़िगत परंपराओं और नई संभावनाओं के लिए युद्ध लड़ती नारी के अस्तित्व की मूल समस्याओं को उन्होंने कथावस्तु में पिरोया है। उनकी लेखनी अतार्किक मान्यताओं एवं परंपराओं के प्रति प्रत्यक्ष विद्रोह प्रकट करती है, साथ ही नारी को जीवन की विसंगतियों से लड़ने की चेतना से स्फ़ूर्त भी करती है। 
उषा प्रियंवदा की कहानियों का परिक्षेत्र विस्तृत है, क्योंकि उन्हें भारतीय और विदेशी परिवेश का अनुभव है। अपनी प्रारंभिक कहानियों में वे मध्यवर्गीय नारी जीवन के विविध आयामों को रेखांकित करते हुए, परिवार की द्वंद्वात्मक स्थिति, मानसिक तनाव, संघर्ष, पीड़ा, निराशा और हताशा के क्षणों को जीती; प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तालमेल बिठाने का अथक प्रयास करती नारी का चित्रण करती हैं; वहीं आधुनिकता, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, उपयोगितावाद और उपभोक्तावाद की लहर तथा  मशीनीकरण के कारण नारी-जीवन पर पड़े प्रभावों-दुष्प्रभावों को भी कथावस्तु में समाहित करती हैं। उषा प्रियंवदा ने पाश्चात्य भोगवादी, व्यावसायिक संस्कृति की संवेदनहीनता, नैतिक मूल्यों के प्रति अनास्था, अति बौद्धिकता एवं तर्कशीलता से पुरातन परंपरा के विघटन का यथार्थ अंकन किया है। उक्त स्थितियाँ अमेरिकी संस्कृति में नई नहीं हैं। नित्य नवीन संबंधों को जोड़ना और उतनी ही शीघ्रता के साथ अलग हो जाना, उन्मुक्त यौन संबंध स्थापित करना तथा चारचिक्य भरा जीवन जिन स्त्रियों को अधिक लुभाता है, उनका जीवन अंततः दुख भरा ही रहता है। 'वापसी' कहानी उषा जी की सर्वाधिक चर्चित रचना है, जिसे प्रोफे़सर नामवर सिंह ने सातवें दशक की सबसे नई कहानी माना था।
उषा जी के उपन्यास भी उनकी कहानियों की तरह ही चर्चा में रहे हैं। भारत और अमेरिकी पृष्ठभूमि पर रचित उनके उपन्यासों का तानाबाना अत्यंत व्यापक है। उपन्यासों की कथावस्तु मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ी आधुनिकता की दौड़ में भागती नारी के अंतर्द्वंद्व, वैचारिक वैमनस्य के कारण पारिवारिक, सामाजिक, दांपत्य संबंधों की टूटन को रेखांकित करती हैं। यह विघटन पात्रों की मानसिकता को भी प्रभावित करता है और वे तनाव और अकेलेपन से ग्रस्त हो जाते हैं। लेखिका ने अन्य परंपरागत रिश्तों की गढ़न को नकारते हुए उसे वर्तमान संदर्भ में विभाजित किया है। वे अपने दीर्घकालीन प्रवासी जीवन में भी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, वैषम्यपूर्ण स्त्रियों के संत्रास भरे जीवन की प्रत्यक्षदर्शी रही हैं। उनका सूक्ष्म निरीक्षण तथा विस्तृत अनुभव ही गहरी संवेदना के रूप में कथानकों में प्रतिध्वनित हुआ है।
'पचपन खंभे लाल दीवारें' उपन्यास में नायिका सुषमा के चरित्र के माध्यम से भारतीय स्त्री के जीवन के संत्रास और अकेलेपन से उत्पन्न छटपटाहट और मानसिक यंत्रणा, विपन्नता के कारण कुछ ना कर पाने की विवशता का यथार्थरूपेण चित्रण है। ‘रुकोगी नहीं राधिका’ उपन्यास की नायिका राधिका आत्मनिर्भर स्त्री के रूप में सामने आती है, जो अपने निर्णय लेने में अपने मन की स्वामिनी है और प्रतिबंधों से मुक्त स्वछंद जीवन जीने की आकांक्षी है। वह हठधर्मी, रूढ़िवादी समाज तथा उसके द्वारा स्थापित मूल्यों से जूझने और उन्हें तिरस्कृत कर, स्वच्छंद मार्ग का अनुसरण करने की शक्ति और आत्मदृढ़ता से युक्त है। ‘शेष यात्रा' उपन्यास का कथाविन्यास नारी के प्रति सामाजिक सोच को बदलने पर विवश करता है। लेखिका ने भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी अनु के व्यक्तित्व में दृढ़ता और स्वाभिमान की भावना के माध्यम से, किसी की बैसाखी लेकर चलने की प्रवृत्ति के बजाय, स्वतंत्र आकाश गढ़ने के दृढ़-निश्चय को प्रतिपादित किया है। ‘भया कबीर उदास’  का  कथानक बहुत ही संवेदनशील है। इसमें पुरुषों के स्त्री के साथ स्वार्थपूर्ण संबंधों की गहन पड़ताल है। कैंसर से पीड़ित महिलाओं के प्रति उनके अपनों के व्यवहार सहानुभूति और सहयोग के स्थान पर कितने आमानवीय हो जाते हैं, इस संवेदनशील मुद्दे को विभिन्न  पात्रों के माध्यम से उषा जी ने मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त किया है।  
उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य के केंद्र में नारी-जीवन का विस्तृत फ़लक सामने आता है। भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति में सामाजिक, पारिवारिक, मानवीय मूल्यों में हो रहे परिवर्तनों और उसकी पीड़ा से ग्रसित नारी के अस्तित्व को नवीन चेतनता से अनुप्राणित करने का सार्थक प्रयास दिखाई देता है। देश-विदेश के विस्तृत अनुभव ने उषा प्रियंवदा को समाज-सापेक्ष दृष्टि प्रदान की है, जो निश्चित ही सामाजिक जागृति में सहायक सिद्ध होगी। इस प्रकार देखा जाए, तो उषा प्रियंवदा जी ने नारी को आत्मनिर्भर जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित कर नवीन विचारधारा को साहित्य में प्रस्तुत किया है।

उषा प्रियंवदा : जीवन परिचय

जन्म 

२४ दिसंबर, १९३० कानपुर, उत्तर प्रदेश

पति 

प्रोफ़ेसर किम, (हॉवर्ड यूनिवर्सिटी )

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र

  • इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी.एच.डी. की उपाधि

  • अमेरिका में  ब्लूमिंटन इंडियाना में दो वर्ष पोस्ट डॉक्टरल स्टडी एवं  विस्कांसिन विश्वविद्यालय, मेडिसिन में दक्षिण एशियाई विभाग में प्रोफे़सर पद से अवकाश प्राप्त।

साहित्यिक रचनाएँ

कहानी संग्रह

  • ज़िंदगी और गुलाब के फ़ूल

  • कितना बड़ा झूठ

  • एक कोई दूसरा

  • शून्य 

  • मेरी प्रिय कहानियाँ 

  • वनवास 

  • संपूर्ण कहानियाँ

उपन्यास

  • पचपन खंभे लाल दीवारें

  • रुकोगी नहीं राधिका

  • शेषयात्रा

  • अन्तर्वंशी

  • नदी 

  • भया कबीर उदास 

पुरस्कार 

  • २००७ में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा का  ‘पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार’

  • २०१५  में ढींगरा फाउंडेशन,अमेरिका  का 'हिंदी चेतना अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मान'

 

संदर्भ

  • मेरी कहानियाँ उषा प्रियंवदा, सं - डॉ निर्मला जैन
  • समकालीन महिला उपन्यास लेखन एक अंतर्दृष्टि- डॉ नीरजा सूद 
  • लेखिकाओं के उपन्यासों में सामाजिक जागृति- डॉ सुवर्ण गाड
  • ज्ञानोदय- मेरी सृजन प्रक्रिया, अगस्त १९६९

लेखक परिचय


C:\Users\chd\Desktop\Deepak Pandey.jpegडॉ दीपक पाण्डेय


वर्तमान में केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार, नई दिल्ली  में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत हैं। आप २०१५ से २०१९ तक भारत का उच्चायोग, त्रिनिडाड एवं टोबैगो में राजनयिक पद पर पदस्थ रहे। प्रवासी साहित्य पर आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 

मोबाइल- 8929408999   ईमेल- dkp410@gmail.com


8 comments:

  1. उत्तम आलेख के लिए बधाई , दीपक जी । 💐

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  2. डॉ. दीपक जी ने इस उत्तम लेख के माध्यम से उषा प्रियंवदा जी के साहित्य से बखूबी परिचित कराया। दीपक जी को रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. दीपक जी, सारगर्भित, सार्थक एवं अत्यंत रोचक आलेख के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद।उषा प्रियवंदा जी के व्यक्तित्व निर्माण के विभिन्न पहलुओं और इन पहलुओं का उनके सृजन संसार पर बड़े प्रभाव से अनुपम ढंग से अवगत कराता है यह लेख। उषा जी की सूक्ष्म दृष्टि से समाज की बारिकियाँ छिप न पाती हैं और धारदार कलम से सुंदर कहानियाँ बन जाती हैं।

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  4. दीपक जी के इस शोधपरक लेख से उषा प्रियंवदा जी के साहित्यिक यात्रा और व्यक्तित्व के विभिन्न पक्ष को करीब से जानने का अवसर मिला। दीपक जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  5. आदरणीय उषा प्रियवंदा जी का नाम प्रवासी महिला कहानीकार की सूची में सर्वप्रथम स्थान पर आता हैं। नारी विमर्श से जुड़ी सभी समस्याओं को अपने साहित्य के माध्यम से जनसामान्य तक पहुँचाने में उषा जी कलम बहुत जोरदार काम करती दिखाई पड़ती है। श्री दीपक पाण्डेय जी के लेखन से उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक जीवन में और भी उभार आ गया हैं। रोचक और जानकारी युक्त लेख के लिए दीपक जी का आभार और आदरणीय उषा प्रियवंदा जी को हार्दिक शुभकामनाएं।

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  6. सौभाग्यशाली हैं हम कि उषा प्रियंवदा जी की जानकारी इतने सटीक व रोचक ढंग से हमें जानने को मिली...दीपक पाण्डेयजी आपका गहन अध्ययन इस विषय पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है...आपको हार्दिक बधाई व आभार।

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  7. दीपक जी उषा प्रियंवदा जी के रचना संसार पर बहुत उम्दा विवेचन! बहुत ही बढ़िया भाषा और प्रवाह! उनके लेखन की पृष्ठभूमि की गहरी पड़ताल की है आपने! शुक्रिया 🙏🏻
    —-
    अनूप दा देखिए कि यह लेख उषा जी तक पहुँच सके तो!

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  8. नारी हृदय को बहुत ही सूक्ष्मता और सहजता से वर्णित करने वाली लेखिका उषा प्रियंवदा का बेहतरीन विवेचन किया है आपने दीपक जी।

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