Sunday, December 19, 2021

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है - रामप्रसाद बिस्मिल

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिन जांबाज़ों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश हित में अपना सर्वस्व निछावर किया, वे सम्माननीय हैं, श्रद्धेय हैं। आज हम ऐसे ही अमर बलिदानियों के कारण स्वतंत्र हवा में खुलकर सांँस ले पा रहे हैं। ऐसे त्यागी बलिदानी महामानवों ने समय की शिला पर अपने खून से बलिदानों को अंकित कर, देश को गुलामी से मुक्त करने की आधारशिला रखी। ऐसे वतन परस्तों की दास्तानों को इतिहास भी अपने स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित कर गौरवानुभूति कर रहा है। आज़ादी की राह में सर्वस्व बलिदान कर मात्र तीस वर्ष की अल्पायु में ही फाँसी का फंदा चूमकर प्राणोत्सर्ग करने वाले पंडित रामप्रसाद बिस्मिल पर इस देश को गर्व है। वे भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रणी नेता व संगठनकर्ता थे। उनका देश के प्रति त्याग और समर्पण अप्रतिम व सराहनीय है।
   उत्तर प्रदेश के शाहजहांँपुर में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में ११ जून, १८९७ को जन्मे पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के पिता का नाम मुरलीधर तिवारी तथा माँ का नाम मूलमती था। पिता मुरलीधर पुरातनपंथी विचारधारा के सनातनी व्यक्ति थे। बचपन में बालक रामप्रसाद अत्यंत नटखट स्वभाव के थे। उनका पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता उन्हें व्यापार के कार्याें में लगाना चाहते थे, जबकि उनकी माँ उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना चाहती थीं। छात्र जीवन में ही बालक रामप्रसाद का संपर्क आर्य समाज के स्वामी सोमदेव आदि कुछ विद्वानों से हुआ, जिन्होंने उन्हें स्वामी दयानंद की पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन के उपरांत उनके जीवन में आशातीत परिवर्तन हुआ और उनके जीवन में एक नया मोड़ आ गया। स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों ने उनके अंदर राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नवचेतना का संचार किया और उनके ऊपर स्वामी जी के विचारों की गहरी छाप पड़ी। स्वामी जी की प्रेरणा से ही वे एक महान राष्ट्र प्रेमी व क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बने। इस प्रकार वे एक कट्टर आर्य समाजी बन गए। वस्तुतः स्वामी दयानंद सरस्वती एक पारस पत्थर थे, जो भी उनके सानिध्य या संपर्क में आया, वह उनके स्पर्श मात्र से ही कुंदन बन गया। उन्होंने आर्य समाज के माध्यम से समाज में व्याप्त घोर जातिवाद, ऊंँच-नीच तथा धर्म के नाम पर चल रहे अंधविश्वास और पाखंडों के विरुद्ध आवाज बुलंद की। 
रामप्रसाद बिस्मिल का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत था। मैनपुरी में वे एक महान क्रांति धर्मी पंडित गेंदालाल दीक्षित के संपर्क में आए। उन्होंने रामप्रसाद को अपनी संस्था मातृवेदी से जोड़ा। उनकी प्रेरणा से ही रामप्रसाद के अंदर मौजूद सुप्त क्रांति के बीज अंकुरित व पल्लवित-पुष्पित हुए। मैनपुरी में मातृवेदी संस्था से जुड़कर अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई के लिए काफ़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एकत्र कर लिए, जिसकी जानकारी अंग्रेज़ी सेना को मिली और उनसे बड़ी मात्रा में हथियारों का जखीरा बरामद किया गया। इस घटना को मैनपुरी षड्यंत्र  केस के नाम से जाना जाता है। उस मामले में बिस्मिल दो वर्ष तक फ़रार रहे और अंग्रेज़ों की पकड़ से बाहर रहे। 
सन १९१५ में जब वे दसवीं कक्षा के छात्र थे, कांग्रेस के सदस्य बन गए तथा दल के प्रचार-प्रसार में लग गए। १९२० में गांधी जी के आह्वान पर हज़ारों नौजवानों ने अपनी सरकारी नौकरियों से त्याग पत्र देकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी की। इस आंदोलन को व्यापक जन समर्थन प्राप्त हुआ, लेकिन चौरी-चौरा में जब इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण किया, तो गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया।इससे नौजवानों में बहुत निराशा हुई और उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने का निश्चय किया। रामप्रसाद तब बंगाल के क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल तथा लाला हरदयाल के संपर्क में आए और उनके सहयोग से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। १९२५ में इस संघठन का चार पृष्ठ का घोषणापत्र जारी किया गया। इस संगठन का उद्देश्य था, छोटी-मोटी डकैतियाँ डालकर धन संचय कर अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष हेतु अस्त्र-शस्त्र खरीदे जा सकें। इस कार्य में वे अकारण हिंसा के विरोधी थे तथा डकैतियाँ भी अंग्रेज़ों के पिट्ठू धन्नासेठों के यहाँ डालने के पक्षधर थे। क्रांति के मार्ग में धन की आपूर्ति हेतु छोटी-मोटी डकैतियों द्वारा धन संचय करना उनका उद्देश्य था। उस समय हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शचीन्द्र नाथ सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, रामकृष्ण खत्री, प्रेमकृष्ण खन्ना, विष्णुचंद्र दुबे, रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफ़ाक उल्ला, बनारसी लाल आदि अनेक क्रांतिकारी शामिल थे। 
रामप्रसाद बिस्मिल में संगठन व नेतृत्व की बड़ी क्षमता थी। उन्होंने मैनपुरी, बिचपुरी आदि कांडों में क्रांतिकारियों का सफल नेतृत्व किया था, लेकिन इन कांडों में उनके उद्देश्य की पूर्ति हेतु पर्याप्त धन संचय नहीं हो सका था। इस कारण रामप्रसाद बिस्मिल के मन में विचार आया कि प्रतिदिन सहारनपुर से लखनऊ चलने वाली पैसेंजर ट्रेन, जिससे सरकारी खज़ाने का बक्सा जाता है, जिसमें काफ़ी मात्रा में रुपया होता है, इस सरकारी धन को लूटकर शस्त्र खरीदने हेतु पर्याप्त धन की व्यवस्था की जा सकती है। इसी योजना को कार्यरूप में परिणत करने हेतु अपने साथी ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफ़ाक उल्ला आदि दस लोगों के साथ ९ अगस्त, १९२५ को सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को काकोरी रेलवे स्टेशन से लगभग डेढ़ मील पहले रोक कर सरकारी खज़ाना लूट लिया। बक्से को तोड़ने पर उसमें से दस हजार रुपये प्राप्त हुए, जो कि उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त थे। काकोरी की इस घटना से ब्रिटिश सत्ता हिल गई, उन्होंने इस घटना को मात्र धन की डकैती ही नहीं अपितु ब्रिटिश साम्राज्य पर खुल्लम-खुल्ला हमला माना। इस कारण लोगों की धर पकड़ शुरू हो गई। बिस्मिल के ही एक विश्वास पात्र साथी बनारसीलाल की मुखबिरी से बिस्मिल को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया गया। दो माह के अंदर चंद्रशेखर आज़ाद के अतिरिक्त सभी क्रांतिकारी गिरफ़्तार कर लिए गए। लखनऊ हज़रतगंज चौराहे पर रिंग थियेटर नाम की एक भव्य इमारत थी, जिसमें अंग्रेज़ फिल्में, नाटक आदि देखकर मनोरंजन किया करते थे। उसको अस्थायी न्यायालय का रूप दिया गया। इसमें काकोरी केस का मुकदमा डेढ़ वर्षों तक चला। इस ऐतिहासिक मुकदमे में उस समय दस लाख रुपया व्यय हुआ था। उस समय सोने का भाव २० रुपया तोला था। बाद में रिंग थियेटर वाली बिल्डिंग को ध्वस्त कर उस स्थान पर एक अन्य शानदार इमारत का निर्माण किया गया, जिसमें कि आज जी.पी.ओ.(मुख्य डाकघर) है। 
अप्रैल, १९२७ को विशेष सत्र न्यायालय में विचार के दौरान सभी अभियुक्तों के लिए लिखा गया कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती का मामला नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का सोचा-समझा षड्यंत्र है। एक अन्य अभियुक्त बनारसीलाल सरकारी गवाह बन गया। हालांकि उसको भी पाँच साल की सजा हुई। बिस्मिल के साथ ही उनके साथी राजेंद्र लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफ़ाक उल्ला को फाँसी की सज़ा सुनाई गई, जो कि अपील के बाद भी बरकरार रही। बिस्मिल को १९ दिसंबर, १९२७ को गोरखपुर जेल में फाँसी दे दी गई तथा राप्ती नदी के किनारे उनकी अंत्येष्टि कर दी गई, उनके अवशेषों को बाबा राघवदास ने देवरिया जिले में बरहन नामक स्थान पर ले जाकर उनकी समाधि व स्मारक का निर्माण करवाया। 
  बिस्मिल बहु आयामी प्रतिभा के धनी थे, उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं और फाँसी से दो दिन पूर्व जेल कर्मचारियों से छिपकर अपनी आत्मकथा लिखी, जो उन्होंने गुप्त रूप से कांग्रेसी नेता दशरथ प्रसाद द्विवेदी के माध्यम से कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी के पास भेजी, जिसे सर्वप्रथम उन्होंने प्रकाशित किया, जो बाद में बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में सर्वधर्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई। बिस्मिल की आत्मकथा के अनुसार उन्हें इस बात का मलाल था कि पार्टी का कोई सदस्य उनके पास एक रिवाल्वर तक नहीं पहुँचा सका। एक ग़ज़ल के द्वारा अनेक प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को संदेश भेजकर कि ‘‘कुछ कर सकते हो तो अभी कर लो, अन्यथा पछतावा ही हाथ लगेगा’’। इसमें उनके अंदर की तड़प स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब तक सभी देशवासी छुआ-छूत और जातीय भेद-भाव छोड़कर एक नहीं हो जाते, उन्हें तब तक देश की आज़ादी माँगने का कोई हक नहीं है। एक दूसरी बात, जो उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखी, वह थी हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की। उन्होंने लिखा, ‘‘सरकार ने अशफ़ाक उल्ला को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया। अशफ़ाक कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्य समाजी रामप्रसाद के क्रांतिकारी दल में शामिल हो सकता है, तो क्या भारत वर्ष की स्वतंत्रता के नाम पर हिंदू -मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे फायदे का ध्यान न करके आपस में एक नहीं हो सकते? परमात्मा ने मेरी सुन ली और मेरी इच्छा पूरी कर दी, मैं तो अपना कार्य कर चुका, मैंने मुसलमानों से एक युवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया, जो हर परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ अब किसी को यह कहने का साहस नहीं होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मेरा यह पहला तज़ुर्बा था, जो पूरी तरह कामयाब हुआ।" आगे उन्होंने लिखा-
  ‘‘मरते बिस्मिल रोशन लाहिड़ी अशफ़ाक अत्याचार से,
  होंगे पैदा सैकड़ों उनकी रुधिर की धार से।।’’ 

वर्ष १९२८ के नवंबर में मासिक पत्रिका चाँद का फाँसी अंक आचार्य चतुरसेन शास्त्री के संपादन में प्रकाशित हुआ था, उसमें उस समय कोई लेख लिखना बहुत खतरनाक था, जो किसी क्रांति से कम नहीं था। बिस्मिल ने ‘अज्ञात’ छद्म नाम से इस अंक में अपने क्रांति गुरु पंडित गेंदालाल दीक्षित के ऊपर लेख लिखा था। इसी अंक में बिस्मिल की जीवनी 'प्रभात' छद्म के नाम से लिखी थी, जो फाँसी के एक दिन पूर्व उनसे जेल में मिले थे। चाँद के फाँसी अंक में प्रकाशित लेखों की देश भक्तिपूर्ण चिंतन धारा के कारण यह अंक आज की युवा पीढ़ी के दिशा -निर्देशों के लिए प्रासंगिक व अपिरहार्य है। फाँसी से पहले क्रांतिकारी बिस्मिल ने यह पंक्तियाँ पढ़ी थीं-

‘‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ और न मेरी आरज़़ू रहे।।
अब न पिछले वलवले हैं और न अरमानो की भीड़,
एक दिन मिट जाने की हसरत, बस दिले बिस्मिल में है।’’   
क्रांतिकारी साहित्य के प्रख्यात लेखक श्री सुधीर विद्यार्थी, जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों पर विशेष कार्य किया है, ने एक औपचारिक बातचीत में बताया कि बिस्मिल तुर्की के सुल्तान कमाल पाशा के बहुत बड़े प्रशंसक थे और कमाल पाशा भी बिस्मिल के बहुत बड़े प्रशंसक थे। कमाल पाशा ने तुर्की में बिस्मिल के नाम पर एक शहर का नामकरण किया है। 
बिस्मिल अज़ीमाबादी के गीत ‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’ गीत को पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने न केवल आत्मसात किया बल्कि जीवन के अंतिम क्षणों तक गुनगुनाते हुए इसे हर भारतीय की जुबां पर ला दिया। इतना ही नहीं, बिस्मिल नाम भी उन्होंने इसी गीत से प्रेरणा पाकर अपनाया था। उन्होंने हर भारतीय के दिल में जगह बनाई और अंग्रेज़ों से देश को आज़ाद कराने की चिंगारी छोड़ी, जिसने ज्वाला का रूप धारण कर ब्रिटिश शासन को लाक्षागृह में तब्दील कर भस्मीभूत करने का काम किया, वह अप्रतिम व सराहनीय है। 

सन्दर्भ

  • चाँद का फाँसी अंक, संपादक आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भूमिका- नरेश चंद्र चतुर्वेदी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दरियागंज, दिल्ली- ११०००२।
  • आत्मकथा (रामप्रसाद बिस्मिल), संपादक- बनारसीदास चतुर्वेदी, प्रकाशक-  सर्वधर्म प्रकाशन ।
  • राष्ट्रीय कविता, सरफरोशी की तमन्ना, संपादक नरेश चंद्र चतुर्वेदी एवं डा० उपेंद्र, प्रकाशक- साहित्य निकेतन कानपुर। 
  • सरफ़रोशी की तमन्ना, मदनलाल वर्मा कांत ( १९९८), (रामप्रसाद बिस्मिल व्यक्तित्व एवं कृतित्व) (द्वितीय संस्करण), प्रवीण प्रकाशन नई दिल्ली। 
  • क्रांतिकारी (घोषणा पत्र) १५ जून, २०२० ।
  • भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास- मन्मथनाथ गुप्त।

लेखक परिचय

जवाहर सिंह गंगवार, एडवोकेट

शैक्षिक योग्यता- एम-एस० सी०; एल०एल०बी०

सचिव- साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था, प्रबोधिका।

संपर्क सूत्र- मोब. 09452008002, 8494642220

ईमेल- jawaharsingh8512@gmail.com


6 comments:

  1. जवाहर जी, राम प्रसाद बिस्मिल पर आपने बहुत अच्छा लेख लिखा, इस लेख से आज़ादी के प्रति उनकी दृष्टि, दृढ संकल्प और विचारों की स्पष्टता के बारे में भी जानकारी मिलती है। स्वतंत्रता संग्राम में एक बड़ा मोड़ लेकर आया था काकोरी कांड। अत्युत्तम लेख और शहीदों को समर्पित इस शब्दांजलि के लिए आपको बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया।

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  2. जवाहर सिहं गंगवार जी ने क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख पढ़कर मन ओज से भर गया। इस क्रांतिकारी लेख के लिये जवाहर जी को हार्दिक बधाई।

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  3. आ. हरप्रीत जी,
    आपने बहुत खूब समीक्षा बांधी है। सब कुछ व्यक्त कर दिया।
    प्रिय जवाहर जी का लेख वाकई में बखूबी स्वातंत्र्य वीर रामप्रसाद बिस्मिल पर जच रहा हैं। कितने अनगिनत सच्चाइयों से रूबरू कराया हैं।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं आदरणीय जवाहर जी को।💐💐

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  4. जवाहर जी , आपको संतुलित एवं तथ्यपरक आलेख के लिए बधाई । ऐसे आलेख में भावुकता के अतिरेक से लेखक के भटक जाने की सम्भावना रहती है । लेकिन आपने बहुत सुंदर तरीक़े से बिसमिल की राष्ट्रभक्ति और उस समय के हालात की तस्वीर खींची है । मैं देश को स्वाधीनता मिलने के डेढ़ दशक बाद इस दुनिया में आया । और दो तथ्यों को कभी पचा नहीं पाता । एक तो मुट्ठी भर अंग्रेजों ने करोड़ों भारत वासियों पर शासन किया , इसलिए कि चंद देशभक्तों की शहीदी को करोड़ों लोग तमाशबीन देखते रहे । अपितु अपने ही देशवासियों के विरुद्ध गवाही भी देते रहे । दूसरा , अंग्रेज हमारे पूर्वजों से सहयोग माँगते रहे और हमारे देशवासी उनका सहयोग करते भी रहे ; विश्व युद्धों में लाखों शहीद हो गए । बहुत आश्चर्य होता है । दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं :
    उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें ,
    चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए !

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  5. मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
    बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरज़ू रहे । - इस गहन लेख के लिए बहुत आभार 🙏🙏🙏

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  6. शहीद आजादी के दीवाने को कोटि कोटि नमन भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं🌹🙏🌹 आज के दौर में हिंदू मुस्लिम के जहर को भी कम करने का काम आपका लेख युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत होगा👌

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