उर्मिला के रचयिता, स्वछंदतावादी धारा के प्रतिनिधि, राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना - बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के बारे में जितना कहा जाए कम होगा। वे कविता जगत् के ऐसे विलक्षण हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने देश के परतंत्र और प्रतिनिधित्व हीन समाज को वाणी प्रदान की है। इनकी कविताओं में भक्ति भावना, राष्ट्र प्रेम, तथा विद्रोह का स्वर प्रमुख है। आधुनिक हिंदी कविता के विकास में उनका स्थान अविस्मरणीय है। ये अपने हृदय के उद्गार की अभिव्यक्ति बड़ी ही सरलता से करते हैं। प्रस्तुत है, उनके जीवन और साहित्यिक योगदान की कुछ झलकियाँ:
जीवन का सफ़र
बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' का जन्म ८ दिसंबर १८९७ ई० को भयाना नामक गाँव (मध्यप्रदेश) में हुआ। उनके पिता जमुनादास शर्मा ‘वल्लभ मत’ के अनुयायी थे और नाथद्वारा के मंदिरों में पुरोहिती करते थे। ईश्वर के दरबार में होते हुए भी अभाव व विपन्नता ने इस परिवार को ऐसा घेर रखा था, कि मजबूर माँ ने बालकृष्ण को गायों के बाड़े में जन्म दिया। बाद में वे आस-पास के किसी समृद्ध परिवार में पिसाई-कुटाई करके ‘कुछ’ लातीं, तो सबका पेट भरता। तन ढकने के लिए साल में दो धोतियाँ भी नहीं जुड़तीं और पैबंदों से काम चलाना पड़ता; ऐसे में बेटे की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था स्वप्न समान थी। उस अभावगी में भी बालकृष्ण ने किसी तरह पहले शाजापुर से मिडिल स्कूल, फिर उज्जैन जाकर हाईस्कूल की परीक्षा पास की। भीषण गरीबी के बावजूद उनका तन-मन भारतमाता को स्वतंत्र कराने की उमंग से ऐसे सराबोर था, कि किसी अखबार में दिसंबर १९१६ को लखनऊ में कांग्रेस का महाधिवेशन होने की खबर पढ़ी, और जैसे-तैसे कुछ पैसे जुटाकर कंधे पर कंबल व हाथ में लाठी लेकर नंगे पैर ही उसमें शामिल होने चल पड़े। हालांकि तब तक उन्होंने लखनऊ का नाम भर ही सुना था और उसका ‘इतिहास-भूगोल’ उन्हें कतई पता नहीं था। महाधिवेशन में उन्हें अपने चहेते नायकों, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी के अलावा माखनलाल चतुर्वेदी व मैथिलीशरण गुप्त जैसी विभूतियों से परिचय व उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ।
वहाँ से लौटे, तो उज्जैन से ही अपनी अगली परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर गणेशशंकर विद्यार्थी से बात करके कानपुर चले गये, जहाँ विद्यार्थी जी ने उन्हें क्राइस्ट चर्च कॉलेज में प्रवेश दिला दिया। साथ ही, बीस रुपये महीने का एक ट्यूशन भी दिलाया, ताकि उनकी गुज़र-बसर में कोई बाधा न आये। जीवन के अंतिम वर्षों में वे भारतीय संसद के सदस्य रहे। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को प्रोत्साहन देने के लिए उन्हें १९६० में पद्मभूषण सम्मान दिया गया। इसी वर्ष २९ अप्रैल को उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँसें ली।
साहित्यिक सफ़र
बालकृष्ण के साहित्यिक जीवन की पहली रचना 'सन्तू' नामक एक कहानी थी, जिसे उन्होंने छपने के लिए सरस्वती में भेजा था। इसके बाद उन्होंने कविता जगत् की ओर रुख किया। 'जीव ईश्वर वार्तालाप' शीर्षक की कविता से हिंदी जगत् में इनकी पहचान बनी। पढ़ाई छोड़ने के बाद से ही बालकृष्ण पूरी तरह देश भक्ति के रंग में रँग गए। वे एक अच्छे गद्यकार के साथ-साथ जागरूक पत्रकार भी थे। उन्होंने विद्यार्थीजी की ओजपूर्ण भावात्मक गद्य-शैली को अपना पाथेय बनाया था। विद्यार्थीजी के जीवनकाल में ही प्रताप और प्रभा के संपादन का स्वतंत्र दायित्व संभाल कर न सिर्फ़ उन्होंने अपनी पत्रकारिता संबंधी भाषाओं का परिचय दिया, बल्कि तत्कालीन पत्रिका प्रभा में ‘झण्डा’ पृष्ठ के द्वारा राष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता में एक गौरवपूर्ण अध्याय भी जोड़ा।
उनकी ‘कवि! कुछ ऐसी तान सुनाओ’ पंक्ति तो लोगों का कंठहार बन गयी थी। कहते हैं, वे जितने अच्छे कवि थे, उतने ही अच्छे काव्यपाठी और उतने ही ओजस्वी वक्ता भी। संयुक्त प्रांत के सत्याग्रहियों के पहले ही जत्थे में उनका नाम था, जिसके पुरस्कारस्वरूप गोरी सरकार ने १९२१ में उन्हें डेढ़ वर्ष की सज़ा दी। यह सज़ा उन्होंने अदल-बदल कर कई जेलों में काटी, लेकिन अभी तो यह इब्तिदा थी। आगे चलकर छह बार उन्हें जेल की सज़ा सुनायी गयी और वहाँ घोर यातनाओं के बीच उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य नौ साल गुज़ारे। इनमें से ज़्यादातर सजाएँ उन्हें गोरे हुक्मरानों के विरोध में लिखे लेखों अथवा भाषणों के लिए दी गई थी। असहयोग आंदोलन के बाद नमक सत्याग्रह, फिर व्यक्तिगत सत्याग्रह और अंत में १९४२ का ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन।
लंबे जेल जीवन में ही वे आचार्य जेबी कृपालानी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और जवाहरलाल नेहरू जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं के संपर्क में आये। वहीं उन्होंने पंडित नेहरू से भूमिति व अंग्रेज़ी पढ़ी और उनको कवायद करना सिखाया। इस तरह दोनों अलग अलग मामलों में एक दूजे के गुरु हो गये। ‘नवीन’ जी की ज्यादातर कृतियाँ और कविताएँ जेलों में ही रची गयीं, क्योंकि जेल से बाहर आकर तो वे राजनीतिक हलचलों व ‘प्रताप’ के संपादन से जुड़े कामों में व्यस्त हो जाते थे।
१९२१ से १९२३ तक उन्होंने राष्ट्रीय विचारों पर आधारित ‘प्रभा’ नामक एक पत्रिका का संपादन किया, जबकि कानपुर के सांप्रदायिक उपद्रवों में विद्यार्थी जी की बलि के कई सालों बाद तक ‘प्रताप’ के प्रधान संपादक रहे। विद्यार्थी जी की स्मृति में उन्होंने ‘प्राणार्पण’ शीर्षक खंड काव्य भी रचा। विद्यार्थी जी का स्मारक बनाने के लिए गठित निधिसंग्रह समिति का सारा जिम्मा भी उन्हीं के कंधों पर था। वे महात्मा गांधी के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे और इस कारण कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ उन्हें ‘गांधी जी का मजनूं’ कहा करते थे। गांधी जी ने ‘हरिजन सेवक’ में लोगों से इस निधि में रकम भेजने का अनुरोध करते हुए लिखा था-‘जिस संपदा का संरक्षक बालकृष्ण हो, उसके बारे में सोच-विचार क्या!’ इसी बात से पता चलता है, कि गांधी जी भी उनसे उतना ही स्नेह करते थे।
जेल से बाहर के अपने जीवन में नवीन जी ने ‘शिमला-समझौते में निराशा का अवतरण’, ‘मुसलमान भाइयों की खिदमत में’, ‘तुम्हारे उपवास की चिन्ता’, 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे' आदि शीर्षकों से असंख्य अग्रलेख और निबंध लिखे और उनकी अधोलिखित कृतियाँ भी उपलब्ध हैं, जैसे: कुंकुम, अपलक, क्वासी, रश्मि रेखा, उर्मिला, हम विषपायी जन्म के आदि।
नवीन जी राष्ट्रवादी कवि थे। उनका जीवन अपनी मातृभूमि को समर्पित था। राष्ट्र प्रेम उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है। उन्हें अपने देश की संस्कृति और सभ्यता पर बड़ा गर्व था। स्वाधीनता संग्राम में जूझते हुए नवीन जी कभी सफलता के प्रति आशावान् तो कभी प्रयासों के विफल हो जाने पर निराश हो उठते थे। आशा-निराशा की ये भावनाएँ उनकी कविता में मुखरित हुई हैं। "आज खड्ग की धार कुंठिता" नामक कृति में इसी प्रकार की निराशा का भाव अभिव्यक्त हुआ है।
राष्ट्रीय विचारों की भाँति अध्यात्मवाद में भी नवीन जी की आस्था थी। "कस्तवं कोहम्" तथा "मानव की अंतिम गतिविधि" कविता में इनके अध्यात्मवादी विचार झलकते हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने चिर-उपेक्षिता 'उर्मिला' को अपने काव्य का विषय चुना और १९२१ में इसका लेखन आरंभ किया। इसे पूरा होने में १३ वर्षों का समय लग गया। कुछ अप्रत्याशित कारणों से इसके प्रकाशन में भी समय लगा और अंततः १९५७ में यह लोगों के समक्ष आया। छह सर्गों वाले इस महाकाव्य ग्रंथ में रामायण की उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा कही गयी है। इस महाकाव्य में उर्मिला और लक्ष्मण का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है। उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गंध नहीं है। ‘नवीन’ का काव्य गूढ़ और ह्रदयस्पर्शी था। उदाहरणस्वरूप संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला-लक्ष्मण संवाद का एक अंश प्रस्तुत है:
बालकृष्ण शर्मा नवीन | |
जन्म |
८ दिसंबर १८९७ |
मृत्यु |
२९ अप्रैल १९६० |
पिता |
प. जमनालाल शर्मा |
जन्मभूमि |
ग्राम-भयाना, ज़िला-शाजापुर,
ग्वालियर (मध्य प्रदेश) |
कर्मभूमि |
उत्तर भारत |
कर्म क्षेत्र |
कवि, गद्यकार, अद्वितीय वक्ता, राजनीतिज्ञ, संपादक |
भाषा |
ब्रज भाषा, खड़ी
बोली, संस्कृत |
शिक्षा और शोध |
|
मैट्रिक |
गृह जनपद के परगना स्कूल |
बीए |
माधव कॉलेज,उज्जैन;
क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर |
साहित्यिक रचनाएँ |
|
काव्य-ग्रंथ |
उर्मिला, विनोबा स्तवन, प्राणार्पण, हम विषपायी जन्म के, कुमकुम, रश्मिरेखा, अपलक,
क्वासि, |
पुरस्कार व सम्मान |
|
पद्मभूषण १९६० |
संदर्भ
लेखक परिचय:
मोबाईल: +९१ ९८८६५१४५२६
आज सुबह बाल कृष्ण शर्मा नवीन जी का जीवन परिचय पढ़ कर मन विक्षुब्ध हो गया! नाथद्वारा के मंदिरों में पुरोहित का काम करने वालों को गाय के बाड़े में बच्चे को जन्म देना पड़ा? चाहे यह सदियों पहले की बात हो, पर हम सबके सोचने की है! बाल कृष्ण शार्मा नवीन ने फिर भी हमें अद्भुत गीत दिए!
ReplyDelete“क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक?
क्या समझते हो कि होंगे नष्ट तुम अकलंक?
यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत!
और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्रोत!!
एक क्षण को भी न सोचो कि तुम होगे नष्ट;
तुम अनश्वर हो! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट!
चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उबुद्ध;
क्यों बनो हतआश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध?
फूँक से तुमने उड़ायी भूधरों की पाँत;
और तुमने खींच फैंके काल के भी दाँत;
क्या करेगा यह विचारा तनिक-सा अवरोध?
जानता है जग : तुम्हारा है भयंकर क्रोध!”
संतोष जी आपने और संपादक ने यह अनूठा लेख प्रस्तुत कर के हमें उत्सर्ग के लिए प्रेरित किया! सादर धन्यवाद!
कविता के माध्यम से जन-जन में चेतना का बिगुल बजाने वाले बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को संपूर्णता के साथ उल्लेखित करता एक बहुत सुंदर और समृद्ध लेख। संतोष जिबक अशेष आभार कि उन्होंने हमें महान रचनाकार को और क़रीब से जान ने का अवसर दिया। बहुत आभार।
ReplyDeleteबालकृष्ण शर्मा जी का जीवन मातृभूमि को समर्पित था। स्वतन्त्रता आंदोलन से जुड़े इस महान साहित्यकार के जीवन को रेखांकित करता यह महत्वपूर्ण लेख है। इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिए सन्तोष जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteइस आलेख से बालकृष्ण शर्मा जी के चरित्र में संकल्प और अपने काम के प्रति विश्वास जैसे गुणों के बारे में पता चलता है, लखनऊ जाने वाला प्रसंग जहाँ चाह वहाँ राह को चरितार्थ करता है। साहित्य और देश के प्रति उनकी अनुपम सेवा को नमन। संतोष जी को इस जानकारीपूर्ण परिचय के लिए आभार और हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteकवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,
ReplyDeleteजिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए,
एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ,
त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का -
धुँआधार जग में छा जाए,
बालकृष्ण शर्मा जी की ये कविता ना जाने कितनी बार बाल विद्यालयों में कितने बालकों ने गाई होगी । हमने भी गाई , 15अगस्त को विद्यालय के समारोह में ।अध्यापकों द्वारा कवि का नाम बताये जाने पर भी नही जानते थे कि कितने महान रचनाकार एंव कितने महान व्यक्तित्व की रचना है ।
बस रचना का शाब्दिक जोशो खरोश ही बाल मन को मोहता था ।
कालांतर में जब भारत की महान हस्तियों के विषय में जाना ,पढ़ा तो शत शत नमन करते हुये ऐसे महान व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक हुये बिना नही रहा गया ।
उन का जीवन , लेखकिय कर्मक्षेत्र मातृभूमि को ही समर्पित था ।
संतोष जी का हार्दिक अभिनंदन कि उन्होंने अपनी सक्षम कलम से ऐसे महान व्यक्ति का जीवन चरित्र हम सब के सम्मुख रखा ।
हार्दिक बधाई।