Saturday, December 11, 2021

सुब्रह्मण्य भारती: राष्ट्रीय एकता और अखंडता के अनन्य उपासक

                            

 

 

'अन्न चत्रम आथिरम वैत्तल आलयम पतिनारियम नाट्टल

अन्न याविलुम पुण्यम कोड़ो आंकोर एवैकु एलुत्तरिवित्तल'

 

“हज़ारों को अन्नदान करने, धर्मशालाएँ बनाने तथा हज़ार मंदिरों के निर्माण से बढ़कर 

किसी एक गरीब को अक्षर का ज्ञान प्रदान करना, करोड़ों गुना अधिक पुण्य का कार्य है।”

 

यह उद्गार हैं, चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्य भारती के, जो हर तमिल पाठक के हृदय में वास करते हैं। शिक्षा दान को सर्वोपरि मानने वाले भारती केवल एक लेखक या कवि ही नहीं, एक स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक भी थे। उनके विचारों और लेखन में अपने समय से बहुत आगे की सोच थी। वे कथनी और करनी के बीच अंतर नहीं रखते थे। श्रद्धा और प्रेमवश देशभर के स्वतंत्रता सेनानी और तमिल-भाषी उन्हें ‘भारथिअर’ कहते थे। ऐसी पुण्यात्मा को उपयुक्त श्रद्धांजलि देते हुए १९८२ में कोयंबटूर में ‘भारथिअर विश्वविद्यालय’ स्थापित किया गया। विश्वविद्यालय का आदर्श वाक्य है, "एजुकेट टू एलिवेट", जो भारती जी की विरासत का सटीक संप्रेषण है। वे मानते थे, कि विद्यालय, कल-कारखाने और स्वतंत्र अख़बार देश की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।

 

ऐसे भविष्यदृष्टा महाकवि का जन्म ११ दिसंबर १८८२ को तमिलनाडु के तूतुकुड़ी ज़िले के एट्टयपुरम् गाँव में, माता लक्ष्मी अम्मल और पिता चिन्नास्वामी अय्यर के घर हुआ। उनका बचपन का नाम था सुबैय्या। पिता तमिल विद्वान थे और एट्टयपुरम् महाराज के मित्र भी, इसलिए सुबैय्या को भाषा-प्रेम विरासत में मिला। वे मात्र पाँच वर्ष के थे, कि उनकी माता का देहांत हो गया। बिन माँ के बच्चे को ज्यों माता शक्ति ने अपना लिया और पग-पग पर उनकी रक्षा करती रहीं। भारती सब स्त्रियों में अपनी माँ को देखते, जीवन पर्यंत स्त्रियों की स्थिति को बेहतर बनाने में जुटे रहे। 

 

मात्र सात साल के सुबैय्या तमिल में कविताएँ लिखने लगे। ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में वे ऐसी भाषा में लिखते, कि पढ़े-लिखे लोग भी उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य करते। वे स्कूली पढ़ाई में साधारण थे, परंतु भाषा का उनको वरदान था। उसी समय उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना घटी। उन्होंने एट्टायापुरम् दरबार में तमिल विद्वानों से भरी सभा में ‘शिक्षा’ विषय पर वाद-विवाद में अभूतपूर्व विजय पाई। इस प्रदर्शन के बाद बालक “एट्टयपुरम् सुबैय्या” को माँ सरस्वती के एक नाम “भारती” से जाना जाने लगा। 

 

जून १८९७ में चौदह वर्षीय भारती का विवाह उनकी चचेरी बहन चेल्लंमा से हुआ। अगले ही साल उनके पिता का असमय निधन हो गया। भारती के नाज़ुक कंधों पर घर का दायित्व आ पड़ा। उन्होंने चेल्लंमा को मायके भेजा और स्वयं वाराणसी चले गए। १८९८-१९०२ के वाराणसी प्रवास में वे अपनी बुआ कुप्पम्माल और फूफा कृष्ण शिवन के साथ रहे, जो निसंतान होने के कारण भारती से बहुत प्रेम रखते। उन्होंने वहाँ उत्साहपूर्वक नई भाषाएँ - संस्कृत, हिंदी और अंग्रेज़ी सीखी। वे हिंदू कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ देश-विदेश की संस्कृतियों ने उनके व्यक्तित्व को प्रभावित किया। उन्होंने एक पगड़ी धारण कर ली, मूँछें बढ़ा लीं और उनकी चाल में एक निर्भीक ठसक आ गई। 

 

भारती बनारस से एट्टयपुरम् लौट कर दो साल महाराज के दरबार में रहे, पर जल्दी ही वहाँ के तौर-तरीकों से ऊब गए। कुछ समय उन्होंने मदुरई सेथुपति विद्यालय में सहायक-अध्यापक का काम किया। १९०४ में भारती की पहली पुत्री थंगम्माल का जन्म हुआ। उसी साल चेन्नई आ कर उन्होंने दैनिक अख़बार ‘स्वदेसमित्रण’ में सहायक संपादक का काम संभाला। दिसंबर १९०६ में कलकत्ता कांग्रेस से लौटते समय भारती ने स्वामी विवेकानंद की शिष्या निवेदिता से मुलाकात की। इस एक मुलाकात ने नारी मुक्ति के प्रति भारती के नज़रिए को असाधारण रूप से पुष्ट किया। वह नारी सशक्तिकरण के प्रबल पक्षधर बन गए। 

 

तमिल साहित्य में महाकवि भारती के साथ एक नए युग का आरंभ हुआ। पहले समकालीन कविगण छंद और व्याकरण में कम्बन या तोलकाप्पियार का अनुसरण करते थे। ऐसे में भारती ने पुराने नियम तोड़े और नए प्रतिमान स्थापित किए। १९०३ में भारती की पहली कविता प्रकाशित हुई। भारती मुख्यत: गीत लिखते, जिनके विषय थे - देशभक्ति, ईश्वरभक्ति, नारीमुक्ति, सामाजिक चेतना, अस्पृश्यता, और सूफ़ीवाद। “अचमिल्लई अचमिल्लई” (डरो मत, डरो मत), “मैयैताई पज़िथली” (भ्रम की निंदा), “पेनमाई वाज़गवेंद्रू” (स्त्री जीवन) भारती के कुछ प्रसिद्ध गीत हैं।  भारती अपने देशभक्ति के गीतों के कारण एक राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं। उनकी कविताएँ सभी भारतीय भाषाओं में अनुदित होकर लोकप्रिय हुई। वह तमिलनाडु के ही नहीं, भारत के महानतम कवियों में से हैं।  

 

उन्होंने लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने को प्रेरित किया और खूब ज़ोर-शोर से देश की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। उन्होंने अपने सपनों के भारत की परिकल्पना की और १९०८ में धूम मचा देने वाला "सुदेसा गीथंगल (स्वदेश गीत)" भगिनी निवेदिता के चरणों में समर्पित किया। उनके गीतों ने तमिलनाडु में एक जाति-पाँति विहीन समाज की कल्पना की और जन चेतना को जगाया। वे जहाँ भी रहे, जनता के हो के रहे और हर राजनीतिक और क्षेत्रीय संकट में उन्होंने समाज को राह दिखाई। उनको स्पष्ट था, कि स्वतंत्रता का इस्तेमाल देशवासियों के हित में कैसे करना है। कैसे संसाधनों का उपयोग करना है, जिससे आने वाली पीढ़ियों का जीवन व देश का भविष्य उज्ज्वल हो सके।  भारत की स्वतंत्रता का रसास्वादन भारती ने असली आज़ादी से बहुत पहले कर लिया था। अपनी कविता “नाचेंगे हम” में भारती लिखते हैं:


“हम मुक्त कंठ से कृषि के वंदन गाएँगे 

उद्योगों के माथे पर तिलक लगाएँगे 

भोजन कर भरपेट निठल्ले जो रहते,

उनको निंदा से भरे शब्द सुनवाएँगे

ऊसर धरती में जल सिंचन से क्या होगा 

हम नहीं व्यर्थ कामों में समय गवाएँगे 

नाचेंगे हम, आनंदमग्न हो नाचेंगे।”

 

भारती स्वयं अंग्रेज़ी कवि शैली से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने अंग्रेज़ी कविताओं का तमिल अनुवाद शैल्लिदासन उपनाम से किया। उन्होंने तमिल गद्य को कमेंट्री, संपादकीय, लघु कथाएँ और उपन्यास के रूप में भी लिखा। तमिल की आधुनिक कथा शैलियों में उनकी अपनी एक अलग पहचान रही।

 

अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल उन्होंने पत्रकारिता में निकाले। ‘स्वदेसमित्रण’ के बाद, १९०७ में उन्होंने तमिल साप्ताहिक ‘इंडिया’ और अंग्रेजी पत्रिका ‘बाल भारत’ का संपादन संभाला। वह लगातार ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे। उनके गीत सोती जनता को छेड़ जगाने के लिए तमिल जन-चेतना के वाहक बने। ‘इंडिया’ तमिलनाडु की पहली पत्रिका थी, जिसमें राजनीतिक कार्टून छपते  थे। कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, कि ‘इंडिया’ के प्रभारी को गिरफ़्तारी वारंट मिला। हालात धीरे-धीरे बुरे होते गए, तो भारती ने १९०८ में उस समय फ़्रांसिसी क्षेत्र पॉन्डिचेरी जाने का निर्णय लिया। 

 

१९०८ से १९१८ वे पॉन्डिचेरी में रहे, जहाँ उन्होंने ‘इण्डिया’ का प्रकाशन ज़ारी रखा और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के  प्रकोप से बचे रहे। इस दौरान वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं - अरबिंदो, लाजपत राय और वी.वी.एस. अय्यर से मिले।  श्री औरोबिन्दो के साथ उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। उन्होंने वहीं से तमिल युवा शक्ति को देशभक्ति का रास्ता दिखाया। भारती ने ‘विजया’ नाम की पत्रिका भी निकाली। उनके प्रभाव से ब्रिटिश राज क्रुद्ध हो गया और १९१० में ‘इंडिया’ और ‘विजया’ भारत में निषेध होने के कारण बंद करनी पड़ी।  भारती ने पांडिचेरी में फ्रेंच भी सीख ली। इस बीच १९१८ में वे ब्रिटिश के हिस्से में आये क्षेत्र में कुड्डालोर में घुसे और सरकार द्वारा पकड़ लिए गए। उन्होंने जेल में भी अपना समय गीत, कविताएँ और देश उत्थान की बातों में व्यतीत किया। 

 

समाज सुधार के क्षेत्र में भारती ने जो सुधार सुझाए, वह स्वयं पर भी लागू किए। भारती ने सबसे पहले जनेऊ त्यागा और कई दलितों को जनेऊ पहनाया। उनके कई मुस्लिम मित्र थे, जिनके साथ वह मज़े से खाते-पीते। वह सपरिवार चर्च भी चले जाया करते थे। उन्होंने मंदिरों में दलितों के प्रवेश की हिमायत की। उनको अपने पड़ोसियों के कोप का भजन बनाना पड़ा, परंतु भारती कहते, कि जब तक भारत माता के सारे बालक एकजुट नहीं होंगे, भारत को आज़ादी नहीं मिलेगी। वे विधवा विवाह के समर्थक थे, दहेज विरोधी थे और बाल विवाह को कुरीति मानते थे। 

 

भारती का मानना था, कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहे। स्वतंत्र रूप से सोचना-विचारना केवल मातृभाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है और उसी राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली सफल हो सकती है, जो मातृभाषा के माध्यम से दी जाएगी। विलायती भाषा द्वारा पढ़ाई से राष्ट्रभाषा मन्द पड़ने लगेगी और कालान्तर में मिट ही जाएगी। आज की शिक्षा मस्तिष्क के विकास की है, जबकि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए आत्मा का विकास महत्वपूर्ण है। हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा हम अपने अतीत के साथ न्याय करते हुए भविष्य की माँग के अनुरूप बन सकें। 

 

११ सितम्बर १९२१ को ४० वर्ष की अवस्था में ही भारती इस दुनिया से कूच कर गए, परंतु वे करोड़ों लोगों के जीवन की धारा बदल गए। जो अपने लिए नहीं, देश और समाज के लिए जिया हो, वह सदैव ही सबका भारथिअर बन कर रहेगा। उनकी दानशीलता की अनेक कथाएँ आज भी तमिलनाडु में प्रचलित हैं। इसी भाव से प्रेरित हो भारती की रचनाओं पर कॉपीराइट का विवाद सुलझा कर उनकी रचनाओं को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर जनमानस को समर्पित किया गया। यह भारतीय साहित्य में अनूठी मिसाल है। भारत सरकार ने १९८७ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ सर्वोच्च राष्ट्रीय “सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार” की स्थापना की, जो हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट कार्यों के लेखकों को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाता है। 

 

भारती की प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

  • यदि आदमी और औरतों को बराबर का दर्जा दिया जाएगा, तो यह दुनिया ज्ञान और बुद्धि दोनों में समृद्ध होगी।  

  • वर्तमान में जियो और भविष्य का निर्माण करो , जो बीत चुका वह कभी न लौटने के लिए जा चुका ।

  •  धीरज बहुत कीमती पाठ है, और जागरूकता सबसे शक्तिशाली हथियार। 

  • दिल मज़बूत रहे और शब्द मीठे ।

  • उन हाथों को आग लगा दो, जो हमारे आगत को दाँव पर लगाने की हिम्मत करते हैं … सच कितना भी हारे, अंत में विजयी होता है - 'पांचाली शपथम' से ।

  • जिन भाषाओं को हम जानते हैं, उनमें हमें तमिल सी मीठी कोई और भाषा नहीं दिखती।

  • तुम्हें क्या लगा कि अंत में मैं मर जाऊंगा, इस दयनीय चेहराविहीन मानव की तरह?

 

भारती, बड़ी तपस्या के बाद तमिल भाषा को मिला वरदान है। जब तक तमिल भाषा जीवित है, ‘भारथिअर’ जीवित रहेंगे।

 


श्री सुब्रह्मण्य भारती : जीवन परिचय

जन्म 

११ दिसंबर १८८२ , एट्टयपुरम्, तमिलनाडु

पिता 

श्री चिन्नास्वामी अय्यर

माता 

श्रीमती लक्ष्मी अम्मल 

पत्नी

श्रीमती चेल्लंमा

कर्मभूमि

तमिलनाडु / वाराणसी / पुदुच्चेरी

शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा

हाई स्कूल, तिरुनेलवेली

माध्यमिक/उच्च शिक्षा

हिन्दू कॉलेज, बनारस 

कार्य

सह संपादक, तमिल दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेसमित्रण’ १९०४ से १९०६ तक

संपादक, तमिल मासिक पत्रिका "चक्रवर्तिनी" सन् १९०५ से १९०६ तक

संपादक “इण्डिया”, “विजय” पत्रिका - १९१० तक 

प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ

  • सुदेसा गीथंगल (स्वदेश गीत) , १९०७

  • ‘जन्मभूमि’ (१९०९) 

  • पांचाली सबतम (पांचाली शपथम) -१९१२ 

  • कुयिल पट्टू ( कोयल का गीत)-१९१२ 

  • मादा मनिवाचगम (कविता संग्रह), सरस्वती प्रेस, डरबन, दक्षिण अफ्रीका,१९१४ 

  • ज्ञानारथम (ज्ञान का रथ)

  •  कण्णऩ् पट्टू ( कृष्ण के लिये गीत) -१९१७ 

  • नट्टू पट्टू, १९१८ 

  • Agni and Other Poems

  • English essays

पुण्यतिथि 

११ सितम्बर १९२१, तमिलनाडु 

 

नोट: भारती जी की पोती सुश्री एस. विजया भारती ने भी अपने ब्लॉग में प्राथमिकता से एक बात कही है, कि बहुत से लोग उनका नाम सुब्रमण्यम लिखते हैं, जो सही नहीं है। सही है सुब्रह्मण्य। वे लिखती हैं:

“Bharati’s signature appears under the book cover, in both Tamil and English. Noteworthy in his English signature is the spelling of his name in English, “C. Subramania Bharati.” Bharati’s name is generally misspelled, but the correct version should be the usage adopted by the poet himself.

 

 

       

 

                                                                                                 भारती का परिवार:

 

 संदर्भ :

 

  1. https://subramaniabharati.com/2014/06/05/the-legacy-continues-6/

  2. https://web.archive.org/web/20151223092135/http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/4632/3/0#.Vnpnz2DP02w

  3. भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश भाग-2-रामविलास शर्मा, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली

  4. https://docplayer.net/120874815-Bharathi-and-kuyil-paattu.html

  5. https://pib.gov.in/newsite/printrelease.aspx?relid=148927

  6. https://www.sociologygroup.com/mahakavi-bharathiyar/

  7. https://en.wikipedia.org/wiki/Subramania_Bharati

  8. https://web.archive.org/web/20151223092135/http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/4632/3/0#.Vnpnz2DP02w

  9. https://www.youtube.com/watch?v=SvQzI81jezU

  10. https://scroll.in/article/878459/tamil-poet-subramania-bharti-died-in-poverty-but-his-works-sparked-an-unparalleled-copyright-battle


लेखक परिचय:

 


 शार्दुला नोगजा सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। पेशे से वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार हैं और २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था ‘कविताई-सिंगापुर’, भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती और मजबूत करती है। शार्दुला साहित्यकार-तिथिवार परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं। ईमेल: shardula.nogaja@gmail.com 

 

 

 

 

 

 

 

सुश्री गायत्री सोमासुंदरम सुब्रह्मण्य भारती की समर्पित पाठक हैं। वे पेशे से डाटा एनालिस्ट हैं और लेखन-पठन में गहरी रुचि रखती हैं। एक वक्ता के रूप में उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा  नौ साल की उम्र में आरम्भ की। वे सिंगापुर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं। गायत्री शार्दुला की मेंटी हैं।


7 comments:

  1. चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है।
    जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है।
    नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस धारा,
    बहती है क्या कहीं और भी, ऎसी पावन कल-कल धारा?
    ( सुब्रह्मण्य भारती)

    वह एक सच्चे भारतीय का उत्कृष्ट उदाहरण हैं । भारती जी का विचार यदि हम सब अपना लें तो देश में व्यर्थ का भाषा - विवाद समाप्त ही हो जाए । मैं हिंदी से प्यार करता हूँ , इसका अर्थ यह नहीं कि मैं अपनी मातृभाषा पंजाबी से प्यार नहीं करता । या जो राजस्थानी / मेवाड़ी मैं बोलते- सुनते बड़ा हुआ हूँ , उस भाषा को , उसके लोक गीतों को त्याग चुका हूँ । क़तई नहीं । भारती जी ने हमें यही सिखाया । हम विद्यालय में उर्दू और संस्कृत साथ - साथ सीखते थे । तमसो मा ज्योतिर्गमय सीखते -सीखते ग़ालिब और मीर भी समझ में आ गए । यह भारती जी जैसे प्रेरणादायक राष्ट्रभक्तों का कमाल है कि हमारी पीढ़ी किशोरावस्था में जिस लगन से मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा करती थी , उसी लगन से शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और बंकिम चंद्र को भी । हाँ , हिंदी का हमारी राष्ट्र भाषा , राज भाषा होने में किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए । बाक़ी , यदि हमें विदेशी भाषाएँ बोलने में कोई समस्या नहीं तो अपने ही देश की तमिल , मलयालम या बांग्ला के उपयोग से क्या आपत्ति हो सकती है ? भारती जी का साहित्य को , राष्ट्र भक्ति को , समाज सुधार को दिया हुआ योगदान अमर रहेगा । शार्दुला जी और गायत्री जी ने इस लेख के रूप में हमें अनुपम भेंट दी है । आप दोनों को साधुवाद । 💐

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  2. चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्य भारती जी का बाल्यावस्था से साहित्य के प्रति जो अनुराग जागा उसी के चलते वो शीर्ष साहित्यकारों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना पाए। इस लेख में उनके व्यक्तिगत जीवन एवं साहित्य को जिस सरलता से प्रस्तुत किया गया है, ये गहन शोध के पश्चात ही सम्भव है। शार्दुला जी एवं गायत्री जी को इस शोधपूर्ण एवं जानकारी भरे लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  3.  

    इस लेख में बहुत ही ख़ूबसूरती से एक-एक शब्द को पिरोया गया हैं। पढते ही समझ आ रहा हैं शार्दुला जी और गायत्री जी के अथांग शोध के पश्चात ही यह सम्भव हैं। भारती जी का साहित्य के प्रति विचार और उसकी अवधारणा को भलिभांति परिचित कराया हैं। आप दोनों की कलम को सलाम करते हैं। हिन्दी से प्यार और साहित्य इसका एक ज्वलंत उदाहरण हैं आदरणीय भारती जी।

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  4. इंसानियत और भारतीयता की बेहतरीन मिसाल, भारवर्ष के महासपूत भारती जी को समर्पित अत्युत्तम लेख। मानवीय गुणों के बगैर मिली कोई भी विजय पूर्ण नहीं हो सकती, मानवता का उत्थान सबके प्रति सद्भाव रखने से ही हो सकता है। भारती जी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उनकी कथनी और करनी में लेशमात्र भेद नहीं था। भारती जी के दिखाए मार्ग पर चलकर ही सही मायने में देश सर्वांगीण प्रगति की ओर बढ़ सकता है। शार्दूला जी और गायत्री जी को उत्तम लेखन की बधाई और बहुत बहुत शुक्रिया।

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  5. सुब्रह्मण्य भारती: राष्ट्रीय एकता और अखंडता के अनन्य उपासक के व्यक्तित्व से परिचय कराता बेहद रोचक आलेख। बहुत बहुत बधाई लेखिका शार्दूला जी को और गायत्री जी को

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  6. लेखिकाओं का बहुत आभार जो इस महान व्यक्तित्व से हमारा परिचय कराया। इतने बुद्धि, ज्ञान और साहस को धारण करने वाली देह जब इतनी कम आयु में पंच तत्वों में विलीन हो जाती है तो उस आघात से सदियाँ कराहती हैं। भारती जी जैसा लाल पाकर भारत धन्य हुआ।

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