अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में जन्में पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' को ढाई वर्ष की अवस्था में ही पिता के प्रेम से वंचित होना पड़ा। गरीबी के कारण स्कूली पठन-पाठन बाधित रहा और अभावों के चलते ही उन्हें बचपन में राम-लीला मंडलियों में काम करना पड़ा। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक आधी-अधूरी पढ़ाई ही कर पाए। घर की दयनीय स्थिति का उल्लेख करते हुए आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में लिखा है- " मेरे घर में अक्सर जुआ हुआ करता था। जुए से जब नाल की रकम वसूल होती, तब मेरे घर में भोजन की व्यवस्था होती थी। आटा, चावल, दाल, नमक आता था। -----------बड़ी मुश्किलों से सुबह का खाना मिलता तो शाम को नहीं, शाम को मिलता तो सबेरे नहीं। जहाँ भोजन वस्त्र के लाले हों, वहाँ शिक्षा-दीक्षा क्या रही होगी!, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। " साहित्य के प्रति उनका प्रगाढ़ अनुराग लाला भगवानदीन के सान्निध्य में प्रस्फुटित हुआ और उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं का गहरा अध्यवसाय किया। उनकी मित्र-मंडली में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, विनोदशंकर व्यास जैसे यशस्वी कवि-साहित्यकार रहे। गोस्वामी तुलसीदास तथा उर्दू के प्रसिद्ध शायर असदुल्ला खाँ ग़ालिब, उनके दो सबसे प्रिय रचनाकार थे। उग्र जी गांधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो गए और जब तत्कालीन शासन द्वारा तिरंगा झंडा लेकर चलने पर गिरफ़्तार कर लिए गए, तो उग्र जी ने ऐसी कमीज बनवाई, जिसमें तिरंगे झंडे के तीनों रंग विद्यमान थे, जिसे पहनकर वे राष्ट्रीयता का प्रचार करते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय गान लेखन प्रतियोगिता के लिए कविता लिखी थी, जो तत्कालीन समय में बहुत सराही गई, उस कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं –
विमल भूमि जय ।
जल, सफल, सदल, सबल, अमल भूमि जय।
राम की पवित्र भूमि, श्याम की पवित्र भूमि,
गौतम सुचरित्र भूमि-सकल भूमि जय ।।
उग्र जी की लंबी कविता ‘विदेशी वस्त्र बायकाट’ भी चर्चित हुई, जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
उग्र शान अब न रहेगी, ब्यूरोक्रेसी देख ।
ब्रह्मवाण विकत विदेशी वस्त्र वायकट ।।
उग्र जी ने अपने कथा साहित्य में समाज और उसकी बहुत सी समस्याओं, विकृतियों, विसंगतियों को पात्रों के माध्यम से सजीव अभिव्यक्ति प्रदान की है। उन्होंने सामाजिक अव्यवस्थाओं को, अपने अनुभवों को कथानकों में यथार्थ रूप से चित्रित किया है। भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था और उससे उपजी जाति-व्यवस्था की कुरीतियों को साहित्य के माध्यम से उजागर करने के प्रयास किए और समाज में समता की स्थापना की। वकालत करते हुए ' सर्वे भवंतु सुखिन: ' की भावना का प्रतिपादन किया। उग्र जी समाज में व्याप्त ऐसी वर्ण-व्यवस्था को नहीं मानते, जो कर्म पर आधारित न हो। उनका मानना था, कि व्यक्ति की पहचान वर्ण से न होकर कर्म से होनी चाहिए। हमेशा ही उग्र जी दलितों के पक्षधर के रूप में सामने रहे, जिससे तत्कालीन युगबोध की यथार्थता सामने आती है। उन्होंने सच्चाई उजागर करते हुए बताया है, कि निम्न वर्ग हमेशा ही उच्च वर्ग के अन्याय और अत्याचारों का साक्षी रहा है और सामाजिक वैषम्य को भुगतता रहा है।
‘बुधुआ की बेटी’ उपन्यास में दलितोद्धार की समस्या को आधार बनाया है और लेखक ने निम्न वर्ग की पीड़ा, शोषण और उच्च वर्ग की घृणित मानसिकता को अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते हैं, कि भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था कर्मणा न रहकर जन्मना बन गई है, इसी असमानता को उग्र जी पात्र मनुष्यानंद से कहलवाते हैं, - " इस देश में ३१ करोड़ अछूते हैं ----- ६ करोड़ तो ऐसे हैं, जिन्हें हिंदू नामधारी मूर्ख अछूत समझते हैं; पर बाकी के २५ करोड़ ऐसे अछूत हैं, जिन्हें सारा संसार अस्पृश्य, पतित, पृथ्वी का बोझ और गुलाम समझता है। प्रकृति भी, ईश्वर भी थप्पड़ का जवाब पत्थर से देता है, महोदय। हम ६ करोड़ से नफरत करते हैं और हमसे सारा संसार नफ़रत करता है। हम नफ़रत बोते हैं और नफ़रत काटते हैं। "
समाज में निम्न वर्ग के लोग शोषण, पीड़ा, अशिक्षा, निर्धनता के कारण धर्म परिवर्तन करने लगे। इस समस्या को भी उग्र जी ने गंभीरता से अभिव्यक्त किया है, कि ईसाई धर्म भी इनका हित नहीं कर सका। पादरी जॉनसन के माध्यम से उग्र जी इसी उपन्यास में लिखते हैं- " मेरी राय में तो आप और आपकी मुक्ति फ़ौज वाले इन अभागों को हिंदू-अछूत से उठाकर ईसाई अछूत बना देते हैं। कितने अछूत आप पेश करते हैं, जिन्हें आपने अपनी जाति में मिलाकर समाज में बराबरी का पद दिलवाया हो?, मेरा तो ख्याल है- नहीं के बराबर।" उग्र जी निम्न वर्ग के प्रति अछूत समस्या के समाधान को भी सामने रखते हैं, और उन लोगों को अपने अधिकारों व आचरण से आदर का पात्र बनने का सुझाव देते हैं- " अछूत स्वयं संभलें, अपने आपको मनुष्य घोषित करें और संगठित होकर संसार के अच्छे से अच्छे लोगों से आदर पाने योग्य बनें। परस्पर गाली गलौज, लत्तम-जुत्तम के स्थान पर सहयोग और सही व्यवहार को अपनाएँ। अपने बच्चों को कोई कला-कौशल सिखलाएँ एवं शिक्षा दिलाने का उद्योग करें।"
उग्र जी ' दिल्ली का दलाल ' उपन्यास में रूप और यौवन के जानकार सौदागरों का नाटकीय और घृणित व्यवहार यथार्थ रूप में पाठकों के सामने रख देना चाहते हैं। अनैतिक नारी व्यापारों के अड्डों की समस्या कथा के मूल में है। ' कढ़ी में कोयला ' उपन्यास में कलकत्ते के मारवाड़ियों के काले धन की कमाई के रहस्यों का विश्लेषण है। कैसे पूंजीपतियों का एक वर्ग निम्न स्तर पर जन-जीवन में शासकीय नियमों की अवहेलना कर काला-धन कमाता है और भद्र समाज के नाम पर अपनी दैहिक वासना की तृप्ति के लिए विलासी वातावरण निर्मित करता है। ' जी जी जी ' उपन्यास में माता-पिता की इच्छाओं से नवयुवतियों का अनमेल विवाह के लिए बाध्य होना और उसके दुष्परिणामों को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। ' गंगामाता ' उपन्यास भूतल-प्रवाहिनी गंगा नदी की पुराण गाथा नहीं, बल्कि गंगामाता के मानवीकरण द्वारा सृजित एक अभिनव नारी की स्वातंत्र्य चेतना का प्रस्तावित उपन्यास है। इसमें नारी गौरव की स्वीकृति के साथ ही, पुरुषवादी सामाजिक अवधारणा को विच्छिन्न करने की इच्छा शक्ति और नारियों द्वारा स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की कर्मठता का चित्रण है।
उग्र जी का कहानी साहित्य भी समृद्ध है। उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जिनके भावबोध समाज के विविध पक्षों को यथारूप अभिव्यक्त कर, सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ' चिनगारियाँ ' में संकलित कहानियों का विषय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रहा, तभी तो प्रकाशन के साथ ही तत्कालीन व्यवस्था ने उसे ज़ब्त कर लिया। ' बलात्कार ' एवं ' निर्लज्जा ' संग्रह की कहानियाँ समाज में व्याप्त विकृत मानसिकता, जातीय संकीर्णता , धार्मिक आडंबर, नारी की दयनीय स्थिति और सामाजिक विषमताओं की पोल खोलती हैं। ' चॉकलेट ' संग्रह की कहानियों में समलैंगिकता जैसी सामाजिक बुराई को कथानक में शामिल किया है। ' दोजख की आग ' की कहानियाँ हिंदू-मुसलमानों के वैमनस्य के दुष्परिणामों को अभिव्यक्त करती हैं। ' पंजाब की महारानी ' संग्रह की कहानियों में ब्रिटिश शासनकाल के इतिहास और उनकी अमानुषिक बर्बर दमनकारी नीति की घटनाओं का वास्तविक चित्रण हैं, तभी तो ब्रिटिश शासकों ने इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया था। इस प्रकार उग्र जी की कहानियों का भावबोध समकालीन सामाजिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण रहा है। इनकी कहानियों पर ' राम-विलास ', ' पतित पावन ', ' राधा मोहन नंदलाल ' जैसी फ़िल्में बनीं और दर्शकों द्वारा सराही गईं।
पत्रकारिता के क्षेत्र में उग्र जी बहुत ही सक्रिय रहे और अपनी प्रवृति और प्रकृति के द्वारा सराहे गए। समकालीन साहित्यकारों ने उनकी तीक्ष्ण एवं कुशाग्र बौद्धिक विचारधारा की सराहना भी की है। आज, मतवाला, संग्राम, हिंदू पंच, वीणा, विक्रम, उग्र, स्वदेश आदि में रहकर अपनी धाक जमाई। उग्र जी १९३० से १९३८ तक फ़िल्मों से जुड़े रहे।
बेचन शर्मा ‘उग्र’ जी भाषा शिल्पी रहे हैं। हाट -बात की जानदार भाषा उसका साधन है, उस पर आपका पूर्ण अधिकार है। शब्द चाहे उर्दू हों, चाहे देशज हों, चाहे स्थानीय हों, चाहे अंग्रेज़ी, आप की कलम से नगीने सरीखे लगते हैं। उर्दू-हिंदी-संस्कृत के उद्धरणों का प्रयोग उचित स्थान पर कर अपनी बात का समर्थन कर लेते हैं। उनकी भाषा में अद्भुत मार्मिकता थी, तभी वे विषय को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करने में सफल रहे। तभी तो उग्र जी के संबंध में कहा गया है, कि वे समाज के दोषों और दुर्बलताओं का पर्दाफ़ाश करके, नर-पशुओं के खतरनाक काले कारनामों को झटके पर झटका देकर, घसीट कर रोशनी में लाने वाले यथार्थवादी सुधारक साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा सुषुप्त समाज की चेतना को झकझोर कर जगाने की चेष्टा की। उन्होंने सामाजिक चेतना के अंतर्गत अछूतोद्धार, आर्थिक वैषम्य, धर्म-वर्ण-जाति व्यवस्था के आडंबरों, नारी जीवन की समस्याओं, धार्मिक विद्वेष, साहित्य और भाषा से संबंधित समस्याओं की तरफ़ बुद्धिजीवियों को सोचने पर विवश किया। वास्तव में वे सामाजिक विषमताओं से जूझते साहित्यकार रहे हैं।
पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' जी के जीवन एवं साहित्य पर बहुत जानकारी भरा लेख। पढ़कर आनंद आया। डॉ दीपक पाण्डेय जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबड़ा सुंदर और व्यवस्थित लेख है दीपक जी। लेख की व्यवस्थित संरचना के कारण आप उग्र जी के अद्भुत सत्यवादी एवं विस्तृत सुधारवादी साहित्य को उजागर करने में सफल रहे। आपको बधाई ! उग्र जी ने क्या कमाल सामाजिक क्रांति का अनुष्ठान उठाया। कोई सामाजिक बुराई नहीं छोड़ी जिस पर प्रहार ना किया हो। ऐसे सत्यवादी , निष्ठावान साहित्यकार अपनी भाषा के साहित्य के लिए सौभाग्य होते हैं । 💐💐
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ReplyDeleteउग्र जी पर यह लेख पढ़कर पुनः इस बात की पुष्टि हो गयी कि कलम में तलवार से अधिक तेज़ वार करने की क्षमता होती है। अपनी क़लम से उग्र जी ने समाज की हर विषमता, हर बुराई पर जमकर प्रहार किया। दीपक जी, आपने उग्र जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की विस्तृत जानकारी बहुत ही सटीक और रोचक तरीके से प्रस्तुत की। इस अद्भुत लेखन के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।
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