हिंदी साहित्य में अकहानी आंदोलन के जनक, कथाकार, उपन्यासकार, अनुवादक एवं कवि डॉ० गंगा प्रसाद विमल का जन्म ३ जून सन् १९३९ को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के टिहरी नामक ग्राम में एक संभ्रांत कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता विश्वंभर दत्त उनियाल टिहरी रियासत में राजगढ़ी तहसील के सब-डिविज़न ऑफिसर थे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा टिहरी जनपद के प्रताप इंटर कॉलेज, तथा उत्तरकाशी में हुई। ये बचपन से ही परंपरा विरोधी, फक्कड़ प्रवृत्ति के जिज्ञासु बालक थे। विद्रोह उनकी प्रकृति का सहज अंग था, जो आगे चलकर उनके कृतित्व पर भी परिलक्षित होता है।
देवभूमि उत्तराखंड की पावनता एवं स्वच्छता में पले बढे़ डॉ० गंगा प्रसाद विमल जी के बाल संस्कार ऋषिकेश के पावन वातावरण की पूज्य भूमि पर पल्लवित हुए। प्रयाग ने उन्हें रंग-रूप दिया, जिसकी महक उनके व्यक्तित्व व जीवन में दिखाई देती है। ५ फरवरी सन् १९६५ को डॉ० विमल जी का पाणिग्रहण संस्कार श्रीमती कमलेश अनामिका के साथ हुआ। सन् १९६९ में प्रथम संतान आशीष (पुत्र) और सन् १९७५ में पुत्री कनुप्रिया का जन्म हुआ।
इनके जीवन में भी अनेक उतार-चढ़ाव आए, किंतु अपने लक्ष्य से वे कभी विचलित नहीं हुए। लेखन के प्रति स्वाभाविक रुचि के कारण सदैव अध्ययन और ज्ञान के प्रति जिज्ञासु रहे। ग्रामीण अंचल और उससे जुड़ी हुई धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक विसंगतियों, रुढ़ियों तथा परंपराओं को शब्द चित्रों के रूप में उकेरने में आप सिद्धहस्त थे। व्यावसायिक रूप से दिल्ली जैसे जन समुदाय के साथ जुड़े होने पर भी उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार अधिकांशत: उत्तराखंड की धरती से संबंधित परंपराओं तथा लोक प्रचलित किवदंतियों को बनाया। यहाँ के ज्ञान कोष को कथा रूप में तराशने की ललक सदैव ही उन्हें आकर्षित करती रही है।
विमल जी के साहित्य में उत्तराखंड की प्रकृति, माटी, परंपराओं के प्रति असीम स्नेह, जनजीवन, एवं लोक-संस्कृति की छाप दिखाई देती है। भाषा, साहित्य, शिक्षण तथा शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, उन्होंने एक कुशल प्राध्यापक की ख्याति भी अर्जित की है। इन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में भी संपादन का कार्य किया। इनके साहित्य में मानव कल्याण की भावना तो है ही, साथ ही मानवीय मूल्यों की रक्षा व जीवन आदर्शों की चेतना भी निहित है।
मेरी इनसे मुलाकात सन् २०१४ में दिल्ली में हुई। अत्यंत सौम्य एवं सरल-सहज व्यक्तित्व में हिमालय-सी सादगी, मुख पर मधुर मुस्कान, निर्झर झरने-सा विमल स्वभाव और ऊँचाइयों को धारण करने का जज़्बा इनमें दिखता है।मुझे लगा ही नहीं, कि मैं पहली बार इनसे मिल रही हूँ। इनकी तमाम विशेषताओंं के चलते ही प्रथम बार मिलने पर भी वे उस व्यक्ति के हृदय में अपनी छवि अंकित कर देते थे।
विमल जी स्त्री विमर्श के प्रबल पक्षधर रहे हैं। उन्हें लगता था, कि भारतीय व पश्चिमी स्त्री को अलग दृष्टि से देखना होगा; यहाँ गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, अन्याय, धर्म, पंरपरा, और कुलीनता की आड़ में स्त्री विरोधी लोग तमाम तरह के कुकृत्य करते हैं। जागरण समाचार पत्र में विमल जी के कथन के बारे में कहा गया है– “स्त्री के प्रति भारतीय दृष्टि पाखंड भर है, उसका शोषण पशुवत है, स्त्रियों पर जातिवाद की आड़ में घृणित अत्याचार हो रहे हैं। कारगर उपाय हैं, आर्थिक समानता, लेकिन सामाजिक स्तर पर इस तरह की कोई तैयारी भारतीय समाज में नहीं दिखाई देती, इस अंधी गली की अंतिम दीवार केवल यह प्रदर्शित करती है, कि आगे कोई रास्ता नहीं है।”
“विमल जी जितने सरल व्यक्ति थे, उतने ही गंभीर लेखक”। वे लेखक के साथ-साथ आलोचक भी थे, उन्होंने लेखन के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी भी संभाली हुई थी। उन्होंने साहित्य में गद्य और पद्य की अनेक विधाओं में समान रूप से अपनी लेखनी चलाई है। विश्व की अनेक भाषाओं में उनकी रचनाएँ अनुदित हुई हैं।
डॉ. विमल को साहित्य और संस्कृति के लिए दिए गए महत्वपूर्ण योगदान पर विश्व भर में अनेक पुरस्कारों एवं सम्मानों से नवाज़ा गया। उनके सात कविता संग्रह, ग्यारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहला काव्य संग्रह – ‘विज्जप’- १९६७, पहला उपन्यास – ‘अपने से अलग’- १९७२, पहला कहानी संग्रह – ‘कोई भी शुरुआत’ १९६७ में प्रकाशित हुए।
१९६४ से १९८९ तक ज़ाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थियों के शोध निर्देशक रहे। १९८९ से १९९७ तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नई दिल्ली में केंद्रीय हिंदी निदेशालय (शिक्षा विभाग) में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। इन्होंने बी०बी०सी० लंदन से कहानी पाठ और आकाशवाणी से अनेक बार कविता पाठ किया तथा कई देशों में इनके शोध ग्रंथ पढ़े गए हैं। भाषा अनुसंधान करने वाले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से आप संबद्ध रहे।
इनका अंतिम उपन्यास 'मानुसखोर' सन् २०१३ में प्रकाशित हुआ। श्रीलंका में सड़क दुर्घटना से ८० वर्ष की आयु में २३ दिसंबर २०१९ को उनका निधन हो गया। उनके आकस्मिक निधन से हिंदी साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति हुई। गंगा प्रसाद विमल जैसे एक प्रखर नक्षत्र के बुझ जाने से हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण परंपरा का अंत हो गया। अपने देश, अपनी माटी से प्रेम करने का प्रमाण उनकी कविता के इस अंश से स्पष्ट होता है –
बनेगी तुम्हारी स्तुति
ओ प्यारी धरती
पहाड़ ही नहीं जन्में तुमने
न घाटियाँ
क्षितिज तक पहुँचने वाली
फैलाव में
रचा है तुमने आश्चर्य
आश्चर्य की इस खेती में
उगते हैं
निरंतर नए अचरज
मैं नहीं
अंतरिक्ष भी अवाक है
देखकर तुम्हारा तिलिस्म”
संदर्भ
जागरण समाचार पत्र – २६ दिसंबर २०१९
जागरण समाचार पत्र – २६ दिसंबर २०१९
कविता अमित शर्मा अमर उजाला – २५ दिसंबर २०१९
डॉ० रेखा – शोध प्रबंध – पृ० स० ४३
लेखक परिचय
डॉ० रेखा सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर,
हिंदी विभाग
रा०महा० विद्यालय
पावकी देवी टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखंड, भारत।
शिक्षा - बीएड०, पीएचडी, नेट, यूसेट।
शोधपत्र – २० राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय।
दो लघु कहानी – आत्मा का ताप, क्रूर शोधन, शोध प्रबंध प्रकाशनार्थ।
डॉ० गंगाप्रसाद जी की विवेचना करता उत्तम लेख...हार्दिक बधाई साहित्यकार रेखा जी
ReplyDeleteडॉ. गंगा प्रसाद 'विमल' जी के जीवन एवं साहित्य यात्रा को समेटे हुए रोचक लेख बना है। रेखा जी को इस बढ़िया लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteरेखा जी, आपकी क़लम से उत्तराखंड के एक और कर्मठ साहित्यकार का सुन्दर परिचय प्राप्त हुआ। भारतीय स्त्रियों को यूरोप की स्त्रियों से अलग दृष्टि से देखने की बेबाक बात कहने और उसकी अपने कृतित्व के ज़रिये पैरवी करने वाले डॉ गंगाप्रसाद जी को नमन। रेखा जी आपको इस लेख की ख़ूब बधाई और शुक्रिया।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं सरल शब्दों से सजा हुआ लेख हैं। आदरणीय डॉ गंगा प्रसाद विमल जी का जीवन और साहित्यिक परिचय भी अत्यंत सुसज्जित मात्रा में रखा गया हैं। सौम्य लेखन के लिए डॉ रेखा सिंह जी को हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं। 💐
ReplyDeleteरेखा जी ने बहुत सुंदर और सरल शब्दों में डॉ. गंगा प्रसाद विमल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को पिरोकर बहुत प्रभावी लेख लिखा है। लेख पढ़ते हुए रोचकता बराबर बनी रही। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ रेखा जी को।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रेखा जी आपके लेख को पढ़कर विमल जी को पढ़ने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।
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