सिनेमा के गीतों द्वारा साहित्य, संस्कृति, सामाजिक मूल्य, दार्शनिकता तथा जन-चेतना जैसे तत्वों को प्रवाहित करने वाले गीतकारों में शैलेंद्र शीर्षस्थ स्थान पर विराजमान हैं। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के भारतीय समाज को गीतों में पिरोया है। मानवता को अपना धर्म समझने वाले शैलेंद्र ने जीवनपर्यंत मानवीय मूल्यों को ही अपने गीतों, कविताओं में अभिव्यिक्ति दी है। अपने गीतों में एक साथ विद्रोह, उत्साह, प्रेम, जिजीविषा और आशावादिता को कलमबद्ध करने वाले शैलेंद्र ने अपने जीवन का ध्येय ही “काम नए नित गीत बनाना / गीत बना के जहाँ को सुनाना” यानि सृजनरत रहना बना लिया था। डॉ इंद्रजीत सिंह ने लिखा है, “शैलेंद्र प्रगतिशील चेतना के अप्रतिम ऊर्जावान कवि-गीतकार हैं। उन्होंने मनुष्यता से लबरेज़ मानीखेज़, उदात्त जीवन मूल्यों से भरपूर गीत रचकर साहित्यिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। ‘ज़ख़्मों से भरा सीना है मेरा, हँसती है मगर ये मस्त नज़र’ गीत के माध्यम से वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जिजीविषा, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का मंत्र देकर लोगों को जीतने का हौसला देते हैं। शैलेंद्र की कविताएँ कोरी कल्पना की उड़ान न होकर जीवनानुभव से रची-बसी अपने समय और समाज का जीवंत दस्तावेज़ हैं।”
३० अगस्त, १९२३ को एक बच्चा इन्हीं फ़िज़ाओं को अपने लफ्ज़ों में ढ़ालने का अहद लेकर पैदा होता है। रावलपिंडी में दिन बीतने लगते है, लेकिन बच्चे और घर के हालात बद्तर हो जाते है। आख़िर पिता को रावलपिंडी छोड़, मथुरा आना पड़ता है। रेलवे में पिता की छोटी सी नौकरी, दलित परिवार में जन्म और घर में कई बार भुखमरी के हालात भी इस बच्चे की सोच का दायरा बाँध नहीं पाते। घर में जब कई बार चूल्हा नहीं जलता और पेट की आग पुरज़ोर भड़क जाती, तब किशोर हो चुका यह बच्चा अपने होंठो पर बीड़ी जलाकर, आग को आग से बुझाने में लग जाता। पिता केसरी लाल की जन्मभूमि आरा थी, इसलिए इस बच्चे ने अपने पिता और परिवार से लोक कथाओं और गीतों के जिस्म पर अपना मुलायम हाथ रखना शुरू कर दिया। रावलपिंडी की खुसूसी उर्दू ज़बान और मथुरा का आध्यात्मिक माहौल और विरासत में मिली भोजपुरी ज़बान की मिठास और सच्चाई, इस बालक के लहू में मिलती चली गयी।
देश आज़ाद होते ही नौजवान हो चुका ये बालक अब मुंबई के रेलवे गैराज में मामूली नौकरी करने लगता है और लोग इसे शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र के नाम से जानने लगते हैं। दिन भर बदन पर पसीना उगाते शंकरदास केसरी लाल, शाम ढलते ही कागज़ पर अपनी तड़प, चाह, गुस्सा, तकलीफ़ और मोहब्बत उड़ेलने लगते। सड़क पार इप्टा का दफ्तर अक्सर उनके लिखे गीतों के उद्गार की जगह बन जाता। १९४७ की एक शाम जब शंकरदास केसरीलाल, देश के हालात पर अपनी नज़्म 'मेरी बगिया में आग लगाए गयो रे,गोरा परदेसी' सुना रहे थे| उन्हें ख़्वाबों-ख़्याल में भी नहीं पता था कि श्रोताओं में मशहूर अदाकार-निर्देशक राजकपूर भी हो सकते हैं। नज़्म ख़त्म होते ही राजकपूर के कदम इस नौजवान शायर की ओर बढ़े और राजकपूर ने अपनी फिल्म 'आग' के लिए इस गीत को देने की इल्तिजा की। हाथ में ५०० रुपये, जो उस दौर की ख़ासी बड़ी रक़म थी, और राजकपूर जैसा प्रसिद्ध नाम भी शंकरदास केसरी लाल की इस नज़्म को खरीद नहीं पाया। कुछ महीने बाद शंकरदास की पत्नी के प्रसवकाल में आई आर्थिक दिक्क़त उन्हें राजकपूर के पास ले गई और राजकपूर ने उन्हें पैसे देने के साथ, अपनी नई फ़िल्म 'बरसात' के लिए दो गाने लिखने को भी कहा। शंकरदास ने इस बार अपनी कलम को बहने से नहीं रोका और दो मुख़्तलिफ़ अंदाज़ के गाने लिख दिए। नाईट क्लब में कैबरे करती महिला पर ' तिरछी नज़र है, पतली कमर है' गीत ख़त्म करते ही शंकरदास ने कलम की रोशनाई में लतीफ़ मुहब्बत का सुरूर छिड़क दिया। अब जो गाना बना, वो 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम' । पहली ही फ़िल्म के ये दोनों गाने आज़ाद हिंदुस्तान की फ़िज़ाओं में तिरंगे की तरह हर जगह लहरा रहे थे। मथुरा और रावलपिंडी की मिट्टी को मुंबई में महका रहे शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र, अब भारतीय सिनेमा में बेहद इज़्ज़त और एहतराम से 'शैलेंद्र' के नाम से जाने जाने लगे।
बरसात फ़िल्म की सफलता से उत्साहित राजकपूर ने नई फ़िल्म के सिलसिले में ख़्वाजा अहमद अब्बास से कहानी सुनाने को कहा। बगल में बैठे शैलेंद्र बेहद तल्लीनता से २ घंटे तक नरेशन सुनते रहे। कहानी के ठीक बाद राजकपूर ने शैलेंद्र से मुस्कुराते हुए पूछा, 'कविराज, कुछ समझ आया'। शैलेंद्र एक क्षण को ठिठके और कहा 'आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ , आवारा हूँ।’ २ घंटे की कहानी और किरदार के संपूर्ण चरित्र को सिर्फ़ एक वाक्य में बयाँ करने का ये अनूठा हुनर शैलेंद्र के गीतों की ख़ासियत थी। यही लाइन 'आवारा' फ़िल्म का टाइटल सांग बनी, जिसकी लोकप्रियता भारत की सीमाओं को तोड़कर बाहर तक जा पहुँची। आवारा ने कुछ दिन का ही सफ़र तय करके भारत के सबसे यादगार गीत का सेहरा अपने सर बाँध लिया। शैलेंद्र ने इस गीत में मज़दूरों, कामगारों, किसानों, गरीबों के दुःख-दर्द को भी अभिव्यक्त किया– ‘घरबार नहीं संसार नहीं मुझसे किसी को प्यार नहीं।’
अब शैलेंद्र राजकपूर और हिंदी सिनेमा दोनों की ज़रूरी शर्त होते जा रहे थे। कुछ फ़िल्मों के सफ़र के बाद शैलेंद्र, श्री ४२० के पड़ाव तक पहुँचते हैं। फ़िल्म का मुख्य किरदार राज( राज कपूर ), जो छोटे शहर से मुंबई आता है, उसके किरदार के हर ताने बाने, ख़ासियत को शैलेंद्र एक गाने में इस तरह खींच देते है, जो चरित्र और हालात की सबसे सच्ची बयानी है। 'दिल का हाल सुने दिल वाला, सीधी सी बात न मिर्च मसाला’ , ये पंक्ति राज के किरदार की अहम बुनावट का हिस्सा है। इस गीत के पहले अंतरे में शैलेंद्र कहते है, 'छोटे से घर में गरीब का बेटा , मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा। रंज-ओ-ग़म बचपन के साथी , आँधियो में जली जीवन बाती , धूप ने है बड़े प्यार से पाला , दिल का हाल सुने दिलवाला।’ किरदार की ख़ुदबयानी इतने खूबसूरत, साहित्यिक, लेकिन आसानी से दिल में उतरने वाले अंदाज़ में करना, ये शैलेंद्र का अपना खुदरंग था। इसी फिल्म का गीत 'मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी , सर पर लाल टोपी रूसी , फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’। हिंदुस्तानी होने के गर्व को इस अंदाज़ में कहा जाता है, कि बात, लफ़्ज़ों के अंदर की सतह में अपने अर्थ के साथ चमक रही होती है। शैलेंद्र सिर्फ़ और सिर्फ़ कमाल कर रहे थे। ज़्यादातर शायर और गीतकार, किसी ख़ास भाव, या ज़मीन पर अपने ख़यालात ज़ाहिर करने में माहिर होते हैं, लेकिन शैलेंद्र जिस भाव पर हाथ रख देते, लफ़्ज़ उस भाव के साँचे में ऐसे ढल जाते, जैसे पानी बर्तन में समा जाता है। शैलेंद्र जब मोहब्बत की रूह को अपने लफ़्ज़ों के लम्स से छूते, तो एक अलग किस्म का मोजज़ा होने लगता। शैलेंद्र को इश्क़ में प्रकृति का खुशनुमा रंग घोलने में महारत हासिल थी। 'ये रात भीगी भीगी , ये मस्त फ़िज़ाएँ , उठा धीरे धीरे , वो चाँद प्यारा प्यारा ' - राज कपूर और नरगिस की धीरे-धीरे से प्रेम की चढ़ती परवान को उरूज देता ये गाना, चाँद को अपनी मोहब्बत का गवाह, अपना हमनवा बना लेता है। ' ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ,ये चंचल हवा’ , इस गीत में प्यार के बेलौस ख़्याल को, ज़मीन और आसमान, यहाँ तक कि सारा जहाँ मान रहा है। वहीं ज़िंदगी के सार्वभौमिक सत्य को बेहद सादा लहज़ा देना हो, तो 'सजन रे झूठ मत बोलो , ख़ुदा के पास जाना है, जैसे गीत लिखकर शैलेंद्र, भारतीय दर्शन को एक पंक्ति में साध लेते हैं। जीवन के मूल उद्देश्य को बेहद शरीफ़ाना लहज़े में कहना हो, तो ' किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार , किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार , जीना इसी का नाम है ' गीत में शैलेंद्र, ज़िंदगी के सच्चे फ़लसफे़ में लय टांकते नज़र आते हैं।
वक़्त बीत रहा था और शैलेंद्र जिस भाव को अपनी कलम से सहला देते, वो सबसे मुक़म्मल गीत की शक्ल अख़्तियार कर लेता। शैलेंद्र ने सिर्फ़ राजकपूर के होंठो पर अपने गीत नहीं रखे, बल्कि और दौर के चाहे वो दिलीप साहब हो, या देव , शैलेंद्र के गीत , किरदार की ज़रुरत और कई बार शर्त जैसे होते। बहुत सारे गानों के ज़रिये, शैलेंद्र उस फ़िल्म की दहलीज़ तक पहुँचे, जिसे वो खुद सँवारना चाहते थे। 'तीसरी कसम ' फ़िल्म के निर्माता बनकर शैलेंद्र, अपनी रग-रग भी, इस फ़िल्म के नाम करना चाहते थे। फ़िल्म के गीत लिखने में भी शैलेंद्र ने, सबसे नाज़ुक कलम का इस्तेमाल कर, कालजयी गाने लिख दिए। फ़िल्म के हर दृश्य में शैलेंद्र के दर्शन की झलक थी, लेकिन फ़िल्म ख़त्म होते होते, शैलेंद्र अंदर से दरकने लगे थे। इंडस्ट्री का बर्ताव, अपनों की जफ़ा, फिल्म का न चलना, शैलेंद्र को कहीं दूर चलने के लिए बार बार बुलाने लगा। तीसरी कसम को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले, दुनिया में सराही गई, लेकिन शैलेंद्र के हाथ में सिर्फ रेखाओं के सिवा कुछ नहीं बचा था। अपने ही लिखे गीत– ‘न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है ' की तर्ज़ पर , भारतीय सिनेमा का सबसे सफल गीतकार, हमसे रूठकर, दूर चला गया।
शैलेंद्र के गीतों में विशेष प्रकार का सौंदर्य है, जो उन्हें अपने समकालीन साहित्यिक गीतकारों तथा सिनेमाई गीतकारों में विशिष्ट बनाता है, उनके गीतों में उत्तरप्रदेश और बिहार की लोक भाषाओं की शब्दावली विशिष्ट सौंदर्य भरती है, जैसे- ‘सजनवा बैरी हो गए / चिठिया हो तो हर कोई बांचे’ या ‘अबके बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाए रे / लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ / दीजो संदेशा भिजाए रे’
शैलेंद्र जीवन के छोटे-छोटे कार्य व्यापारों से गीतों और कविताओं की सामग्री जुटा लेते थे, इस बात की पुष्टि उनकी पत्नी का यह कथन करता है– “ दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाएँ या स्थितियाँ ही उन्हें गीत लिखने की प्रेरणा दिया करती थीं। मिसाल के तौर पर बेटे बंटू की जन्मकुंडली बनवाने का विरोध किया। जबकि मेरे घरवाले चाहते थे, कि जन्मकुंडली ज़रूर बनाई जाए। इस वाद-विवाद ने उन्हें ‘नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है’ जैसा गीत रचने की प्रेरणा दी।” शैलेंद्र ने बच्चों के लिए अनेक लोरियाँ लिखी जैसे – ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए’ ‘चुन-चुन करती आई चिड़िया’ जो बहुत लोकप्रिय हुईं।
मशहूर गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं —“मेरे जैसे नए गीतकार के लिए शैलेंद्र जी एक आदर्श हैं। शैलेंद्र जी ने फ़िल्मी गीतों में साहित्य दिया है, सामाजिक सरोकार को प्रधानता दी है। वंचितों-शोषितों की वाणी को मुखरित करने में अहम योगदान दिया है। उन्होंने प्रकृति और प्रेम के अदभुत गीत लिखे हैं।” समग्रत: कहा जा सकता है, कि शैलेंद्र बहुआयामी प्रतिभा के धनी कवि-गीतकार थे, जिन्होंने अपने गीतों, कविताओं से दुनिया को चमत्कृत कर दिया। उनके गीतों में जीवन के प्राय: सभी पक्ष आकर एकाकार हो जाते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है, कि एक साहित्य सृष्टा के रूप में उनका अभी तक निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं किया गया है।
लेखक परिचय
अविनाश त्रिपाठी कवि, गीतकार, लेखक,फ़िल्मकार हैं। इनके गीतों को प्रसिद्ध बॉलीवुड पार्श्व गायकों जैसे- शान,कविता कृष्णमूर्ति, कविता सेठ,अभिषेक रे, अनुपमा राग ने अपनी आवाज़ दी है। आप कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों के एडवाइजर और ज्यूरी मेंबर रहे हैं। वर्तमान में इंटरनेशनल आर्ट,कल्चर एंड सिनेमा फेस्टिवल के फाउंडर डायरेक्टर हैं। आपको अपनी रचनात्मकता के लिए ४० से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
मोबाइल- 8929408999 ईमेल- dkp410@gmail.com
बहुत ही सुंदर आलेख बन पड़ा है। आप ने शैलेंद्र जी के व्यक्तित्व और उन के सदाबहार गीतों को बड़ी ख़ूबसूरती से समेटा है। शैलेंद्र जी के गीत उनकी सादगी और मधुरता के कारण सीधे दिल में उतरते थे। उन के बारे में दिए गए संस्मरण भी लेख को बहुत रोचक बना रहे हैं।
ReplyDeleteकिसी का भी दर्द उधार लेने की कला शैलेंद्र जी से सीखने को मिलती है. नन्हे मुन्ने की मुट्ठी में भविष्य का सपना और दिल की गहराइयों को प्रस्तुत करने की कला विस्मयकारी थी उनमें.
ReplyDeleteप्रस्तुत लेख में उनका जीवन चरित्र और आद्योपांत वर्णन का निश्चित रूप से सराहनीय है.
शैलेन्द्र एकमात्र गीतकार हुए जो हिंदी साहित्य को साथ लेकर गीत लिखे, यूँ बाद में नीरज इंदीवर ने भी लिखे इनके पहले भरत व्यास ने लिखे थे पर उनकी रचनाओं में फिल्मी अहसास नहीं था शुद्धता थी काव्य था। शैलेन्द्र ने दोनों का सामंजस्य बैठाया। इतने सुंदर लकह लिखने के लिए अवनीश त्रिपाठी जी को साधुवाद।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख है । अविनाश जी , दीपक जी , बहुत कम शब्दों में आपने शैलेंद्र का यादगार खाका खींचा है । दिल की बात काग़ज़ पर उतरती है तो पढ़ने - सुनने वाले के दिल पर सीधे असर करती है । शैलेंद्र जैसा सरल शब्दों में गहरे दर्शन को कह देने वाला जादूगर दूसरा ना मिलेगा । उनके जैसे गीतकार का जितना सम्मान किया जाए , कम है । मन की सीधी बात को दूसरे के मन में सीधा उतार देने का जो हुनर गद्य में मुंशी प्रेमचंद के पास था , वही हुनर पद्य में शैलेंद्र के पास था । आप दोनों ने शैलेंद्र को सच्ची श्रद्धांजलि दी है । धन्यवाद !
ReplyDeleteशैलेंद्र जी को कौन नहीं जानता। परंतु आज अविनाश जी और दीपक जी का आलेख पढकर उनके व्यक्तित्व पर और बारीकी से नजर घुमा सका। उनके सदाबहार गीतो का तो पूरा जग दीवाना हैं। यह लेख पढकर उनका जीवन सफर भी किसी फिल्म के गीत की तरह प्रतीत होता हैं। इतनी सादगी और गहराई भरी रचनाएँ तो अब सुनना भी दुर्लभ हो गया हैं। आप दोनों के लेख ने आज फिर से शैलेंद्र जी को अमर कर दिया। आपकी लेखनी कमाल की हैं और आप दोनों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। भविष्य में आपसे ऐसे अनगिनत कोहिनूर के बारे में और पढ़ने की इच्छा रहेगी।
ReplyDelete-सूर्यकान्त सुतार'सूर्या'
महान गीतकार शैलेन्द्र को सार्थक श्रद्धांजलि अर्पित करता यह गीतनुमा लेख दिल के कितने तारों में झंकार भर गया! शैलेन्द्र ने इंसानी ज़िन्दगी के हर पहलू को अपने सुन्दर शब्दों की सुरभित मालाओं में पिरोया था। अविनाश जी और दीपक जी ने मात्र लेख नहीं लिखा बल्कि अपनी अनुभूतियों से उसे समृद्ध किया है। आप दोनों को इस सुन्दर भेंट के लिए शुक्रिया और लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteदिल को छूने वाला लेख
ReplyDeleteजैसे मोहक शेलेन्द्र जी के गाने वैसा ही मोहक ये आलेख। मन रम सा गया था पढ़ने में।
ReplyDeleteजीवन की साधारण बात को भी अपने गीतों के द्वारा महत्वपूर्ण बना देने वाले शैलेन्द्र जी ने जीवन के हर रंग पर गीत लिखे। अक्सर उनके गीतों को सुनने वाला हर कोई यूँ जुड़ाव महसूस करता है कि जैसे सुनने वाले की ही बात गीत में कही गई है। इस महान साहित्यकार के रचना संसार एवं जीवन यात्रा को अविनाश जी एवं दीपक जी ने
ReplyDeleteबखूबी समेटा है। इस उम्दा लेख के लिए लेखक द्वय को हार्दिक बधाई।
काश मूल लेख में संपादन के नाम पर इतनी छेड़छाड़ ना की जाती, दो अलग शैलियों के मिश्रण से यह लेख पैच वर्क ज्यादा लग रहा है बहुत विनम्रता से कहना चाहूंगा कि अक्सर दो अलग अलग मिजाज के लेखों को जोड़कर जब एक लेख बनाया जाता है तो उसमें प्रवाह बार बार टूटता है मैं अपने ही लिखे लेख को देखकर हतप्रभ हूं। सच कहो तो अपने लेख का हश्र देखकर दुख हुआ
ReplyDeleteशैलेंद्र जी पर बढ़िया डाक्यूमेंटरी के ज़रिए उनको टाइटल सॉग के बेताज बादशाह की तरह जाना था, राजकपूर का उनके प्रति स्नेह और उनकी ख़ुद्दारी समझी थी, तीसरी कसम के लिए फणीश्वर नाथा रेणु के साथ उनका राब्ता भी देखा था, पर इस लेख में पहली बार साहित्यकार की तरह उनको देखा, बहुत प्रसन्नता हुई! लेखक द्वय को साधुवाद
ReplyDeleteगीतकार शैलेन्द्र जी के जीवन तथा साहित्य के सम्बन्ध में इतना सुन्दर आलेख पढ़कर अच्छा लगा | शैलेंद्र जी के गीत माटी की सुगंध से भरे हैं | सहजता, सरलता तथा मार्मिकता इनकी लेखनी के प्रमुख गुण हैं | हार्दिक आभार लेखकद्वय को !
ReplyDelete-आशा बर्मन,हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा