Thursday, December 30, 2021

दुष्यंत कुमार नामक कैलाइडोस्कोप


कुछ ही महीनों पहले, २९ अगस्त २०२१ को, ९३ वर्ष की आयु में भोपाल (मध्यप्रदेश) में राजेश्वरी देवी का निधन हो गया। कौन थीं राजेश्वरी देवी? राजेश्वरी देवी त्यागी चर्चित ग़ज़लगो दुष्यंत कुमार की पत्नी थीं। हिंदी भाषा में ग़ज़ल को इसी भाषा के पैरहन पहना लाने वाले दुष्यंत कुमार, अपने अंतिम संग्रह ‘साये में धूप’ के कारण अधिक जाने जाते हैं। 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

कहने वाला यह शायर, शायद यही सोचकर महज़ ४४ साल की उम्र में चला गया| क्या जाते हुए अपनी पत्नी से यह कहकर रुख़सत हुआ होगा, कि तुम्हें मेरी भी उमर लग जाए!

असमय गुज़र जाने वाले दुष्यंत कुमार लिख गए हैं,

थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे।
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे,
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे।

दुष्यंत कुमार को याद करने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत हो ही नहीं सकती| वे तो बहाने, बिना-बहाने याद किए जाने वाले ग़ज़लकार हैं। कभी उनके शेरों से राजनीतिक गलियारों में भी हड़कंप मच जाया करता था। 

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।

उनका यह जुमला हर राजनीतिक खेमे में खूब उछला। चुटीले फ़िल्मी संवाद तो लोगों को देर तक याद रहते हैं, लेकिन दुष्यंत कुमार की हर ग़ज़ल, हर ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में इंकलाब लाने वाला है। हालाँकि, वे केवल नारे नहीं हैं, ख़ुद दुष्यंत कुमार ही तो कहते हैं, "सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। ग़ज़ल में हर शेर दूसरे से अलग होता है, लेकिन उनकी ग़ज़लें ऐसा लगता है, एक ही मनःस्थिति में लिखी गई हैं।" ग़ज़ल का न तो शीर्षक होता है, न भूमिका। तब भी वे ‘साये में धूप’ की भूमिका में एक तरह की स्वीकारोक्ति करते हुए लिखते हैं- 'मैं उर्दू नहीं जानता, शहर को नगर लिखा जा सकता था, लेकिन मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है; जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं।' वे इसलिए बड़े आराम से कह पाते हैं,  

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।

उन्होंने उर्दू शब्दावली के साथ खड़ी बोली का प्रयोग किया है। मैं और तू की शैली है। अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि- 

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।

ऐसा लगता है, जैसे उस समय के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य की गहरी चोट दुष्यंत कुमार को अंगार बना देती है। वे कहते हैं-

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।

 वे व्यंग्य कसते हैं, 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,

कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

पहले शे’र में चिराग शब्द बहुवचन में आता है, फिर दूसरी बार एक वचन में। अर्थ और काव्य की दृष्टि से यह कितना अद्भुत प्रयोग है- 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ के असर के लिए

यहाँ पत्थर पिघल में अनुप्रास अलंकार दिखता है।

उनकी आवाज़ का असर ऐसा रहा है कि उनके इस संग्रह ने उन्हें देश-विदेश के साहित्य-प्रेमियों के दिलों तक पहुँचा दिया। इस संग्रह का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन के सहयोगी राधाकृष्ण प्रकाशन ने १९७५ में किया था। ऐसा नहीं है, कि उन्होंने केवल इतना ही लिखा। ‘एक कंठ विषपायी’ शीर्षक से लिखा उनका गीति-नाट्य हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण और प्रशंसित कृति है। उन्होंने नाटक, काव्य-गीति नाटक भी लिखे; लेकिन जैसा कि पहले कहा, वे सबसे अधिक अपने इस संग्रह (साये में धूप) की वजह से ही जाने गये। इस संग्रह से एक शेर पेश है-

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।

अपने जीवनकाल के अंतिम वर्ष उन्होंने जहाँ गुज़ारे, उस भोपाल (मध्यप्रदेश) में उनके नाम की एक सड़क बन गई है; लेकिन उनके नाम का सभागृह अब नहीं रहा। जैसे उनकी जन्मस्थली राजपुर नवादा गाँव, बिजनौर (उत्तरप्रदेश) की वह हवेली; जहाँ उनकी याद में संग्रहालय स्थापित होना चाहिए था, खंडहर बनती जा रही है। उनकी कई अनमोल रचनाएँ, साहित्यिक दस्तावेज़, पुरातन धरोहरों-पुस्तकों-रजिस्टरों को दीमक चाट गई, तीन संदूक गल चुके और ग्रामोफ़ोन भी टूटा-फूटा पड़ा है। भारत सरकार ने २००९ में उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया। हालाँकि इतने बड़े साहित्यकार की जन्म तिथि को लेकर भी हमेशा ऊहा-पोह की स्थिति रहती है। दुष्यंत कुमार की किताबों में उनके जन्म की तारीख १ सितंबर १९३३ लिखी है। लेकिन दुष्यंत साहित्य पर अधिकार से बात कहने वाले विजय बहादुर सिंह बताते हैं, कि उनकी जन्मतिथि २७ सितम्बर १९३१ है। जहाँ तक दुष्यंत कुमार के साहित्यिक-जीवन की बाते करें, तो वह इलाहबाद (अब प्रयागराज) की संस्था ‘परिमल’ की साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है। उन्होंने वहाँ ‘नए पत्ते’ जैसे महत्वपूर्ण पत्र के लिए लिखना भी शुरू किया था। वे आकाशवाणी से जुड़े और उसके बाद मध्यप्रदेश के राजभाषा विभाग में काम किया। 

उनके युवा-मन से आता है- 

कल माँ ने यह कहा
कि उसकी शादी तय हो गयी कहीं पर
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किंतु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हो मुझको
मेरा कमरा औ’ मेरा घर।

ग़ज़ल में भी ये स्वर हैं, कि ‘तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ’ या ‘तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया’ या ‘तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा’ या ‘फिर कर लेने दो प्यार प्रिये’; लेकिन वे जाने जाते हैं, अपने आक्रोश के स्वरों के कारण ही। उनके आक्रोश में पीड़ा है- 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

और उम्मीद भी-

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिये में तेल-सी भीगी हुई बाती तो है।

उससे भी कहीं अधिक आशा यहाँ दिखती है- 

कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।

केवल ५२ ग़ज़लों का संग्रह है, ‘साये में धूप’, लेकिन यह एक कैलाइडोस्कोप है; जिसे जितनी बार देखो, उतनी बार उतने अलग कोण उसमें से नज़र आते हैं। दुष्यंत कुमार को पढ़ना खुद को समृद्ध करना हो जाता है| उनके शब्द हैं- 

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

उम्मीद है, कि उनका लिखा पढ़ने से मेरा हिंदुस्तान भी समृद्धि की राह पकड़ेगा; समृद्धि केवल आर्थिक ही तो नहीं होती न!

 

दुष्यंत कुमार - जीवन परिचय

पूरा नाम

दुष्यंत कुमार त्यागी

जन्म

२७ सितंबर १९३१, नवादा राजपुर, बिजनौर (उ.प्र.)

निधन

३० दिसंबर १९७५, भोपाल (मध्यप्रदेश), हृदयाघात से

पिता

चौधरी भगवत सहाय

माता

राजकिशोरी देवी त्यागी

शिक्षा

स्नातकोत्तर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य संग्रह

  • सूर्य का स्वागत

  • जलते हुए वन का वसंत

  • आवाज़ों के घेरे

उपन्यास

  • छोटे-छोटे सवाल

  • आँगन में एक वृक्ष

  • दुहरी जिंदगी

काव्य-नाटक

  • एक कंठ विषपायी

लघुकथाएँ

  • मन के कोण 

नाटक

  • और मसीहा मर गया

ग़ज़ल संग्रह

  • साये में धूप 

सम्मान

भारतीय डाक विभाग द्वारा ५ रु. मूल्य का डाक टिकिट प्रकाशित किया (२००९)


संदर्भ

  • साये में धूप- दुष्यंत कुमार (राधाकृष्ण प्रकाशन)
  • अनुभूति- साहित्यिक पत्रिका (व्यक्तिगत अभिरुचि- अव्यावसायिक)

लेखक परिचय

स्वरांगी साने कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ-लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ आदि क्षेत्रों में सक्रिय हैं। 
इनका काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित हुआ और “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान से वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ।

19 comments:

  1. सुंदर पर बहुत संक्षिप्त , साधुवाद,

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    1. बहुत बहुत आभारी हूँ आपकी सुरेश जी

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  2. आहा , दुष्यंत कुमार ! स्वरांगी जी , आपने सुंदर श्रद्धांजलि दी है । बधाई । विक्टर ह्यूगो ने कहा था : इफ़ ए राइटर वर टु राइट फ़ॉर हिज़ टाइम ओनली , आइ वुड रादर ब्रेक माए पेन ।अगर वह दुष्यंत को पढ़ते तो कलम को चूम लेते।दुष्यंत सार्वकालिक कवि थे । सैंकड़ों साल बाद भी उनका लिखा हुआ प्रासंगिक रहेगा क्योंकि वह मानव को परिवर्तन के लिए , बेहतर होने के लिए , वैचारिक क्रांति के लिए चुनौती देता है। हम जैसे कितने ही किशोरों को दुष्यंत बिना कोई प्रयास किए हुए ही ज़ुबानी याद हो गए थे। कवि का श्रेष्ठ होना इससे पता चलता है कि उसकी दृष्टि वहाँ जाती है जहाँ औरों की नहीं जाती और उसका बयान वहाँ पहुँचता है जहाँ औरों का नहीं पहुँचता। “ तुमने उस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए , छोटी छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं । हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत , तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।” कैसी अनोखी अभिव्यक्ति है ! दिल उछल कर कहता है : जियो दुष्यंत ! उन्हीं के शब्दों में उन्हें कह सकते हैं :
    कौन निभाएगा यह फ़ासला ,
    मैं फ़रिश्ता हूँ , सच बताता हूँ । 💐💐

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    1. विक्टर ह्यूगो की पंक्तियाँ बहुत मानीखेज है, दुष्यंत वास्तव में सार्वकालिक कवि थे। आभारी हूँ आपकी

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  3. बेहतरीन प्रस्तुति... जिंदाबाद...

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    1. नीरज जी आभार, धन्यवाद, प्रणाम

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  4. दुष्यंत जी ने लघुकथाएं भी लिखी हैं । यह मुझे आपके आलेख से पता चला है । अतः आप साधुवाद के पात्र है ।

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  5. स्वरांगी जी का यह लेख इस बात की एक बार फिर पुष्टि करता है कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का जादू हर पढ़ने वाले के सिर चढ़कर बोलता है। उनके कुछ चुनिंदा शेरों के माध्यम से उनके तेवर, उनकी सोच, उनकी कृतियों की एक सुन्दर झलक पेश की गयी है इसमें। स्वरांगी जी को इसके लिए बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया।

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    1. प्रगति जी आपका स्नेह पग-पग पर उत्साह बढ़ाता है, आपको कोटिशः आभार

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  6. स्व. दुष्यन्त कुमार का नाम लेते ही दिल मे आह और चेहरे पर एक स्मित सी मुस्कुराहट छा जाती हैं। आप साहित्य में गजल को उर्दू से हिंदी भाषा का पेहराव देने वाले मेरे बहुत ही पसंदीदा साहित्यकार रहे हैं। आपकी सोच और लिखने की क्रिया यही कहती थी कि उर्दू और हिंदी भाषा को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूँ इसलिए यह गजलें उस भाषा में कही गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ।

    *ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा*
    *मैं सजदे में नही था, आपको धोखा हुआ होगा*

    *यहाँ तक आते आते सुख जाती हैं कई नदियाँ*
    *मुझे मालूम हैं पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा*

    शब्द शब्द में पीड़ा की अभिव्यक्ति लिखने वाले रचनाकार, साहित्यकार, गलजलकार स्व. दुष्यन्त कुमार जी को आत्मीय श्रद्धांजलि और आदरणीय स्वरांगी साने जी के शब्दिय फूलों से उन तक हमारे प्रेम को पहुंचाने के लिए उनका हार्दिक आभार।

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  7. दुष्यंत कुमार का हर शब्द और हर शब्द में छिपी पीड़ा और तेवर...आपने अपनी प्रतिक्रिया में सब समाहित कर लिया बहुत बहुत आभारी हूँ आपकी

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  8. बहुत सुन्दर आलेख स्वरांगी। १९६९-७० के दिन याद आ गए जब दुष्यंत जी से दिल्ली में भेंट हुई थी और बाद में उनसे पत्राचार भी होता रहा. उनहोंने तब अन्तर्देशी पात्र पर " हो गयी है पीर पर्वत सी " लिख कर मुझे भेजी थी। आपका पूरा आलेख रुचिकर और तथ्यात्मक है. साधुवाद।

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  9. बहुत अच्छा लेख स्वरांगी जी। सर्वकालिक साहित्यकार दुष्यंत कुमार जी की साहित्य यात्रा को बखूबी इस लेख में समेटा आपने। बहुत बहुत बधाई।

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  10. बहुत सुंदर आलेख। दुष्यंत जी की आत्मा को छूता हुआ। साधुवाद ।

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  11. स्वरांगी जी, आपका आलेख आज पढ़ा।
    दुष्यंत कुमार की रचनाएँ उनके समृद्ध भावों और सूक्ष्म हृदय लहरियों को पूर्णता प्रदान करती रहीं।
    आपके आलेख में उनकी रचनाओं सी ही गहराई दिखी।
    बहुत ही सुंदर विवेचन।

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  12. शानदार आलेख के लिए बधाई ।
    डॉ मनोज रस्तोगी
    मोबाइल फोन 9456687822
    Sahityikmoradabad.blogspot.com

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  13. शानदार आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई ।
    डॉ मनोज रस्तोगी

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