हिंदी के पाणिनि नाम से विख्यात आचार्य
किशोरीदास वाजपेयी उच्चकोटि के वैयाकरण, संस्कृत और हिंदी के प्रकांड विद्वान,
भाषावैज्ञानिक और प्रखर भाषा परिष्कारक थे। अपनी मौलिक
भाषावैज्ञानिक उद्भावनाओं और स्थापनाओं के कारण वाजपेयी जी को कई बार समकालीन
प्रबुद्ध वर्ग की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। अपनी
स्पष्टवादिता और निर्भीकता के कारण “अभिमान मेरू” और “अक्खड़ कबीर” की संज्ञाओं
से विभूषित किये जाने के बावजूद किशोरीदास वाजपेयी ने न तो कभी आलोचनाओं की ही
परवाह की और न ही कभी अपने सिद्धांतों और मान्यताओं के लिए बौद्धिक समझौता ही
किया। अपनी आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में वे कहा करते थे, कि- “मैं हूँ कबीरपंथी साहित्यिक, किसी की चाकरी मंज़ूर
नहीं, अध्यापकी कर लूँगा, नौकरी कर
लूँगा पर आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं। ”
किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी को स्वतंत्र
भाषा के रूप में विकसित करने के अथक प्रयास किए। यह
सत्य है कि आचार्य वाजपेयी के पूर्व कामताप्रसाद गुरू और राजा शिवप्रसाद सितारे
‘हिंद’ के व्याकरण आ चुके थे, लेकिन वस्तुतः
ऐसा कोई मानकीकृत व्याकरण नहीं था, जिसे भाषाविज्ञान के सिद्धांतों पर विश्लेषित और
मूल्यांकित किया जा सके। इसका प्रमुख कारण यह था, कि ये सभी व्याकरण किसी न किसी
रूप में अंग्रेज़ी व्याकरण को आधार मानकर लिखे गए थे।
गुरू के हिंदी व्याकरण के पश्चात १९५८ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से आचार्य
वाजपेयी का ‘हिंदी शब्दानुशासन’ प्रकाशित
हुआ, जो उनकी सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित पुस्तक है। नागरी
प्रचारिणी सभा के प्रस्ताव पर वाजपेयी जी को हिंदी का ऐसा व्याकरण लिखना था, जो
हिंदी के आधुनिक स्वरूप और प्रवृत्ति पर आधारित हो तथा
उसके उदाहरण हिंदी के मान्य ग्रंथों से लिए हों। वाजपेयी जी ने दो वर्ष में ग्रंथ
पूर्ण किया और ग्रंथ को दस सदस्यीय व्यापक परामर्श मंडल के सामने अनुमोदनार्थ
प्रस्तुत किया गया। परामर्श मंडल ने व्याकरण को प्रकाशित करने से पूर्व वाजपेयी जी
के समक्ष भाषा और विषय संबंधी कुछ सुझाव रखे, लेकिन वाजपेयी
जी और परामर्श मंडल में सहमति न बन सकी, जिस कारण समिति द्वारा निर्णय लिया गया कि
शब्दानुशासन का प्रकाशन आचार्य वाजपेयी जी की शैली, वर्तनी
और सिद्धांतों के अनुरूप ही किया जाए और इसका स्पष्टीकरण प्रकाशकीय वक्तव्य में कर
दिया जाए (ध्यातव्य है, कि प्रथम संस्करण के बाद के संस्करणों से यह प्रकाशकीय
वक्तव्य हटा दिया गया) और इस प्रकार ‘हिंदी शब्दानुशासन’
का प्रकाशन हुआ। ‘हिंदी शब्दानुशासन’ में वाजपेयी जी ने आंग्ल पद्धति के आठ शब्दभेदों (Parts of
Speech) को अस्वीकार करते हुए धातुओं और नामधातुओं आदि का
व्याकरणसम्मत विवेचन किया और तर्कपूर्ण ढंग से यास्क के चतुर्विध शब्द विधान –
नामाख्यातनिपातोपसर्गाश्च को अंगीकार किया, जो भारतीय
व्याकरण की मूल प्रकृति मानी जा सकती है।
इस ग्रंथ की पूर्वपीठिका में हिंदी की उत्पत्ति, प्रकृति और विकास के
अतिरिक्त नागरी लिपि और वर्तनी तथा खड़ी बोली के परिष्कार विषयक प्रश्नों पर
सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण किया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध में
सात अध्याय हैं, जिनमें वर्ण, शब्द,
पद, विभक्ति, प्रत्यय,
संज्ञा, सर्वनाम, लिंग-व्यवस्था,
अव्यय, उपसर्ग, यौगिक
शब्दों की प्रक्रियाएँ, कृदंत और तद्धित शब्द व समास,
क्रिया-विशेषण, वाक्य संरचना, वाक्य भेद, पदों की पुनरुक्ति, विशेषणों के प्रयोग, भावात्मक संज्ञाओं और विशेषण
आदि का विस्तृत उल्लेख है। उत्तरार्ध के पाँच अध्यायों में क्रिया, उपधातुओं के भेद, संयुक्त क्रियाएँ, नामधातु और क्रिया की द्विरुक्ति आदि का विवेचन है। इसके परिशिष्ट में
हिंदी की बोलियों, जैसे-राजस्थानी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी, भोजपुरी, मगही और मैथिली आदि बोलियों के स्वरूप पर
विचार किया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के
अनुसार “अभी तक हिंदी के जो व्याकरण लिखे गए, वे प्रयोगनिर्देश तक ही सीमित हैं। हिंदी शब्दानुशासन में पहली बार
व्याकरण के तत्वदर्शन का स्वरूप स्पष्ट हुआ है।”
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की स्थापनाओं में से एक महत्वपूर्ण
स्थापना यह है, कि भारतीय आर्यभाषाओं का विकास संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश के
क्रमिक विकास के रूप में (वंशवृक्ष की तरह) नहीं हुआ है। वाजपेयी जी की इस
उद्घोषणा ने हिंदी विद्वतजनों का ध्यान आकर्षित किया, कि हिंदी संस्कृत की चेरी
नहीं है, वह एक स्वतंत्र भाषा है। वह संस्कृत से अनुप्राणित अवश्य है और उसके अपने
व्याकरणिक नियम हैं, जिनसे वह अनुशासित होती है। उनकी
इस टिप्पणी पर रामविलास शर्मा ने कहा था, कि “किशोरीदास के इस वाक्य को मोटे-मोटे अक्षरों में लिखकर हर
कोश निर्माण कार्यालय, नागरी प्रचारिणी सभा और साहित्य
सम्मलेन की हर शाखा के दफ़्तर और प्रत्येक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में टाँग
देना चाहिए, जिससे आए दिन हिंदी को संस्कृत की पुत्री न
घोषित किया जाए। वाजपेयी ने हिंदी को परिष्कृत करते हुए न केवल उसका व्याकरणिक
स्वरूप निर्धारित किया, बल्कि उसके लिए कुछ सर्वमान्य और मौलिक मानदंड भी स्थापित
किये। विशुद्ध मौलिक और भारतीय दृष्टि से चिंतन करने और अद्वितीय स्थापनाएँ देने
के कारण ही किशोरीदास वाजपेयी को हिंदी का प्रथम
भाषावैज्ञानिक और वैयाकरण कहा जाता है। उनकी पुस्तक ‘अच्छी
हिंदी’ पढ़ने के पश्चात रामधारी
सिंह दिनकर ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी दी – “जो भी नौजवान
हिंदी में गद्य या पद्य लिखने का अभ्यास कर रहे हैं, उन्हें अपने साथ दो पुस्तकें
जो किशोरीदास वाजपेयी की लिखी हुई हैं ‘अच्छी हिंदी’ और ‘अच्छी हिंदी का नमूना’ ज़रूर
रखनी चाहिए और सिद्ध लेखकों की मेज़ पर भी ये हों, तो उनका भी भला होगा।” वाजपेयी जी द्वारा अपने ग्रंथ ‘भारतीय भाषाविज्ञान’
में हिंदी को वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचित करने के कारण राहुल जी
लिखते हैं- “आचार्य वाजपेयी हिंदी के व्याकरण और भाषाविज्ञान
पर असाधारण अधिकार रखते हैं। वे मानो इन्हीं दो विधाओं के लिए पैदा हुए हैं। मेरा
बस चलता, तो वाजपेयी जी को अर्थचिंता से मुक्त करके,
उन्हें सभी हिंदी (आर्य भाषा वाले) क्षेत्रों में शब्द-संचय और
विश्लेषण के लिए छोड़ देता। उन पर कोई निर्बन्ध (कार्य करने की मात्रा का) न रखता।
जिसके हृदय में स्वतः निर्बन्ध है, उसे बाहर के निर्बन्ध की
आवश्यकता नहीं।”
विष्णुदत्त राकेश ने ‘आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली’ का छह खण्डों में संपादन किया है। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि वाजपेयी जी ने देश की स्वतंत्रता में अपना सक्रिय योगदान दिया था। लोगों में जागृति उत्पन्न करने के लिए उन्होंने “तरंगिणी” नामक काव्य संग्रह की रचना की, जिसमें लिखी ओजस्वी और देशभक्तिपरक कविताओं के कारण उन्हें कई बार जेल की यात्राएँ भी करनी पड़ी थी। इस संबंध में आचार्य परशुराम राय ने वाजपेयी जी से जुड़ी एक रोचक घटना का ज़िक्र किया है- सन १९४२ का आंदोलन छिड़ने के कारण आचार्य जी भैणी (पंजाब) में हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन स्थगित करने का एक पत्र लिखकर १३ अगस्त को हरिद्वार के लिए रवाना हो गए। १४ अगस्त को आचार्य जी को हरिद्वार में गिरफ्तार कर लिया गया। आचार्य जी को तिलक और सुभाषचन्द्र बोस का समर्थक माना जाता था। आचार्य जी की तालाशी हुई, पर कुछ मिला नहीं। उनको गिरफ़्तार कर सीधे जेल भेज दिया गया। इनके ऊपर एक ही आरोप था कि ये कांग्रेस के डिक्टेटर थे, जिसे इन्होंने स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसका लिखित प्रमाण था। अब जुर्माने की धनराशि तय होनी थी। पुलिस इंस्पेक्टर ने इनकी जो भी हैसियत बताई हो, लेकिन उसका कहना था, कि इनका सामान बेचकर पचास रुपये तक तो वसूल हो ही जाएगा। उनकी बातें अंग्रेज़ी में हो रही थीं। आचार्य जी की अंग्रेज़ी अच्छी न थी। उन्होंने समझा कि वे लोग वेतन की बात कर रहे हैं। इसलिए इन्होंने कह दिया कि फिफ्टी नहीं सिक्सटी। आचार्य जी का सिक्सटी कहने का कारण यह था कि ५० रुपये तक वेतन पाने वालों को जेल में ‘सी’ क्लास मिलता था और उससे ऊपर पाने वालों को ‘बी’ क्लास मिलता था। इनको लगा कि शायद वेतन कम करके इन्हें ‘सी’ क्लास की जेल में डालने का षडयंत्र किया जा रहा है। इनकी बात सुनकर सभी उपस्थित अधिकारी भौंचक्के हो गए कि यह पहला व्यक्ति है जो अपने जुर्माने की धनराशि बढ़वाना चाहता है। जब आचार्य जी को समझाया गया, तब वे बोले, "तब तो ठीक है, एक पैसा भी वसूल न हो सकेगा।" जहाँ अदालत लगी थी, आचार्य जी का लड़का, मधुसूदन, भी वहीं था। आचार्य जी ने उससे कहा कि वह जाकर गाँधी आश्रम से एक तिरंगा लेकर अपने मकान पर फहरा दे, क्योंकि पहले वाला पुलिस उठा ले गयी थी। ऐसी थी उनकी देशभक्ति| उन्होंने लिखा है कि उस समय कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में केवल एक ही झंडा लहराता था, जिसे लोग बड़े कौतूहल, भय और उत्साह से देखा करते थे।
हिन्दी के प्रथम वैज्ञानिक कहे जाने वाले आचार्य किशोरीदास वाजपेयी सच्चे अर्थों में निर्भीक, सत्यनिष्ठ और हिन्दी के परम भाषाविद् थे| हिन्दी भाषा विज्ञान उनके नाम के बिना अधूरा है| उनके इस अविस्मरणीय योगदान के लिए हिन्दी भाषा जगत सदैव उनका ऋणी रहेगा|
किशोरीदास वाजपेयी : जीवन परिचय |
|
जन्म |
१५ दिसंबर १८९८ रामनगर (कानपुर), उत्तरप्रदेश |
मृत्यु |
१२ अगस्त
१९८१ कनखल (हरिद्वार) |
शिक्षा |
बनारस, इलाहाबाद और पंजाब
विश्वविद्यालय |
साहित्यिक रचनाएँ |
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भाषाविज्ञान
और व्याकरण संबंधी |
हिंदी
शब्दानुशासन,
ब्रजभाषा का व्याकरण, राष्ट्रीय भाषा का
प्रथम व्याकरण, हिंदी निरुक्त, हिंदी
शब्द-निर्णय, हिंदी शब्द-मीमांसा, भारतीय भाषा विज्ञान, हिंदी की वर्तनी तथा शब्द
विश्लेषण,ब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरण |
भाषा
एवं साहित्य संबंधी |
अच्छी
हिंदी,
अच्छी हिंदी का नमूना, लेखन कला, साहित्य निर्माण, साहित्य
मीमांसा |
साहित्यशास्त्रीय
रचनाएँ |
काव्य
प्रवेशिका,
साहित्य की उपक्रमणिका, काव्य में रहस्यवाद,
रस और अलंकार, साहित्य प्रवेशिका, अलंकार मीमांसा |
विविध
ग्रंथ |
साहित्यिकों
के पत्र,
आचार्य द्विवेदी और उनके संगी-साथी, साहित्यिक
जीवन के संस्मरण, सभा और सरस्वती, वैष्णव
धर्म और आर्य समाज, वर्ण व्यवस्था और अछूत, स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री सुभाष चंद्र बोस, राष्ट्रपिता लोकमान्य तिलक, कांग्रेस का संक्षिप्त
इतिहास, ब्राह्मण सावधान, मानव धर्म
मीमांसा, संस्कृति का पाँचवा अध्याय, मेरे कुछ मौलिक विचार, संस्कृत शिक्षण कला और
अनुवाद विषय, श्रीनिम्बार्काचार्यस्तन्मतञ्च (संस्कृत) |
काव्य-नाटक |
तरंगिणी
और सुदामा |
संदर्भ:
- अक्षरवार्ता, “अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका” अगस्त, २०२० डॉ. मोहन बैरागी का आलेख
- किशोरीदास वाजपेयी का व्याकरण-विमर्श, प्रतिमान
- हिंदी शब्दानुशासन : एक विश्लेषण, योगेन्द्रनाथ मिश्र, गवेषणा,के.हि.स.,अंक-११० ,वर्ष २०१७ पृष्ठ :१६१
- हिंदी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, हमारी वाणी ब्लॉग के अंक ११ में आचार्य परशुराम राय का आलेख
- हिंदी शब्दानुशासन : किशोरीदास वाजपेयी, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
लेखक परिचय:
बहुत सुन्दर जानकारी दी है वाजपेयी जी
ReplyDeleteके अवदान की!
- कमलेश भट्ट कमल
वाजपेयी जी के हिंदी भाषाविज्ञान पर योगदान का मूल्यांकन करते हुए लिखे गए शोधपरक आलेख के लिए नूतन पांडेय जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाजपेयी जी द्वारा हिंदी व्याकरण और भाषाविज्ञान पर किए गए कार्यों पर अनुपम लेख होने के साथ-साथ यह भारतीय आर्यभाषाओँ के विकास में हिंदी का संस्कृत से स्वतंत्र स्थान होने के बारे में भी बताता है। छोटे से लेख को महत्त्वपूर्ण जानकारी का स्रोत बनाने के लिए नूतन जी आपका शुक्रिया और बहुत बधाई।
ReplyDeleteवाजपेयी जी पर इस शोधपरक आलेख के लिए नूतन पांडेय जी को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteहिंदी भाषा के विकास में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी के महत्वपूर्ण योगदान को डॉ. नूतन जी ने इस शोधपरक लेख में बहुत रोचक रूप में पिरोया है। नूतन जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteकिशोरीदास वाजपेयी जी की अपने मूल्यों एवं कर्म के प्रति दृढ़ता एवं निष्ठा बड़ी प्रेरणदायक है । गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की पंक्तियाँ याद आ गईं : जोदि तोर डाक शुने केऊ न आशे तोबे एकला चलो रे “।
ReplyDeleteनूतन जी, आपने बड़ी सुंदर भाषा में शोधपरक एवं ज्ञानवर्धक लेख को प्रस्तुत किया है । हार्दिक बधाई ।