काव्य, आलोचना और संपादन के त्रयंबक तत्त्वों से निर्मित मिश्रबंधुओं का साहित्यिक योगदान हिंदी भाषा की महत्त्वपूर्ण धरोहर है। इनका लेखन शब्दों की काया में विवेक की आत्मा है। भाषा मनुष्य को विरासत में मिलती है, जिससे वह अपने अतीत, अपनी परंपराओं और अपने इतिहास को जीता है। लेकिन सामान्य मनुष्य की अपेक्षा कवि या रचनाकार अपनी सृजनात्मक ऊर्जा से भाषा की जड़ता को तोड़कर उसे अधिक व्यापक और अर्थवान बनाकर नई ऊर्जा से भर देता है। कुछ ऐसा ही मिश्र बंधुओं ने मिलकर किया।
मिश्र बंधुओं जैसे भाई विरले ही मिलते है। चारों भाई विनोदी, विद्या व्यसनी, सर्जक, उदार और मिलनसार। चारों भाई छंद से ग्रंथ तक मिलकर रचते। उनमें अभिन्नता का भाव इतना सशक्त था, कि पता ही नहीं चलता कौन सा छंद किस भाई ने रचा है। बीसवीं सदी के पहले चरण में अवध की राजधानी लखनऊ में जन्मे इन चार भाइयों के नाम शिवबिहारी मिश्र, गणेशबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र था। इनमें से तीन सहोदर थे। उन्होंने घर पर ही संस्कृत और फ़ारसी के साथ हिंदी की अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी। मिश्रबंधु कात्यायन गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। 'मुहूर्त चिंतामणि' (ज्योतिष ग्रंथ) के प्रणेता चिंतामणि मिश्र इनके पूर्वज थे। इनके पूर्वजों का निवास स्थान भगवंतनगर, ज़िला हरदोई, उत्तर प्रदेश था। उनका परिवार वहाँ से आकर लखनऊ ज़िले के इटौंजा क़स्बे में बस गया था, जहाँ मिश्र बंधुओं का बाल्यकाल बीता।
गणेशबिहारी का जन्म १८६६ में हुआ। इन्हें हिंदी, संस्कृत और फ़ारसी की शिक्षा घर पर ही मिली। दो विवाहों से उनके दो पुत्र हुए। ये लखनऊ डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य और उपाध्यक्ष भी रहे।
श्यामबिहारी मिश्र, जिन्हें ‘राव राजा’ भी कहा जाता था, का जन्म १८७४ ई. और निधन १९६१ ई. में हुआ। उन्होंने एम.ए. तक की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ११ वर्ष की उम्र में उनका विवाह हुआ। आगे चलकर उनके तीन पुत्र हुए। डेप्युटी कलेक्टर व डेप्युटी कमिश्नर जैसे पदों पर काम करने के बाद वे ओरछा राज्य के दीवान के पद पर भी नियुक्त हुए थे।
१८७९ ई. में जन्मे दूसरे भाई शुकदेवबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी से पाँच साल छोटे थे, लेकिन उनसे दस साल पहले, १९५१ ई. में ही दुनिया को अलविदा कह गए। उन्होंने बी.ए. तथा वकालत की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने वकालत से अपनी आजीविका आरंभ की। ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और रायबहादुर बनने के बाद वे सोलह वर्षों तक छतरपुर राज्य के दीवान रहे।
सभी भाइयों ने हिंदी स्वाध्याय से ही सीखी।
साहित्यिक सफ़र
थोड़े सयाने हुए तो इन भाइयों ने ‘मिश्र बंधु’ के संयुक्त नाम से हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में क़दम रखा और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। इनका पहला समालोचना का लेख 'सरस्वती’-भाग १ में छपा, जिसका विषय था 'हमीर हठ'।
हिंदी उन दिनों व्याकरण, कोश और साहित्य के इतिहास के लिहाज़ से मानकीकरण के संकट से निजात पाने में लगी थी। मिश्र बंधुओं ने इसके लिए न सिर्फ़ उसका शोधपूर्ण साहित्यिक इतिहास लिखा, बल्कि आलोचना की तुलनात्मक पद्धति द्वारा रचनाओं का कलात्मक सौंदर्य व्यक्त करने की नई परंपरा भी शुरू की।
मिश्र बंधुओं के बहुपठित ग्रंथ ‘मिश्रबंधु विनोद’ में क़रीब पाँच हज़ार कवियों एवं साहित्यकारों का उल्लेख है। इसके मूल में शास्त्रीयता युक्त काव्योत्कर्ष और तुलना है। इसमें दोषों की अपेक्षा गुणों की ही चर्चा अधिक की गई है। इस ग्रंथ में हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया गया है, जो निम्नलिखित है-
१ ) आरंभिक काल २ ) माध्यमिक काल ३ ) अलंकृत काल ४ ) परिवर्तन काल ५ ) वर्तमान काल
यह ग्रंथ चार खंडो में विभाजित है, जिनमें से प्रथम तीन भाग १९१३ ई. में प्रकाशित हुए और चौथा भाग १९३४ ई. में। यह ग्रंथ एक विशालकाय ग्रंथ है, जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "महाव्रत संग्रह" की संज्ञा दी है। आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने कहा है- "रीतिकाल के कवियों का परिचय लिखने में मैंने प्रायः मिश्रबंधु विनोद से ही विवरण लिए हैं"।
हिंदी जगत को जैन कवियों की बाबत आरंभिक जानकारी भी मिश्रबंधु ने ही दी। इन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों की खोज करके उन्हें इकट्ठा किया। अपनी बहुआयामी सर्जना में उन्होंने आलोचना व इतिहास के अलावा कविता, नाटक, उपन्यास व संपादन विधाओं को भी समृद्ध किया। अलबत्ता, उनकी ‘लवकुश चरित्र’, ‘भारत विनय’, ‘पद्य पुष्पांजलि’ और ‘बूँदी वारीश’ जैसी काव्यकृतियाँ ज़्यादा चर्चित नहीं हुईं, लेकिन ‘प्राचीन में नवीन’, ‘पियक्कड़ पतन’ और ‘नेत्रोन्मीलन’ जैसे आधा दर्जन नाटकों ने अरसे तक धूम मचाए रखा।
“हिंदी नवरत्न” में कवियों का जीवन चरित, ग्रंथ परिचय, रचना विवेचन, काव्यांशों के उदाहरण आदि का वर्णन है। आचार्य शुक्ल के पहले कैनन के लिहाज से मिश्र बंधुओं की पुस्तक 'हिंदी नवरत्न' महत्त्वपूर्ण है, जिसे हिंदी की आधुनिक आलोचना की पहली किताब होने का गौरव प्राप्त है। यह किताब पहले १९१० में छपी। बाद में, मिश्र बंधुओं के जीवनकाल में संक्षिप्त नवरत्न को मिलाकर इस पुस्तक के दस संस्करण निकले, और हर संस्करण में मिश्रबंधु कुछ न कुछ जोड़ते-घटाते रहे। मूल नवरत्न के संस्करण १९१०, १९२४, १९२८, १९३७, और १९४७ में निकले। नवरत्न का संक्षिप्त संस्करण पहली बार १९३४ में निकला। संक्षिप्त नवरत्न के भी पीछे १९४०, १९४३ और १९४४ में संस्करण हुए। इन संस्करणों में होने वाले परिवर्तन भी कम रोचक नहीं हैं। मिश्र बंधुओं ने नवरत्नों को तीन त्रयियों में बाँटा। प्रथम संस्करण में वृहत्त्रयी में तुलसी, सूर और देव रखे गए। मध्यत्रयी में बिहारी, भूषण और केशव थे और लघुत्रयी में मतिराम, चंदरबरदाई और भारतेंदु हरिश्चंद। इनका श्रेष्ठताक्रम भी लगभग इसी प्रकार मिश्र बंधुओं ने अपनी काव्य-धारणा के अनुसार कवियों की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर बनाया था। इसमें कबीरदास और सूरदास के नाम के आगे ‘महात्मा’ विशेषण है, तो कुछ कवियों के नाम के आगे ‘महाकवि’। तुलसीदास और भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम के आगे लोक प्रचलित पद रहने दिया गया है।
द्विवेदीयुगीन आलोचना के कैननों पर बहस के लिए 'हिंदी नवरत्न' एक प्रातिनिधि पुस्तक मानी जा सकती है। इसलिए नहीं कि यह पुस्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती थी, वरन इससे अलग इस किताब में पारंपरिक काव्यशास्त्रीय समझ और 'आधुनिकता' के प्रतिमानों का एक द्वंद्व दिखता है। इस किताब में जहाँ एक तरफ़ आधुनिक, नए प्रतिमान हैं, वहीं रुचियों के स्तर पर लेखकों की रीतिकालीन समझ भी उनके आलोचनात्मक कैननों में रची-बसी है।
‘नवरत्न’ के प्रथम संस्करण में कबीरदास नहीं थे, उन्हें दूसरी आवृत्ति में शामिल किया गया। मिश्रबंधु लिखते हैं: -...हिंदी-नवरत्न की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित होते समय विचार उठा, कि इस ग्रंथ में कबीरदास को न रखना ठीक नहीं है, परंतु जिन कवियों को एक बार नवरत्न में लिख चुके हैं, उनमें से किसी को निकालना भी उचित नहीं परंतु कठिनाई यह आई, कि नौ के स्थान पर दस कवि आने से ग्रंथ ‘नवरत्न’ कैसे रह जाएगा? अतएव भूषण और मतिराम को ‘त्रिपाठी बंधु’ कहकर एक ही मान लिया गया और कबीर को भी स्थान दे दिया गया। उनके बारे में मिश्र बंधुओं का कहना था कि "आप वास्तव में पैगम्बर, सिद्ध, योगी, ब्रह्मानंदी, समाधिस्थ आदि पहले हैं और कवि पीछे, इसलिए हमने हिंदी के नवरत्नों में आपको सातवाँ नंबर दिया। ” ‘नवरत्न’ के अन्य कवियों के बारे में मिश्र बंधुओं के विचार इस प्रकार हैं:
भूषण ने जातीयता का संदेश दिया, और बड़े सुंदर ढंग से उनकी जातीयता में राष्ट्रीयता का भाव कम, हिंदुत्व का विशेष भाव आता है। फिर भी यह कहना पड़ता है, कि उस समय हिंदुत्व का संदेश ही एक प्रकार से भारतीयता का संदेश था।
केशवदास के कथन अच्छे हैं, और उनकी रचना में व्यक्ति का संदेश माना गया है, किंतु हम इससे सहमत नहीं हैं।
मतिराम का संदेश साहित्योन्नति है और उनकी भाषा अत्यंत ललित है।
चंदबरदाई ने कथा अच्छी कही है और उनके वर्णन भी ठीक हैं।
मिश्रबंधुओं ने नाभादास को हनुमानवंशी मानते हुए लिखा है, कि मारवाड़ी में हनुमान शब्द 'डोम' के लिए प्रयुक्त होता है। ’मिश्रबंधु विनोद’ और ‘हिंदी नवरत्न’ ऐसे महान ग्रंथ है, जो हिंदी साहित्य के इतिहास में हमेशा याद किए जाऐंगे।
संदर्भ
विकीपीडिया
यूनियनपीडिया
लेखक परिचय
विज्ञान की छात्रा संतोष भाऊवाला की कविताएँ एवं कहानियाँ कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी हैं। वे कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहे लिखती हैं। रामकाव्य पीयूष, कृष्णकाव्य पीयूष व अन्य कई साझा संकलन प्रकाशित हुए हैं।
ईमेल: santosh.bhauwala@gmail.com; व्हाट्सएप्प: ९८८६५१४५२६
मिश्र बंधुओं का इकट्ठे लिखना बहुत रोचक है । लेख की भाषा सुंदर एवं विषय-सम्बद्ध है । शोधपरक , ज्ञानवर्धक लेख के लिए संतोष जी को बधाई।
ReplyDeleteमिश्र बंधु मिलजुल कर काम करने का उत्कृष्ट उदहारण हैं। साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में इतना व्यापक काम शायद साथ मिलकर करने के कारण ही संभव हो पाया। साहित्य की इन विभूतियों के कृतित्व और व्यक्तित्व से बहुत अच्छा परिचय करता है यह आलेख। संतोष जी को इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुक्रिया।
ReplyDeleteमिश्र बंधुओं ने हिंदी व्याकरण एवं साहित्य के इतिहास में अद्भुत कार्य किया। उनका साहित्यिक योगदान हिंदी भाषा के लिए अति महत्त्वपूर्ण तो है ही, साथ ही मिलकर काम करने का एक अद्वितीय उदाहरण भी है। मिश्र बंधुओं पर उपलब्ध जानकारी काफी सीमित है लेकिन इस लेख में सन्तोष जी ने गहन शोध से विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की जो सचमुच प्रसंशनीय है। संतोष जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteमिश्र बंधुओं के वृहद् कृतित्व को संतोष जी ने बड़ी ही कुशलता से पेश किया इस आलेख में | अपने आपमें यह अनोखा उदाहरण है कि भाइयों ने आपसी सहयोग से इतने विशाल संग्रहनीय ग्रंथों की रचना की जो अपने आप में अनुकरणीय है | संतोष जी को बहुत-बहुत बधाई और अभिंदन इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए |
ReplyDeleteभाइयों द्वारा मिलकर किए गए इतने वृहद कार्यों पर प्रकाश डालते सटीक शीर्षक वाले रुचिकर आलेख के लिए संतोष जी को बधाई!
ReplyDeleteरोचक आलेख है । अज्ञानता कहिए लेकिन अभी तक इन के बारे में सुना ही था । अधिक जानकारी नहीं थी ।
ReplyDeleteआज इस लेख के बारे में काफ़ी कुछ नया जानने को मिला ।आभार ।
मिश्र बंधु पर रुचिकर आलेख के लिए सन्तोष जी को बधाई।
ReplyDeleteछतरपुर मेरा गृहनगर है मिश्र बंधुओं में से एक छतरपुर महाराज के 16 वर्षों तक दीवान रहे यह जानकारी अत्यंत nostalgic लगी। अपने दादा जी से छतरपुर के दीवान की सुशासन क्षमता एवं उत्तम व्यवहार चरित्र के किस्से सुनते रहे हैं । आलेख की भाषा अत्यंत सुन्दर और आकर्षक है, इस जानकारी परक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
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