कविता अक्सर शब्दों में अपने आप को पिरोकर सामने रखा हुआ आभूषण होता है। शिवमंगल सिंह 'सुमन' की सृजन यात्रा को जानना अर्थात एक हृदय से अनेक स्वरों में प्रस्फुटित, जीवन ताल में निबद्ध रचना को सुनना। प्रकृति के साथ अपना काव्य धर्म निभाते ‘सुमन’ कभी मन के बोझिल झंझावातों को शब्द देते रहे, तो कभी मानव धर्म को श्रम रुप में ढाल कर कर्म के गीत गाते रहे। आज के संदर्भ में देखें, तो उनकी कविताओं में हम सभी के लिए एक ‘हाँक’ है। ये हाँक कभी उस चिर-प्रतीक्षित हरकारे सी लगती है जो शुभ वार्ता लाता हो, या फिर नींद से उठाते कर्मठ पितृ पुरुष सी, जो स्नेहवश हमारी त्रुटियों को क्षमा कर पुनः जीवन को चलायमान करने का मंत्र देने अचानक ही प्रकट हो गया हो।
अवसाद के क्षणों में
अक्सर ही ‘सुमन’ की पंक्तियों की संजीवनी कुछ यों दस्तक देती है मन पर...
इस विशद
विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूं,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
चलना
हमारा काम है।
और क्या बरबस चल नहीं
देते हम अपने कर्म पथ पर?
पाठ्य पुस्तकों में
से झाँकता ‘सुमन’ का विचारशील व्यक्तित्व, कवि सम्मेलनों में उनकी दिव्य ओजपूर्ण
और वीर रस से पगे शब्द जब समुद्र तक को ललकार कर कहा करते थे -
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक निज
पतवार।।
आज सिंधु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिंधु में
साथ उठा है ज्वार
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक निज
पतवार।।
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पंदन
है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक निज
पतवार।।
इन शब्दों से हृदय में साहस भर देने
वाले ‘सुमन’ हमें विस्मित करते हैं जब उनका अनूठा काव्य संग्रह 'कटे अंगूठों की
बंदनवारें’ सामने आता है। इस संग्रह में वे लिखते हैं,
"‘वाणी की व्यथा’ के बाद यह दसवाँ
काव्य संग्रह है। इसके नामकरण की भी एक कहानी है। कुछ वर्षों पूर्व झाबुआ और
अलीराजपुर के आदिवासी इलाके में मैं यह देखकर हैरान रह गया, कि वहाँ के भील, सर
संधान में अँगूठे का प्रयोग नहीं करते, केवल चार उँगलियों से ही प्रत्यंचा खींचकर
अचूक लक्ष्य भेदने की उनकी क्षमता विस्मयकारी है। पूछने पर वे इतना ही बता पाए
कि हमारे यहाँ अँगूठे का प्रयोग वर्जित है। सहसा मेरे मानस में वह गाथा कौंध सी गई
कि युगों पूर्व इनके पूर्वज एकलव्य का अँगुठा गुरु द्रोणाचार्य ने कटवा लिया था।
तब से आज तलक उनकी संतानों ने उसका प्रयोग न करने का संकल्प किस धैर्य और साहस के
साथ निभाया है। अशिक्षित और असभ्य कहे जाने वाले सर्वहारा वर्ग का यह अप्रतिहत
स्वाभिमान देखकर मैं चकित रह गया।"
आदिवासियों के इस धैर्य पूर्ण संकल्प
निर्वहन से ‘सुमन’ का कवि हृदय भीतर तक आर्द्र हो उठा था और वे स्वयं उनके सुखों-दुखों
के साक्षी होकर उन भावों को अंतस में अवशोषित करते रहे थे।
कवि किरीट ‘सुमन’ भारत किरीट हिमालय से प्रभावित न होते तो ही आश्चर्य था। कहते भी हैं, कि जिसने एक बार देख ली उत्तुंग हिम शिखर की संपदा, उसके जीवन से यह श्वेत सम्मोहन जीवन भर कभी जाता नहीं। अपनी कृति 'विंध्य हिमालय' में यह स्पष्ट रूप से कहा है कि ईश्वर के विराट रुप को दर्शाना हो या जीवन दर्शन को स्पष्ट करना हो, तो कवियों ने प्रकृति की सहायता ली है। यह परंपरा आज से ही नहीं बल्कि रीतिकाल, वीरगाथा काल, आदिकाल, भक्तिकाल, वैदिक काल से चली आ रही है। हिमालय से सम्मोहित, मजदूरों और किसानों की व्यथा से एकरुप, प्रकृति से वार्तालाप करते और कमज़ोर व असहाय की आवाज़ बनते इस कवि के बारे में भौतिक जीवन की जानकारी को टटोलें, तो उनका जन्म श्रावण मास की नागपंचमी के दिन वर्ष १९१५ ई. में दिनांक ५ अगस्त, (संवत १९७२ श्रावण मास शुक्ल पक्ष नागपंचमी) को ग्राम झगरपुर, ज़िला उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।
आपके पिता का नाम ठाकुर साहब बख्श सिंह था। उनके पितामह
ठाकुर बलराज सिंह स्वयं रीवा सेना में कर्नल थे तथा प्रपितामह ठाकुर चंद्रिका
सिंह को १८५७ की क्रांति में सक्रिय भाग लेने एवं वीरगति प्राप्त होने का गौरव
प्राप्त था।
‘सुमन’ ने अधिकांश रूप से रीवा, ग्वालियर
आदि स्थानों में रहकर आरंभिक से लेकर कॉलेज तक की शिक्षा प्राप्त की है।
तत्पश्चात १९४० में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से परास्नातक (हिंदी) की
उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष १९४२ में उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज में
हिंदी प्रवक्ता के पद पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।
वर्ष १९४८ में माधव कॉलेज, उज्जैन में हिंदी विभागाध्यक्ष
बने, १९५० में
उनको ‘हिंदी गीतिकाव्य का उद्भव-विकास और हिंदी साहित्य में उसकी परंपरा’ शोध प्रबंध पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डी० लिट की उपाधि प्रदान की। आपने १९५४-५६ तक
होल्कर कॉलेज इंदौर में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर भी सुचारु रूप से कार्य
किया।
वर्ष १९५६-६१ नेपाल स्थित भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक और
सूचना विभाग का कार्यभार आपको सौंपा गया। वर्ष १९६१-६८ तक माधव कॉलेज, उज्जैन में
वे प्राचार्य के पद पर कार्य करते रहे।
इन आठ वर्षों के बीच १९६४ में वे विक्रम विश्वविद्यालय,
उज्जैन में कला संकाय के डीन तथा व्यावसायिक संगठन, शिक्षण
समिति एवं प्रबंधकारिणी सभा के सदस्य भी रहे। १९६८-७० तक ‘सुमन’ विक्रम
विश्वविद्यालय उज्जैन में कुलपति के पद पर आसीन रहे। डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ को १९५८ में
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उनके काव्य संग्रह ‘विश्वास बढ़ता ही गया’ पर ‘देव’ पुरस्कार
प्राप्त हुआ।
१९६४ में ‘पर आँखें नहीं भरीं’ काव्य
संग्रह को ‘नवीन’ पुरस्कार से
सम्मानित किया गया और १९७३ को मध्य प्रदेश
राजकीय उत्सव में सम्मानित किया गया। जनवरी, १९७४ में
भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री’ की उपाधि से
विभूषित किया गया। भागलपुर विश्वविद्यालय, बिहार ने उन्हें २० मई, १९७३ को
डी. लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। नवंबर, १९७४ को वे ‘सोवियत-भूमि
नेहरू पुस्कार’ से सम्मानित
हुए। २६ फरवरी, १९७३ को ‘मिट्टी की
बारात’ नामक काव्य
संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी से पुरस्कृत किया गया और १९९९ में वे पद्मभूषण के
स्वामी बने।
‘सुमन’ के व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन करने पर उनके
विविध रचनात्मक अवदानों को सामने पाते हैं। शताब्दी की ओर अग्रसर पत्रिका ’वीणा’
में उन्होंने जुलाई १९६८ से जनवरी १९६९ तक संपादन का दायित्व संभाला था। उस दौर की
‘वीणा’ में छपे उनके संपादकीय वैचारिक दृष्टि से एक संवेदनशील कवि-हृदय का परिचय
देते हैं, साथ ही एक कर्तव्य बोध भी करवाते हैं।
उनके संपादकीय आज भी अनेक स्थानों पर उद्घृत किए जाते हैं
यथा, "आगामी सौ साल" में वे लिखते हैं- "आज हृदय का उत्तरण है, कल
मस्तिष्क का उत्तरण होगा और तब मनुष्य का वैभव प्रकट होगा। स्निग्धता में ही गति
और गतिशील की सरसता है। रुक्ष होकर हम निकट में ही बुझ जाएँगे, मिट जाएँगे और स्नेह सिक्त
होकर कालजयी होंगे।"
डॉ. रवींद्रनाथ मिश्र ने ‘सुमन’ के सांस्कृतिक गुणों का वर्णन करते हुए कहा है, "जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बाह्याडंबर और प्रदर्शन की भावना को हेय मानते हुए भी, सुमन जी वस्त्र धारण में विशेष रुचि का परिचय देते हैं। जो कि उनके स्वस्थ दृष्टिकोण का प्रतीक है। समयानुसार वे अपनी वेष भूषा में परिवर्तन करते रहते हैं। सुमनजी जीवन पर्यंत जिस भी पद पर रहे, अपना काम ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता से करते रहे। स्वदेश प्रेम की भावना उनमें संस्कारिक है। उनके पूर्वजों ने देश की आज़ादी में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। देश प्रेम के साथ ही उनमें समाज प्रेम भाव भी विद्यमान है।"
डॉ.
प्रभाकर श्रोत्रिय के विचार सुमन को लेकर एकदम अलहदा हैं,
"सुमन जी राजनीतिक वक्ता नहीं है। वे छायावादोत्तर कवि
हैं। परंतु कवि के रुप में एक कुशल कवि हैं। वक्ता के रुप में सक्षम और कुशल वक्ता
भी है। सुमन जी की वाणी मधुर है। आकर्षण की दृष्टि से अर्थात श्रोता की दृष्टि से
और कथ्य यानि स्वयं सुमन जी के अभिप्राय की दृष्टि से भी हज़ारों लोगों को एक साथ बाँध
सकने की क्षमता उनमें है, प्रसंग का मार्मिक चयन और अभिनय के आंगिक, वाचिक और
सात्विकादि गुणों के कारण उनकी वक्तृता एक कभी न उबारने वाली मदिरा है।"
विविध भौतिक अनुभवों से दो-चार होने के बाद, एक व्यक्ति के
रुप में भी कवि परिष्कृत होता है। इसी क्रम में, जीवन दर्शन के प्रति सुमन की
दृष्टि उनकी अनेक काव्य पंक्तियों में से झाँकती है, यथा
लगता, सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे
तार बुना डालूँ।
यों ही सूने में अंतर के
कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ।
कवि की अपनी सीमाएँ हैं कहता जितना कह
पाता है।
कितना भी कह डाले, लेकिन अनकहा अधिक रह जाता है।
या फिर उनका अपने प्रशंसकों से सीधे यह कहना, "मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वत्ता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।"
अपनी रचनाओं में सुमन ने नारी का
चित्रण मुख्य रुप से उसके तप और त्याग की उच्चतम भावना के कोण से किया है। वे
यशोधरा का चित्रण करते हुए कहते हैं -
कभी कभी सोचता हूँ
कौन तपा पंचाग्नि में तुम या यशोधरा?
आग वह किसकी थी जिसने
इस जीवन की नींद तुम से छीन ली,
राग वह किसका था जिसने
अपनाया कण कण को बहुजन हिताय
चिर विरही संसृति के तुमने जिस
वियोग का संयोग दिया जग को
विहाल बहुजन सुखाय
इसके आगे यदि उनकी भाषा शैली की बात
करें, तो जनजीवन के समीप रहने वाली व्यावहारिक भाषा का उपयोग मुख्य रुप से
स्पष्टता और सरलता के साथ उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। उर्दू के शब्द भी कभी
कभार इन रचनाओं में मिलते हैं। वे स्वयं एक ओजस्वी वक्ता भी रहे हैं इसलिए स्वाभाविक रुप से आपकी भाषा में संगीतात्मकता और लयबद्धता मिलती है।
सुमन के समकालीन कवि, जो मंचों से, छपे शब्दों से अपने
व्यक्तित्व को रेखांकित करते रहे, साहित्य की अनकही और अव्यक्त कही जाने वाली,
अभिषिक्त होने की चाह मन में पाले हुए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अपने अहंकार को
दुलराते रहे, ऐसे विशिष्ट समय में भी ये पंक्तियाँ सुमनजी ही लिख सकते थे,
हम दीवानों का क्या परिचय?
शाश्वत यह आना–जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना
है
इतने छोटे–से जीवन में, इतना ही कर पाए निश्चय
हम दीवानों का क्या परिचय?
२७ नवंबर २००२ ई०
को शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का ८७ वर्ष की अवस्था में जनपद उज्जैन (म०प्र०) में निधन हो गया।
संक्षिप्त जीवनवृत्त एवं साहित्य
नाम |
डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' |
पिता |
ठाकुर
साहब बख्श सिंह |
जन्म |
५ अगस्त (संवत १९७२ श्रावण मास शुक्ल पक्ष नागपंचमी) को ग्राम झगरपुर, ज़िला
उन्नाव (उत्तर प्रदेश) |
निधन |
२७ नवंबर २००२ ई० |
शिक्षा-दीक्षा |
रीवा, ग्वालियर
में आरंभिक शिक्षा से लेकर कॉलेज तक की शिक्षा १९४० ई०
में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से परास्नातक (हिंदी) की उपाधि १९५० ई० में ‘हिंदी गीतिकाव्य का उद्भव-विकास और हिंदी साहित्य में उसकी परंपरा’ शोध प्रबंध पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय से डी० लिट |
प्रकाशित कृतियाँ |
कविता संग्रह
गद्य रचनाएँ
नाटक
|
प्रमुख कविताएँ |
· सांसों का हिसाब · चलना हमारा काम है · मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार · असमंजस · पतवार · सूनी साँझ · विवशता · मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ · आभार · पर आँखें नहीं भरी · मृत्तिका दीप ·
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी/ भाग १ ·
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी/ भाग २ ·
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी/ भाग ३ · बात की बात · हम पंछी उन्मुक्त गगन के · वरदान मागूँगा नहीं · मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ · तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक · मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला · सहमते स्वर-1 ·
सहमते स्वर-2 ·
सहमते स्वर-3 ·
सहमते स्वर-4 ·
सहमते स्वर-5 · अंगारे और धुआँ · मैं अकेला और पानी बरसता है · चल रही उसकी कुदाली · मिट्टी की महिमा · रणभेरी |
सम्मान, पुरस्कार |
·
पद्मश्री ·
पद्मभूषण ·
देव पुरस्कार ·
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार ·
साहित्य अकादमी पुरस्कार ·
शिखर सम्मान, मध्य प्रदेश ·
सरकार भारत भारती पुरस्कार ·
डी॰ लिट॰ भागलपुर विश्वविद्यालय ·
डी॰ लिट॰ जबलपुर विश्वविद्यालय |
संदर्भ
- https://www.hindigrema.com/2020/11/shivmangal-singh-suman.html
- https://www.hindwi.org/poets/shivmangal-singh-suman/kavita
- विकीपीडिया
- पुस्तक: साहित्यिक पत्रकारिता ’वीणा के संपादक’ : डॉ. वंदना मालवीय
लेखक परिचय
अंतरा करवड़े : हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में लेखन। लेख, लघुकथा, कविता, कथा इत्यादि विधाओं में सृजन।विविध पुस्तकें प्रकाशित, अनेक पुरस्कार और सम्मान, संपादन अनुभव। अनेक साहित्य सम्मेलनों का संचालन और सहभाग।
नवीनतम प्रकाशन, मराठी ललित लेख पुस्तक 'मन कस्तूरी'
संप्रति : प्रतिष्ठान ’अनुध्वनि’ द्वारा अनुवाद, लेखन और ध्वनि सेवा।
9752540202
अंतरा जी नमस्ते। डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन पर आपका लेख अच्छा है। लेख से उनके जीवन एवं साहित्य यात्रा को जानने का एक और अवसर मिला। लेख में सम्मिलित कविताओं के अंश भी बहुत अच्छे हैं। आपको रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।उनकी लिखी ये पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद हैं।
ReplyDelete'हम दीवानों का क्या परिचय ?
शाश्वत यह आना–जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना है
इतने छोटे–से जीवन में,
इतना ही कर पाए निश्चय
हम दीवानों का क्या परिचय ?'
डॉ शिवमंगल सिंह सुमन पर लिखा हुआ यह लेख बहुत ही महत्वपूर्ण लिखें जो उनके लेखन और जीवन पर केंद्रित है मेरे उज्जैन निवास के दौरान मेरा उनसे निरंतर संपर्क बना रहा क्षितिज के द्वारा प्रकाशित मध्यप्रदेश के भिंड लेखन पर पुस्तक जरिए नजरिए का लोकार्पण उनके ही हाथों से हुआ था और उस समय के कई यादगार चित्र मेरे संग्रह में हैं उनका एक महत्वपूर्ण पत्र भी मेरे संग्रह में है जिसमें उन्होंने यह दुख व्यक्त किया था कि न जाने किन कारणों से वह कुछ फ्रॉड डिग्री बांटने वाले कुछ साहित्य संगठनों के मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो गए थे और उनके नाम का उन संगठनों ने बहुत दुरुपयोग किया था तब उन्होंने लिखा था कि जहां गिरे हम वहां उठो तुम किसी कवि की इतनी मार्मिक स्वीकारोक्ति बड़ी महत्वपूर्ण होती है एक बार उनके निवास पर हम बैठे हुए थे और तेज बारिश शुरू हो गई तभी क्रिकेटर मुस्ताक अली उनसे मिलने के लिए वहां पर आए और उन दोनों के बीच जो बातचीत रहे उसके साक्षी हम लोग रहे उस वक्त उन दोनों की बातचीत में अमृत बरस रहा था और हम सब उसको श्रवण कर रहे थे उनके साथ मेरा एक बड़ा सुंदर चित्र भी वहां के फोटोग्राफर नवनीश दुबे ने उतार कर पूरा तैयार कर मुझे भेंट किया जो आज भी मेरे संग्रह में है आपके इस लेख में मेरी उन सारी पुरानी यादों को ताजा कर दिया है आपको बहुत-बहुत बधाई एक अच्छे लेख के लिए
ReplyDeleteकुछ टाइप की मिस्टेक चली गई हैं जो सुधर नहीं रही है कृपया भिंड के स्थान पर व्यंग्य संग्रह पढ़ें
ReplyDeleteकविवर शिवमंगल सिंह सुमन जी पर बहुत ही
ReplyDeleteज्ञानवर्धक सशक्त आलेख के लिये बधाई!!
मुझे उनकी ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगती हैं-
" मैंने तुमको कितना चाहा,
इसकी तो कोई थाह नहीं।
तुम मुझको चाहो तो चाहूँ,
ऐसी भी मेरी चाह नहीं।
बस केवल इतना पूछ रहा,
बोलो क्यों नहीं बताती हो
क्षण भर सूने में कभी कभी
क्या कर लेती हो याद मुझे?"
- शकुन्तला बहादुर
-।