राजाओं, वज़ीरों का, शास्त्रों-पुराणों का नाश हो
जिन्होंने हमें गुलाम बनाया
इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाए बैठे हैं
हिमालय की बर्फीली चोटियों में
किसने सताया तुम्हें-हमें
इन पोथियों-पोथियारों, ताकतवालों ने
इनका नाश हो
उक्त कवितांश वीरेन डंगवाल की एक लंबी नाटकीय रचना परिकल्पित कथालोकांतर काव्य नाटिका 'नौरात, शिवदास और सिरी भोग वगैरह' से उद्धृत है। जिसमें एक दलित-ढोल कलाकार और एक रानी के प्रेम संबंधों व राजा द्वारा उसकी हत्या के षड्यंत्र तथा मारे जाने से पहले ही ढोल-वादक द्वारा राजा को पीटकर भाग जाने एवं इस घटना के वर्षों बाद उसी वादक के पोते शिवदास द्वारा कथा के प्रसंग में उपरोक्त गीत की पंक्तियाँ जोड़ते हुए संघर्ष का आह्वान होता है। वीरेन डंगवाल का कविता में यह अनूठा प्रयोग है। हमारे लोक साहित्य को कविता में जोड़कर जनवादी मूल्यों को संस्थापित कर उसके समक्ष आई बाधाओं को विस्थापित करने का आह्वान बड़ी सजगता के साथ कवि ने किया है।
हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध और विशालतम रूप देने वाले मुखर कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल इस आकाश के झिलमिलाते नक्षत्र हैं। कविता में यथार्थ को देखने व पहचानने का उनका दृष्टिकोण बहुत अलग और अनूठा रहा है। उनकी कविता में साधारण लोगों और हाशिए पर स्थित जीवन के जो विलक्षण ब्यौरे व दृश्य दिखाई देते हैं, वे कविता में और कविता से बाहर भी हमें सबसे अधिक विचलित कर देते हैं। उनकी कविता में मामूली लोग और मामूली चीजें उसी तरह हैं, जिस तरह वे हैं और इसी मामूलीपन में उनकी सार्थकता है। उन्हें पहचानना उनके जीवन का सम्मान करना है और हम जितना ही अधिक इस जीवन को जानेंगे, उतना ही हम मानवीय होंगे। वीरेन डंगवाल मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जनपक्षधर कवि हैं, जिनकी आवाज़ अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी। वे अपने जन के इस महादेश के साधारण मनुष्य के कवि हैं। वे कहते हैं,
इन्हीं सड़कों से चलकर आते हैं आतातायी
इन्हीं सड़कों से चलकर आऐंगे अपने भी जन....
हिंदी साहित्य जगत के ऐसे अप्रतिम कवि व पत्रकार वीरेन डंगवाल का जन्म ०५ अगस्त १९४७ को कीर्ति नगर, टेहरी-गढ़वाल में (जो आज के उत्तराखंड राज्य में है) हुआ था। इनकी माता बहुत धर्मपरायण महिला थीं और इनके पिता जी स्व० रघुनंदन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नर के प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे। वीरेन जी की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा घर पर ही उनकी माँ के द्वारा ही हुई। तत्पश्चात उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अंत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। वर्ष १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए०, तत्पश्चात डी० फिल० की उपाधि ग्रहण की। वीरेन डंगवाल ने वर्ष १९७१ में बरेली कॉलेज में हिंदी अध्यापन का कार्य किया। उनकी पत्नी रीता डंगवाल जी भी शिक्षक रहीं। अंत में अंतिम रूप से बरेली के स्थायी निवासी हो गए। अंतिम दिनों में स्वास्थ्य संबंधी कारणों से उन्हें दिल्ली में रहना पड़ा।
साहित्य यात्रा
वीरेन डंगवाल ने बाईस साल की उम्र में अपनी पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ लगातार प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने वर्ष १९७०-१९७५ के मध्य साहित्य जगत में बहुत ख्याति अर्जित की। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरुदा, वास्को पोपा, मिरोस्लाव होलब, बदेऊष रोजोविच़ और नाजिम हिकमत की रचनाओं का अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी खुद की कविताओं का भाषातंर बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं प्रकाशित हुआ है।
वर्ष १९९१ में वीरेन डंगवाल का पहला कविता-संग्रह ४३ वर्ष की उम्र में 'इसी दुनियाँ में' नाम प्रकाशित हुआ। इस संकलन को वर्ष १९९२ में रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार तथा वर्ष १९९३ में श्रीकांत वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस काव्य संग्रह में आत्मकथ्य और काव्य संवेदना के प्रमुख सरोकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी कविता अनुभव की उदात्तता, रोज़मर्रा की मामूली चीजों के प्रति गहरा लगाव, ग्रीष्म की तेजस्विता, शरद की उष्मा और वसंत का सुखद अकेलापन एक नया यथार्थ और एक नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करते हैं।
उनकी कविता में 'पर्जन्य,' 'वरुण,' 'इन्द्र, 'द्यौस' जैसे रूपकों और बिंबों पर रोमांचक व शिल्प की कविताओं में संवेदनात्मक स्मृति का स्वरूप जनवादी और आम सरकारों से प्रतिबद्ध रहा है। इन वैदिक छवियों को साधारण जन की आँखों से एक भौतिक भूमिका में देखा गया है। उनकी कविता 'इंद्र' कुछ इसी तरह का अवलोकन कराती है,
इंद्र के हाथ लंबे हैं
वह समुद्रों को उठाकर बजाता है सितार की तरह
मंद गर्जन से भरा वह दिगंत-व्यापी स्वर
उफ़!
वहाँ पानी है
सात समुद्रों और निखिल नदियों का पानी है वहाँ
और यहाँ हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं।
वीरेन डंगवाल का दूसरा काव्य-संकलन 'दुश्चक्र में सृष्टा' वर्ष २००२ में आया और इसी वर्ष उन्हें शमशेर सम्मान भी दिया गया। इसी संकलन के लिए उन्हें वर्ष २००४ का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें हिंदी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवियों में माना गया। समालोचकों के अनुसार उनमें निराला और त्रिलोचन का-सा लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध जैसी बेचैनी और बौद्धिकता एक साथ मौजूद है। इसी संकलन की उनकी कविता 'दुश्चक्र में सृष्टा' ईश्वर से मानवीय संवेदना और मूल्यों को लेकर गहन संवाद है,
कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों
की बेटी छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?......................
इसी संग्रह की उनकी कविता 'रामसिंह' उस व्यवस्था पर सवाल उठाती है, जिसमें एक मेहनतकश का बेटा, किस तरह उन करोड़ों मेहनतकशों के ऊपर जो भूख और बेकारी के विरुद्ध लामबंद हैं, व्यवस्था के ठेकेदारों की बंदूक थामें मेहनतकशों को निशाना बना रहा है,
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं?
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वे माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
कवि का तीसरा कविता संग्रह 'स्याही ताल' वर्ष २०१० में प्रकाशित हुआ। जिसमें कवि की बेचैनी और बेफिक्री, समकालीन हताशा और बुनियादी उम्मीद के भरपूर साक्ष्य मिलते हैं। इसी संग्रह की एक लंबी मार्मिक कविता 'कटरी की रुकमिनी और उसकी माता की खंडित कथा' अपने भयावह समय के कटु यथार्थ से परिचय कराती है।
------मैंने रूकुमिनी की आवाज सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है
कभी सिर्फ एक अस्फुट क्षीण कराह
मैने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार 'विधायक प्रतिनिधि'
अथवा 'प्रेस' की तख्ती लगी रही है-----
वीरेन डंगवाल का कविता समग्र 'कविता वीरेन' के नाम से उनकी मृत्योपरांत वर्ष २०१८ में प्रकाशित हुआ। जिसमें उनकी चर्चित कविता जो जनचेता और जनसरोकारों से युक्त युवाओं के लिए मशाल साबित हुई 'इतने भले न बन जाना साथी' है, जिसे नौजवान आह्वान गीत के रूप में प्रस्तुत करते हैं,
-----ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारों
काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी----
इसी संग्रह की कविता 'उजले दिन आयेंगे' कवि की अच्छे समय की आशा व भविष्य के लिए अच्छे स्वप्नों का ताना-बाना बुनती है,
आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे........
वीरेन डंगवाल जी ने अपने जीवन-काल में वर्ष १९७० में पहली और आखिरी कहानी 'खरगोश' लिखी, जो उसी वर्ष 'विकल्प' पत्रिका में प्रकाशित हुई, जिसमें एक मध्यमवर्गीय छोटे बच्चे का घर से बाहर निकल कर अपनी खुली आँखों से नए अनुभवों व दृश्यावलियों का दीदार करता है,
"बहुत प्यार से हरे रंग के काँच को पहले उसने हाथ में उठाया। फिर उसे एक आँख से लगाए, दूसरी को बहुत जोर से भींचे वह अपने आस-पास की सब चीज़ों को हरा बनाते हुए देखता रहा- माँ की हरी धोती, हरी सड़क, उस पर जाता हुआ हरे रंग का साइकिल सवार, हरे मकान--- तन्मय होकर वह गुनगुना रहा था।"
पत्रकारिता
वीरेन डंगवाल शौकिया तौर पर पत्रकारिता से भी जुड़े रहे और एक लंबे अरसे तक 'अमर उजाला' के ग्रुप सलाहकार और बरेली के स्थानीय संपादक रहे। वर्ष २००९ में एक विवाद के चलते उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया।
२८ सितंबर २०१५ को बरेली में इस महान और अदभुत कवि का मुख के कैंसर से ६८ वर्ष की उम्र में देहांत हो गया। ०८ दिसंबर २०१९ को कवि वीरेन डंगवाल के सम्मान में स्मारक का निर्माण किया गया। जहाँ आज भी वह मामूली चीजें जैसी वे हैं और जिन्हें कवि बेहद प्यार देता था,उस स्मारक के आस-पास मँडराती हैं, चाहें वह गाय हो, बिल्ली हो, छिपकली हो और चाहें वह बिल्कुल निचले पायदान का आखिरी आदमी, जो उस स्मारक के नीचे बैठकर प्याज़ के साथ सूखी और बासी रोटी खाता हो।
वीरेन डंगवाल : जीवन परिचय |
जन्म | ०५ अगस्त १९४७, कीर्तिनगर, टेहरी-गढ़वाल, उत्तराखंड |
निधन | २८ सितंबर २०१५, बरेली |
पिता | स्व० रघुनंदन प्रसाद डंगवाल (प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी के अधिकारी) |
पत्नी | डॉ० रीता डंगवाल |
संतान | प्रफुल्ल और पुरुष |
साहित्यिक कृतियाँ |
कविता संग्रह | इसी दुनियाँ में दुश्चक्र में सृष्टा स्याही ताल कवि ने कहा कविता वीरेन- कविता समग्र
|
अनुवाद | पाब्लो नेरुदा, बर्तोल्त ब्रेख्त, वास्को पोपा, मिरोस्लाव होलब, बदेउष रोजोविच एवं नाजिम हिकमत की कविताओं का अनुवाद |
अध्यापन / पत्रकारिता | बरेली कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हिंदी अंग्रेज़ी में पत्रकारिता |
सम्मान व पुरस्कार |
रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार(१९९१) श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (१९९२) शमशेर सम्मान (२००१) साहित्य अकादमी पुरस्कार(२००४) बरेली में ०८ दिसंबर २०१९ को स्थापित स्मारक
|
संदर्भ
दुश्चक्र में सृष्टा
कविता वीरेन
विकिपीडिया
कविताकोश
लेखक परिचय
सुनील कुमार कटियार
जनवादी लेखक संघ की उत्तर-प्रदेश राज्यपरिषद के सदस्य, उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवा निवृत्त, जनवादी चिंतक, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
शिक्षा - एम०ए० अर्थशास्त्र
जनपद फर्रुखाबाद में निवास
मोबाइल नं० ७९०५२८२६४१ / ९४५०९२३६१
मेल आईडी - sunilkatiyar57@gmail.com
वाह! सुनील जी, आपने वीरेन डंगवाल जी की कविताओं के ऐसे उद्धरण दिए हैं जो उनकी सोच और शख़्सियत का मुरीद बना देते हैं। आलेख में दी गयी प्रत्येक कविता अद्भुत है। एक और सुन्दर लेख पटल पर रखने के लिए आपको हार्दिक बधाई और आभार
ReplyDeleteनमस्कार सुनील जी, वीरेन डंगवाल जी की शैली में उन पर लिखा बहुत बढ़िया आलेख पढ़वाया आपने। इसका अंत बहुत रास आया - वीरेन डंगवाल के सम्मान में स्मारक… निचले पायदान का आख़िरी आदमी, जो उस स्मारक के नीचे बैठकर प्याज़ के साथ सूखी और बासी रोटी खाता है। इस आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteआदरणीय सुनील जी आपने महान और अद्भुत कवि वीरेन डंगवाल जी का बहुत ही मृदु प्रवाह वाला आलेख रचा है । उनके साहित्यिकसंसार की विस्तृत जानकारी पाकर ज्ञान में वृद्धि हो गयी है। उनके कविताओं के अंशो का वृस्तित भावार्थ अति उत्तम पद्धति से लिखा गया है। उत्कृष्ट और रोचक आलेख के लिए आपका आभार और अनंत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। आपने वीरेन डंगवाल जी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख में उनके साहित्य एवं जीवन के महत्वपूर्ण बातों को आपने बखूबी पिरोया। लेख में सम्मिलित कविताओं का चयन भी अच्छा है। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteनमस्कार सुनील जी ..वीरेन डंगवाल जी फर आपका लेख अच्छा लगा..उनके साहित्य के सरोकार और जीवन की उल्लेखनीय बातों को बखूबी आपने लेख में पिरोया.. लेख का समापन भी बहुत अच्छा... और कविताओं का चयन भी..
ReplyDeleteममता किरण