तब पाछैं लगा हरि फिरै कहत कबीर कबीर ।।
जन्म हुआ १९५५ के अगस्त की पचीसवीं तारीख़ को, जो विक्रमी संवत २०१२ के भादों महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि थी। राशि के अनुसार नाम ‘न’ अक्षर से होना चाहिए था, लेकिन चूँकि यह महीना उस बरस अतिरिक्त मास यानि पुरुषोत्तम मास था, सो कुल-पुरोहित जी ने बोलने का नाम धर दिया- पुरुषोत्तम।
एक व्यापारी परिवार में जन्मे पुरुषोत्तम जी के पिता ग्वालियर में दुकानदारी करते थे। घर में ऐसा कोई विशेष साहित्यिक रुझान भी नहीं था। हां, उनकी माताजी को कहानी पढ़ने का शौक था। बचपन से ही शर्मीले स्वभाव के थे पुरुषोत्तम जी, लेकिन मन में हमेशा प्रश्नों का सैलाब उठते रहते थे और यदि कोई प्रश्न का हल नहीं मिला तो बेचैनी बढ़ जाती थी। उनके माता-पिता उनकी इस तरह की हालत पर यही कहते कि पूर्व जन्म में तुम कोई साधु-महात्मा रहे होंगे। बस इतना सुनते ही उनका बाल-मन स्वयं को विशेष समझने लगता। लेकिन, अब वे कहते हैं (कबीर-कबीर के लिए लिखे गये नोट में) कि बारह-तेरह बरस की उम्र तक इन बातों के बारे में उनकी समझ ‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त’ वाली हो चली थी।
फिर भी, यह तो सच है कि बचपन से ही कुछ अजीब था, यह बालक। एकांत प्रेमी, चुप्पा, अपने आप में मगन रहने वाला; लेकिन ग़ुस्सा आ जाए तो ऐसा कि माँ-बाप, भाई-बहन सब चिंतित हो उठें। जिज्ञासाएँ भी अपनी उम्र से बहुत आगे की, शौक़ भी वैसे ही, बातें भी। सात-आठ साल की उम्र में ही माँ के छोटे से पुस्तकालय से चतुरसेन शास्त्री और प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ीं, और बस फिर तो जुनून सवार हो गया पढ़ने का। इस हद तक कि जब नवीं क्लास में थे, तब प्रेमचंद का उपन्यास ‘रंगभूमि’ स्कूल की लाइब्रेरी से लेकर एक रात में पढ़ डाला था।
यह जुनून यहाँ तक हुआ कि पुरुषोत्तम सड़क चलते भी पढ़ते पाए जाते थे। लोग आकर माँ-बाप को बताते थे, वे चिंतित होते; लेकिन ग़नीमत यही कि उन दिनों देश में मोटर-कारें इतनी थी नहीं, और ग्वालियर तो वैसे भी गिनी-चुनी कारों वाला छोटा-सा शहर था।
पढ़ने का संबंध जिज्ञासा से था, जो कि बहुमुखी थी, लोकप्रिय से लेकर गंभीर साहित्य तक, राजनीति से लेकर सिनेमा तक, असल में जीवन का अर्थ, न मरने का कारण समझने-बूझने तक। इस कारण बहुत-सा धार्मिक-आध्यात्मिक साहित्य तो पढ़ा ही, कम उम्र में ही युग निर्माण योजना, कैथालिक और प्रोटेस्टेंट चर्च, रामकृष्ण मिशन, आर्य-समाज, सूफ़ी दरगाहें, गुरुद्वारे, बहाई विश्व-धर्म; न जाने कहाँ-कहाँ से गुजर गया बालक/ किशोर पुरुषोत्तम।
सरकारी स्कूल गोरखी से पाँचवीं कक्षा तक पढ़ लेने के बाद, छठी क्लास में दाख़िला मिस हिल्स स्कूल में कराया गया, और गंगादास (गंगादास जी ने ही महारानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार किया था।) जी की शाला नामक रामानंदी वैष्णव मठ में रहने की व्यवस्था की गयी, क्योंकि वह स्कूल के पास था। वहाँ रह कर वैष्णवों के रहन-सहन, आचार-विचार को तो देखा ही, पहली बार किसी कबीरपंथी साधु को भी वहीं देखा। तब तक ऐसा कुछ नहीं था कि आगे चल कर कबीर का विशेष अध्ययन करना है। बहुत पढ़ने का यह नतीजा होना ही था कि ख़ुद लिखने की इच्छा हो, हरेक की तरह शुरुआत कविता से ही की। पहली कविता १९६६ में रची, जो आज भी बस उस कॉपी तक ही है, जहाँ लिखी गयी थी। फिल्म देखने के शौकीन पुरुषोत्तम जी, इसी तरह फ़िल्मों की समीक्षा भी कॉपी तक ही सीमित लिखने लगे। कालेज पहुँचे तो रचनात्मकता थोड़ी व्यवस्थित हुई। कालेज में निबंध व कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार मिलने लगे, वाद-विवाद के तो वे चैंपियन ही हो गये। अपने कालेज और यूनिवर्सिटी के प्रतिनिधि के तौर पर जयपुर, भुवनेश्वर, तिरुपति आदि गये।
ग्वालियर से इतिहास में आधा और राजनीति विज्ञान में पूरा एम.ए. करने के बाद १९७७ में जेएनयू दिल्ली पहुँचे। एम.ए. हिन्दी में दाख़िला लिया, और पहले ही सेमेस्टर में कबीर पर पेपर लिखने से जो सिलसिला शुरू हुआ। कबीर से, भक्ति-कविता और उसमें निहित सहज विवेक, देशज आधुनिकता सो आज तक जारी है।
पुरुषोत्तम की खोज धर्मेतर अध्यात्म (Spirituality beyond Religion) की है। उनके अनुसार- कबीर इसी खोज की आवाज हैं, और उनके शब्द, सिर्फ हम भारतीयों के दिलों में ही नहीं, दुनिया भर के लोगों के दिलों में जगह बनाते हैं। पुरुषोत्तम जी के अनुसार- “कबीर बेधड़क नैतिक साहस के प्रतीक हैं, सहस्राब्दी (मिलेनियम) के सुपरस्टार हैं।”
पुरुषोत्तम जी कविताएँ लिखते रहे हैं, लेकिन ख्याति उन्हें चिंतक, आलोचक और इतिहासकार के रूप में ही अधिक मिली है। उन्होंने प्रकाशित भी अपनी बहुत ही कम कविताएँ की हैं।
कृष्ण पर उनकी लिखी कविता जो कुछ अलग है और मीरा की भक्ति पर आधारित है उसकी कुछ पंक्तियां- (मेवाड़ में कृष्ण)
तुम आई भी सखी
सांवरे समुद्र में समाने
मैं तो वहां नहीं था
उदय की खोज में
मैं तो चला गया था...
इन पंक्तियों से उनकी अलग सोच बताती है कि वे मीरा की भक्ति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। वे मानते हैं कि उनके चिंतन के अधिकांश मूल सूत्र ‘विचार का अनंत’ (२०००) में हैं, जिनका विस्तार बाद की किताबों में हुआ है।
सिनेमा में उनकी दिलचस्पी बराबर बनी रही है, हालाँकि आजकल इस बारे में लिखते कम हैं। सिनेमा संबंधी उनके लेखों का संकलन ‘बदलती सूरत’, ‘वक़्त की बदलती मूरत’, ‘वक़्त की ईबुक’ के रूप में ‘नोटनुल’ से प्रकाशित है। उन्होंने बीबीसी के मशहूर सीरियल ‘यस प्राइम मिनिस्टर’ का भारतीय रूपांतरण भी किया है। आजकल भी उनके मन में कुछ फ़िल्म स्क्रिप्ट आइडियाज़ चल ही रहे हैं।
कबीर और जायसी जैसे कवियों के माध्यम से देशज आधुनिकता पर लिख रहे हों, या महाभारत पर; हिन्दू धर्म पर लिख रहे हों, या गांधी-नेहरू पर, पुरुषोत्तम जी की चिंता के केन्द्र में हैं- मानवीय विवेक के ऐतिहासिक विकास-क्रम को समझना, उस पर आधारित सार्वभौम मानवीय-मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रयास करना। यह प्रयास उनके इतिहास लेखन, आलोचना कर्म और रचनात्मक लेखन के साथ ही उनके समाज कर्म और राजनीतिक टिप्पणियों के भी केन्द्र में सदा ही रहता है।
पुरुषोत्तम जी इन दिनों कथा-साहित्य की ओर वापस लौटे हैं। उनकी कहानियाँ खासी चर्चित रहीं हैं। उनके पहले उपन्यास ‘नाकोहस’ को हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका मृदुला गर्ग जी ने "हमारे समकाल के बदलते परिदृश्य की जादुई-सी दीखती, पर हर मायने में सटीक तस्वीर" कहा है।
इन शब्दों से यही ज्ञात होता है की उनकी सोच गहराइयों को छूती है, जो सामने दिख रहा है वो तो बस एक दृश्य है। वे दूर तक सोचते हैं, भविष्य की घटना को समझ उस गहराई में वो गोता लगाते हैं; और अपने शब्दों के भंडार से समाज के सामने परोसते हैं। पुरुषोत्तम जी का लेखन अंतर्वस्तु की दृष्टि से विभिन्न और विशाल है। ‘नाकोहस’ भी इसी तरह की घटनाओं से है, जिसमें दशकों पहले आहत भावनाओं की हिंसक राजनीति के बढ़ते संकटों पर टिप्पणी करते हुए एक व्यंग्य उपन्यास लिखा। नाकोहस नयी-नयी गढ़ी जा रही वास्तविकता की पड़ताल के लिए गढ़े गए बौनेसर और ऐसे अनेक विचारोत्तेजक शब्दों के कारण भी सभी का ध्यान आकर्षित करता है।
संदर्भ
- सीधी वार्त्ता- प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी से
- यू-ट्यूब चैनल
- कबीर- कबीर
- नाकोहस
आदरणीया पूनम जी,
ReplyDeleteचिंतक और आलोचक श्री पुरुषोत्तम जी के आलेख की शुरुवात ही इतनी रमणीय है कि पूर्ण लेख पढ़ने की धार बनी रहती है। पुरषोत्तम जी के जीवनी और कृतित्व को भलीभांति उजागर किया गया है। उनके रचनात्मक कार्य सिद्धि की महानता को जानकर हमारे ज्ञान में वृद्धि कराने हेतु आपका आभार। पुरुषोत्तम जी का निरंतर पाठन ही अंतर्वस्तु की गहराइयों को समझकर लिखने के लिए प्रवृत करता है जो एक अच्छे साहित्यकार की पहचान है यह आपके लेख से वृस्तत हो रहा है। आज आपके द्वारा उन्हें उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य में अनगिनत बधाईयां और मंगल कामनाएं देने का अवसर मिला इसके लिए आपका धन्यवाद और आदरणीय पुरुषोत्तम जी को अवतरण दिवस की ढ़ेरों बधाइयां। आप हमेशा स्वस्थ रहे, व्यस्त रहे और मस्त रहें यही मंगल कामना।
पूनम जी, पुरुषोत्तम अग्रवाल जी पर आपका आलेख अच्छा लगा और उनके बारे में जानकारी प्राप्त करके मन समृद्ध हो गया। सुंदर लेखन के लिए आपको ख़ूब बधाई और आभार।
ReplyDeleteआदरणीय प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी को जन्मदिन की बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteपूनम जी ने बहुत अच्छा लेख लिख कर साहित्यकार तिथिवार परिवार की ओर से प्रो. अग्रवाल को ये शब्द पुष्पकी सुंदर भेंट दी है। पूनम जी आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
पूनम जी,हार्दिक बधाई, आदरणीय पुरुषोत्तम अगरवाल जी के बारे में अच्छी जानकारी मिली।
ReplyDeleteपूनम जी, आपने पुरुषोत्तम जी के व्यक्तित्व को समेटता बड़ा अच्छा आलेख लिखा है। कबीर को लेकर उनकी विचार शैली अत्यंत प्रभावी व उन्नत है। आपको बधाई व शुभकामनाएँ।
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