Thursday, August 18, 2022

गुलज़ार : एक निराला साहित्यकार

 

जंगल-जंगल बात चली है पता चला है,
चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है।

बड़े अनोखे बोल हैं! फूल चड्डी पहनकर खिल उठा है! ये कैसे बोल हैं! यह कैसे संभव है! यह विचार सभी के मस्तिष्क में आता ही है। एक समय था, जब इतवार की सुबह सभी बच्चे टी. वी. के सामने ‘मोगली’ देखने बैठ जाते थे और लगभग सभी घरों से इस धारावाहिक का यह गाना सुनाई देता था। बच्चों के साथ बड़े-बूढ़े सभी आनंद से इसे सुनते हुए दिन की शुरुआत करते थे । 
 
‘तुम आ गए हो, नूर आ गया है‘, ‘इस मोड़ पे जाते हैं, कुछ सुस्त क़दम रस्ते , कुछ तेज़ क़दम राहें’, ‘मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना’ - जैसे गंभीर और दार्शनिक भावों को शब्दबद्ध करने वाला रचनाकार गुलज़ार - ‘चल छैंय्या छैंय्या, छैंय्या छैंय्या’, ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना’ - जैसे जोश भरे गानों, जिनकी धुन पर युवा वर्ग दीवानों की तरह थिरकता है, का गीतकार भी हो सकता है!
गीतकार मात्र बोल लिखता है, संगीतकार उसे संगीत और धुन में पिरोता है और गायक उसे स्वरबद्ध करता है, लेकिन गुलज़ार के हर गाने में उनकी झलक साफ़ दिखती है। गुलज़ार के बहुआयामी, विविध विषयों पर लिखे गीतों से उनके जीवन की कुछ रोचक बातें जुड़ी हैं; आइए,  हम साथ में उन्हें जानें। 
 
जीवन परिचय: गुलज़ार का पूरा नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। उनका जन्म सन् १९३४ में १८ अगस्त को पाकिस्तान के पंजाब के दीना नामक गाँव में, एक सिख परिवार में हुआ था। भारत के विभाजन के बाद वे पहले दिल्ली में रहे और फिर बॉम्बे में आ बसे। वे अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान थे। उनकी माँ बचपन में ही चल बसी थीं। माँ के आँचल की छाँव और पिता के दुलार से वे वंचित रहे। नौ भाई-बहनों में वे चौथे नंबर पर थे। 
 
उनकी प्रेरणा: एक रोचक बात यह है कि, लेखक बनने से पहले वे बॉम्बे में एक मोटर गैरेज में, एक छोटे मेकेनिक के रूप में काम करते थे, जहाँ वे दुर्घटनाग्रस्त कारों को पेंट किया करते थे। उनको पढ़ने का बहुत शौक़ था, वे  खाली समय में पुस्तकें पते और कविताएँ लिखते थे।
 
भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के बाद रिफ़्यूजियों ने छोटी-छोटी खोलियाँ बनाकर रहना शुरू कर दिया था। एक रिफ़्यूजी ने एक छोटा-सा पुस्तकालय बनाया, जहाँ वह हफ़्ते में चार आने के हिसाब से किताबें किराये पर देता था और अख़बार भी बेचा करता था। शुरुआत में गुलज़ार जासूसी, तिलस्मी और डाकू-संबंधी कहानियों की किताबें लालटेन की रोशनी में बैठे पढ़ते थे। जब उन्होंने उस पुस्तकालय की एक-एक कर सभी पुस्तकें पढ़ डालीं तो पुस्तकालय वाला उनसे तंग आ गया और झुंझला कर अलमारी के ऊपर रखी हुई, धूल चढ़ी रवीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘द गार्डनर’ दी और कहा - ‘और पुस्तकें नहीं हैं मेरे पास, चार आने में तुमको और कितनी पुस्तकें पढ़ने दूँ।’ गुलज़ार कहते हैं कि, ‘उसे क्या पता था कि वह उस किताब को देकर मेरी ज़िन्दगी बदल रहा था।’ वह पुस्तक टैगोर की नज़्मों का अनुवाद थी। वे कहते हैं कि उस पुस्तक का कवर आज भी उनके स्मृति पटल पर अंकित है, उस पुस्तक का उन पर बहुत असर हुआ, उसके बाद से किताबों का चयन और उनको पढ़ने का उनका तरीक़ा बदल गया। उसी किताब को पढ़ने के बाद लेखन की ओर उनका झुकाव हुआ। उसके बाद उन्होंने टैगोर का समस्त साहित्य पढ़ा, शरद्चंद्र को पढ़ा तथा उनके लेखन को अपने जीवन में महसूस किया। उन्हें उससे बहुत हौसला मिला और उन्होंने बैतबाजी (फ़ारसी में अंत्याक्षरी) में भाग लेना शुरू कर दिया। उन्होंने शेर रटने और गढ़ने शुरू किए; वे ग़ालिब और इक़बाल के अच्छे-अच्छे शेर आत्मसात करने लगे और स्वयं को पूरी तरह से लेखन को समर्पित कर दिया। गुलज़ार अपने शब्दों में कहते हैं कि, ‘एक रात में कोई लेखक नहीं बन जाता, उसके लिए समय चाहिए।’ शुरू-शुरू में उनके पिता उनके इस निर्णय से ख़ुश नहीं थे और बड़े भाई भी चाहते थे कि वे कोई नौकरी करें ताकि घर में आर्थिक सहायता मिल सके। 

  

सिनेमा सफ़र:

गुलज़ार भारत के प्रसिद्ध पटकथा लेखक, गीतकार, फ़िल्म निर्देशक, निर्माता, नाटककार और शायर हैं।

पहले इनका उपनाम ‘गुलज़ार दिनवी’ था; बाद में इन्होंने केवल ‘गुलज़ार’ रहने दिया। गीतकार के रूप में इनकी पहली फ़िल्म  थी, सन् १९६३ में बनी – ‘बंदिनी’, जिसमें सचिन देव बर्मन ने उन्हें ‘मोरा गोरा अंग लईले’ गीत लिखने का प्रस्ताव दिया था। सन् १९७१ में बनी फ़िल्म ‘मेरे अपने’ इनकी निर्देशित पहली फ़िल्म थी। इन्होंने अपने बॉलीवुड करियर की शुरुआत, फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ की थी। ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू’- फ़िल्म ‘ख़ामोशी’ (१९६९) के इस गीत के बाद वे फ़िल्म  उद्योग में काफ़ी लोकप्रिय हो गए। वर्ष १९७१ की फ़िल्म ‘गुड्डी’ के लिए दो गाने लिखे थे, जिनमें से एक ‘हमको मन की शक्ति देना’ एक प्रार्थना है, जिसे आज भी भारत के कई स्कूलों में गाया  जाता है।    

गुलज़ार बचपन से ही बंगाली संस्कृति के बहुत क़रीब रहे हैं। वे कहते हैं कि  बंगाली संस्कृति, बंगाली लोग, बंगाली वेश-भूषा उन्हें अत्यंत प्रिय हैं। बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी से मिले स्नेह से इस प्रेम की शुरुआत हुई। बिमल रॉय को वे अपना गुरु मानते हैं, उनसे उन्हें पिता समान प्यार मिलता था और उन्हीं के कहने पर उन्होंने फ़िल्मों में गाने लिखना शुरू किया था। बिमल राय  गुलज़ार को गैरेज से यह कहकर निकालकर ले गए थे कि, यह तुम्हारी जगह नहीं है। 

गुलज़ार पहले सफ़ेद पैंट-बुशर्ट पहनते थे, फिर उन्होंने सफ़ेद धोती-कुरता और उसके बाद सफ़ेद पजामा-कुरता पहनना शुरू किया। मज़ाकिया लहज़े में वे यह भी कहते हैं कि अपने बंगाली प्रेम का प्रमाण देने के लिए उन्होंने बंगालन से शादी भी कर ली। वर्ष १९७३ में राखी से उनकी शादी हुई। उस समय वे दोनों फ़िल्म जगत में अपने-अपने करियर के शिखर पर थे। वर्ष १९७२ में आयी संजीव कुमार और जया भादुड़ी द्वारा अभिनीत फ़िल्म ‘कोशिश’, एक गूंगे बहरे दम्पति के जीवन पर आधारित कहानी है। इस फ़िल्म के निर्देशक और पटकथा-लेखक गुलज़ार हैं। इस फ़िल्म ने आलोचकों को भी हैरान कर दिया था। गुलज़ार कहते हैं कि इसका अनुभव प्राप्त करने के लिए वे गूँगों और बधिरों के संस्थान गए थे; उनकी सांकेतिक भाषा सीखी और फ़िल्म में उसका प्रयोग भी किया। 

गुलज़ार ने आँधी, मौसम, अंगूर, नमकीन, लिबास, इजाज़त, मीरा, लेकिन, किनारा, ख़ुशबू, हु तू तू जैसी अनेक फ़िल्में निर्देशित की हैं। ओमकारा, रेनकोट, पिंजर, दिल से, आँधी, दूसरी सीता, इजाज़त के लिए उन्होंने गीत लिखे। आँधी और मीरा चलचित्रों के लिए पटकथा और संवाद भी लिखे । 

गुलज़ार को लॉन टेनिस खेलने को बहुत शौक है। बांद्रा के एक क्लब की टेनिस टूर्नामेंट ट्रॉफी उनके नाम है। उन्होंने आर. डी. बर्मन, हेमंत कुमार, शंकर जयकिशन, एन. सी. सिप्पी, मदन मोहन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, अनु मलिक, राजेश रोशन, ए. आर. रहमान, विशाल भारद्वाज जैसे संगीतकारों के साथ काम किया है। प्रेरणा प्राप्त करने के लिए वे अन्य साहित्यकारों और  गीतकारों की रचनाएँ पढ़ते हैं और यथा सम्भव उनका प्रयोग भी करते हैं। उन्होंने अमीर खुसरो और कवि बुल्ले शाह के सूफ़ी लोक गीतों को भी समझने का प्रयास किया। उन्होंने वर्ष २००७ में मणी रत्नम की हिंदी फ़िल्म ‘गुरु’ का  गीत - ‘ऐ हैराथे आशिक़ी’ लिखने की प्रेरणा अमीर खुसरो की एक कृति से ली। फ़िल्म ‘दिल से’ ... का उनका बहुत लोकप्रिय गीत ‘छैंय्या छैंय्या’ बुल्ले शाह के सूफ़ी गाने पर आधारित है। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब (नसीरुद्दीन शाह अभिनीत), मुंशी प्रेमचंद (प्रेमचंद के उपन्यासों के बारे में) आदि कुछ टी.वी शृंखलाओं का भी निर्देशन किया है।                                     

गुलज़ार ने ‘नज़र में रहते हो’ गीत शांति-अभियान (अमन की आशा) के लिए लिखा था, जिसे भारत और पाकिस्तान के अग्रणी मीडिया हाउसों द्वारा संयुक्त रूप से शुरू किया गया था। यह गीत राहत फ़तेह अली ख़ान और शंकर महादेवन ने रिकॉर्ड किया था। गुलज़ार ने गज़ल विशेषज्ञ जगजीत सिंह की एल्बम ‘मरासिम’ (१९९९ ) और ‘कोई बात चले’ (२००६) के लिए ग़ज़लें लिखी हैं। उन्होंने ‘एलिस इन वंडरलैंड’, ‘गुच्चे’, ‘हैलो ज़िंदगी’, ‘पोटली बाबा की’ आदि कई टी. वी. शृंखलाओं के लिए संवाद और गीत भी लिखे हैं। जंगल बुक के लिए प्रसिद्ध गीत ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’, भुलाए नहीं भूलता। 

उनकी कविता की भाषा मूल रूप से उर्दू और पंजाबी रही है। हालांकि, ये खड़ीबोली, ब्रज भाषा, मारवाड़ी, हरियाणवी आदि में भी लिखते हैं । 

गुलज़ार की कविताओं को ३ संकलनों में प्रकाशित किया गया है – ‘रात पश्मीना की’, ‘चाँद पुखराज का’ और ‘पंद्रह पाँच पचहत्तर’। वे त्रिवेणी छ्न्द के सर्जक हैं। अपने ८१-वें जन्मदिन पर उन्होंने त्रिवेणी का आविष्कार किया और उनका कहना है कि ये गंगा, यमुना और सरस्वती के समान हैं, जो एक दूसरे में मिलकर एक विचार को पूर्ण करते हैं ।

उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा

देर तक हाथ हिलाती रही वह शाख़ फ़िज़ा में

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?


वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन

जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था 

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं ।



विविध विषयों, शैलियों, भावों और भाषाओं पर पूर्ण अधिकार रखने वाले गुलज़ार ऐसे अनोखे साहित्यकार हैं, जो अपनी गज़लों, त्रिवेणी छन्दों, फ़िल्मों, नग़मों, शायरी के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने प्यार, स्नेह, ममता, पति-पत्नी के आपसी संबंधों आदि अशेष संदर्भों के लिए गीत लिखे और उत्कृष्ट साहित्यकार के रूप में अपना जो व्यक्तित्व बनाया है, वह अनुपम है। अपने नाम को वे अक्षरश: सार्थक करते हैं। 

उनके शब्दों में : 

टूट जाना चाहता हूँ, बिखर जाना चाहता हूँ,

मैं फिर से निखर जाना चाहता हूँ,

मानता हूँ मुश्किल है,

लेकिन मैं गुलज़ार होना चाहता हूँ ।


चंद शेर जो मुझे भा गए :

मोहल्ले की मोहब्बत का भी

अजीब फ़साना है,

चार घर की दूरी है

और बीच में सारा ज़माना है


दुपट्टा क्या रख लिया सर पे,

वो दुल्हन नज़र आने लगी,

उसकी तो अदा हो गयी,

जान हमारी जाने लगी ।


ग़ैर क्यों ले जा रहे हैं अपने कंधे पर,

अरे हाँ मेरे अपने तो क़ब्र खोद रहे हैं ।


अनूप भार्गव जी की स्मृतियाँ:

हमारे इस समूह के सदस्य, स्वयं एक सशक्त कवि और तकनीक-विशेषज्ञ अनूप भार्गव यूँ तो अनेक बार गुलज़ार से मिले हैं, परन्तु वर्ष २००८ में उन्हें गुलज़ार के साथ मंच साझा करने का सौभाग्य मिला। अपने उस अनुभव को एक साक्षात्कार में साझा करते हुए वे कहते हैं, ‘गुलज़ार जी के साथ एक मंच पर बैठना ऐसा लगा मानो, पुजारी को आराध्य के साथ बैठा दिया गया हो।’ दूसरे दिन होटल की लॉबी में उनको गुलज़ार से बातचीत करने का मौक़ा मिला। उसके दौरान उन्होंने गुलज़ार के साहित्य-समर्पण को देखा और यह जाना कि एक अच्छा इंसान कैसा होता है, उसे बारीकी से समझने का प्रयास किया।  


गुलज़ार – एक संक्षिप्त परिचय 


नाम


संपूर्ण सिंह कालरा 


उपनाम


गुलज़ार दिनवी, गुलज़ार


जन्म


१८ अगस्त, सन् १९३४  


स्थान


दीना, पंजाब, पाकिस्तान 


पेशा


दुर्घटनाग्रस्त कारों की पेंटिंग


भाई-बहन


नौ भाई-बहनों में चौथे 


पत्नि


राखी 


संतान


एक बेटी 


साहित्य प्रेरणास्त्रोत


रवीन्द्रनाथ टैगोर – ‘द गार्डनर’


फ़िल्म जगत के प्रेरणास्रोत


बिमल रॉय

       

 

       व्यवसाय

    

    


पटकथा लेखक

गीतकार

फ़िल्म निर्देशक   

निर्माता

नाटककार

शायर

 

 

 

        पुस्तकें



चौरस रात (लघु कथाएँ, १९६२)

जानम (कविता संग्रह, १९६३)           

एक बूँद चाँद (कविताएँ, १९७२)

रावी पार (कथा संग्रह, १९९७)               

रात (२००२ )                                      

चाँद और मैं (२००२)                           

रात पश्मीने की (२००३)                    

ख़राशें (२००३)


पुरस्कार एवं सम्मान

वर्ष २००२साहित्य अकादमी पुरस्कार 

वर्ष २००४ - भारत सरकार - तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान – (कला) - पद्म भूषण 

वर्ष २००९ - ऑस्कर 

वर्ष २०१० -  ग्रैमी 

वर्ष २०१३ - दादा साहब फाल्के 

वर्ष १९७१,१९७७, १९८०, १९८३, १९८८, १९९८, २००२, २००५ - फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार 

       

भाषा


उर्दू 

पंजाबी 

खड़ीबोली हिंदी 

ब्रज भाषा  

मारवाड़ी 

हरियाणवी


   

छंद – सर्जक 



त्रिवेणी

संदर्भ : 
  1. https://youtu.be/lHwdYz7EpMg

  2. https://youtu.be/eJQ0sh-BU_8

  3. https://youtu.be/gguWTJi9Veo

  4. https://scroll-in.translate.goog/article/749353/trivenis-on-gulzars-81st-birthday-twelve-poems-in-a-form-of-his-invention?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc,sc

  5. https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B0_(%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0)

  6. https://web.archive.org/web/20121112063608/http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B0/%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%87-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B0-1080818037_1.htm

  7. https://thesimplehelp.com/gulzar-shayari/

  8. https://hindihainhum.co.in/gulzar-shayari/

  9. https://hindi.starsunfolded.com/gulzar-hindi/ 

                       

लेखक:


डॉ कामेश्वरी हैदराबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए, एम.फिल एवं पी एच डी की उपाधि प्राप्त की है। अनुवाद में पी जी डिप्लोमा और दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से इन्होंने संस्कृत में एम.ए किया है। इनके पठन-पाठन और साहित्यिक योगदान के लिए ये बी एन शास्त्री मेमोरियल अवार्ड, `उत्तम अध्यापक’ पुरस्कार’, `उत्कृष्ट महिला पुरस्कार’ प्राप्त कर चुकी हैं।   Kameswari.sahitya@gmail.com 


14 comments:

  1. आपने बहुत संतुलित और सब कुछ को समेट लेने वाला लेख लिखा है डॉ कामेश्वरी जी. हार्दिक बधाई.

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  2. जी । धन्यवाद ।

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  3. वाह.. वाह... बहुत ही शानदार और बहुत ही चर्चित शख्सियत पर आपका यह लेख पढ़ने मिला जो बहुत ही सुन्दर शब्दावली,  ज्ञानवर्धक और जीवन की कठिनाइयों को झेलते हुए कैसे आगे बढ़ा जा सकता है वह सीखा रहा है। गुलजार साहब के बारे में इतने कम शब्दों में लिखकर उन्हें पूरी तरह से पाठकों के सामने रखना काबिले तारीफ है। अतिविस्तृत
    लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और अभिनन्दन l गुलजार जी के अवतरण दिवस की उन्हें हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाएंl

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  4. कामेश्वरी जी, आपका लेख गुलज़ार साहब के रचना-संसार की प्रासंगिकता बच्चों से लेकर किसी भी उम्र तक के लोगों के लिए है, इस तथ्य को बख़ूबी दर्शाता है; साथ ही उनके जीवन की छोटी-सी सही पर सुहानी सैर करवाता है। गुलज़ार साहब को सालगिरह मुबारक हो, हमें उनकी रचनाओं का अभी दर्जनों वर्ष इंतज़ार रहेगा। आपको इस सुंदर लेखन की बधाई और आभार।

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    1. जी । आलेख लिखते समय मैं स्मृतियों में खो गई ।

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  5. गुलज़ार ऐसे कलाकार और साहित्यकार हैं, जो जीते जी लेज़ेंड बन गए हैं। इन्होंने हर पीढ़ी के लोगों को अपने गीतों से छुआ है। इनकी लम्बी उम्र और रचनात्मक सक्रियता बनी रहने की कामना करती हूँ। कामेश्वरी जी, आपने सरल भाषा में रोचक तथ्यों के साथ गुलज़ार पढ़वाया हमें। इस शानदार आलेख के लिए आपको धन्यवाद और बधाई।

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  6. सुंदर आलेख है, कामेश्वरी जी। आपने गुलज़ार साहब की ज़िन्दगी और काम के महत्वपूर्ण हिस्सों की सुंदर प्रस्तुति की है। बधाई। 💐💐 हम इन्हें कॉलेज के जमाने में “गुलज़ारी लाल ज़ालिम”कहा करते थे। ज़ालिम वह शायर होता है जो एक शे’र, एक नज़्म, एक ग़ज़ल कहकर आपका सब कुछ लूट लेता है। कुछ नहीं रहता आपके पास। गुलज़ार साहब ऐसे शायर हैं। फ़िल्म तो इनकी एक भी नहीं छोड़ी। जितना यह कहना चाहते थे, उससे ज़्यादा तो हम इन्हें सुनना चाहते थे। कितने शायर हैं दुनिया में जो आदमी के दिल की धड़कन को, एक मोहल्ले के चाल-चलन को, एक समाज के तौर-तरीक़ों को, पूरी क़ौम के जज़्बे को एक शेर, एक नज़्म में कह दें ? नायाब हीरा हैं गुलज़ार। हाल-चाल ठीक-ठाक है से दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन तक सब ज़ुबानी रटे हुए हैं बिना किसी प्रयास के। चप्पा चप्पा चरखा चले जैसे गीत क्या याद रखने की कोशिश करनी पड़ती है ? 😊
    मैं कुछ देर में उनके ग़ैर फ़िल्मी माणिक-मोती पेश करता हूँ आप सबके लिये।गुलज़ार साहब जिएँ हज़ारों साल, साल के दिन हों पचास हज़ार! 💐💐

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  7. अत्यंत सरल और सहज भाषा में मेरे सबसे प्रिय लेखक, कवि एवं गीतकार के बारे में पढ़कर मन अत्यंत आनंदित हो गया. धन्यवाद

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  8. कामेश्वरी जी नमस्ते। आपने गुलज़ार साहब पर बेहद उम्दा लेख लिखा है। गुलज़ार साहब को पढ़ना, सुनना जितना आनंद देता है उतना ही आंनद आपका यह लेख पढ़कर मिलता है। आपने लेख की तय सीमित सीमा में गुलज़ार साहब पर विस्तृत जानकारी दी। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  9. गुलज़ार जैसी शक्सियत पर पर वही लिख सकता है जो स्वंय भी उसी लय तरंग में रचा बसा हो जिस तरंग पर गुलज़ार की शब्दलहरियाँ थिरकती हैं । कामेश्वरी जी को हार्दिक बधाई इतने सुरीले आलेख के लिये ।

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