हिंदी साहित्य के एक युग-पुरुष, डॉ० रामदरश मिश्र ९८ वर्ष पूरे करके ९९वें में प्रवेश कर रहें हैं। रामदरश जी ने गाँवों, क़स्बों और शहरों में जन-साधारण के बीच रहते हुए अनुभवों का एक विशाल कोष संचित किया है। ये अपने जीवन के उतार-चढ़ाव को अपने लेखन के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाते रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी इनकी सृजनशीलता जारी है। आज भी ये साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श मंडल के सदस्य हैं, यह हिंदी का सौभाग्य है। उनके जीवन लेखन को उनका यह कथन और अधिक स्पष्ट करता है, "सपने पालता हूँ, अपने लिए, समाज के लिए, देश के लिए; वे छीन लिए जाते हैं, छीनकर किसी और को दे दिए जाते हैं या तोड़ दिए जाते हैं - अपनों द्वारा भी और दूसरों द्वारा भी… लेकिन न जाने क्या है कि मैं टूटा नहीं, बिखरा नहीं, मिट-मिटकर बनता हूँ, गिर-गिरकर उठता गया हूँ, भटक-भटककर रास्ते पर आ गया हूँ।"
रामदरश मिश्र का जन्म उत्तरप्रदेश के गोरखपुर ज़िले के कछार अंचल के डुमरी गाँव में हुआ। इनके मन में साहित्य के बीज घर में ही पड़ गए थे। उनमें खाद-पानी का काम साहित्य-प्रेमी बड़े भैया, शिक्षकों, गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी, दोस्तों और गाँव के स्वाभाविक माहौल ने किया। माँ बहुत अच्छा गाती थीं और लोक-कथाओं की ज्ञाता थीं। कवित्व की भावुकता उन्हें पिता से मिली। जल्दबाजी करके बहुत कुछ पा लेने की भागदौड़ से ये हमेशा बचते हैं। अपने इस मिज़ाज को इन्होंने एक ग़ज़ल में व्यक्त भी किया है,
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।
मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।
स्कूल में प्रवेश लेने से पहले घर पर अक्षरज्ञान प्राप्त करने की इनकी कहानी बड़ी मर्मस्पर्शी है। बड़े भाई-बहिन और कुछ अन्य लोगों ने इन्हें अक्षर-माला सिखाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन बात कुछ बनी नहीं। भला अपने बालक को माँ से बेहतर कोई और समझ सकता है! माँ ने कोई तैयारी नहीं की; बालक रामदरश को अपने पास बैठाकर उसके सामने राख फैलाकर, उसकी उंगली पकड़कर 'क' लिखवाया। माँ के स्पर्श से भीतर की सोई हुई या अवरुद्ध चेतना अपनी ऊष्मा फेंकने लगी। ऐसा चमत्कार हुआ कि रामदरश ने सात-आठ दिन में पूरी वर्णमाला सीख ली और उसके बाद अध्ययन-यात्रा सहज भाव से चल पड़ी। पढ़ाई में वे हमेशा तेज रहे, यह अलग बात है कि अँग्रेज़ी में रुचि न होने के कारण मैट्रिक में अँग्रेज़ी में फ़ेल हुए थे।
छठी कक्षा में एक सहपाठी के यह कहने पर कि उसके गाँव का एक लड़का कविता लिखता है, रामदरश के भीतर से कविता लिखने की एक ललकार उठी। उसी दिन बिशुनपुरा में हुई कांग्रेस सभा को आधार बनाकर एक राष्ट्रीय कविता लिखी। फिर गीत और कविता-लेखन का सिलसिला चलता रहा। सहपाठियों ने इन्हें स्कूल में ही कवि कहना शुरू कर दिया था और बाहर भी एक कवि के रूप में इनकी पहचान बनती गई। जब ये स्कूल में थे, तभी एक अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में हरिवंश राय बच्चन, श्यामनारायण पांडे और गयाप्रसाद शुक्ल सनेही जैसी बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ इन्होंने कविता पढ़ी थी। सन १९४२ के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में बड़े जोश से 'तिमिर घनेरा हिंद भी तजेगा अब' तथा अन्य कई क्रांतिकारी कविताएँ सुनाईं, जिनकी वजह से ये गिरफ्तार होने से बाल-बाल बचे थे।
वर्ष १९४५ में मैट्रिक की पढ़ाई के लिए बनारस आए और लगभग अगले दस वर्षों में बनारस विश्वविद्यालय से कॉलेज-शिक्षा तथा आगे की पढ़ाई जारी रखते हुए पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। यहाँ नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, विश्वनाथ त्रिपाठी और अन्य बुद्धिजीवियों के साथ इनका उठना-बैठना होता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक प्रिय शिष्य रहे रामदरश जी को बनारस में अच्छा साहित्यिक माहौल मिला, लेकिन वहाँ कठिनाइयाँ भी कम नहीं थीं। छात्रवृत्ति और अध्यापन के पैसे समय पर न मिलने से घर अक्सर उधार पर चलता था। उन्हीं दिनों की बात है - रात के समय में साइकिल में लैंप न होने के कारण जेब की सारी पूँजी आठ आने जुर्माने स्वरूप देनी पड़ी। अगली बार फिर ऐसे ही पकड़े गए और तब जुर्माने के लिए अठन्नी भी न होने के कारण साइकिल छोड़नी पड़ी। बाद में पैसों का इंतज़ाम होने पर दो रुपये जुर्माना भरकर साइकिल छुड़वाई थी। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ छप रही थीं, बाहर की सम्मानित पत्रिकाओं में उनके छपने के लिए श्रम जारी था। कविताएँ लौट आती थीं। फिर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सुझाव से डाक-टिकट पर खर्च बढ़ाकर और अधिक जगह छपने के लिए भेजने लगे। इनकी कविताएँ धीरे-धीरे 'कल्पना', 'आजकल', 'नया पथ', 'अवन्तिका', 'अजंता', 'युग-चेतना', 'नई कहानी', 'प्रवाह' तथा अन्य दूसरी पत्रिकाओं में छपने लगीं। मिश्र जी नौकरी बनारस में करना चाहते थे, लेकिन नियति को कुछ और स्वीकार था। सन १९५६ से १९६४ तक गुजरात विश्वविद्यालय में अपनी सेवा दी। वर्ष १९६४ में दिल्ली के पीजीडीएवी कॉलेज में अध्यापन और दिल्ली विश्वविद्यालय से सन १९९० में प्रोफ़ेसर के रूप में सेवामुक्त हुए।
रामदरशजी के लेखन पर छायावाद, प्रगतिवाद और मार्क्सवाद का प्रभाव है, लेकिन इन्होंने किसी भी वाद को अपने पर हावी नहीं होने दिया। वे सारे वाद-विवादों से अलग अपनी धुन में सहजभाव से लिखते रहे हैं। मानवीय मूल्यों के पक्षधर रामदरश मिश्र की संवेदना मानव-पीड़ा, मानव-शोषण से है। धर्मनिरपेक्षता पर उनकी कविता की पंक्तियाँ हैं,
यह किसका घर है? हिंदू का
यह किसका घर है? मुसलमान का
यह किसका घर है? ईसाई का
शाम होने को आई
सवेरे से ही भटक रहा हूँ
मकानों के असीम जंगल में
कहाँ गया वह घर,
जिसमें एक आदमी रहता था।
उपन्यास, कहानी और कविताओं में मिश्र जी ने आंचलिकता और यथार्थ दिखाया है। इनके लिए गाँव का बड़ा महत्त्व है, वह इनके भीतर समाया हुआ है; इसे इन्होंने आर-पार जिया है। मिश्र जी ने जो देखा, जो जिया, वही लिखा है। 'पानी' इनका एक प्रिय विषय है। इनके अनुसार पूरे परिवेश को बनाने-बिगाड़ने में पानी की अहम भूमिका है। इन्होंने बचपन में गाँव में पानी के सुंदर और भयंकर दोनों रूप देखे हैं। गाँव के एक तरफ़ 'राप्ती' और दूसरी तरफ 'गोर्रा' नदियों में बाढ़ की तबाही से ज़िंदगियों को डूबते और फिर मनुष्य की कर्मठता से उन्हें उभरते देखा है। पानी पर इनके चार उपन्यास हैं, 'पानी के प्राचीर', 'जल टूटता हुआ', 'सूखता हुआ तालाब' और 'आकाश की छत'। 'पानी के प्राचीर' उपन्यास में स्वाधीनता से पहले के उत्तरप्रदेश का गाँव और 'जल टूटता हुआ' में स्वाधीनता के बाद का गाँव दिखाया है। 'सूखता हुआ तालाब' में गुजरात के ग्रामजीवन की बदलती सोच व्यक्त है। दिल्ली की भीड़ में भी 'आकाश की छत' उपन्यास पानी पर लिखा। इसमें दिल्ली में आई बाढ़ का वर्णन है, जिसमें घरों की छतें ज़मीन और आकाश छत बन जाता है।
१६ वर्ष की उम्र में रामदरश जी की पहली शादी हुई थी। शादी के दो वर्ष पश्चात प्लेग से पत्नी इस दुनिया से चली गईं। उसके कुछ वर्ष बाद दूसरी शादी सरस्वती जी से हुई। इन्होंने पत्नी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आत्मजीवनी में लिखा है, "मेरी पत्नी ने मेरे जीवन के तमाम विष को अपने भीतर उतारा है और मुझे अमृत दिया है। उनके द्वारा गृह-जंजाल से निश्चिंत कर दिए जाने के कारण ही मेरा इतना लिखना-पढ़ना संभव हो सका है…वे एक साथ पत्नी, प्रेयसी, साथी सब कुछ हैं।" इतना ही नहीं, इन्होंने पत्नी को समर्पित एक उपन्यास 'एक बचपन यह भी है' भी लिखा है। पत्नी की दिनचर्या और पति-पत्नी के संबंधों पर भी मिश्र जी ने कविता लिखी है,
लगे बोलने कामकाज, है मौन हो गई बानी
कौन सुने अब कौन सुनाए सब जानी-अनजानी
कहते-सुनते, सुनते-कहते साथ-साथ सुख-दुख में बहते
अब तो प्रिय हो गई मेरी-तेरी एक कहानी
घिसते-घुलते स्वयं परस्पर हम हो गए ख़ुशबूघर
पता नहीं अब कौन है चंदन और कौन है पानी…
बोलचाल की भाषा में कविता लिखने वाले रामदरश जी की कविताओं में नारी के माँ-रूप का विशेष स्थान रहा है,
माँ
चेहरे पर
कुछ सख़्त अँगुलियों के दर्द-भरे निशान हैं
और कुछ अँगुलियाँ
उन्हें दर्द से सहलाती हैं।
कुछ आँखें
आँखों में उड़ेल जाती हैं रात के परनाले
और कुछ आँखें
उन्हें सुबह के जल में नहलाती हैं।
ये दर्द-भरी अँगुलियाँ
ये सुबह-भरी आँखें
जहाँ कहीं भी हैं
मेरी माँ हैं।
माँ, जब तक तुम हो
मैं मरूँगा नहीं।
ऐसा कवि हृदय है रामदरश जी का, कि किसी भी शादी में लड़की की विदाई के समय ये इधर-उधर किसी कोने में छिपकर रोते हुए पाए जाते हैं। बड़ी बहन का ससुराल में सताया जाना और उसकी मृत्यु इनके लिए समस्त नारी-जाति की पीड़ा बन गई है। इसकी एक बानगी है, वास्तविक घटनाओं पर आधारित उपन्यास 'बिना दरवाज़े का मकान'। इसमें मिश्र जी ने नायिका दीपा के माध्यम से एक सशक्त नारी-चरित्र प्रस्तुत किया है। स्वाभिमानी दीपा स्वयं की, पति की रक्षा करती है और न जाने कितने लोगों की सहायता करती है। उपन्यास का नाम प्रतीकात्मक है। इसमें दिखाया है कि सामाजिक असुरक्षा इतनी बढ़ी हुई है कि मकान में दरवाज़ा है या नहीं, इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता। रामदरशजी के साहित्य की एक बड़ी विशेषता सरल एवं सहज भाषा में लेखन है, जो इस उपन्यास में भी दृष्टव्य है।
आत्मकथा 'समय है सहचर' इन्होंने आत्मकथा लिखने के इरादे से नहीं लिखी। हुआ यह कि इन्होंने शोध-छात्रों और पाठकों को जीवन-परिचय देने के लिए एक लंबा लेख 'जहाँ मैं खड़ा हूँ' लिखा। वह लेख पाठकों द्वारा इतना सराहा गया कि उसके बाद 'रौशनी की पगडंडियाँ', 'टूटते-बनते दिन' और 'उत्तर-पथ' - ये तीन खंड रचे। पहले ये खंड अलग-अलग प्रकाशित हुए। बाद में उन्हें जोड़कर 'सहचर है समय' नाम से वर्ष १९९१ में आत्मकथा प्रकाशित हुई, जिसमें बचपन से लेकर तात्कालिक जीवन तक के उतार-चढ़ाव का वर्णन है। यह एक सामाजिक दस्तावेज़ है, जिसमें देश की सामाजिक और साहित्यिक घटनाओं के साथ-साथ आपातकाल, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या और अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं की याद दिलाई गई है। इसके बाद एक और आत्मकथात्मक पुस्तक, वर्ष २००० में 'फ़ुर्सत के दिन' प्रकाशित हुई है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों और सम्मानों से सुशोभित रामदरश मिश्र जी को काव्य-संग्रह 'मैं तो यहाँ हूँ' के लिए वर्ष २०२१ में 'सरस्वती सम्मान' से नवाज़ा गया। यह के० के० बिड़ला फाउंडेशन द्वारा वर्ष १९९१ में शुरू किया गया था, जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं के लेखकों को दिया जाता है। अब तक हरिवंशराय बच्चन और गोविंद मिश्र के बाद, यह सम्मान प्राप्त करने वाले हिंदी के ये तीसरे लेखक हैं। इस काव्य-संग्रह की पहली कविता हमारे देश के सांप्रदायिक माहौल पर करारी चोट है, ईश्वर -
ईश्वर तो एक ही है
पर संसार में आकर
भिन्न-भिन्न धर्मों के लिए
जुदा-जुदा हो गया
हिंदूओं के लिए भगवान
ईसाइयों के लिए गॉड
और मुसलमानों के लिए ख़ुदा हो गया
सभी कहते हैं ईश्वर एक है
किंतु सभी एक दूसरे के ईश्वर पर
प्रहार करते हैं
वे ईश्वर को ईश्वर से मार कर
ईश्वर से प्यार करते हैं।
सुपरिचित कवि ओम निश्चल द्वारा मिश्र जी से यह पूछे जाने पर कि आपने सौ के क़रीब किताबें लिखी हैं, पर फिर भी क्या कुछ कहना बाक़ी रह गया है? इनका जवाब था - न मैंने योजना बनाकर जीवन जिया, न लेखन किया, क्या कहना और रह गया, मैं इसके बारे में नहीं सोचता। मैं तो समय के साथ चलता गया, अपने अनुभव लेखन में उतारता रहा हूँ। क्या नया अनुभव होगा, यह तो समय ही दिखाएगा। आगे कहते हैं, "मुझमें अभी भी एक नादान बच्चा है, जो मुझे बूढ़ा नहीं होने देता।" सच में ये अभी भी 'कविता के रंग रामदरश मिश्र के संग' नाम से एक साप्ताहिक ऑन-लाइन काव्य-गोष्ठी में अपनी कविताएँ, ग़ज़लें और मुक्तक सुनाते हैं और दूसरों की सुनते हैं।
रामदरश मिश्र जी के साहित्य पर अनेक समीक्षात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं, लगभग पौने दो सौ शोध प्रबंध लिखे गए हैं और कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल हैं। रामदरश मिश्र जी को उनके शुभ-जन्मोत्सव पर साहित्यकार तिथिवार की तरफ़ से हम उनकी रचनात्मक सक्रियता बनी रहने की कामना करते हैं।
रामदरश मिश्र : जीवन परिचय |
जन्म | १५ अगस्त १९२४, गाँव - डुमरी, ज़िला - गोरखपुर, उत्तरप्रदेश |
माता | कंवलपाती |
पिता | रामचंद्र मिश्र |
व्यवसाय | अध्यापन, लेखन, संपादन |
कर्मभूमि | बनारस, बड़ौदा, नवसारी, अहमदाबाद, दिल्ली |
शिक्षा एवं शोध |
ढरसी गाँव से विशेष योग्यता; बरहज से 'विशारद' और 'साहित्य रत्न'; बनारस से १९४६ में मैट्रिक बीए, एमए - बनारस विश्वविद्यालय (१९५० - १९५२) पीएचडी - बनारस विश्वविद्यालय से 'हिंदी आलोचना की प्रवृत्तियाँ और आधार-भूमि' विषय पर डॉ० जगन्नाथ प्रसाद के निर्देशन में (१९५७)
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साहित्यिक रचनाएँ |
उपन्यास | पानी के प्राचीर जल टूटता हुआ बीच का समय सूखता हुआ तालाब अपने लोग रात का सफ़र आकाश की छत आदिम राग
| बिना दरवाज़े का मकान दूसरा घर थकी हुई सुबह बीस बरस एक बचपन यह भी परिवार बचपन भास्कर का
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कहानी-संग्रह | खाली घर एक वह दिनचर्या सर्पदंश बसंत का एक दिन इकसठ कहानियाँ मेरी प्रिय कहानियाँ अपने लिए चर्चित कहानियाँ श्रेष्ठ आँचलिक कहानियाँ
| आज का दिन भी एक कहानी लगातार फिर कब आएँगे अकेला मकान विदूषक दस प्रतिनिधि कहानियाँ दिन के साथ विरासत इस बार होली में
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काव्य-संग्रह | | आम के पत्ते तू ही बता ए ज़िंदगी कभी-कभी इन दिनों धूप के टुकड़े आग की हँसी लमहें बोलते हैं और एक दिन मैं तो यहाँ हूँ अपना रास्ता रात सपने में बाज़ार को निकलते हैं लोग
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गीत-संग्रह | |
ग़ज़ल संग्रह | बाज़ार को निकले हैं लोग हँसी ओंठ पर आँखें नम है तू ही बता ए ज़िंदगी हवाएँ साथ हैं
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संस्मरण | |
निबंध | कितने बजे हैं बबूल और कैक्टस घर-परिवेश छोटे-छोटे सुख नया चौराहा
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डायरी | |
आत्मकथा | |
समीक्षा | हिंदी आलोचना का इतिहास साहित्य संदर्भ और मूल्य ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा हिंदी समीक्षा : स्वरूप और संदर्भ आज का हिंदी साहित्य, संवेदना और दृष्टि हिंदी कहानी : अंतरंग पहचान हिंदी कविता : आधुनिक आयाम छायावाद का रचनालोक आधुनिक कविता : सृजनात्मक संदर्भ हिंदी गद्य साहित्य : आधुनिक आयाम हिंदी गद्य साहित्य : उपलब्धि की दिशाएँ
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यात्रा-संस्मरण | तना हुआ इंद्रधनुष भोर का सपना पड़ोस की ख़ुशबू घर से घर तक
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संस्मरण | स्मृतियों के छंद अपने-अपने रास्ते एक दुनिया अपनी
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संपादन | कथाकार प्रेमचंद हिंदी के आँचलिक उपन्यास कविश्री नवीन हिंदी उपन्यास के सौ वर्ष जयवर्धन की पहचान
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चुनी हुई रचनाएँ | बूँद-बूँद नदी दर्द की हँसी नदी बहती है
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अन्य पुस्तकें | कच्चे रास्तों का सफ़र एक औरत एक ज़िंदगी
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साक्षात्कार | 'मेरे साक्षात्कार' - यह पुस्तक रामदरश मिश्र द्वारा दिए गए विभिन्न साक्षात्कारों का संकलन है। |
पुरस्कार व सम्मान |
'नक्षत्र' अहमदाबाद द्वारा सम्मानित - १९८० नागरी प्रचारिणी सभा, देवरिया द्वारा सम्मानित - १९८२ हिंदी अकादमी दिल्ली 'अकादमी सम्मान' - १९८४ प्रगतिशील लेखक संघ, आगरा द्वारा सम्मान - १९८५ भारतीय लेखक संगठन द्वारा सम्मान - १९८५ नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा द्वारा सम्मान - १९९६ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 'साहित्य भूषण सम्मान' - १९९६ दयामती मोदी कवि शेखर सम्मान - १९९८ शलाका सम्मान - २००१ हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग द्वारा सम्मान - २००१ महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन सम्मान - २००४ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘भारत भारती सम्मान’ २००५ सारस्वत सम्मान - २००७ उदयसिंह देव सम्मान - २००७ साहित्य अकादमी पुरस्कार - २०१५ सरस्वती सम्मान - २०२१
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संदर्भ
लेखक परिचय
डॉ० सरोज शर्मा
भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी;
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव;
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
रोचक और बहुत कुछ सिखाने वाला आलेख , सरोज जी। आपको धन्यवाद । 💐। रामदरश जी ने क्या खूब कहा है :
ReplyDeleteकिसी को गिराया न खुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे धीरे ।
कम लोग समझ पाते हैं कि सरलता में सौंदर्य है, जीवन का रस है।
उनकी माता द्वारा राख पर उंगली से लिखकर वर्णमाला सिखाने का संस्मरण अद्भुत है। अध्यापकों के लिए शिक्षाप्रद है : हर विद्यार्थी एक ही तरीक़े से नहीं सीखता।
धीरे धीरे जीवन का रस लेने के कारण ही ईश्वर ने इन्हें दीर्घायु दी है। जन्मदिवस की कोटिशः शुभकामनाएँ : भीतर का बच्चा सदैव किलकारियाँ मारे और जगत को आनंद दे। 💐💐
सरोज, राम दरश मिश्र जी की अब तक की जीवन गाथा और उनके रचना-संसार का तुमने रोचक और समग्र-सा परिचय पेश किया है। रामदरश जी ने इस कहावत को कि धीमे चलने वाला दूर तक पहुँचता है को अक्षरशः चरितार्थ कर दिखाया है। उनका जीवन और काम प्रेरणास्पद हैं। इस सुंदर भेंट के लिए तुम्हें आभार और बधाई। रामदरश जी को जन्मदिन की बधाई और मंगलकामनाएँ।
ReplyDeleteकहाँ गया वह घर,
ReplyDeleteजिसमें एक आदमी रहता था।
इंसानियत का कितना सुंदर परिप्रकाश ।
साहित्य के दरिया से ऐसे मोतियों को समेटने के लिए उकसाते हैं ‘हिंदी से प्यार है’ के एक-एक लेख । आपकी सहज सुगम पठन शैली के कृतियों से मुझ जैसे पाठक लाभान्वित ज़रूर हो रहे होंगे । रामदरश जी की लेखनी को साधुवाद और उनको शुभकामनाएँ।
बेहतरीन ढंग से उपस्थापित लेख सरोज जी ।
संतोष मिश्
सरोज जी नमस्ते। आपका लिखा एक और बेहतरीन लेख पढ़ने को मिला। आपने बहुत व्यवस्थित रूप में श्री रामदरश मिश्र जी के साहित्य यात्रा को वर्णित किया।आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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