किसी भी रचनाकार की सृजन भावभूमि के पृष्ठ में तत्कालीन देश काल,समाज,संस्कृति या काव्य परंपरा निहित रहती है। हिंदी साहित्य के जिस काल को साहित्य मनीषियों ने द्विवेदी काल का नाम दिया, उसी काल में रीतिकाल और आधुनिक काल को नई भावभूमि देने और हिंदी को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के लिए गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी ने ब्रजभाषा की रचनाओं में जहाँ प्रेम विरह और श्रृंगार की छटा बिखरी है, वहीं तत्कालिक समाज में व्याप्त रूढ़ियों का विरोध, नारी उत्थान, प्रकृति के परिवर्तित होते मनोरम परिदृश्यों का वर्णन, अतीत के स्वर्णिम इतिहास का गौरव गान, स्वतंत्रता सेनानियों के अभूतपूर्व शौर्य का वर्णन तथा मातृभूमि के लिए प्राणों का उत्सर्ग का भाव उनके खड़ीबोली के काव्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं।
शुक्ल जी को काव्य रचना की प्रेरणा उनके काव्य गुरु लाला गिरधारी लाल राय, देवी प्रसाद पूर्ण तथा गणेश शंकर विद्यार्थी से मिली। हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत इत्यादी भाषाओं में पारंगत सनेही जी ने ब्रज, उर्दू और अन्य लोक- भाषाओं के साथ खड़ी बोली में पारंपरिक शब्दों के माध्यम से अप्रतिम साहित्य संसार की रचना की। इनकी भाषा में अवधी, बांसवाड़ी, बुंदेलखंडी प्रयोगों के साथ अरबी फारसी के शब्द भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं और यही सनेही जी की रचनात्मक विशेषता है। विषय और अभिव्यक्ति दोनों ही क्षेत्रों में उन्होंने अपने वर्चस्वी व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हुए सृजन की नई दिशाओं के द्वार खोले। सनेही जी की ब्रजभाषा की रचनाओं में अनुराग युक्त हृदयानुभूतियों का प्रचुर वर्णन मिलता है। एक बानगी देखिए:
"तुम चाहो न चाहो लला हमको कछु दीबो न याको उराहनो है,
दुख दीजे कि कीजे दया दिल में हर रंग तिहारो सराहनो है।"
यहाँ कृष्ण की वियुक्तता को आधार बनाकर स्नेही जी ने प्रेमानुरागी गोपियों की विनय भावदशा को बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। उनकी काव्य-साधना का आरंभ ब्रजभाषा की रीतिकालीन परंपरा के श्रृंगारिक छंदों और समस्यापूर्तियों से हुआ था, जिसका स्वरूप तो उन्होंने बदला ही, कवित्त और सवैया जैसे ब्रज भाषा के मँझे हुए छंदों को खड़ी बोली में सफलता से प्रयुक्त करने यानि उसकी प्रकृति के अनुरूप उन्हें ढालने का विलक्षण कौशल भी कर दिखाया। उनका वैशिष्ट्य पूर्णतः त्रुटिहीन प्रयोग रहा। उन्होंने धनाक्षरी, सवैया और छप्पय छंदों के प्रयोग के साथ ही उर्दू के विविध विधाओं में मसनवी, मुसद्दस और गज़ल का प्रयोग अधिक किया।
वे 'सनेही- मंडल' चलाते थे तथा अपने पास आने वाले रचनाकारों की कविताओं में लगातार संशोधन करते थे। सनेही- मंडल के कवियों को समस्या पूर्ति के माध्यम से काव्य रचना में समर्थ किया जाता था। रचना पूरी तरह संपादित कर लेने के बाद वह उसे 'सुकवि' में प्रकाशित करते थे। यह पत्रिका द्विवेदी जी के आग्रह पर सन् १९२८ में स्वयं प्रेस लगा कर प्रकाशित करनी आरंभ की थी।
सनेही साहित्य के अध्येता नरेश चंद्र चतुर्वेदी के शब्दों में-"सच तो यह है कि सनेही ने अपनी प्रतिभा का उपयोग काव्य रचना में जितना किया, उससे अधिक कवियों के निर्माण में किया।" लेखनकार्य के समानांतर वे कविताओं की मंचीय प्रस्तुतियों में अत्यंत सक्रिय रहे और अखिल भारतीय स्तर के सैंकड़ो कवि सम्मेलनों की अध्यक्षता की। इसी सिलसिले में उन्होंने देशभर का भ्रमण किया तथा बड़ी-बड़ी रियासतों से मधुर संबंध स्थापित किया। हिंदी का पहला सार्वजनिक कवि सम्मेलन करवाने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है।
साहित्य साधकों के प्रकाशपुंज स्वरूप गया प्रसाद शुक्ल जी का जन्म २१अगस्त १८८३ को हड़हा ग्राम, उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ। पिता अवसेरीलाल शुक्ल जिन्होंने कि १८५० के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था, उन्हीं से सनेही जी को देशभक्ति व वीरभाव की परंपरा विरासत में मिली थी। १८९८ में गया प्रसाद शुक्ल मिडल स्कूल पास कर आजीविका के लिए अध्यापनकार्य अपनाया, किंतु असहयोग आंदोलन के समय गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने प्रधानाध्यापक के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, यहाँ तक कि बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन के लिए पं० मदन मोहन मालवीय के आमंत्रण को भी विनयपूर्वक ठुकरा दिया।
कानपुर में वे क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए और समाचार पत्र 'प्रताप' में अपनी लेखनी से राष्ट्रवाद की आवाज बुलंद करने लगे। सनेही की कविताओं ने देश में स्वतंत्रता की यज्ञाग्नि में हविष्य का काम किया। ब्रिटिश सरकार ने 'प्रताप' अखबार और सनेही की रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया। तब स्वतंत्रता प्राप्ति के स्वप्न को साकार करने को प्रतिबद्ध सनेही ने अपनी ओजमयी रचनाएँ लिखने के लिए एक अन्य 'छद्म' नाम का सहारा लिया और 'त्रिशूल' के तेजस्वी कवि-रूप में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत नवयुवकों में जोश भरते हुए विदेशी शासकों और उनके देशी अनुचरों के हौसले भी पस्त करते रहे।
"कंठो में विराजा रसिकों के फूलमाल हो के कुटिल कलेजों में त्रिशूल हो के कसका।"
वे क्रांति का उद्घोष करते हुए रचनाएं लिखने लगे।
"भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"
देशप्रेम और मानवतावाद से ओतप्रोत इस अनोखे कवि की इन कालजयी पंक्तियों ने न सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी वरन् राष्ट्र की रचनात्मक भूमिका और उसके सांस्कृतिक अधिष्ठान को भी प्रतिस्थापित किया।
सन् १९१४ और उसके बाद के दशकों में किसानों की कारुणिक स्थितियों पर, जमींदारों के ज़ुल्म पर, मुनाफा- खोरी पर, धर्म की ध्वजा फहराने वाले पाखंडियों पर, असहाय मजदूरों की दुर्दशा पर, अंग्रेज शासकों की कूटनीति, अन्याय और अत्याचार पर, आर्थिक शोषण और विषमता पर, दहेज, छूआछूत, जातीय और सांप्रदायिक संकीर्णता पर, ऊंच-नीच की भावना और अंधविश्वास जैसी सामाजिक विकृतियों पर उन्होंने अपनी बेबाक शैली में जम कर प्रहार किया। सर्वहारा के हक के लिए कलम उठाने वाले वे पहले हिंदी कवि थे।
प्रगतिवाद के अंतर्गत काव्य विषयों पर उन्होंने तब लिखा था, जब प्रगतिवाद का जन्म भी नहीं हुआ था। १९०५ में ही हिंदी साहित्यकार पं० गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने ‘अच्छे दिनों’ की परिभाषा सामने रख दी थी। ‘दिन अच्छे आने वाले हैं’ शीर्षक से उनकी यह कविता ‘सम्मेलन’ नाम की पत्रिका में छपी थी।
"जब दुख पर दुख हों झेल रहे, बैरी हों पापड़ बेल रहे,
हों दिन ज्यों-त्यों कर ढेल रहे, बाकी न किसी से मेल रहे,
तो अपने जी में यह समझो,
दिन अच्छे आने वाले हैं।"
सनेही जी की रचनाएँ रसिक रहस्य, साहित्य सरोवर, रसिक मित्र आदि पत्रों में सरस्वती पत्र पत्रिकाओं में तो प्रकाशित हुई ही, उन्होंने गोरखपुर से निकलने वाले 'कवि' का संपादन भी किया। सन् १९२१ में उन्होंने लाला फूल चन्द्र जैन तथा पं० रमाशंकर अवस्थी के साथ कानपुर से राष्ट्रीय चेतना का दैनिक पत्र ‘वर्तमान’ का प्रकाशन प्रारंभ किया, जिसमें उनकी जोशीली कविताएँ छपती थीं। इस पत्र की उद्देश्य परक पंक्तियाँ सनेही जी ने ही लिखी थीं।
"शानदार था भूत, भविष्यत भी महान है,
अगर सम्हालें आप उसे जो वर्तमान है।"
किंतु यह भी एक तथ्य है कि अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के प्रति वे उदासीन ही थे। उनकी प्रथम कृति "प्रेम पच्चीसी" का प्रकाशन सन् १९०५ के आसपास हुआ। इसके अतिरिक्त कुसुमांजलि, कृषक क्रंदन, त्रिशूल तरंग, राष्ट्रीय मंत्र, संजीवनी, राष्ट्रीय वाणी, कलामे त्रिशूल तथा करूणा कादंबनी सनेही जी की कलम से निकले अनमोल रत्न हैं।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर सनेही जी के विषय में लिखते हैं, "किताबें तैयार करने की अपेक्षा कवि तैयार करने की ओर उनका अधिक ध्यान था, किताबें तो उनके शिष्यों ने जबरदस्ती तैयार कर दी।" इनकी पुस्तकों का प्रकाशन हिंदी साहित्य संस्थान दिल्ली द्वारा किया गया।
अपने संपूर्ण रचना काल में वे साहित्यिक रचनाएँ 'सनेही' की स्नेहिल कोमलता युक्त, राष्ट्रीय चेतना की कविताएँ त्रिशूल की बेमिसाल तीक्ष्णता को एक साथ समेटते हुए लिखते रहे, वहीं हास्य व्यंग्य की रचनाएँ तरंगी, अलमस्त या लहर लहरपुरी जैसे उपनाम से लिखते हुए उनका कवि-व्यक्तित्व उस काल में नितान्त मौलिक और अकेला था।
कानपुर के उर्सला अस्पताल में २१ मई १९७२ में उन का निधन हुआ। सनेही जी की अंतिम रचना थी ...
"बुझने का मुझे कोई दुख नहीं,
पथ सैंकड़ो को दिखा चुका हूँ।"
यह निश्चय ही एक ऐसे आत्म संतुष्टि से भरे व्यक्ति के उद्दगार हैं जिसने संपूर्ण जीवन पूर्ण निष्ठा व कर्मठता से निर्धारित लक्ष्यपूर्ति संधान में लगा दिया हो और अंत में विजयी भाव से प्रत्यावलोकन कर रहा हो।
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकान ने गया प्रसाद शुक्ल सनेही जी को स्वाधीनता सेनानी का दर्जा दिया तथा उनके पैतृक गाँव हड़हा में उनकी एक मूर्ति लगाई गई तथा उनको समर्पित एक पार्क व पुस्तकालय की स्थापना भी की गई।
नाम: | गया प्रसाद 'सनेही ' |
जन्म: | २१ अगस्त १८८३ |
मृत्यु: | २१ मई १९७२ |
प्रकाशित काव्य रचनाएँ | प्रेम पचीसी |
| गप्पाष्टक |
| कुसुमांजलि |
| कृषक-क्रन्दन |
| त्रिशूल तरंग |
| राष्ट्रीय मंत्र |
| संजीवनी (सम्पादित) |
| राष्ट्रीय वीणा (सम्पादित) |
| कलामे-त्रिशूल |
| करुणा कादंबिनी |
सम्मान :
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| १. भारत महा मंड़ल , काशी द्वारा 'साहित्य - सितारेन्दू' उपाधि |
| २ .उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा 'साहित्य - वारिधि' उपाधि (१९६६) |
| ३. अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग द्वारा 'साहित्य - वाचस्पति' उपाधि (१९६८) |
| ४. कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी . लिट. की मानद उपाधि (१९७०) |
| ५. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं द्वारा ' राष्ट्रिय महाकवि', 'सुकवि - सम्राट' व 'आचार्य' आदि अनेक उपाधियों से सम्मानित |
इसके अतिरिक्त दो और काव्य-पुस्तिका 'मानस तरंग' एवं 'करुण भारती' का नामोल्लेख भी मिलता है।
ये छोटी-छोटी काव्य-पुस्तिकाएँ सनेही जी के जीवनकाल में ही अनुपलब्ध हो गयी थीं।
लेखिका-परिचय :
नाम : लतिका बत्रा (लेखक एवं कवियित्री)
शिक्षा :एम.ए, एम. फिल (बौद्ध विद्या अध्धयन)
प्रकाशित पुस्तकें : तिलांजलि (उपन्यास); दर्द के इन्द्र धनु (तीन कवयित्रियों का साझा काव्य संग्रह); पुकारा है जिन्दगी को कई बार (आत्मकथात्मक उपन्यास), डियर कैंसर (साँझा लघुकथा संग्रह), लघुकथा का वृहद संसार
व्यंजन विशेषज्ञ; फूड स्टाईलिस्ट; गृहशोभा, सरिता, गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में कुकरी कॉलम।
ई मेल :latikabatra19@gmail.com; मोबाईल नं :8447574947
लतिका जी नमस्ते। आपने गया प्रसाद शुक्ल जी के सृजन का सुंदर परिचय इस लेख के माध्यम से दिया। आपके लेख के माध्यम से 'सनेही' जी को जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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