Friday, August 26, 2022

आचार्य चतुरसेन शास्त्री : ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हिंदी कथा-साहित्य के गौरव

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हिंदी साहित्य में जब भी ऐतिहासिक चरित्र या घटनाओं की सृजनात्मकता पर विचार किया जाता है तो आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कृतियाँ ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘सोमनाथ’, ‘वयं रक्षामः’ और ' गोली, सोना और खून'  सबसे पहले हमारे जहन में आती हैं। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने हिंदी गद्य की विविध विधाओं - उपन्यास, कहानी, चिकित्सा शास्त्र, शिक्षा से लेकर धर्म, संस्कृति, नैतिक शिक्षा, कामशास्त्र और पाकशास्त्र जैसे विषयों को अपने लेखन का आधार बनाया। पाठकों को यह बताते हुए खुशी हो रही है कि आचार्य शास्त्री  आर्य समाज के सिद्धांतों से प्रभावित थे और पठन-पाठन के लिए तत्पर रहते थे, इसका प्रमाण है कि उन्होंने दिल्ली के  शाहदरा की अनाज मंडी  का घर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड को दान कर दिया था, जिसमें आजकल विशाल लाइब्रेरी संचालित हो रही है।

‘वैशाली की नगरवधू’ आचार्य चतुरसेन का एक ऐसा कालजयी हिंदी उपन्यास है जिसकी गणना हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में की जाती है। इस उपन्यास के संबंध में खुद चतुरसेन शास्त्री ने कहा था- ‘मैं अब तक की सारी रचनाओं को रद्द करता हूं और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं।’ साथ ही 'वैशाली की नगरवधू' को पाठकों को सौंपते हुए रचनाकार ने स्वयं लिखा  है -साहित्य-साधना से मैंने पाया कुछ भी नहीं, खोया बहुत-कुछ या कहना चाहिए, सब कुछ, धन, वैभव, आराम और शांति। इतना ही नहीं, यौवन और सम्मान भी। इतना मूल्य चुकाकर निरंतर  चालीस वर्षों की अर्जित अपनी संपूर्ण साहित्य-संपदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूँ; और यह घोषणा करता हूँ —कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि-सहित आपको भेंट कर रहा हूँ।गौरतलब है कि यह कृति  उत्कृष्ट विषयवस्तु, तानाबाना और बुनावट के स्तर पर एक उपलब्धि रही है। इस रोचक कथानक के लिए लेखक ने दस सालों तक आर्यों, बौद्धों और जैनों की संस्कृति और इतिहास का अध्ययन किया था। इस उपन्यास में घटनाक्रम अनायास और ऐसी गति से घटित होता है कि पाठक कहीं भी ऊबता नहीं है। लेखक ने उस समय की राजव्यवस्था, धार्मिक प्रयोगों और व्यापार की महत्ता का उत्तम चित्रण किया है। साथ ही इस उपन्यास में उस समय के धार्मिक आंदोलनों का जनमानस पर जो प्रभाव पड़ा उसका भी चित्रण किया है।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म, उत्तर प्रदेश के जिला बुलन्दशहर में सिकंदराबाद के पास एक छोटे से गाँव चांदौख के एक क्षत्रिय परिवार में, २६ अगस्त, १८९१ को केवलराम ठाकुर और नन्हीं देवी की संतान के रूप में हुआ। जन्म के बाद बालक का नामकरण संस्कार करते हुए पंडित ने कहा, “राशि के हिसाब से तो इसका नाम चतुर्भुज होगा, परन्तु मैं इसे कुलदीपक ही कहूँगा।- पंडित की बात पर हैरानी से पिता ने पूछा– “ऐसा क्यों ?"  तो पंडित ने उत्तर दिया, “लड़के के ग्रह तुम्हारे घर और तुम्हारे कुल का मान बढ़ाने वाले हैं। अतः यह कुलदीपक कहलाएगा।” ऐसे में लेखन का जो गुण शास्त्रीजी ने पाया, वह उनका खुद का हासिल किया हुआ था। हालांकि अभावों और धन की तंगी से परिवार बराबर जूझता रहा था। फिर भी माता–पिता अपने पुत्र की तीव्र बुद्धि और पढ़ने में रुचि देखकर, पूरी शिद्दत से चाहते थे कि उनका पुत्र पढ़–लिखकर किसी योग्य बन जाए। सिकंदराबाद के ही एक स्कूल में इनकी प्राथमिक शिक्षा हुई, फिर  काशी गये और उसके बाद जयपुर के संस्कृत कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की । यहीं से सन् १९१५ में संस्कृत में ‘संस्कृत शास्त्री’ और आयुर्वेद विद्यापीठ से ‘आयुर्वेदाचार्य’ की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं । आयुर्वेद विद्यापीठ के ये प्रथम विद्यार्थी थे जिन्हें  आयुर्वेदाचार्य उपाधि दी गयी। शिक्षा समाप्त कर आचार्य दिल्ली आ गए, तब तक इनके मन में लेखक बनने की कोई विशेष चाह नहीं थी। इनके जीवन का प्रथम उद्देश्य था- एक योग्य चिकित्सक बनना। इसका कारण यह था कि बचपन से अपने आसपास दुःखी और बीमार लोगों को ही देखते आए थे। गाँव में छोटी–छोटी बीमारियों से लोगों को मरते हुए इन्होंने देखा था। लोगों की तकलीफों से उपजी टीस ने इनके हृदय को करुणा से भर दिया। इसी कारण ये लोगों को स्वस्थ और सुखी बनाना और देखना चाहते थे। इसके लिए दिल्ली में आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोली, लेकिन यह डिस्पेंसरी अनुभव की कमी के चलते, अच्छी तरह से नहीं चल पायी और इसे बंद करना पड़ा।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री को सन १९१७ में, डी ए वी कॉलेज, लाहौर में आयुर्वेद के वरिष्ठ आयुर्वेद प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली।  किंतु डी ए वी कॉलेज के  व्यवस्थापक मण्डल के व्यवहार से दुखी होकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया  और अजमेर आकर अपने ससुर के ‘कल्याण औषधालय’ में सहयोग करने लगे। इस औषधालय में काम करते हुए एक चिकित्सक के रूप में इनकी ख्याति दिन–प्रतिदिन बढ़ती गयी। जिंदगी का जो विविध रूप इन्हें देखने को मिला, अपनी जिंदगी के संघर्षों से जिस तरह इन्हें जूझना पड़ा, उसने इन्हें लेखनी थामने के लिए मजबूर किया। अलग-अलग तरह की घटनाएँ दुर्घटनाएँ, सुखद और त्रासद स्थितियों ने इनके अंदर  जो रचनात्मक शक्ति भरी, वह अद्भुत थी। यही वह समय था जब इन्होंने लिखना शुरू किया। सन् १९१८ में इनका पहला उपन्यास ‘ हृदय की परख' छपा। सन् १९२१ में इनकी ‘सत्याग्रह और असहयोग’ नाम से एक राजनीतिक पुस्तक आयी। तब देश में स्वतंत्रता आन्दोलन का जोर था और लोगों पर महात्मा गांधी का प्रभाव था, किंतु गांधीजी की नीतियों से चतुरसेन शास्त्री सहमत नहीं थे, अतः इन्होंने यह पुस्तक लिखी, जो गांधी की नीतियों से असहमति का दस्तावेज़ थी। हालांकि यह एक आलोचनात्मक पुस्तक थी, फिर भी गांधी–भक्तों ने इसे भी चाव से पढ़ा, क्योंकि यह कृति तत्कालीन राजनीति की जरूरतों की मांग पर आधारित थी। इस कारण काफी पसंद की गई और शास्त्रीजी को प्रतिष्ठा मिली । इस पुस्तक के भाव और भाषा पर मुग्ध होकर, गणेश शंकर विद्यार्थी ने जेल से चतुरसेन शास्त्री  को पत्र लिखा और प्रशंसा की, उन्होंने लिखा- ‘मैँ इस पुस्तक को असहयोग और राजनीति की गीता मानता हूँ और उसका पाठ गीता की भाँति करता हूँ।' चतुरसेन शास्त्री हिंदी के उन साहित्यकारों में हैं जिनका लेखन-कर्म साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा में सीमित नहीं किया जा सकता। हाँ, यह बात और है कि इनका अधिकांश लेखन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित था। इन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही हिंदी में कहानी और गीतिकाव्य लिखना आरम्भ कर दिया था। बाद में इनका साहित्य-क्षितिज फैलता गया और विविध विधाओं में अपनी भावनाओं/संवेदनाओं को कलमबद्ध किया । आचार्य चतुरसेन के  ऐतिहासिक उपन्यासों पर शोध करने वाले डॉ. विद्याभूषण भारद्वाज ने अपने शोध ग्रंथ में एक जगह लिखा है, "आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिंदी के उन महान् साहित्यकारों में हैं जिनके लिखित साहित्य के परिमाण, गुण और विविधता को देखकर भावी पीढ़ियाँ कदाचित् यह विश्वास नहीं कर सकेंगी कि यह एक व्यक्ति का साहित्य है और उस समय शायद वह और उनका साहित्य भी एक किवदंती के विषय बन जायेंगे, जैसे सूर के सवा लाख पद,  एक रात्रि में ‘रामचन्द्रिका‘ की रचना आदि बातें आज अविश्वसनीय बन गयी हैं। परंतु  शास्त्री जी का साहित्य पुनः यह विश्वास दिलाता है कि ये सजीव और प्रत्यक्ष वास्तविकताएँ हैं।" शास्त्री जी के उपन्यासों में समसामयिक ग्रामीण, नगरीय, राजसी जीवन शैली की यथार्थ झलक देखने को मिलती है। उन्होंने एक जगह  लिखा है- “यह एक साधारण बात है कि जिस वस्तु की ज़्यादा खपत होती है, उसकी दुकानें भी बहुत-सी खुल जाती हैं और यह भी स्वाभाविक है कि नक़ली चीज़ें बहुत बनने लगती हैं। भारत में धर्म की भी वही वही दशा है।"

‘वयं रक्षामः’ हिन्दी साहित्य की अनुपम कृति है । यह उपन्यास प्रागैतिहासिक अतीत की कृति है। इसके कथानक के मूलाधार राक्षसराज रावण तथा महापुरुष राम हैं। यह उपन्यास उस युग को देखने की एक नयी दृष्टि देता है। सभी पात्रों को यथार्थ के धरातल पर उतार कर समझने का एक नया दृष्टिकोण मिलता है। हाँ, यह बात भी गौरतलब है कि कहीं-कहीं अतिरेकता भी देखने को मिलती है। अपनी इस कृति के बारे में आचार्य चतुरसेन शास्त्री लिखते हैं- ‘इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य, अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्मृत-पुरातन रेखाचित्र हैं।  जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देखकर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर-रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गयी बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ। इस उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है। मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की प्रज्ञा-पूंजी थी, उस सबको मैंने  वयं रक्षाम: में झोंक दिया है।'

'देवांगना' उपन्यास में शास्त्री जी ने बारहवीं सदी के अंतिम चरण के एक प्रेम-कथानक के माध्यम से बौद्ध एवं अन्य हिंदू संप्रदायों में भयानक आकार ले चुके आडंबर, तंत्रवाद, और छद्म का बहुत कुशलता और रोचकता के साथ वर्णन किया है। देवदासियों के दर्द को अंकित किया है- “क्या कहूँ, मेरा भाग्य ही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। विधाता ने जब देवदासी होना मेरे ललाट पर लिख दिया, तो समझ लो कि सब दुःख मेरे लिये ही सिरजे गये हैं। जिसके हृदय पर दासता की मुहर है, प्रतिष्ठा, सतीत्व, पवित्रता जिसके जीवन को छू नहीं सकते, जिसका रूप-यौवन सबके लिए खुला है, जो दिखाने को देवता के लिये शृंगार करती है, परंतु जिसका शृंगार वास्तव में देव-दर्शन के लिये नहीं, लंपट कुत्तों के रिझाने के लिये है, ऐसी अभागिनी देवदासी के लिये अपने पवित्र बहुमूल्य प्राणों को दे डालने का संकल्प न करो भिक्षु।" 

चार खंडों में लिखे गए 'सोना और ख़ून' के दूसरे भाग में १८५७ की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है-

मैँ गोली हूँ, 

कलमुंहें विधाता ने जो मुझे रूप दिया है,

राज्य इसका दीवाना था।  

प्रेमी पतंगा था।  

मैँ रंगमहल की रोशनी थी, 

दिन में, रात में, वह मुझे निहारता।  

कभी चम्पा कहता, कभी चमेली ।।


सरदार पटेल को समर्पित 'गोली' उपन्यास में राजस्थान के रजवाड़ों, रंगमहलों और राजाओं से दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। चम्पा राजस्थान के साठ हजार निरीह नर-नारियों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्हें रजवाड़ों से असीम दर्द मिला, जिनका शोषण किया गया। इस उपन्यास को साप्ताहिक हिंदुस्तान में श्रंखला के रूप में प्रकाशित किया गया था। 


भारत के विभाजन और धार्मिक कट्टरता पर लिखे गए चतुरसेन के उपन्यास 'धर्मपुत्र' पर फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा ने सन १९६१ में फिल्म बनाई थी, जिसका नाम भी धर्मपुत्र ही था।  शास्त्री जी की कहानियाँ भी शिल्प, कथ्य और विषयवस्तु के अपने अनूठेपन के कारण अलग ही छाप छोड़ती है। दुखवा मैँ कासे कहूँ मोरी सजनी, खूनी, फंदा, मेहतर की बेटी कहानियाँ जैसी तमाम कहानियाँ मन को छूती हैं, और सहज ही हम इन कहानियों से जुड़कर इसका हिस्सा बन जाते हैं और इनके मर्म को महसूस कर पाते हैं। ‘खूनी’ कहानी के प्रताप में प्रकाशित होने पर, प्रताप के संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा था- ‘खूनी को छाप कर प्रताप निहाल हो गया।‘

चतुरसेन जी ने लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में १७७ कृतियों का सृजन किया। ३२  उपन्यास, ४५० कहानियां लिखीं। इनका अधिकांश लेखन अपनी कला और वैशिष्ट्य के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ है । चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित साहित्य इस बात की पुष्टि करता कि हिंदी साहित्येतिहास में अमर व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार हैं ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री : संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम

आचार्य चतुरसेन शास्त्री   

जन्म

२६ अगस्त, १८९१, उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में सिकंदराबाद के पास एक छोटे से गाँव चांदौख में 

मृत्यु

२ फरवरी, १९६०

पिता 

केवलराम ठाकुर

माता 

नन्हीं देवी 

शिक्षा

संस्कृत शास्त्री, आयुर्वेदाचार्य 

व्यवसाय

पेशे से 

आयुर्वेदिक चिकित्सक 

मन व कर्म से 

कथाकार 

रचना-संसार

उपन्यास   

वैशाली की नगरवधू सोमनाथ , वयंरक्षामः, गोली, सोना और खून (तीन खंड), रक्त की प्यास, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, नरमेघ, अपराजिता, धर्मपुत्र, देवांगना  

नाटक  

राजसिंह, मेघनाथ, छत्रसाल, गांधारी, श्रीराम, अमर राठौर , उत्सर्ग, क्षमा

गद्यकाव्य 

हृदय की परख, अन्तस्तल, अनुताप, रूप, दुःख, मां गंगी, अनूपशहर के घाट पर, चित्तौड़ के किले में, स्वदेश

कहानी 

हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (सात खंड), अक्षत, रजकण, वीर बालक, मेघनाद, सीताराम, सिंहगढ़ विजय, वीरगाथा, लम्बग्रीव, दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी, कैदी, आदर्श बालक, सोया हुआ शहर, कहानी खत्म हो गई, धरती और आसमान, मेरी प्रिय कहानियां

एकांकी संग्रह 

राधाकृष्ण, पांच एकांकी, प्रबुद्ध, सत्यव्रत हरिश्चंद्र, अष्ट मंगल

आत्मकथा 

यादों की परछाइयाँ  

निबंध 

धर्म और पाप 

चिकित्सा / आयुर्वेदिक ग्रंथ  

आहार और जीवन, बच्चे कैसे पाले जाएं, पथ्यापथ्य, मातृकला, नीरोग और जीवन, आरोग्य शास्त्र, अमीरों के रोग, छूत की बीमारियां, सुगम चिकित्सा, काम-कला के भेद

अन्य 

सत्याग्रह और असहयोग, गोलसभा, तरलाग्नि, गांधी की आंधी (पराजित गांधी), मौत के पंजे में जिन्दगी की कराह (राजनीति)


संदर्भ
- विकिपीडिया
- हिंदी समय।कॉम

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आभा खरे, हिंदी भाषा के प्रति समर्पित, हिंदी सेविका हैं उन्हें किताबों से प्रेम हैं । पिछले दो साल से 'कविता की पाठशाला' से जुड़ी। संपर्क- khareabha05@gmail।com

11 comments:

  1. आभा खरे जी। आचार्य चतुरसेन का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ उनके सभी उपन्यास मैन 13-14 वर्ष की अवस्था मे ही पढ़ लिए थे, उस समय इनका एक क्रेज था, यह वह समय था जब हिंदी उपन्यास की लोकप्रियता शिखर पर थी। कुशवाहा कांत, ग7रुदत, गुलशन ननदा सब अपने स्वर्णिम काल मे थे । और सबका अपना पाठक वर्ग था। मैंने गुलशन नन्द के दो तीन पढ़े बाकी सब के प्रायः सभी पढ़े, चतुरसेन शास्त्री की भाषा शैली ऐसी तजि की रक्त में उबाल लादे, चाहे जय सोमनाथ हो या सोना और खून या गोली। एक बात कहना चाहता हूं सात भाग में लिखा इनका हिंदी साहित्य की पुस्तक अपने कहानी में लिखी जबकि हिंदी साहित्य के इतिहास में इनी और रामचन्द्र शुक्ल की दो ही पयस्तक मैं प्रमाणिक मानता हूं।अंत मे आपने सुंदर सुर मोहक आलेख लिखा।

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिंदी साहित्य में विलक्षण लेखक हैं। अनूठे उनके विषय, अनूठी उनकी भाषा-शैली और अनूठी उनकी अभिव्यक्ति। जैसे पतली रस्सी पर करतब दिखाते नट से आपकी आँख नहीं हटती, ऐसे एक बार पाठक उनकी कृति को पढ़ना शुरू करे तो छोड़ नहीं पाता। उनके उपन्यास की संवाद शैली नाटकों की तरह चलती है और सारा घटनाक्रम हमारे सामने चलचित्र की तरह घूमने लगता है जैसे , संजय महाभारत का जीवंत दृश्य सुना रहे हों। भाषा ऐसी अनूठी कि मेरे जैसे पाठक कोई -कोई प्रसंग तो केवल इसलिए वापस पढ़ें कि कैसी अद्भुत भाषा है, घटनाक्रम कुछ भी हो। बहुत साहसी लेखक थे। वयं रक्षाम: में जो धरती के ही विभिन्न भागों पर रहने वाले नर-नारी रूप में सभी पात्रों का चित्रण उन्होंने किया है, वह असाधारण प्रतिभा की गवाही है। रावण के चरित्र का ऐसा सुंदर विश्लेषण और कहीं देखने को नहीं मिलता। वैशाली की नगरवधू वास्तव में ऐसी कृति है कि केवल यह लिखकर ही उनका नाम प्रसिद्ध लेखकों में हमेशा के लिए दर्ज़ हो जाता। वन के, आश्रम के, महल के , युद्ध के सभी दृश्य अविस्मरणीय। कुछ लोग लिखना चाहते हैं और कुछ लोग लिखे बिना जी नहीं सकते। शास्त्री जी का लेखन उनकी प्राणवायु था। उनके लेखन को प्रणाम। 🙏 आभा जी, आपके आलेख ने शास्त्री जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। इस छोटे से आलेख में आपने उनके जीवन और कृतित्व का सुंदर वर्णन किया है। बधाई। शुभकामना। 💐💐

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  4. सारगर्भित पोस्ट। आचार्य चतुरसेन को जानने समझने के लिए जरूरी आलेख 👍

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  5. आभा जी नमस्ते। आपने आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। मुझे स्कूल के दिनों में ही आचार्य जी को पढ़ने का मौका मिला। उनको पढ़ना मतलब पढ़ते जाना और आंनद पाना। आपके लिखे इस लेख को भी बस शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। लेख आनन्द दायक लिखा गया है। आपको इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  6. प्रिय आभा दीदी, बहुत सुंदर आलेख के लिए बधाई।आचार्य चतुरसेन के अधिकांश उपन्यास कॉलेज लाइब्रेरी से पढ़ लिए थे। इनके उपन्यास पढ़ने से ही मुझे साहित्य के प्रति रुझान हुआ। आपने आलेख इतना रोचक और धारा प्रवाह लिखा कि पूरा आलेख कब खत्म हुआ पता नही चला। आपकी लेखनी में पाठकों को बांधने की कला है। बहुत सुंदर लेखन और लेख के लिए आभार🙏🏻🥰

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  7. आभा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री पर हृदयग्राही आलेख लिखा है तुमने। सिलसिलेवार ढंग से उनके जीवन के सभी पक्षों को दर्शाया है, उनकी प्रमुख कृतियों की भी संक्षिप्त जानकारी दे दी। इनके सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधू’ पर शानदार फ़िल्म ‘आम्रपाली’ बनी है। एक और प्रभावी आलेख पटल पर लाने के लिए तुम्हें हार्दिक बधाई और धन्यवाद।

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  8. बहुत रोचक एवं जानकारी वर्धक

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  9. प्रिय आभा जी,
    आचार्य चतुरसेन शास्त्री पर आपका आलेख उनकी रचनाओं सरीखा ही मर्मस्पर्शी लगा। बहुत रोचक ढंग से आपने आचार्य चतुर सेन शास्त्री जी के व्यक्तित्व व कृतित्व का विश्लेषण किया है। एक सारगर्भित व सुगठित लेख के लिए आपको बधाई।

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  10. आभार जी बहुत सुंदर लिखा वो अनेक रोचक बातें पढ़ने मिली । आपके लेखन कै साधुवाद । इस साहित्यकार तिथिवार ये हमें अनेक साहित्यकारों को पढ़ने का अवसर मिला है और इसके लिए टीम को बधाई ।

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  11. आभा, एक कथाकार को आज एक कहानी के माध्यम से तुमने मिलवा दिया। आलेख एक कहानी की तरह बढ़ता जाता है और आचार्य चतुरसेन शास्त्री के कृतित्व के नए पहलू सामने आते जाते हैं! और आचार्य की रचनाओं का तो क्या कहना! तुम्हें इस सुंदर आलेख की बधाई और हमारा शुक्रिया।

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