Saturday, August 27, 2022

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी : ओजस्वी आलोचक और समर्पित शिक्षक



आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आधुनिक हिन्दी-साहित्य की व्यापक चेतना के गम्भीर विश्लेषक एवं समर्थ आलोचक ही नहीं, आधुनिक समीक्षा के नये पथ के प्रशस्तकर्ता भी रहे। आधुनिक साहित्य के मूल्यांकन के क्षेत्र में उनका अप्रतिम अवदान है।

उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के अन्तर्गत मगरायर गांव के निवासी थे। वहीं उनका जन्म ४ सितम्बर १९०६ ई.को हुआ था। उनके पिता गोवर्धन लाल वाजपेयी जीविकोपार्जन की दृष्टि से हजारीबाग चले गए थे। वहीं वाजपेयी जी की प्रारम्भिक शिक्षा हुई। माता का नाम जनक दुलारी था। जो वैष्णवी विचारों की महिला थीं।
वाजपेयी जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे। बाल्यकाल में ही उनके पिता ने उनको पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' कंठस्थ करा दिए थे। फिर 'अमरकोशके मुख्य अंश भी कंठस्थ करा दिया। स्कूली शिक्षा के लिए हजारीबाग के मिशन हाई स्कूल में प्रवेश लिया और पन्द्रह वर्ष की आयु में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा अव्वल अंकों से उत्तीर्ण की।  १९२२ ई.में हजारीबाग के ही सेंट कोलम्बस स्कूल में विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश लिया परन्तु विज्ञान में अरुचि के कारण शीघ्र ही कला-विषयों को समन्वित कर लिया। १९२५ में १२वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९२७ में बी.ए. और १९२९ में एम.ए.उत्तीर्ण की। प्रखर प्रतिभा-सम्पन्न वाजपेयी जी बाल्यकाल में कविता लिखने लगे थे।
 
कार्यक्षेत्र
कुछ समय तक उन्होंने  गीताप्रेस गोरखपुर में रहकर राम-चरितमानस के सम्पादन कार्य में अपनी अभूत प्रज्ञा-प्रमा का परिचय दिया। वे १९३०-३२  में दो वर्षों तक इलाहाबाद से निकलने वाले 'भारत' समाचारपत्र का सम्पादन करते हुए अपने लेखों में जिस तेजस्विताप्रखरता और पैनी दृष्टि का परिचय दिया, वह कालान्तर में सन्तुलित लेखन में बदल गया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित होने वाले 'सूरसागर' का भी उन्होंने सफल सम्पादन किया।
 
सात वर्षों (१९४१ से १९४७ ) तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे तथा मार्च १९४७ से सितम्बर १९६५ तक सागर विश्व-विद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे।अक्टूबर १९६५ में वे विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के उपकुलपति नियुक्त हुए। और वहीं हृदयगति रुक जाने के कारण २१ अगस्त १९६७ को आकस्मिक निधन हो गया जो हिन्दी-जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति था।
 
उनका व्यक्तित्व बहुत ही निर्मल था। बकौल श्री रामेश्वर गुरु:

"वाजपेयी जी सरीखे सज्जन, सरल, नि: स्वार्थ साहित्य-सेवी और समर्पित शिक्षक...हिन्दी विभाग को छिछली राजनीति से दूर रखकर अध्ययन-अध्यापन काशोध का और मौलिक विचार-धारा का देश-प्रसिद्ध केन्द्र बनाने के लिए कृत संकल्प थे। ... विद्यार्थियों के लिए एक तपोनिष्ठगुरु-ऋषि थे। जन्मजात शालीनता उनके विरल व्यक्तित्व की सबसे उज्ज्वल तस्वीर थी। एक बार  उनसे मिलना और उनके साथ मिल-बैठ के वार्तालाप करना आत्मीय परिचय बन जाता था।"
 
ऐसे ज्ञान-निधि,साहित्य-व्रती, ऋषिकल्प साहित्यकार के सम्बन्ध में लिखना एक नये संस्कार को जन्म देना है। उत्तर प्रदेश की प्रतिभा को मध्यप्रदेश में प्रतिभासित करने का श्रेय यथार्थ मूल्यांकनकार पं. द्वारिकापुरी मिश्र को है जिन्होंने उनके पारदर्शी व्यक्तित्व को जौहरी की भांति परख कर प्रतिष्ठित किया।
 
साहित्य-सृजन
वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का व्यक्तित्व बहुत विराट और सृजन बहुआयामी था। वे कवि, पत्रकार, सम्पादक, निबन्धकार, मीमांसकआलोचक और प्रशासक रहे। इस प्रकार साहित्य की हर विधा में उनका अप्रतिम योगदान है। उन्होंने आचार्य शुक्ल की सीमाओं को न केवल उद्घाटित किया बल्कि छायावादी काव्य के सन्दर्भ में उनके दृष्टिकोण को भी नवीन साहित्यिक-संवेदना के न मानकर उसकी नयी स्थापना की। अतः छायावादी कविता के शीर्षस्थ आलोचक के रूप में जहां उन्हें मान्यता प्राप्त है वहां मध्यकालीन साहित्य में भी अभूतपूर्व  कार्य के लिए जाने जाते  हैं। उनकी समीक्षा-दृष्टि के निर्माण में छायावादी काव्य का विशेष
योगदान है। उनकी नूतन कल्पना छवियों, भावों और भाषा-शिल्प की ओर वे विशिष्ट आकृष्ट हुए। महावीर
प्रसाद द्ववेदी के भाषा-परिष्कार सम्बन्धी दृष्टिकोण का महत्त्व मानते हुए उन्होंने प्रेमचन्द के आदर्शवाद को भी 
प्रशंस्य कहा।  उनका सर्वाधिक महत्व आधुनिक साहित्य के मूल्यांकन के लिए दृष्टि में नवोन्मेष के कारण माना जाता है।
 
वाजपेयी जी ने 'रस-निष्पत्ति: एक नयी व्याख्या' शीर्षक निबन्ध में भरतमुनि के प्रसिद्ध रस-सूत्र "विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद् रसनिष्पत्ति" की चार  प्रमुख व्याख्याओं के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए 'निष्पत्ति' का अर्थ 'उत्पत्ति' और 'संयोग' का 'सम्बन्धअर्थ दिया है और उनके मत को 'उत्पत्तिवाद' की संज्ञा दी है। अन्य आचार्यों अभिनव गुप्त; लोल्लट, आचार्य भट्टनायक आदि के रस- सिद्धांतों की भी अपने ढंग से मीमांसा की है। इस तरह वे एक मीमांसक के रूप में (भी) अपनी पुख्ता पहचान कायम करते हैं।
 
काव्य में प्रमुखतः सौन्दर्यानुसंधान कर उसे जीवन-चेतना सम्पृक्त करने का श्रेय आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी को है। वे कथा-साहित्य और नाट्या-लोचन में मुख्य-रूप से जीवन-चेतना, सामाजिक प्रभाव एवं उनके परिदृश्य का आंकलन करते हैं। 
 
जैनेन्द्र और अज्ञेय के कथा-साहित्य और उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटकों का विवेचन उन्होंने इसी दृष्टि-बिन्दु से किया है। रस-तत्त्व को समझने में सर्वप्रथम काव्य-लक्षण को लिया जाता है। काव्य को पारिभाषित करते हुए वाजपेयी ने लिखा है- "काव्य प्रकृत मानव अनुभूतियों का नैसर्गिक कल्पना के सहारे ऐसा सौन्दर्यमय चित्रण है, जो मनुष्यमात्र में अनुकूल भावोच्छ्वास और सौन्दर्य-संवेदन उत्पन्न करता है।" (नया साहित्य: नये प्रश्न,पृष्ठ 18)
 
एक निर्विकार मनस्वी की भांति वाजपेयी जी निबन्धों में की शैली निगमनात्मक और वैज्ञानिक है। चिन्तन के क्षेत्र में जिसकी विशेष महत्ता है। उनके निबन्धों की भाषा में प्रभविष्णुता तथा ओजस्विता के गुण-वैशिष्ट्य मिलते हैं। उनमें व्यर्थ का भाषा-आडम्बर या दिखावापन-बनावट नहीं है। वे एक सफल शब्द-शिल्पी थे। 

'छायावाद' वाजपेयी जी का सर्वाधिक चर्चित निबन्ध है। इसमें उन्होंने वैयक्तिक प्रेम की अभिव्यंजना की रहस्यात्मकतासौन्दर्यमूल्य का सूक्ष्म चित्रण, प्रकृति में चेतना का आरोपण तथा व्यक्तिवाद के साथ गीति-शैली का उल्लेख किया है जो आलोचना के प्रतिमान तय करते हैं।"
 
वाजपेयी की आलोचना-पद्धति
आचार्य शुल के बाद नन्ददुलारे वाजपेयी हिन्दी के समर्थ आलोचक हैं। उन्होंने लिखा है, 'साहित्य का प्रतिमान अनुभूति है।' वे साहित्य-सृजन में अनुभूति की प्रेरणा स्वीकारते हैं। उनके शब्दों में, 'अभिव्यंजना काव्य नहीं है। काव्य अभिव्यंजना से उच्चतर तत्त्व है इसका सीधा सम्बन्ध मानव जगत से है और मानस-वृत्तियों से है,जबकि अभिव्यंजना का सम्बन्ध केवल सौन्दर्यपूर्ण प्रकाशन से है।

वाजपेयी जी प्रगतिवादप्रयोगवाद और नयी कविता से टकराते हुए भीअपनी स्वच्छन्दतावादी चिन्तन-भूमि का अतिक्रमण नहीं कर पाये। निस्संदेह उन्होंने हिन्दी आलोचना को एक नयी भाषानयी पद्धति दी और पाश्चात्य खेमेबाजी आलोचनात्मक परम्परा से मुक्त कर नये उर्वर प्लेटफार्म पर प्रतिष्ठित किया उनकी आलोचना में भारतीय रस- सिद्धान्त, पाश्चात्य आलोचना सिद्धांत है।

 एक प्रकार से उन्होंने शुक्लजी की आलोचना को आधार बनाकर उसमें अपेक्षित प्रवृत्तियों की पूर्ति करने का सार्थक प्रयास किया है, और शुक्ल जी की नीतिशास्त्रतथ्यात्मक  निरूपण पद्धति सहित भावात्मक शैली की विकास किया है। इस तईं वाजपेयी जी की आलोचना अधिक व्यापक,पूर्वाग्रहों से मुक्त एवं उदात्त है। वे साहित्य को सामाजिक पृष्ठभूमि में रखकर उसकी सामाजिक प्रयोजनीयता  को परखने  थे। उन्होंने अधिकांश प्रयोगात्मक आलोचनाएं लिखी हैं जिनमें यथास्थान-सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है। 
 
क्षेत्र की दृष्टि से उनकी आलोचना का विस्तार अधिक है। द्विवेदी युग के कवियों तथा लेखकों से लेकर नयी कविता के लेखोंउपन्यासों एवं नाटकों के रचयिताओं को भी उनकी लेखनी का स्पर्श प्राप्त हुआ है। विशेष रूप से प्रसाद, निराला, प्रेमचन्द, मैथिलीशरण गुप्त पर उन्होंने समीक्षात्मक लेख लिखकर हिन्दी आलोचना साहित्य को समृद्ध किया है। निबन्ध -लेखन में भी उनकी प्रशंसनीय प्रतिभा का परिचय मिलता है। उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार के समीक्षात्मक निबन्ध लिखे हैं।
 
वे आलोचना के संक्रान्ति काल के सेतु थे। उन्होंने संरचनात्मक आलोचना या नयी आलोचना की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। दरअसल उन्हें नयी आलोचना की तलाश थी जिसके संधान वे निरन्तर लीन रहे और 'हिन्दी -साहित्य: बीसवीं शताब्दी', 'आधुनिक साहित्य' तथा 'नया साहित्य, नये प्रश्न' अपनी आलोचनात्मक कृतियों में उन्होंने नयी स्थापनाएँ की हैं। प्रसाद, निराला, पन्त को हिन्दी कवियों की वृहत्त्रयी के रूप में प्रतिष्ठित किया है जो सदैव भावी पीढ़ी को नयी दिशा-दृष्टि देती रहेगी।अस्तु।
उनकी आलोचना को 'नयी आलोचनाका नाम दिया जा सकता है।

संक्षिप्त जीवनवृत्त

नाम   

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी

जन्म-तिथि 

  सितम्बर १९०६  

जन्म-स्थान 

गांव-मगरायर,उन्नाव (उ. प्र.)

पिता

गोवर्धन लाल वाजपेयी

माता

जनक दुलारी

स्मृति-शेष 

२१  अगस्त १९६७ ई.

प्रकाशित कृतियाँ

जयशंकर प्रसाद (१९३९),  हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी (१९४२)आधुनिक हिन्दी-साहित्य (१९५०)महा-कवि सूरदास (१९५३)प्रेमचन्द: साहित्य विवेचन (१९५४)नया साहित्य! : नये प्रश्न (१९५५)राष्ट्रभाषा की कुछ समस्याएं (१९६१)कवि निराला (१९६५)राष्ट्रीय साहित्य नया अन्य निबन्ध (१९६५)प्रकीर्णिका (१९६५)हिन्दी-साहित्य का संक्षिप्त इतिहासआधुनिक काव्य: रचना और विचार, नयी कविता (१९७६)कवि सुमित्रानंदन पन्त (१९७६)रस -सिद्धांत: नये सन्दर्भ (१९७७), आधुनिक साहित्य: सृजन और समीक्षा (१९७८), हिन्दी-साहित्य का आधुनिक युग (१९७९)रीति और शैली(१९७९)हिन्दी भाषा का उद्गम और विकासहिन्दी-साहित्य के विकास की रूपरेखाहिन्दी मूल और शाखा सम्पादित के अलावा वीर-काव्यकबीर-साहित्य की परख 

वाजपेयी जी पर केन्द्रित कृतियाँ

1- नन्ददुलारे वाजपेयी रचनावली-८ खण्ड सम्पा. विजयेंद्र सिंह (२००८)
2- 
नन्ददुलारे वाजपेयी (विनिबन्ध) - सम्पा प्रेमशंकर (१९८३ )
3- 
आलोचक का स्वदेश (जीवनी) - विजयबहादुर सिंह (२००८ )


 
सन्दर्भ:
 
1.  हिन्दी -साहित्य: बीसवीं शताब्दी/ नन्ददुलारे वाजपेयी
2.  हिन्दी- साहित्य का इतिहाससम्पा. डॉ.नगेन्द संस्करण १९७८ नेशनल पब्लि. हाउसनई दिल्ली
3.  बीसवीं सदी: हिन्दी के मानक निबन्ध/ सम्पा. डॉ.राहुल, भावना प्रकाशन, २०९-, पटपड़गंज 
    दिल्ली- ९१ 
4.  सारस्वत साहित्यकार:डॉ.सुन्दरलाल कथूरियासम्पा. डॉ.राहुल,गुजरात प्रान्त राष्ट्रभाषा प्रचार 
    समिति,अहमदाबाद
5.  जयशंकर प्रसाद,श्री नन्द दुलारे वाजपेयीभारती भंडार, इलाहाबाद
6.  नया साहित्य और नये प्रश्न, नन्ददुलारे वाजपेयी

 लेखक परिचय:

डॉ. राहुल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त; अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित 'युगांक' (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पिण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है। इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।”
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है।

5 comments:

  1. राहुल जी नमस्ते। आपने आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी जी पर बहुत समृद्ध लेख लिखा है। लेख उनके साहित्यिक योगदान का परिचय बखूबी देता है। आपने उनके सृजन की विशेषता को रोचक ढँग से प्रस्तुत किया है। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  2. बहुत सार गर्भित लेख अद्भुत लेखन शैली के साथ प्रस्तुत किया। विशिष्ट छाप आलेख से लग रही कि व्यक्तित्व की गरिमा कितनी ऊँची होगी। प्रेरणास्पद लेखन 👍🏻बधाई हो सर

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  3. राहुल जी, नमस्ते। आचार्य नंद दुलारे वाजपेयीजी का परिचय और उनके रचना-कर्म को जानकर ज्ञान वृद्धि तो हुई ही और एक बार फिर इस अनूभूति से विस्मित हो गयी कि हमारे साहित्यकार विभिन्न क्षेत्रों में कितनी लगन से कितना सार्थक काम कर गए हैं! वैसे आपका हर आलेख किसी ऐसे आलोचक, निबंधकार को लेकर आता है जिस से हम जैसे हिंदी के छात्र न रहे लोगों की जानकारी में इज़ाफ़ा होता है। आपको इस लेख के लिए बधाई और आभार।

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  4. राहुल जी आपने आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी जी पर बहुत जानकारीपरक और शोधपूर्ण लेख लिखा है। प्रस्तुत लेख से उनके साहित्यिक योगदान, जीवन वृतांत और सृजनात्मक विशेषताओं को आपने समग्रता के साथ हम पाठक से परिचित कराया है। आपको इस समृद लेख के लिए हार्दिक बधाई।🙏🏻

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  5. आदरणीय राहुल जी,
    बहुत समृद्ध और सारगर्भित लेख के द्वारा आपने नंद दुलारे वाजपेई जी के साहित्यिक योगदान और नई आलोचना के विषय में उनके महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन किया है। बधाई और शुभकामनाएँ।

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