‘तार सप्तक’ के सात कवियों में से एक नेमिचंद्र जैन, हिंदी साहित्य में अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने जिंदगी के मंच पर कवि, साहित्यालोचक, नाट्य-आलोचक, अनुवादक, पत्रकार और संपादक सभी उत्तरदायित्वों का निर्वहन किया और जिस क्षेत्र में भी वे गए, उसे अपना बना लिया। नेमिचंद्र जैन ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा और कार्य के प्रति समर्पण भावना से अपने दौर तथा अपने समकालीनों को प्रभावित किया । कवि ह्रदय नेमीचंद जैन ने कविता, उपन्यास, नाट्य समीक्षा में तो नए प्रतिमान स्थापित किए ही, भारतीय रंगमंच को ‘नटरंग प्रतिष्ठान’ के संस्थापक अध्यक्ष और रंगमंच की विख्यात पत्रिका ‘नटरंग’ के संस्थापक संपादक के रूप में भी एक नई दृष्टि प्रदान की । नेमिचंद्र जैन ने साहित्य,कला,नाटक और रंगमंच,आलोचना,दर्शन एवं सभ्यता-संस्कृति-परंपरा सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य किया जिसके कारण वे साहित्य-जगत में एक दक्ष साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए । नेमिचंद्र जैन की मानस-भूमि में उपजी और अभिव्यक्त हुई सर्जनात्मक मान्यताओं में जहाँ एक ओर दृढ़ता दृष्टिगोचर होती है, वहीं दूसरी ओर विराट मानवीय चिंता एवं मर्यादावादी दृष्टि का भी परिचय मिलता है।
१९१९ में आगरा में जन्मे नेमिचंद्र जैन की प्राथमिक शिक्षा आगरा में हुई । उनके पिता का व्यापार मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला था। माता-पिता के साथ बालक नेमिचंद्र को बरिया सागर निवास करना पडा और यहाँ उनकी मुलाक़ात समवयस्क प्रभाकर माचवे से हुई | यह मुलाक़ात मित्रता में बदली और साहित्यिक यात्रा के लिए कारगर साबित हुई। नेमिचंद्र जैन ने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत और कला की ओर रुझान के लिए प्रभाकर माचवे को प्रेरणा स्रोत माना है। कविता लेखन की ओर वे प्रवृत्त हुए और उनकी प्रारंभिक कविताएँ ‘कर्मवीर’ और ‘वीणा’ में छपीं जिससे उनका साहित्यिक उत्साह बढ़ा और कुछ नया कर गुजरने की नई ऊर्जा का संचार हुआ। आगरा में अध्ययन के दौरान प्रोफ़ेसर प्रकाशचंद गुप्त के माध्यम से वामपंथी राजनीति से जुड़ गए और प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों में उनके सक्रिय संयोजन एवं कम्युनिस्ट पार्टी के आधारभूत कार्यों से जुड़ गए इन कार्यों ने उन्हें नए मार्ग दिखाए।
१७ वर्ष की अवस्था में उनका रेखा जैन से विवाह हुआ। उन्होंने पत्नी को पारंपरिक पारिवारिक परिवेश से आधुनिक विचार शैली की ओर साथ ले चलने का सकारात्मक निर्णय लिया । इसके लिए नेमिचंद्र जैन ने डॉ नारायण विष्णु जोशी द्वारा आम जनता को सुशिक्षित बनाने के उद्देश्य से उज्जैन के निकट शुजालपुर में स्थापित ‘शारदा शिक्षा सदन’ में अध्यापक की नौकरी शुरू कर दी। शुजालपुर प्रवास नेमिचंद्र और उनकी पत्नी रेखा के लिए लाभदायक रहा जहाँ उनदोनों की मुक्तिबोध और उनकी पत्नी शांता , क्रांतिकारी विचारधारा के डॉ नारायण विष्णु जोशी एवं उनकी पत्नी कुसुम से प्रगाढ़ता हुई और उन्हें कम्युनिज्म का असली साम्यवादी चेहरा देखने को मिला। उन्हें यहीं साहित्य और राजनीति की चर्चाओं में सहभागिता का अवसर भी मिला और इन चर्चाओं में कलकत्ता से भारत भूषण अग्रवाल,खंडवा से प्रभागचंद्र शर्मा ,उज्जैन से प्रभाकर माचवे ,मुक्तिबोध, डॉ नारायण विष्णु जोशी शामिल होते ।इस वातावरण से नेमी जी की पत्नी रेखा को भी आधुनिक जीवन से जुड़ने का अवसर मिला। शुजालपुर वामपंथियों का अड्डा बन गया था और ब्रिटिश सरकार कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोगों की धरपकड़ करने लगी तो विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए नारायण विष्णु जोशी शुजालपुर से कानपुर, मुक्तिबोध उज्जैन और नेमिचंद्र कोलकाता चले गए। कलकत्ता प्रवास में नेमिचंद्र ने कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक स्वाधीनता’ में काम किया और यहाँ रहते हुए वे ‘इप्टा’ के सदस्य बने साथ ही साथ नृत्य-नाटिकाओं के लिए भी हिंदी गीत लिखते रहे ।यहाँ से उनका नाट्य-रंगमंच से जो रिश्ता बना वह अंतिम साँसों तक बना रहा ।
‘तारसप्तक’ प्रकाशन की परिकल्पना नेमिचंद्र जैन के मानस की उपज रही जिनमें छह कवियों (प्रभाकर माचवे,मुक्तिबोध,प्रभागचंद्र शर्मा,वीरेंद्र कुमार जैन , गिरिजाकुमार माथुर और नेमिचंद्र जैन शामिल थे। इस बात का प्रमाण ज्योतिष जोशी की पुस्तक ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ में इस प्रकार मिलता है-“ संग्रह का नाम ‘तार सप्तक’ नेमिचंद्र जैन को सूझा था,जिसमें शामिल किए जाने वाले तीसरे कवि की तलाश थी। छपाई के लिए कोई प्रकाशक ढूँढने या स्वयं कवियों द्वारा आर्थिक सहयोग से प्रकाशन की सोची गई गई थी। नेमिचंद्र जैन को एक सम्मलेन में दिल्ली आना हुआ और इस दौरान उन्होंने सच्चिदानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ से संग्रह के संबंध में चर्चा की। अज्ञेय को यह यह विचार पसंद आया और उन्होंने इसे प्रकाशित कराने का आश्वासन दिया।योजना के अनुसार जब कुछ प्रस्तावित कवि उसमें शामिल न हो सके तो भारतभूषण अग्रवाल,अज्ञेय और रामविलास शर्मा को उसमें शामिल कर सात कवियों की पांत बनाई गई ,जिसका सांगीतिक नाम हुआ ‘तारसप्तक’। ”
१९५४ में नेमिचंद्र जैन ने दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी में सहायक का पदभार ग्रहण किया। इप्टा के साथ रहते हुए वे सभी कलाओं के अनुगामी बन गए थे संगीत,नृत्य,अभिनय सब उनके स्वभाव में बस गया था और अकादमी से जुड़ने के बाद वे नाट्यलोचन से गहरे जुड़ गए जो उनकी रचनात्मकता का स्वर्णिम समय रहा। दिल्ली में ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा एंड एशियन थियेटर इंस्टीटयूट’ संस्था की स्थापना हुई और संस्था के पाठ्यक्रम, प्रशिक्षण और देखभाल के लिए नेमिजी को एक विशेष अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। इस तरह देखा जाए तो नेमिचंद्र जैन का जीवन जद्दोजहद भरा रहा | बचपन से उन्होंने परम्परागत,रूढ़ मूल्यों के प्रति विद्रोह किया और जीविका की तलाश में शुजालपुर,कलकत्ता,मुम्बई, इलाहाबाद,आगरा, दिल्ली में पहले संगीत नाटक अकादमी, नाट्य विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नटरंग प्रतिष्ठान में सक्रिय भूमिका का निर्वहन करते रहे।
नेमीचन्द्र स्वभावतः कवि ह्रदय व्यक्ति रहे और यह भी सर्वविदित है कि उन्होंने कविता से ही सृजन प्रारंभ किया था। बीसवीं सदी के चालीस के दशक में नेमिचंद्र जैन की पहली कविता 'विजयादशमी', पत्रिका 'लोकयुद्ध' में प्रकाशित हुई थी । सृजनात्मक संसार में नेमिचंद्र जैन की कविता में आत्मसजग भारतीय मध्यवर्ग की जीवन चेतना को ,बृहत्तर भारतीय मानवीय समुदाय के राजनीतिक,सामाजिक और आस्तित्विक समस्याओं और अनुभवों से जोड़ने की कोशिश मिलती है । नेमीचंद जैन की कविता के संबंध में ज्योतिष जोशी लिखते हैं कि ’उनकी कविताओं का फलक विस्तृत और अर्थवत्ता बड़ी तीक्षण है। कवि नेमिचंद्र ने कम लिखने के बावजूद ऐसी अनेक कवितायें लिखीं हैं जो हिंदी की समकालीन कविता में अपनी अंतर्दृष्टि के कारण महत्वपूर्ण हैं । उनकी प्रगतिशीलता और सामाजिक प्रतिबद्धता ख्यात रही है। जीवन की जटिलताओं,संघर्षों और स्वप्नों के बीच पशुओं जैसी जिंदगी गुजार रहे लोगों पर कवि की दृष्टि पडती है तो वह आहत ही नहीं होता,उसके भीतर टूट-फूट भी होती है,जिससे उसे नींद नहीं आती। समाज के हालात पर चीत्कार कर वह रचता है-
आप चाहें,या न चाहें
दीख पड़ते हैं पड़े फुटपाथ पर
मैदान में सब ओर
चारों ओर सोए,लुढ़कते गुड्मुड हुए
ढाँचे , निरे बस हड्डियों के ।
भूख से व्याकुल तड़पते बालकों का
दीन कैं- कैं स्वर, बिना खाए
या कि खाकर रोग से
मरते हुए नर-नारियों की रुद्ध-सी चीत्कार।
नेमिचंद्र जैन सर्वहारा वर्ग की दयनीय स्थितियों से व्याकुल होकर समाज में व्याप्त अराजकता से दुखी होते हैं। समाज में सर्वहारा वर्ग ही सर्वाधिक है पर बदहाल जीवन बसर करने को मजबूर रहता है। मानव कल्याणार्थ साहित्य सृष्टा की भावनाएं और संवेदनाएं उस समाज को अभिव्यक्ति देते हैं । साम्यवाद से प्रभावित नेमिचंद्र अपने देश की वास्तविक दशा को नहीं भुला पाए,इसी से उत्साह और आशा एक अर्थ रखते प्रतीत होते हैं-
कहीं चीख उठा
भोंपू किसी मिल का
चले मजदूर ।
कूड़े की बदबू भरी गलियों में
गंदी तंग चालों में पशुओं की मांदों
और पक्षियों के कोटरों से बदतर घिनौने
उन घरों से निकले।
नेमिचंद्र जैन के दो कविता संग्रह ‘एकांत’ और ‘अचानक हम फिर’ प्रकाशित हुए और उनमें सम्मिलित कविताओं का भावबोध कवि के अंतरतल को अभिव्यक्त करता है और समाज का यथार्थ प्रस्तुत करने का सामर्थ्य भी उनमें विद्यमान है। कविताओं में कहीं भी पश्चिम का विरोध या भारतीयता का पाखण्ड नहीं है जो सामान्यत: उनके समकालीन कवियों की रचनाओं में दिखाई देता है। प्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने नेमिचंद्र जैन की कविताओं के संदर्भ में लिखा है कि ‘उनमें प्रभाकर माचवे या भारत भूषण अग्रवाल जैसा व्यंग्य या विडम्बना बोध भी नहीं है,न गिरिजाकुमार माथुर जैसी तरलता या ध्वनि-बोध या रामविलास जी वाला ग्राम अनुभव । लेकिन नेमी जी की कविता में जो तत्व है-‘भीतर मन को देखने की क्षमता’- वो बाकी सबमें कम ही था। ’ अंतर्संवाद, प्रश्नानुकूलता, विवेक, चिन्तनशीलता, सूक्ष्म बौद्धिक और भावात्मक विमर्श नेमिचंद्र जैन की कविताओं की विशेषताएं हैं । वे अपने अंतर्मन से संघर्ष करते हुए सार्वजनिक जीवन के यथार्थ से टकराते हैं तभी तो कह पाते हैं-
मैं जूझ रहा चट्टानों से अपने मन की
पड़ रही अनवरत चोटें जीवन के घन की
हो उठे प्राण उद्दीप्त एक अभिलाषा से
है चाह न मुझको आज किसी आश्वासन की ।।
समग्रत: हम पाते हैं कि नेमिचंद्र अपनी कविताओं में सामजिक संघर्ष के आशयों को प्रतिपादित करते रहे सांच को आंच क्या की परम्परा का निर्वहन करते चले।
नेमिचंद्र जैन ने साहित्यिक विधाओं की आलोचना को प्रतिष्ठापित करने का उपक्रम किया खासतौर पर आलोचन के क्षेत्र में | औपन्यासिक आलोचना और नाट्यालोचन में उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । साहित्य में औपन्यासिक आलोचना एक अछूता पक्ष रहा जिस पर नेमिचंद्र जैन जी ने वैज्ञानिक प्रतिमान और नवीनता के साथ कलम चलाई। ‘अधूरे साक्षात्कार’ औपन्यासिक आलोचना पर आधारित उनकी पहली रचना थी जिसमें उन्होंने नवीन आलोचना पद्धति के साथ उपन्यासों की प्रत्येक तह को वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचित और विश्लेषित किया है। नेमिचंद्र जी ने इस आलोचना पद्धति के लिए अनुभूति की गहराई और कलात्मक-सौंदर्यमूलक संपूर्णता को सर्वोपरि तत्व माना है । उन्होंने ‘अधूरे साक्षात्कार की भूमिका में लिखा है –‘आज की बौद्धिक उथल-पुथल और भावगत अंतर्द्वन्द्व जीवन और उसके परिवेश में प्रतिष्ठित करके अंकित करने तथा इन विविध पक्षों के परस्पर संबंध और महत्व को दर्शाने के लिए उपन्यास उपयुक्त विधा है। उपन्यास आज के संवेदनशील व्यक्ति के लिए न केवल आत्माभिव्यक्ति का बल्कि बहुत कुछ आत्मान्वेषण और आत्मोपलब्धि का भी साधन बनता है और इस प्रकार किसी भी कलात्मक सृष्टि के मौलिक धर्म पालन में सहायक होता है। ’ नेमीचंद जैन ‘जनांतिक’ पुस्तक में कविता,कहानी,नाटक और आलोचनात्मक ग्रंथों के साथ-साथ उपन्यासों पर विस्तृत आलोचनात्मक दृष्टि से उनका विश्लेषण करते हैं। ‘भाववस्तु की एकाग्रता’ में नेमिचंद्र जैन ने उपन्यासों के विविध पात्रों के भावों,मानसिकताओं और उनके आतंरिक सूत्रों की एकता की पड़ताल की है। जहाँ उन्होंने कृष्ण बलदेव के उपन्यास ‘उसका बचपन’ की भाववस्तु की एकाग्रता को महत्वपूर्ण उपलब्धि माना है वहीं अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’ उपन्यास की भाववस्तु की तीव्रता के काव्यात्मक होने के कारण अनूठा माना है । परमानंद श्रीवास्तव ने नेमिचंद्र जैन की औपन्यासिक आलोचना की भाषा के संबंध में लिखा है-‘नेमिचंद्र की आलोचना शब्दों की फिजूलखर्ची नहीं है। आलोचनात्मक भाषा में एक अद्भुत कसाव है। यह पंडितों की भाषा नहीं है , सर्जनात्मक संवेदना से स्फूर्त एक नयी आलोचना भाषा है जिसमें आलोचक का तेवर नहीं, आलोचक का गहरा कलात्मक संस्कार स्पष्ट झलकता है। उनके सुसंगत,समग्र साहित्यबोध का प्रमाण देनेवाली आलोचना में जो विलक्षण चुस्ती या कसाव है वह उनकी गहरी नैतिक अंतर्निष्ठा की देन है।’ (सम्यक –पत्रिका पृष्ठ ५४-५५) नेमिचंद्र जैन ने हिंदी में औपन्यासिक आलोचना को प्रतिष्ठापित करने,उनके नए प्रतिमानों को सुनिश्चित करने के जो प्रयास किए उसके लिए उन्हें औपन्यासिक आलोचना का स्थपति कहा जाता है।
नेमिचंद्र जैन बहुभाषाविद थे । उनका हिंदी ,बांगला,मराठी,कन्नड़,गुजराती, संस्कृत, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर समान अधिकार था तभी तो उन्होंने अनेक अनुवाद साहित्य-समाज को सुलभ कराए । अनुवाद के क्षेत्र में उन्होंने विजन भट्टाचार्य के लघु नाटक ‘ज़बानबंदी ‘के अनुवाद से शुरुआत की । फ्रेंच उपन्यासकार स्तान्धाल के उपन्यास ‘Le Rough Et Le Noir का ‘सुर्ख और स्याह’ नाम से अनुवाद , एम एन श्रीनिवास के भाषणों का अनुवाद ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ , शचीन सेन गुप्त के बंगला नाटक ‘पन्ना दाई’ का हिंदी अनुवाद ’ पन्ना धाय’, हेनरिक इब्सेन के नाटक एन एनिमी दि पीपुल का ‘दशचक्र’ नाम से अनुवाद, संस्कृत के प्रसिद्ध प्रहसनों के हिंदी अनुवाद - बोधायन के ‘भगवदज्जुमक’ का ‘प्राचीन व्यंग्य नाटक’ ; महेंद्र विक्रम बर्मन के ‘मत्तविलास’ ;वत्सराज के ‘हास्य चूडामणि‘ आदि उनके प्रमुख अनूदित कार्य हैं ।
नेमिचंद्र जैन ने संपादक के रूप में भी साहित्यजगत में अपनी पहचान बनाई । 'मुक्तिबोध रचनावली' ‘पाया पत्र तुम्हारा’ और 'मोहन राकेश के संपूर्ण नाटक' जैसी किताबों से सच मायने में मुक्तिबोध को नई ऊंचाई दी। आपने ‘प्रतीक’, ‘बाल मासिक ‘मनमोहन’, ‘नटरंग’ आदि के संपादन का दायित्व भी निभाया और उन्हें प्रसिद्धि दिलाई।
नंद किशोर आचार्य और डॉ.ज्योतिष जोशी ने नेमिचंद्र जैन के साहित्य संसार को ‘नेमिचंद्र जैन रचनावली -आठ खंड’ के माध्यम से हिंदी पाठकों को उपलब्ध कराया है। हिंदी से प्यार है का मंच कवि, औपन्यासिक आलोचना के प्रतिष्ठापक, नाट्यालोचक महत्वपूर्ण विभूति के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करता है ।
संदर्भ
भारतीय साहित्य के निर्माता –ज्योतिष जोशी
मेरे साक्षात्कार –नेमिचंद्र जैन
सम्यक पत्रिका
नटरंग पत्रिका
https://www.deshbandhu.co.in/parishist/nemichandra-jain-the-bad-king-of-modern-color-review-77312-2