निबंध नाम तो बंधन का संकेत देता है, किंतु यह अपने नाम के विपरीत बंधनमुक्त और बंधनहीन अधिक है। हिंदी के बड़े निबंधकारों में डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल एक प्रसिद्ध नाम है, जिन्होंने निबंध लेखन के साथ ही साहित्य की अन्य विधाओं में भी महत्वपूर्ण सृजन किया है। मेरठ, उत्तरप्रदेश के खेड़ा ग्राम में ७ अगस्त १९०४ को जन्मे डॉ० अग्रवाल का बाल्यकाल लखनऊ में ही व्यतीत हुआ और वहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी हुई। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से १९२९ में एम० ए० करने के पश्चात वहीं से १९४१ में पी० एच० डी० तत्पश्चात डी० लिट० की उपाधियाँ प्राप्त की। उनका शोधग्रंथ है, "पाणिनिकालीन भारत" जिसकी साहित्य जगत में विशेष प्रशंसा हुई। अध्ययन के प्रति उनकी रुचि अनवरत बनी रही। उन्होंने हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत, पालि, प्राकृत,अपभ्रंश आदि भाषाओं का गहन अध्ययन करके एक विद्वान के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की।
भाषा विशेषज्ञ होने के कारण उनकी भाषा में बहुज्ञता झलकती थी। उन्होंने साहित्य सृजन के अलावा पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। इस तरह वे पत्रकार-साहित्यकार थे।
भाषा विज्ञान के प्रकांड पंडित डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल हिंदी साहित्य के निर्माताओं में से एक थे। उन्होंने अपने ज्ञान और श्रम से हिंदी साहित्य को समृद्धि तो प्रदान की परंतु पुरातन को ही अपना वर्ण्य विषय बनाया और निबंध विधा के माध्यम से अपने ज्ञान को अभिव्यक्त किया। उनके निबंधों में भारतीय संस्कृति का उदात्त रूप दृष्टिगत होता है। उनके निबंधों की भाषा और आलोचनात्मक भाषा में शब्द-चयन और प्रयोग के दो छोर दिखाई देते हैं, एक तरफ तर्क-शक्ति व कल्पना-शक्ति की सहृदयता और भाषिक सरलता है, तो दूसरी ओर बौद्धिकता और भाषाई प्रयोगधर्मिता। उनके मतानुसार, विश्लेषण शब्द का अर्थ है, ज्ञान, विवेक तथा तर्क के आधार पर सर्वांग विवेचन तथा विश्लेषण करना। हिंदी साहित्य के इतिहास में वे अपनी मौलिकता, विचारशीलता और विद्वत्ता के लिए चिरस्थायी रहेंगे।
कार्यक्षेत्र की कर्मशीलता
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल १९२९ से १९४० तक मथुरा पुरातत्त्व संग्रहालय के अध्यक्ष रहे। १९४६ में डी० एल० ई० डी० (Diploma In Elementary Education) की उपाधि प्राप्त की। १९४६ से १९५१ तक सेंट्रल एशियन एक्टिविटी म्यूज़ियम के सुपरिटेंडेंट और भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष रहे। १९५१ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी (भारतीय महाविद्यालय) का पदभार संभाला। १९५२ में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद सुशोभित किया। उसी वर्ष वे लखनऊ विश्वविद्यालय के राधाकृष्ण मुखर्जी व्याख्याननिधि की ओर से व्याख्याता नियुक्त हुए। इसके अतिरिक्त भारतीय मुद्रा परिषद(नागपुर), भारतीय संग्रहालय परिषद, पटना, आल इंडिया ओरिएंटल कांग्रेस, फाइन आर्ट सेक्शन, बंबई (मुंबई) आदि संस्थाओं के सभापति भी रहे। इस तरह डॉ० अग्रवाल ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से विभिन्न क्षेत्रों को लाभान्वित किया।
साहित्यिक अवदान
साहित्य मर्मज्ञ डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के कृतित्व एवं उससे उपजे यश का अमर आधार उनके द्वारा प्रस्तुत संस्कृत एवं हिंदी ग्रंथों का सांस्कृतिक अध्ययन एवं व्याख्या है। संस्कृत में कालिदास एवं बाणभट्ट के ग्रंथों से लेकर पुराण तथा महाभारत तक और हिंदी में विद्यापति के अवहट्ठ काव्य से लेकर मलिक मोहम्मद जायसी के अमर महाकाव्य पद्मावत तक उन्होंने इन ग्रंथरत्नों का विस्तृत बहु-आयामी अवगाहन किया। भारत के सांस्कृतिक दर्शन का अनुपम ग्रंथ "पाणिनिकालीन भारत" में उन्होंने पाणिनि के अष्टाध्यायी के माध्यम से भारत की महान संस्कृति एवं जीवन-दर्शन पर प्रकाश डाला है। उन्होंने भाषा और साहित्य के सहारे भारत का पुनः अनुसंधान करते हुए उसमें वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विधि का प्रयोग किया है। यह विश्वकोश स्वरूप का ग्रंथ है और अनुक्रमणिका के सहारे कोशीय रूप में उसका अध्ययन सुलभ भी है और उत्तम भी।
वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'पृथिवी-पुत्र' तथा 'कला और संस्कृति' के निबंधों में भारतीय संस्कृति के विविध आयामों को बड़ी बारीकी और विद्वत्तापूर्ण विधि से विवेचित किया है। उनके निबंधों में विचारात्मक, विश्लेषणात्मक निबंध अधिक हैं। विश्लेषणात्मक निबंधों में ही समीक्षात्मक निबंधों को शामिल कर सकते हैं। डॉ० अग्रवाल ने व्यक्तित्व-व्यंजक निबंध कम लिखे हैं। 'कल्पलता', 'मातृभूमि' और 'भारत की एकता' में उनके वैचारिक और 'वेद-विद्या और वाग्बधारा' निबंध में निबंध की अर्थवत्ता को नई सांकेतिकता मिलती है। कला और संस्कृति में नवीन जीवनवृत्त और उत्कृष्ट जिजीविषा की ललक दिखाई पड़ती है। उनके निबंधों को चार शैलियों में विभक्त कर सकते हैं- गवेषणात्मक शैली : पुरातत्त्व से संबंधित गवेषणात्मक निबंधों में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसमें भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा वाक्य लम्बे-लम्बे हैं। कहीं कहीं अप्रचलित पारिभाषिक शब्द भी प्रयुक्त हैं, यथा,
"ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृत है। भूमि पर बननेवाले जन-जन के ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में रचा है दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं।"
जायसी के पद्मावत की व्याख्या डॉ. अग्रवाल ने व्याख्यात्मक शैली में विषय को स्पष्ट करते हुए की है। क्लिष्ट प्रसंगों को सरल भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है जिसे पाठक आसानी से समझ ले।
भावात्मक शैली का प्रयोग उन स्थलों पर हुआ है जहाँ लेखक का हृदय पक्ष-प्रधान हो गया है। इसमें आलंकारिकता का समावेश भी हो गया है। भाषा में सरलता के साथ काव्यमयता का संचार भी हुआ है।
"जीवन में विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ से ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है।" उद्धरण शैली में वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने निबंधों के द्वारा अथर्ववेद के इस कथन को पुष्ट किया है–
"माता भूमिः, पुत्रो अहं पृथिव्याः अर्थात यह भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।"
इस प्रकार उनके निबन्ध कथ्य और कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। वे यथार्थवाद के विकास का पथ प्रशस्त करते हैं।
आलोचना की नई दिशा
भारतीय संस्कृति के पुरोधा डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल की दृष्टि साहित्य की अन्य विधाओं की भांति आलोचना में भी नई संभावनाओं की ओर उन्मुख दिखाई देती है। उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुग्रह से पद्मावत की ओर प्रवृत्त होकर एक व्याख्यात्मक ग्रंथ रचा। पद्मावत की यह सजीवनी व्याख्या तथा हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन समीक्षात्मक ग्रंथ नई समीक्षा के संकेत-चिह्न हैं। वे किसी विषय या तथ्य की गहराई में जाकर उस पर गहनता से विचार करते हैं या कहें कि विषय के मर्म को पकड़कर उसकी विवेचना करते हैं। संरचनात्मकता को महत्व देने के साथ मूल्यों पर विशेष ध्यान रखते हैं। उनकी आलोचना सर्जनात्मक कोटि की कही जा सकती है। उन्हें पाश्चात्य प्रभाव से परे नई आलोचना की तलाश थी, जिसकी उर्वर भूमि उन्होंने तैयार की। उसे शास्त्रीय समीक्षा-पद्धति (क्लासिकल क्रिटिसिज्म) कह सकते हैं। उनका रचना-संसार विशुद्ध हिंदी खड़ीबोली का है। समकालीनता की जटिल और संलिप्त संवेदना से पृथक उनकी संवेदना अपेक्षतया सीधी-सरल थी, उसमें अंतर्विरोध नहीं दिखते। यही कारण है कि वह अधिक ग्राह्य है।
साहित्य में स्थान
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल विलक्षण प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उनके निबंध हिंदी साहित्य में अन्यतम व महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वे एक उच्चकोटि के पुरातत्त्व विशेषज्ञ, अनुसंधानकर्ता, विद्वान, भावुक व्यक्तित्व और एक संपन्न मनीषी के रूप में हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। उनके निबंधों की मौलिकता, गंभीरता एवं विवेचन-पद्धति प्रशंसनीय है। उनकी आलोचना का स्वरूप सर्जनात्मक प्रकृति लिए मूल सृजन सी मूल्यवान है। अतः हिंदी साहित्य में उनका अवदान अविस्मरणीय है।
संदर्भ
हिंदी साहित्य का परिचय,आचार्य चतुरसेन शास्त्री, राजपाल एंड संस्कृत, दिल्ली (१९६१)
बीसवीं सदी : हिंदी के मानक निबंध (भाग-१), संपादन - डॉ० राहुल, भावना प्रकाशन, १०९ ए, पटपड़गंज, दिल्ली - ९१ (प्र - २००४)
हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादन - डॉ० नगेंद्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली-२ प्रथम संस्करण १९७८
निबंध : सिद्धांत और प्रयोग, डॉ० हरिहरात्मक नाथ द्विवेदी, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना-३, प्रथम संस्करण १९७१
सारस्वत साहित्यकार : डॉ० सुंदरलाल कथूरिया, संपादन - डॉ० राहुल, गुजरात प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, अहमदाबाद, प्र.स. २००४
डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल जी के विस्तृत साहित्य सृजन के बारे में जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDelete