कविता, नाटक, आलोचना, संस्कृति, कला, सभ्यता, अनुवाद, सम्पादन, चिंतन, विचार और मानवता का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिस पर नंदकिशोर आचार्य ने काम न किया हो। इन्होंने कई विधाओं में लिखा है; मुख्यतः ये एक कवि के रूप में जाने जाते हैं। अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘चौथा तार सप्तक’ के कवि रहे हैं। इसमें सर्वाधिक ३१ कविताएँ नंदकिशोर की हैं।
इनका जन्म ३१ अगस्त, १९४५ में बीकानेर, राजस्थान में हुआ था। इन्होंने अँग्रेज़ी साहित्य और इतिहास में उच्च शिक्षा प्राप्त की है और इतिहास में पीएचडी की है। जिस निम्न मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ था, उसमें कर्म से कोई ब्राह्मण नहीं था। इनके पिता का पालन-पोषण उनसे उम्र में १९-२० वर्ष बड़े भाई ने किया था, क्योंकि उन दोनों के पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी थी। इसलिए घर में ताऊ जी का बहुत आदर-सम्मान था। नंदकिशोर के पिता की पान की दुकान थी। वे बालक नंदकिशोर को चौथी कक्षा के बाद अपनी दुकान पर बैठाना चाहते थे लेकिन नंदकिशोर को यह मंज़ूर नहीं था। नंदकिशोर ने अपनी पढ़ाई रुकने की बात जब ताऊजी को बताई तो उन्होंने उसकी पढ़ाई तथा अन्य सभी ख़र्चे हमेशा के लिए अपने ऊपर ले लिए। नंदकिशोर कहते हैं कि आज वे जो कुछ-भी हैं, ताऊजी की बदौलत हैं। इनके घर में या घर के आस-पास साहित्यिक माहौल बिलकुल नहीं था, लेकिन ननिहाल में धार्मिक किताबें बहुत पढ़ी जाती थीं। नानाजी को कथाएँ पढ़कर सुनाते-सुनाते इनकी गंभीर साहित्य पढ़ने में गहरी रुचि हो गई और रोज़ कुछ-न-कुछ नया पढ़ना आदत बन गई। इसके अलावा बचपन से ही तुकबंदी करने की आदत थी। छठी-सातवीं कक्षा में पहली कविता लिखी; ‘जावेद नदीम’ उपनाम से कुछ ग़ज़लें भी लिखीं। इन्हें उर्दू लिपि नहीं आती थी, इसलिए देवनागरी में ही लिखा। हिंदी, बांग्ला और उर्दू साहित्य ख़ूब पढ़ा, विशेषकर अज्ञेय को। नवीं-दसवीं कक्षा में ‘शेखर एक जीवनी पढ़ी’, जिसका इनके व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ा था। बीकानेर में ही रहने वाले हिंदी और राजस्थानी के कवि हरीश भादानी के साथ इनका उठना-बैठना होता था। नंदकिशोर अज्ञेय से बहुत प्रभावित थे। आचार्य जी की कविताओं पर ग़ालिब की ग़ज़लों का भी असर है। गंभीर लेखन की शुरूआत वर्ष १९६६-१९६७ में एमए के दौरान ऐसे हुई थी - बीकानेर के ही एक लेखक राजा नल भटनागर ने मित्र-मंडली में नंदकिशोर को अज्ञेय पर बोलते हुए सुना था। भटनागर ने अपने प्रकाशक से नंदकिशोर से अज्ञेय की कविताओं पर एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखवाने का आग्रह किया। इसके लिए नंदकिशोर ने पहले तो मना कर दिया लेकिन फिर प्रकाशक के आग्रह और दबाव से ‘अज्ञेय की काव्यतितीर्षा’ लिखी। इसमें इन्होंने एक मुख्य बात यह कही है कि काव्य की समालोचना पहले से बने बनाये ढ़ाँचे पर न करके उस काव्य के प्रमाण-आधार पर की जानी चाहिए। यह पुस्तक अज्ञेय पर लिखी गयीं पहली दो-तीन पुस्तकों में से एक है। यह इनके लेखन के शुरूआती दौर की किताब होने के बावजूद अज्ञेय के समूचे काव्य पर एक बेहतरीन रचना मानी जाती है। इसके लिए इन्हें समग्र दृष्टि के आलोचक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई। आचार्य जी इस रचना के लिए भटनागर और उनके प्रकाशक के प्रति बहुत आभारी हैं।
इनके कुछ प्रमुख काव्य संग्रह हैं - ‘जल है जहाँ’, ‘शब्द भूले हुए’, ‘वह एक समुद्र था’, ‘आती है जैसे मृत्यु’, ‘कविता में नहीं है जो’ आदि। ‘छीलते हुए अपने को’ कविता संग्रह के लिए पिछले वर्ष इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि प्रेम एक प्रकार का समर्पण माँगता है। नंदकिशोर के विचार से प्रेम मनुष्य को बाँधता नहीं है, उसे स्वतंत्र करता है, उसके व्यक्तित्व को और पुष्ट करता है। अगर ऐसा नहीं है तो कहीं न कहीं नियंत्रण होता है और नियंत्रण स्वतंत्रता पर आघात करता है। प्रेम की अभिव्यक्ति पर एमए के दिनों में लिखी उनकी एक प्रारंभिक कविता है - बाँसुरी और मोरपंख
आचार्यजी की लघु-कविताओं में अपार भाव संसार लहराता है। प्रकृति-चित्रण के माध्यम से मानव-स्मृति में बसी मातृ-स्मृति -
इनकी कविताओं में राजस्थान की मरुभूमि की छाप सहज ही दिखती है -
अज्ञेय ने इनके बारे में कुछ यूँ लिखा है -"निकट भविष्य में ऐसी स्थिति आ जायेगी कि जिस प्रकार हम कुछ कवियों को सागर के कवि या कुछ कवियों को पर्वतीय सौंदर्य के कवि के रूप में याद करते हैं, उसी तरह नंदकिशोर आचार्य को ‘मरुस्थल के सौंदर्य के अद्वितीय कवि के रूप में याद किया जाएगा। उनकी कविता एक नई दिशा की ओर संकेत करती है, एक नई दृष्टि का प्रमाण देती है।"
नंदकिशोर ने कविता के साथ-साथ नाटक भी लिखे हैं। इनका ‘बापू’ नाटक हमारे समय की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। गाँधीजी के अंतिम दिनों की मनोदशा का चित्र खींचता है यह नाटक। ‘ज़िल्ले सुभानी’ नाटक में औरंगजेब के जीवन के माध्यम से मनुष्य के भीतरी राजनीतिक द्वंद्व दिखाए हैं। इनके अलावा ‘देहांतर’, ‘पागलघर’, ‘ग़ुलाम बादशाह’ भी इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। साहित्य को लोकप्रिय और सामान्य पाठक के लिए सुगम बनाने के उद्देश्य से भी आचार्य जी ने काम किया है। इन्होंने मीरा, कबीर तथा अन्य कवियों की रचनाओं के ऐसे छोटे-छोटे संकलन तैयार किये हैं, जहाँ उनकी मुख्य-मुख्य रचनाएँ एक साथ पढ़ी जा सकती हैं।
नंदकिशोर ने साहित्य एवं संस्कृति का अन्योन्याश्रित सम्बंध दिखाया है। इनका मानना है कि एक के बिना दूसरे की सार्थकर्ता सिद्ध नहीं की जा सकती है। वे यह भी कहते हैं कि हर मानव के जीवन में संस्कृति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता है और उसी की प्रतिध्वनि हमें साहित्य में सुनाई देती है। उनकी दृष्टि से संस्कृति निरंतर प्रवाहमान है जो समय के साथ अपने रूप में परिवर्तन करते हुए अपने आप को अछूता बनाए हुए है। इनकी आलोचनात्मक पुस्तक ‘रचना का सच’ में तेरह लेख, नौ समीक्षाएँ एवं नौ टिप्पणियाँ हैं। इस रचना के लिए इन्हें के. के. बिड़ला फाउंडेशन की तरफ से 'बिहारी पुरस्कार' प्राप्त हुआ है। इनके लिए कविता लेखन शस्त्र युद्ध से भी बड़ा है, क्योंकि यह कभी हारती नहीं, हराती है। वे लिखते हैं - “कविता के द्वारा लड़ी गई लड़ाई किसी भी शस्त्र युद्ध से अधिक सार्थक है, क्योंकि शस्त्र तो हार सकते हैं पर कविता अपनी लड़ाई कभी नहीं हारती क्योंकि उसे किसी दूसरी कविता से लड़ना नहीं होता - उसे विरोधी परिस्थितियों के बीच अपने समाज की काव्य संवेदना को, जो उस समाज की अस्मिता का ही एक रूप है, न केवल बचाये रखना बल्कि पुष्ट करते रहना होता है।”
आलोचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में पुस्तक ‘अनुभव का भव’ इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। हिन्दी के प्रमुख रचनाकारों के कृतित्व में विद्यमान गम्भीर सरोकारों और अंतरदृष्टियों को परखने और उनके वैयक्तिक वैशिष्ट को उजागर करने के लिए यह पुस्तक अति महत्त्वपूर्ण और सार्थक है।
नंदकिशोर के सात साक्षात्कारों को सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर द्वारा ‘रुबरू’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है।
आचार्यजी पत्रकार तथा प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। वर्धा, हैदराबाद के आईआईआईटी में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी इन्हें इन स्थानों पर व्याख्यानों के लिए बुलाया जाता रहा है। अहिंसा, महात्मा गाँधी और विनोबा भावे के दर्शन को लेकर आचार्यजी ने न केवल काम किया है, बल्कि ‘अहिंसा विश्वकोश’ जैसा अद्भुत ग्रन्थ हमें दिया है। इन्होंने गाँधीजी के जीवन को अन्याय के विरुद्ध न्यायपूर्ण तरीके से संघर्ष माना है। इनके अनुसार हर प्रकार का अन्याय एक प्रकार की हिंसा है। आचार्य जी इंग्लैण्ड, चीन, इंडोनेशिया, बेल्ज़ियम, दक्षिण-अफ्रीका तथा नेपाल की साहित्यिक-शैक्षणिक यात्राएँ कर चुके हैं। इन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में ढ़ेर सारा काम किया है। जापान के ज़ेन कवि रियोकान के काव्य संग्रह का हिन्दी में 'सुनते हुए बारिश' नाम से अनुवाद किया। जोसेफ ब्रादस्की, लोर्का, अर्नाल्ड वेस्कर तथा एम.एन. राय के लेखन के साथ ही कई आधुनिक अरबी तथा यूरोपीय लेखकों की रचनाओं का अनुवाद भी किया है।
इनका अज्ञेय से जुड़ा एक संस्मरण है - ‘अज्ञेय की काव्यतितीर्षा’ लिखते समय इनके एक मित्र ने इन्हें अज्ञेय से मिलने का सुझाव दिया था। नंदकिशोर ने अज्ञेय से मिलने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इसके पीछे वजह यह थी कि नंदकिशोर ने कहीं से यह अफ़वाह सुन ली थी कि अज्ञेय अहंकारी हैं। नंदकिशोर के शब्दों में - “मेरे मन में जिस लेखक के प्रति इतना सम्मान है, वह अहंकारी हो नहीं सकता लेकिन अगर अहंकारी निकल आए तो मैं ज़िंदगी भर उसका सम्मान नहीं कर पाऊँगा। जिस लेखक को मैं इतना मानता हूँ, उसके सम्मान को क्यों मैं जोखिम में डालूँ।” किताब लिखने के बाद वे अज्ञेय से मिले और उसके बाद लगातार उनके साथ सम्पर्क में रहे और काम भी किया। उन्हें उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। आज-कल नंदकिशोर आचार्य जयपुर की ‘प्राकृत भारतीय अकादमी संस्था’ के लिए ‘अहिंसा शांति ग्रन्थ-माला’ परियोजना पर काम कर रहें हैं। इस परियोजना का उद्देश्य अहिंसा और शान्ति के विषयों की गहराई से विवेचना करना है। आचार्यजी की इस परियोजना के अंतर्गत लगभग ५० पुस्तकों के प्रकाशन की योजना है। इस परियोजना के तहत अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके लिए स्वयं आचार्यजी ने पीटर सिंगर की किताब ‘Life you can save’ और सी. जी. जुंग (C. G. Jung) की पुस्तक ‘The undiscovered self : The dilemma of the individual in modern society’ के हिंदी अनुवाद किए हैं।
श्रीराम वर्मा ने आचार्यजी के बारे में कहा है - “नंदकिशोर आधुनिक कवियों में सर्वथा अलग हैं। दरअसल वे उज्ज्वल चेतना के ऐसे कवि हैं जिनमें पानीदार चमक है।”
नंदकिशोर आचार्य पर राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने एक महत्त्वपूर्ण अंक निकाला है, जो पत्रिका के पचास वर्षों के इतिहास का एक प्रमुख अंक माना जाता है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नंदकिशोर आचार्य की गिनती भारत के कुछ गिने-चुने विद्वानों में होती है। इन्हें जन्मदिन पर स्वस्थ, सक्रिय और सफल जीवन की शुभकामनाएँ और बहुत-बहुत बधाई।
संदर्भ:
१. नंदकिशोर आचार्य - विकिपीडिया
२. समालोचन ब्लॉग
३. हिंदी साहित्य विमर्श ब्लॉग
४. www.apnimaati.com
५. www.wikiwand.com
६. रचना का सच, नंदकिशोर आचार्य, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, १९८६
७..http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9D%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A5%88_%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A7_/_%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF
८.https://www.youtube.com/watch?v=m1Va30Fy8o4&t=382s
लेखक परिचय
सूर्यकांत सुतार 'सूर्या' साहित्य से बरसों से जुडे होने साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओ एवं पुस्तकों में लेख, कविता, गजल, कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
चलभाष: +२५५ ७१२ ४९१ ७७७
ईमेल: surya.4675@gmail.com
इनका जन्म ३१ अगस्त, १९४५ में बीकानेर, राजस्थान में हुआ था। इन्होंने अँग्रेज़ी साहित्य और इतिहास में उच्च शिक्षा प्राप्त की है और इतिहास में पीएचडी की है। जिस निम्न मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ था, उसमें कर्म से कोई ब्राह्मण नहीं था। इनके पिता का पालन-पोषण उनसे उम्र में १९-२० वर्ष बड़े भाई ने किया था, क्योंकि उन दोनों के पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी थी। इसलिए घर में ताऊ जी का बहुत आदर-सम्मान था। नंदकिशोर के पिता की पान की दुकान थी। वे बालक नंदकिशोर को चौथी कक्षा के बाद अपनी दुकान पर बैठाना चाहते थे लेकिन नंदकिशोर को यह मंज़ूर नहीं था। नंदकिशोर ने अपनी पढ़ाई रुकने की बात जब ताऊजी को बताई तो उन्होंने उसकी पढ़ाई तथा अन्य सभी ख़र्चे हमेशा के लिए अपने ऊपर ले लिए। नंदकिशोर कहते हैं कि आज वे जो कुछ-भी हैं, ताऊजी की बदौलत हैं। इनके घर में या घर के आस-पास साहित्यिक माहौल बिलकुल नहीं था, लेकिन ननिहाल में धार्मिक किताबें बहुत पढ़ी जाती थीं। नानाजी को कथाएँ पढ़कर सुनाते-सुनाते इनकी गंभीर साहित्य पढ़ने में गहरी रुचि हो गई और रोज़ कुछ-न-कुछ नया पढ़ना आदत बन गई। इसके अलावा बचपन से ही तुकबंदी करने की आदत थी। छठी-सातवीं कक्षा में पहली कविता लिखी; ‘जावेद नदीम’ उपनाम से कुछ ग़ज़लें भी लिखीं। इन्हें उर्दू लिपि नहीं आती थी, इसलिए देवनागरी में ही लिखा। हिंदी, बांग्ला और उर्दू साहित्य ख़ूब पढ़ा, विशेषकर अज्ञेय को। नवीं-दसवीं कक्षा में ‘शेखर एक जीवनी पढ़ी’, जिसका इनके व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ा था। बीकानेर में ही रहने वाले हिंदी और राजस्थानी के कवि हरीश भादानी के साथ इनका उठना-बैठना होता था। नंदकिशोर अज्ञेय से बहुत प्रभावित थे। आचार्य जी की कविताओं पर ग़ालिब की ग़ज़लों का भी असर है। गंभीर लेखन की शुरूआत वर्ष १९६६-१९६७ में एमए के दौरान ऐसे हुई थी - बीकानेर के ही एक लेखक राजा नल भटनागर ने मित्र-मंडली में नंदकिशोर को अज्ञेय पर बोलते हुए सुना था। भटनागर ने अपने प्रकाशक से नंदकिशोर से अज्ञेय की कविताओं पर एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखवाने का आग्रह किया। इसके लिए नंदकिशोर ने पहले तो मना कर दिया लेकिन फिर प्रकाशक के आग्रह और दबाव से ‘अज्ञेय की काव्यतितीर्षा’ लिखी। इसमें इन्होंने एक मुख्य बात यह कही है कि काव्य की समालोचना पहले से बने बनाये ढ़ाँचे पर न करके उस काव्य के प्रमाण-आधार पर की जानी चाहिए। यह पुस्तक अज्ञेय पर लिखी गयीं पहली दो-तीन पुस्तकों में से एक है। यह इनके लेखन के शुरूआती दौर की किताब होने के बावजूद अज्ञेय के समूचे काव्य पर एक बेहतरीन रचना मानी जाती है। इसके लिए इन्हें समग्र दृष्टि के आलोचक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई। आचार्य जी इस रचना के लिए भटनागर और उनके प्रकाशक के प्रति बहुत आभारी हैं।
इनके कुछ प्रमुख काव्य संग्रह हैं - ‘जल है जहाँ’, ‘शब्द भूले हुए’, ‘वह एक समुद्र था’, ‘आती है जैसे मृत्यु’, ‘कविता में नहीं है जो’ आदि। ‘छीलते हुए अपने को’ कविता संग्रह के लिए पिछले वर्ष इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि प्रेम एक प्रकार का समर्पण माँगता है। नंदकिशोर के विचार से प्रेम मनुष्य को बाँधता नहीं है, उसे स्वतंत्र करता है, उसके व्यक्तित्व को और पुष्ट करता है। अगर ऐसा नहीं है तो कहीं न कहीं नियंत्रण होता है और नियंत्रण स्वतंत्रता पर आघात करता है। प्रेम की अभिव्यक्ति पर एमए के दिनों में लिखी उनकी एक प्रारंभिक कविता है - बाँसुरी और मोरपंख
बुरा तो नहीं मानोगे
यदि मुझे अब
तुम्हारी बाँसुरी बने रहना
स्वीकार नहीं।
यह नहीं कि मैं उपेक्षित हुआ
बल्कि अधरों पर तुम्हारे सदा
सज्जित रहा,
किन्तु मेरा कब रहा संगीत वह
जो मेरे ही रन्ध्र-रन्ध्र से बहा ?
मुझे से तो अच्छी रही
वह मोरपाँख
जो तुम्हारे मुकुट पर चढ़ी
और न भी चढ़ती
पर जिस का सौन्दर्य
उस का अपना था।
यह अन्तर क्या कम है
कि तुम्हारा संगीत
मेरी विवशता है
और मोरपाँख का सौन्दर्य
तुम्हारी ?
बुरा न मानना
कि अब मैं
तुम्हारी बाँसुरी नहीं रहा।
आचार्यजी की लघु-कविताओं में अपार भाव संसार लहराता है। प्रकृति-चित्रण के माध्यम से मानव-स्मृति में बसी मातृ-स्मृति -
झर आता है दूध
पहाड़ी की छाती से
चिपटी हुई घास
पीती है पलकें मूँदे
कोरों से बह आती हैं
बूँदें।
सूनेपन में अंकुर फूटा:
बोल रहा जल
रेतीली ख़ामोशी में!
अज्ञेय ने इनके बारे में कुछ यूँ लिखा है -"निकट भविष्य में ऐसी स्थिति आ जायेगी कि जिस प्रकार हम कुछ कवियों को सागर के कवि या कुछ कवियों को पर्वतीय सौंदर्य के कवि के रूप में याद करते हैं, उसी तरह नंदकिशोर आचार्य को ‘मरुस्थल के सौंदर्य के अद्वितीय कवि के रूप में याद किया जाएगा। उनकी कविता एक नई दिशा की ओर संकेत करती है, एक नई दृष्टि का प्रमाण देती है।"
नंदकिशोर ने कविता के साथ-साथ नाटक भी लिखे हैं। इनका ‘बापू’ नाटक हमारे समय की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। गाँधीजी के अंतिम दिनों की मनोदशा का चित्र खींचता है यह नाटक। ‘ज़िल्ले सुभानी’ नाटक में औरंगजेब के जीवन के माध्यम से मनुष्य के भीतरी राजनीतिक द्वंद्व दिखाए हैं। इनके अलावा ‘देहांतर’, ‘पागलघर’, ‘ग़ुलाम बादशाह’ भी इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। साहित्य को लोकप्रिय और सामान्य पाठक के लिए सुगम बनाने के उद्देश्य से भी आचार्य जी ने काम किया है। इन्होंने मीरा, कबीर तथा अन्य कवियों की रचनाओं के ऐसे छोटे-छोटे संकलन तैयार किये हैं, जहाँ उनकी मुख्य-मुख्य रचनाएँ एक साथ पढ़ी जा सकती हैं।
नंदकिशोर ने साहित्य एवं संस्कृति का अन्योन्याश्रित सम्बंध दिखाया है। इनका मानना है कि एक के बिना दूसरे की सार्थकर्ता सिद्ध नहीं की जा सकती है। वे यह भी कहते हैं कि हर मानव के जीवन में संस्कृति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता है और उसी की प्रतिध्वनि हमें साहित्य में सुनाई देती है। उनकी दृष्टि से संस्कृति निरंतर प्रवाहमान है जो समय के साथ अपने रूप में परिवर्तन करते हुए अपने आप को अछूता बनाए हुए है। इनकी आलोचनात्मक पुस्तक ‘रचना का सच’ में तेरह लेख, नौ समीक्षाएँ एवं नौ टिप्पणियाँ हैं। इस रचना के लिए इन्हें के. के. बिड़ला फाउंडेशन की तरफ से 'बिहारी पुरस्कार' प्राप्त हुआ है। इनके लिए कविता लेखन शस्त्र युद्ध से भी बड़ा है, क्योंकि यह कभी हारती नहीं, हराती है। वे लिखते हैं - “कविता के द्वारा लड़ी गई लड़ाई किसी भी शस्त्र युद्ध से अधिक सार्थक है, क्योंकि शस्त्र तो हार सकते हैं पर कविता अपनी लड़ाई कभी नहीं हारती क्योंकि उसे किसी दूसरी कविता से लड़ना नहीं होता - उसे विरोधी परिस्थितियों के बीच अपने समाज की काव्य संवेदना को, जो उस समाज की अस्मिता का ही एक रूप है, न केवल बचाये रखना बल्कि पुष्ट करते रहना होता है।”
आलोचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में पुस्तक ‘अनुभव का भव’ इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। हिन्दी के प्रमुख रचनाकारों के कृतित्व में विद्यमान गम्भीर सरोकारों और अंतरदृष्टियों को परखने और उनके वैयक्तिक वैशिष्ट को उजागर करने के लिए यह पुस्तक अति महत्त्वपूर्ण और सार्थक है।
नंदकिशोर के सात साक्षात्कारों को सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर द्वारा ‘रुबरू’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है।
आचार्यजी पत्रकार तथा प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। वर्धा, हैदराबाद के आईआईआईटी में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी इन्हें इन स्थानों पर व्याख्यानों के लिए बुलाया जाता रहा है। अहिंसा, महात्मा गाँधी और विनोबा भावे के दर्शन को लेकर आचार्यजी ने न केवल काम किया है, बल्कि ‘अहिंसा विश्वकोश’ जैसा अद्भुत ग्रन्थ हमें दिया है। इन्होंने गाँधीजी के जीवन को अन्याय के विरुद्ध न्यायपूर्ण तरीके से संघर्ष माना है। इनके अनुसार हर प्रकार का अन्याय एक प्रकार की हिंसा है। आचार्य जी इंग्लैण्ड, चीन, इंडोनेशिया, बेल्ज़ियम, दक्षिण-अफ्रीका तथा नेपाल की साहित्यिक-शैक्षणिक यात्राएँ कर चुके हैं। इन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में ढ़ेर सारा काम किया है। जापान के ज़ेन कवि रियोकान के काव्य संग्रह का हिन्दी में 'सुनते हुए बारिश' नाम से अनुवाद किया। जोसेफ ब्रादस्की, लोर्का, अर्नाल्ड वेस्कर तथा एम.एन. राय के लेखन के साथ ही कई आधुनिक अरबी तथा यूरोपीय लेखकों की रचनाओं का अनुवाद भी किया है।
इनका अज्ञेय से जुड़ा एक संस्मरण है - ‘अज्ञेय की काव्यतितीर्षा’ लिखते समय इनके एक मित्र ने इन्हें अज्ञेय से मिलने का सुझाव दिया था। नंदकिशोर ने अज्ञेय से मिलने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इसके पीछे वजह यह थी कि नंदकिशोर ने कहीं से यह अफ़वाह सुन ली थी कि अज्ञेय अहंकारी हैं। नंदकिशोर के शब्दों में - “मेरे मन में जिस लेखक के प्रति इतना सम्मान है, वह अहंकारी हो नहीं सकता लेकिन अगर अहंकारी निकल आए तो मैं ज़िंदगी भर उसका सम्मान नहीं कर पाऊँगा। जिस लेखक को मैं इतना मानता हूँ, उसके सम्मान को क्यों मैं जोखिम में डालूँ।” किताब लिखने के बाद वे अज्ञेय से मिले और उसके बाद लगातार उनके साथ सम्पर्क में रहे और काम भी किया। उन्हें उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। आज-कल नंदकिशोर आचार्य जयपुर की ‘प्राकृत भारतीय अकादमी संस्था’ के लिए ‘अहिंसा शांति ग्रन्थ-माला’ परियोजना पर काम कर रहें हैं। इस परियोजना का उद्देश्य अहिंसा और शान्ति के विषयों की गहराई से विवेचना करना है। आचार्यजी की इस परियोजना के अंतर्गत लगभग ५० पुस्तकों के प्रकाशन की योजना है। इस परियोजना के तहत अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके लिए स्वयं आचार्यजी ने पीटर सिंगर की किताब ‘Life you can save’ और सी. जी. जुंग (C. G. Jung) की पुस्तक ‘The undiscovered self : The dilemma of the individual in modern society’ के हिंदी अनुवाद किए हैं।
श्रीराम वर्मा ने आचार्यजी के बारे में कहा है - “नंदकिशोर आधुनिक कवियों में सर्वथा अलग हैं। दरअसल वे उज्ज्वल चेतना के ऐसे कवि हैं जिनमें पानीदार चमक है।”
नंदकिशोर आचार्य पर राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने एक महत्त्वपूर्ण अंक निकाला है, जो पत्रिका के पचास वर्षों के इतिहास का एक प्रमुख अंक माना जाता है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नंदकिशोर आचार्य की गिनती भारत के कुछ गिने-चुने विद्वानों में होती है। इन्हें जन्मदिन पर स्वस्थ, सक्रिय और सफल जीवन की शुभकामनाएँ और बहुत-बहुत बधाई।
संदर्भ:
१. नंदकिशोर आचार्य - विकिपीडिया
२. समालोचन ब्लॉग
३. हिंदी साहित्य विमर्श ब्लॉग
४. www.apnimaati.com
५. www.wikiwand.com
६. रचना का सच, नंदकिशोर आचार्य, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, १९८६
७..http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9D%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A5%88_%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A7_/_%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF
८.https://www.youtube.com/watch?v=m1Va30Fy8o4&t=382s
लेखक परिचय
चलभाष: +२५५ ७१२ ४९१ ७७७
ईमेल: surya.4675@gmail.com
सूर्यकांत जी, अपने आलेख के माध्यम से नंदकिशोर आचार्य के जीवन और उनकी साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी देने के लिए आपको धन्यवाद। नन्दकिशोरजी की लम्बी उम्र और रचनात्मक सक्रियता की कामना करती हूँ।
ReplyDeleteसूर्या जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा लेख हमें पढ़ने को उपलब्ध करवाया। आपके लेख के माध्यम से नंदकिशोर आचार्य जी के जीवन एवं साहित्य के बारे में अच्छी जानकारी मिली। लेख में सम्मिलित कविताओं के अंश बहुत मनभावन हैं। आपको इस सुंदर लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसूर्या जी बहुत बढ़िया लेख । हमें नंदकिशोर जी की विस्तृत जानकारी मिली वह मरूस्थल के कवि अज्ञेय जी आ यह शीर्षक खरा है नंदकिशोर जी के लिए । सही में रेतीले स्थान के लिए कविता लिखना व सौंदर्य बोध कराना कठिन है । आप हमेशा ही अच्छे लेख लिखते हैं ।
ReplyDeleteसूर्यकांत जी, नंदकिशोर आचार्य जी पर आपका आलेख उत्तम है। उनके विविध और व्यापक रचना-क्षेत्रों पर प्रकाश डालने के साथ-साथ आपने उनकी कविताओं के बढ़िया नमूने पेश किए हैं। आपको इस लेखन के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteनंदकिशोर जी का ३१ तारीख़ ७७ वाँ को जन्मदिन है।उनको इस शुभ-तिथि की अग्रिम बधाई! उनके स्वस्थ एवं सक्रिय जीवन की मंगलकामनाएँ करती हूँ।
प्रेम मनुष्य को बांधता नहीं है, उसे स्वतंत्र करता है, उसके व्यक्तित्व को और पुष्ट करता है.
ReplyDeleteकितनी सुन्दर बात कही है नंद किशोर जी ने . साहित्य की गद्य, पद्य, आलोचना, नाट्यशास्त्र, दर्शन व साक्षात्कार विधाओं पर सशक्त पकड़ रखने वाले नंद किशोर आचार्य जी को प्रणाम तथा सूर्यकांत सुतार 'सुर्या ' जी को इतने ज्ञान वर्धक आलेख के लिये बधाई व शुभकामनाएं