संसार के अनगिनत रहस्यों
को समझने में जो भूमिका विज्ञान की होती है, मानव मन के भेद समझने में कुछ ऐसी ही भूमिका साहित्य निभाता है। साहित्य
की विविध विधाएँ मन के अलग-अलग भागों को अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करती हैं।
कहानी व उपन्यास एक तरफ जहाँ रोमांच और स्पंदन देते हैं,
वहीं दूसरी तरफ निबंध और संस्मरण सूचना, ज्ञान और अनुभवों की
ऐसी ज़मीन देते हैं जिस पर चल कर इंसान मानव संबंधों की गहराई भी माप सकता है और
मानव जीवन की ऊँचाई भी। कहने का अर्थ यह हुआ कि साहित्य की सरिता में डूबकर हम
अपना सामर्थ्य भी पहचान सकते हैं और मन के अनसुलझे भावों की पहेलियाँ भी बुझा सकते
हैं। ऐसे ही एक साहित्यकार, निबंधकार, आलोचक और कहानीकार हिन्दी
साहित्य के महासागर में ऐसे नायाब मोतियों का सृजन कर गए हैं कि जिनके आभूषण आज भी
सुन्दर, आकर्षक और मनभावन हैं और जो आज भी मानव जीवन समृद्ध
करने में सक्षम हैं। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी नाम के इस अद्वितीय जौहरी ने
साहित्य के अनेक हीरे तराश कर हमारी झोली में डाले और हमें मालामाल कर गए। कलम
के इस जीवट साधक के जीवन और जीवन-लक्ष्य के कुछ पहलु आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।
‘हज़ारी’ की उत्पत्ति
१९ अगस्त १९०७ को उत्तर
प्रदेश के बलिया ज़िले में ज्योतिषाचार्य अनमोल द्विवेदी एवं श्रीमती ज्योतिष्मती
देवी के घर जन्मा एक बालक वैद्यनाथ द्विवेदी के
नाम से बड़ा होने लगा। जिस दिन उसका
जन्म हुआ उसी दिन परिवार के एक लंबित मुकदमे का फ़ैसला घरवालों के हक़ में आया और १२००
रुपए की राशि मुआवज़े में मिली। उन दिनों हज़ार रुपयों का बहुत मोल था। बालक के आगमन
ने परिवार को हज़ार रुपए दिलाए, यह बात आस-पड़ोस और सौर-कुटुंब के बीच जंगल में आग
की तरह फैल गई। पिता का दिया नाम ‘वैद्यनाथ’ लोकप्रिय हो चुके ‘हज़ारी’ के सामने
फ़ीका पड़ने लगा और वह बालक ‘हज़ारी प्रसाद द्विवेदी’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया।
जीवनगाथा
हज़ारी की प्रारम्भिक
शिक्षा गाँव में ही हुई। १९२० में बसरिकापुर माध्यमिक विद्यालय से प्रथम श्रेणी
में उत्तीर्ण हो वे पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कृत अध्ययन के लिए गए। तीन साल
यहाँ ज्ञानार्जन के पश्चात हज़ारी काशी आ गए। काशी में अपने प्रवास के दौरान १९२३
से १९३० के बीच पहले रणवीर संस्कृत पाठशाला में अध्ययन किया, तत्पश्चात काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर संस्कृत साहित्य में शास्त्री
की उपाधि और ज्योतिष विद्या में ज्योतिषाचार्य की उपाधि हासिल की। संयोग से गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने अनुपम विद्याकेन्द्र शान्तिनिकेतन में उन्हें अध्ययन-अध्यापन
का अवसर दिया और वे ८ नवम्बर १९३० को शान्तिनिकेतन आ पहुँचे। गुरुदेव और आचार्य
क्षितिमोहन सेन की छत्रछाया में अध्ययन-अध्यापन करते हुए उन्हें हिन्दी के प्रति
अगाध प्रेम उत्पन्न हुआ। शान्तिनिकेतन के उन्मुक्त वतावरण में यह स्नेह और सम्मान
प्रगाढ़ होता गया और हज़ारी का स्वतंत्र लेखन फलने-फूलने लगा। दो दशकों तक
शान्तिनिकेतन में अपनी विद्वता से छात्र-छात्राओं को विस्मित करने के बाद जुलाई १९५०
में वे पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आ गए। इस बार भूमिका थी हिन्दी
विभागाध्यक्ष की। यहीं रहते हुए हिन्दी साहित्य को उनके अनुपम योगदान के लिए १९५७
में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था। किन्तु १९६० में
कुछ प्रतिद्वंदियों के षड्यंत्र के कारण उन्हें विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा। ऐसे
विद्वान् को कोई भी विश्वविद्यालय हाथोंहाथ लेने को तैयार था किन्तु चंडीगढ़ के पंजाब
विश्वविद्यालय की किस्मत अधिक अच्छी थी और जुलाई १९६० से सितम्बर १९६७ तक वे इसी
विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। सात
सालों बाद अक्टूबर १९६७ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय उन्हें ससम्मान पुनः बुला
लिया। इस बार पदोन्नति के साथ वे विश्वविद्यालय के रेक्टर पद पर आसीन हुए और यहीं
से २५ फरवरी १९७० को सेवानिवृत्त हुए।
शान्तिनिकेतन में आरम्भ
किया उनका लेखन-कार्य कभी थमा नहीं और अध्यापन के साथ-साथ उनकी कलम साहित्य सृजन
में अनवरत् लगी रही। १९७२ में वे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के उपाध्यक्ष बनाए गए और आजीवन इस पद
की गरिमा बढ़ाते रहे। १९७३ में उनके निबंध-संग्रह ‘आलोकपर्व’ के लिए उन्हें साहित्य
अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी के इस अनन्य प्रेमी को ब्रेन
ट्यूमर ने १९ मई १९७९ को काल का ग्रास बना दिया और आचार्य अपनी अमर कृतियों के
अनमोल मोती बिखराकर परलोक सिधार गए। उनका निधन हिन्दी साहित्य जगत् के लिए एक
अपूरणीय क्षति थी।
साहित्यिक यात्रा
यों तो आचार्य हज़ारी
प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के सभी विधाओं में कलम चलाकर एक निबंधकार, उपन्यासकार, आलोचक
तथा भारतीय संस्कृति के युगीन विख्याता के रूप में अपनी पहचान बनाई है, किन्तु निबंध के क्षेत्र में वे युग-प्रवर्तक लेखक कहे जा सकते हैं। निबंध
साहित्य में भावों और विचारों की प्रधानता तथा शैली की रमणीयता का अनूठा संगम होता
है।
“पाठक! न यह कह बैठना, “छेड़ा कहाँ का राग है?”
यह फूल कैसा है कि इसमें गंध न पराग है?
है यह कथा नीरस तदपि इसमें हमारा भाग है,
निकले बिना बाहर नहीं रहती हृदय की आग है।
-
‘भारत-भारती’,
मैथिलीशरण गुप्त
हिन्दी साहित्य को ललित
निबंधों तक विस्तृत और विकसित करने में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का नाम अग्रणी है। उनके
निबन्धों का कैनवास बहुत विशाल है। वे भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्याओं से अपनी
बात शुरू करते हैं और साहित्य की संप्रेषणीयता को भी अपने विचार का लक्ष्य बनाने
में भी नहीं हिचकते हैं। उनके एक ही निबंध में शैलीगत विभिन्नताएँ देखी जा सकती है।
उनका निबंधकार रूप ‘अशोक के फूल’ के समान रागाकुल, ‘शिरीषं’ के समान अवधूत, ‘कुटज’ जैसा
बीहड़ और मनमौजी तथा ‘देवदारु’ के समान व्योमकेश है। अपने
जीवनकाल में उन्होंने चार उपन्यास, सत्रह शोध और आलोचनाओं से सम्बंधित पुस्तकें, छह निबंध-संग्रहों का सृजन किया है। उनके मरणोपरांत उनकी समस्त रचनाओं को
ग्यारह खण्डों में ‘हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के नाम से प्रकाशित किया गया।
हिन्दी व्याकरण को समृद्ध और सिस्टेमेटिक बनाने के उद्देश्य से उन्होंने ‘हिन्दी
भाषा का वृहत् ऐतिहासिक व्याकरण’ नाम से एक व्याकरण ग्रन्थ
की रचना की थी। चार भागों में लिखी पांडुलिपियाँ बीएचयू को प्रकाशन के लिए सौंपी
गई थीं, किन्तु समय पर प्रकाशन न हो पाने के कारण एक-एक करके चारों पांडुलिपियाँ
विश्वविद्यालय परिसर से गायब हो गईं। कई वर्षों बाद उनके पुत्र मुकुंद द्विवेदी को
उस ग्रन्थ के पहले खण्ड की पाण्डुलिपि मिली। इसे १९८१ में प्रकाशित ग्यारह खण्डों
के ग्रंथावली में सम्मिलित कर १९९८ में दूसरे संशोधित संस्करण के साथ बारहवें खण्ड
के रूप में प्रकाशित किया गया।
साहित्य की महिमा और
कविता की उत्कृष्टता के लिए हज़ारी लिखते हैं, “मैं दुनिया की ऐसी बहुत सी बातों को हँस कर टाल सकता हूँ जिसे
साधारणतः पण्डित जन भी महत्वपूर्ण मान लेते हैं। मैं बराबर सोचता रहता हूँ कि अनंत
काल और अनंत देश के भीतर यह अत्यंत तुच्छ मानव-जीवन और उसकी चेष्टाएँ बहुत अधिक
महत्त्व की वस्तु नहीं है। साहित्य के अध्ययन ने इसमें थोड़ा सुधार भी किया है।
ज्योतिष ने मेरी दृष्टि में जहाँ उपेक्षा की धूमिलता दी है, वहीं कविता ने मुझे मनुष्य के हृदय की महिमा समझने की रंगीनी भी दी है। कवि-हृदय
से निकला हर ईंट-पत्थर अमूल्य हो जाता है।”
‘एक युग : एक प्रतीक’ के अमुख में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, “...इस विराट विश्व में पृथ्वी कितनी
नगण्य वस्तु है, इस पर कि ये मनुष्य। हाय, हाय! ये जब
सेना सजाकर विश्व-विजय करने निकलते हैं तो न जाने अपने को क्या समझते हैं। क्या
आपने चीटियों की लड़ाइयाँ देखी हैं? उनका भी तो कोई
विश्व-विजय का सपना होता होगा; उनके भी तो चर्चिल और हिटलर होते होंगे? मानुष की विजय-लालसा
क्या उनसे बहुत बड़ी होती है? मनुष्य को मैं छोटा नहीं कहता। मैं उसके दंभ को छोटा
कहना चाहता हूँ।”
हिन्दी और संस्कृत
साहित्य, धर्म, दर्शन, भारतीय संस्कृति, ज्योतिष,
तंत्र-ज्ञान, प्राचीन इतिहास, शिक्षा आदि
विषयगत वैविध्यता एक तरफ जहाँ उनके ज्ञान के विस्तार को दर्शाता है वहीं दूसरी तरफ
समाज को जागरूक और प्रबुद्ध बनाने की प्रतिबद्धता को भी प्रमाणित करता है। वे एक
ऐसे चिन्तक हैं जिनके साहित्य में पाठक अपने मन-मुताबिक सामग्री तलाशकर लाभान्वित
हो सकता है। अपनी परिमार्जित खड़ी बोली में वे आवश्यकतानुसार कभी संस्कृतनिष्ठ
शास्त्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं तो कभी प्रवाहमय प्रांजल भाषा से पाठकों का मन
मोह लेते हैं। उनके लेखन में उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों का भी प्रयोग दिखता है। उनका
निबंध कभी प्रकृति की गोद में बिठा देता है तो कभी मानव मन की गहराइयों में उतारता
चला जाता है। १९६९ को गुरु नानक देव की ५००वीं जयन्ती पर प्रसार भारती की ओर से प्रसारित
राजेन्द्रप्रसाद स्मृति व्याख्यानमाला का प्रथम एपिसोड हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के
दमदार आवाज़ में ‘गुरुनानक : व्यक्तित्व, चिंतन एवं उद्देश्य’
के नाम से प्रस्तुत किया गया था। इस वक्तव्य में आचर्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने
गुरुनानक देव के जीवन और कर्मों को सिलसिलेवार ढंग से पेश कर समूचे देश को अपनी
प्रतिभा का परिचय दिया था। कबीर को भी हिन्दी साहित्य में महत्त्व दिलाने का श्रेय
आचार्य द्विवेदी को जाता है। सूरदास, कबीर और तुलसीदास पर
आचर्य द्विवेदी से पहले इतने विद्वतापूर्ण आलोचनाएँ नहीं लिखी गई थीं।
आचार्य में जीवन को
समझने की जिज्ञासा, इतिहास
को जानने की ललक और ऐसी जीवटता थी कि जिसके बल पर वे आजीवन निडर और साहसी बने रहे।
अपने कुटज निबंध में वे लिखते हैं, “भूख-प्यास की निरंतर
चोट सहकर भी जी रहे हैं, इसे क्या कहूँ? सिर्फ़ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं – बेहया हैं क्या? या मस्त-मौला हैं?”
आचार्य द्विवेदी धार्मिक
होते हुए भी पाखण्ड और रूढ़ियों के विरुद्ध लिखते रहे। गुरुदेव पर केन्द्रित ‘बटोर’ निबंध में वे लिखते हैं, “हाय हिन्दू और हाय मुसलमान! आठ सौ वर्ष के निरंतर संघर्ष के बाद
एक-दूसरे के इतने नज़दीक रहकर भी तुमने अपनी एक संस्कृति न बनाई।”
द्विवेदी के साहित्य में
मानवीय मूल्यों को विशेष तरजीह दी गई है। उनके लेखन में लालित्य तत्व सर्व सुलभ है।
प्रकृति प्रेम और प्राकृतिक सौन्दर्य उनके साहित्य में विशेष स्थान पाते हैं। उनकी
साहित्यिक विशेषताओं की व्याख्या करते हुए विद्यानिवास मिश्र कहते हैं, “सहृदयता और चिंतनशीलता दोनों ही
निबंधकार के बंधन हैं, उन्मुक्त व्यक्तित्व ही इस बंधन से छुटकारा है। द्विवेदी जी
के निबंधकार ने इस उन्मुक्त व्यक्तित्व को पाने की आकुलता पैदा की है। इसके बाद
उनकी शैली का प्रभाव अपने आप ही पड़ जाता है, क्योंकि शैली तो सहज भाव की
अनुवर्तिनी है।”
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के
निबंध संग्रह के प्रथम संस्करण (१९५३) की भूमिका में श्री कृष्ण लाल लिखते हैं, “तोता-मैना
तथा छबीली भटियारिन जैसी कहानियों से जनता का मनोविनोद तो किया जा सकता है परन्तु
उसका हित इन रोचक कहानियों से संभव नहीं है; वरन तर्क और बुद्धिसंगत भाव-विचार-प्रधान
लेखों के द्वारा ही पाठकों की मनोवृत्ति को प्रभावित किया जा सकता है।”
हिन्दी निबंध साहित्य
में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का स्थान अप्रतिम है। ‘क्या निराश हुआ जाए’
निबंध आज भी अपने सम्पूर्ण अर्थों में सोचने-समझने को मजबूर करता है। उनके साहित्य
को आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना ही सही अर्थों में उन्हें सच्ची
श्रद्धांजलि होगी।
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी :
संक्षिप्त परिचय |
|
पूरा नाम |
वैद्यनाथ द्विवेदी |
प्रचलित नाम |
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी |
जन्म |
१९ अगस्त १९०७ आरत दुबे का छपरा, बलिया, उत्तर प्रदेश प्रोविन्स |
मृत्यु |
१९ मई १९७९ दिल्ली (ब्रेन ट्यूमर) [४ फरवरी १९७९ को पक्षाघात] |
माता – पिता |
श्रीमती ज्योतिष्मती देवी, श्री अनमोल
द्विवेदी |
पत्नी |
श्रीमती भगवती देवी |
शिक्षा |
|
प्रारम्भिक शिक्षा |
गाँव (ओझवलिया) के स्कूल |
माध्यमिक |
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण (१९२०), बसरिकापुर
माध्यमिक विद्यालय, उत्तर प्रदेश |
संस्कृत शिक्षा |
पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम, बसरिकापुर (१९२० –
२३) |
उच्च शिक्षा |
रणवीर संस्कृत पाठशाला [१९२३, प्रवेशिका परीक्षा प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान] हाई स्कूल (१९२७) इंटरमीडिएट तथा संस्कृत साहित्य में शास्त्री की उपाधि (१९२९) |
ज्योतिष विद्या |
ज्योतिषाचार्य (१९३०) [प्रत्येक परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण] |
व्यवसाय |
|
८ नवम्बर १९३० – जून १९५० |
शान्तिनिकेतन में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन |
जुलाई १९५० – मई १९६० |
हिन्दी के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |
जुलाई १९६० – अक्टूबर १९६७ |
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ |
अक्टूबर १९६७ |
हिन्दी विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |
मार्च १९६८ – २५ फरवरी १९७० |
रेक्टर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी [इसी पद से सेवा-निवृत्त] |
१९७२ – आजीवन |
अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के उपाध्यक्ष ‘हिन्दी का ऐतिहासिक व्याकरण’ योजना
के निदेशक (अल्पकालिक) |
सम्मान |
|
१९५७ |
पद्मभूषण से सम्मानित |
१९७३ |
साहित्य अकादमी पुरस्कार, निबंध-संग्रह ‘अलोकपर्व’
के लिए |
रचनाएँ |
|
आलोचनात्मक |
|
निबंध संग्रह |
|
कुछ लोकप्रिय निबंध |
|
उपन्यास |
|
संपादन |
|
अनूदित रचनाएँ |
|
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विषयक साहित्य |
|
सन्दर्भ:
- विकिपीडिया
- ई-पुस्तकालय
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथमाला
- प्रसार भारती पर हजारीप्रसाद द्विवेदी के वक्तव्य
- https://jodhpurnationaluniversity.com/hazari-prasad-dwivedi-biography-hindi/amp/
लेखक परिचय
दीपा लाभ
शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ।
ReplyDeleteकीर्तिशेष आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कम शब्दों में अधिक बातें कहने का प्रयास सराहनीय है। द्विवेदी जी का नाम हिंदी साहित्य में उत्तर प्रदेश के पूरबी जनपद बलिया का नाम एक उच्च शिखर पर खड़ा करता है, जैसे कि बाबू जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक क्षेत्र में खड़ा किया है। आदरणीय हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का जन्म मेरे ही जनपद बलिया के ओझवलिया गाँव में हुआ था जो बसरिकापुर गाँव के पास ही पड़ता है। बसरिकापुर बलिया-बैरिया मार्ग के पास का सटा गाँव है,जबकि ओझवलिया कुछ दूरी पर अवस्थित है। आदरणीय द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के चमकते ध्रुव हैं।
दीपा जी नमस्ते। आपने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। उनको स्कूल के दिनों में पाठ्यक्रम में पढ़ना शुरू किया। बाद में उनके लिखे उपन्यास पढ़ने का भी अवसर मिला। आपने आचार्य जी के विशाल साहित्यिक संसार का परिचय बखूबी इस लेख में दिया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपा, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी पर हृदयग्राही आलेख! सिलसिलेवार ढंग से उनके जीवन और साहित्यिक सफर की यात्रा कराई है तुमने। यह आलेख पढ़ने में लोरी जैसा और इसका कथानक गूढ़ गंभीर। इसे पटल पर लाने के लिए तुम्हें हार्दिक बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteदीपा, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महान साहित्यकार को रोचक और शब्द-सीमा में बंधे लेख में प्रस्तुत करना एक बड़ी चुनौती रहा होगा, तुमने उसे स्वीकारा और बख़ूबी निभाया। आलेख ख़ूब निखर कर आया है।सुंदर लेखन के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteदीपा, आपने आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के विरले व्यक्तित्व को दर्शाते अपने आलेख के माध्यम से जो श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं, वे सचमुच सार्थक हो गए हैं। बहुत प्रभावी ढंग से लिखा आपका आलेख आचार्य द्विवेदी जी के विराट व्यक्तित्व को समाहित कर पाने में सक्षम हुआ है।
ReplyDeleteबधाई व साधुवाद।
दीपा जी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की रोचक जानकारी मिली। उनके नाम का इतिहास पहली बार पढ़ा। तर्कपूर्ण बुद्धिमान व्यक्ति थे। उनके निबंध अजरमर है। इस लेख हेतु हार्दिक बधाई 🙏💐
ReplyDelete