‘श्रीकृष्ण कर्णामृतम’ संस्कृत भाषा में रचा गया एक सरस भक्ति काव्य है। तीन आश्वासों (अध्यायों) में विभाजित इस काव्य में ३२८ श्लोक हैं। इसका रचना काल १२वीं -१३वीं के बीच माना जाता है। इस काव्य के प्रणेता बिल्वमंगल हैं जो लीलाशुक के नाम से प्रसिद्ध हैं। जन्मस्थान और निवास के विषय विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों ने बिल्वमंगल को केरल का माना और कुछ आलोचकों ने सप्रमाण आंध्र का निवासी सिद्ध किया। ये लीलाशुक, बिल्वमंगल स्वामी, बिल्वमंगल स्वामीयर, बिल्वमंगल ठाकुर आदि अनेक नामों से भी प्रसिद्ध हैं। केरल और आंध्र - दोनों प्रांतों में ‘श्री कृष्ण कर्णामृतम' के श्लोक उस समय से आज तक अत्यंत प्रचलित हैं। आंध्र प्रदेश की एक प्रसिद्ध नृत्य-शैली है - कुचिपुड़ी। इस नृत्य शैली में कृष्ण कर्णामृत के अनेक श्लोकों का अभिनय प्रारम्भ से अद्यतन होता आ रहा है। १२वीं-१३वीं शताब्दियों में केरल, कर्नाटक, आन्ध्र और महाराष्ट्र के अनेक प्रान्त एक राज्य के शासन में थे। इसलिए हम बिल्वमंगल को किसी एक प्रान्त का सिद्ध नहीं कर सकते। इस में कोई संदेह नहीं कि दक्षिण के अनेक प्रांतों में ‘श्रीकृष्ण कर्णामृतम’ एक अत्यंत प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके श्लोक घर-घर में प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं। छोटे बच्चों को घर में इसके भाग मौखिक रूप से सिखाए जाते थे । यह परंपरा कुछ पारिवारों में अब भी है। इस ग्रंथ के अनेक श्लोक मुझे बचपन से ही कंठस्थ हैं। उदाहरण के लिए -
‘कस्तूरी तिलकं ललाट फलके, वक्षस्थले कौस्तुभं,
नासाग्रे नवा मौक्तिकं, करतले वेणुं, करे कंकणं,
सर्वांगे
हरिचन्दनं च कलयन,
कण्ठे च मुक्तावली
गोपस्त्री परिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि।।
‘इस में कोई संदेह नहीं कि हम शैव धर्म के अनुयायी हैं। शिव की उपासना में पञ्चाक्षरी मंत्र का जप करने के प्रति आसक्त हैं। किंतु मेरा मन गोपवधू किशोर यशोदानन्दन जिसका मुखमण्डल निरंतर मंद स्मित के साथ प्रसन्न रहता है, जो अतसी कुसुम की भाँति भासमान है, उसी कृष्ण का स्मरणं करता रहता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि १३वीं शताब्दी में ही शैव-धर्म और वैष्णव धर्म में उन्होंने सामंजस्य स्थापित किया।
बिल्वमंगल/लीलाशुक़ ने सगुन-निर्गुण उपासना में भी भेद नहीं मानते हुए स्पष्ट किया कि हमारे पूर्वज दहराकाश में स्थित निर्गुण परब्रह्म की उपासना में लीन रहते थे। किन्तु हमारा मन यशोदानन्दन बालकृष्ण की लीलाओं के अमृतमय सिंधु में विहार कर रहा है -
वयं यशोदा शिशु बाललीला
कथा सुधा सिन्धुषु लीलयाम: !
दधि कण परि दिग्धं मुग्धमंगं मुरारे:.
दिशतु भुवन कृच्छ छेदि तापिंछ गुच्छ
च्छवि नव शिखिपिंछा लांछितं वाञ्छितं न:!
बालकृष्ण के प्रति लीलाशुक ने अपनी अनन्य भक्ति को अनेक श्लोकों में व्यक्त किया। किन्तु भक्ति की पराकाष्ठा का यह उदाहरण अवलोकनीय है -
(श्लोक सं. 1 द्वितीयाश्वास)
सद्यः (अभी-अभी) निकाले गये नवनीत से स्निग्ध, कांतिमान दूध पीने के कारण छींटों से भरा मुखमंडल, कभी दही के कणों से भरा सुंदर मुख/चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे मानों दही मल दिया हो। अत्यंत सुंदर तमाल वृक्ष के गुच्छों की कांति के समान जगमगाती शरीर छवि, नव-नव मयूर पंखों से पहचाना जानेवाले जिसका मोहक रूप है, जो तीनों लोकों के संकटों को छेदने की शक्ति क्षमता रखता हो वह मुरारि श्रीकृष्ण हमारी कामनाओं को पूरा करें। कृष्ण की और एक छवि दर्शनीय है-
‘‘सजल जलद नीलं वल्लीवी केलि लोलं
श्रित सुरतरुमूलं वि़द्युदुल्लसि चेलम्।
सुररिपुकालं सुन्मनोबिंबलीलं
नत सुरमुनि जालं नौमि गोपाल बालम्।।"
(द्वितीय भाश्वास श्लांक सं. 12)
गायों को चराकर घर लौटते बाल कृष्ण के धूलि धूसरित होकर भी आकर्षित करने वाले रूप का चित्रण है-
‘‘गोधूलि धूसरित कोमल गोप वेषं
गोपाल बालक शतैः अनुगम्यमानम्।
सायन्तने प्रतिगृहं पशुबन्धनार्थं
गच्छन्तमच्चुतशिशुं प्रणतोस्मि नित्यम्।।‘‘ 2-44
लीलाशुक कहते हैं- गायों के खुरों से उठी धूलि से धूसरित ग्वालबाल की वेषभूषा में अनेक ग्वाल बाल समूह के साथ सायंकाल पशुओं को बांधने के लिए शिशुरूप में विचरण करनेवाला अच्युत श्रीकृष्ण को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। शिशु रूप में किंकिणी रव के साथ चलायमान बालकृष्ण का चित्रण-
जालाभिराम जघनाय दिगम्बराय।
शार्दूल दिव्य नख भूषण भूषिताय
नन्दात्मजाय नवनीत वपुषे नमस्ते।।‘‘ 2-74
आगे बालकृष्ण शिशु चेष्टा का चित्रण है, जो किसी भी शिशु की सामान्य चेष्टा है, परम पुरुष कृष्ण को उस रूप में, लीलाशक के मुग्ध भाव से देखा था-
‘‘बालोयमालोल विलोचनेन, वक्त्रेण चित्रीकृत दिगंमुखेन।
वेषेन घोषोचित भूषणेन, मुग्धेन दुग्धे नयनोत्सुकं नः।। 1-69
बालक होने के कारण नयनों में बाल सुलभ सहज चंचलता, किंतु मुख-मंडल पर दिशाओं को प्रतिबिंबित करता हुआ आश्चर्य चकित करने वाला, ग्वाल बाल के अनुरूप वेषभूषा के साथ, मुग्ध होकर दूध दुहनेवाला नन्दगोप किशोर हमारे लिए नयनोत्सव बन कर प्रत्यक्ष हो रहा है।
किशोर कृष्ण के नयनों की चंचलता समन्वित प्रेममय दष्टि का मधुर वर्णन करते लीलाशुक की शब्द योजना अनुपम है-
लीलाशुक/बिलवमंगल ने कृष्ण के रूपमाधुरी का इस प्रकार मधुर वर्णन किया-
एक गोपी ने मक्खन पात्र में हाथ रखते हुए कृष्ण को देखा तो वह पूछने लगी-हे वत्स! तू कौन है?
‘‘बलराम का छोटा भाई हूँ।‘‘ ‘‘मेरे घर में तेरा क्या काम है?‘‘ कृष्ण का उत्तर-‘‘मेरा घर समझ कर आ गया हूँ।‘‘ गोपी कहती है-‘‘वह तो ठीक है, तू ने मक्खन के पात्र में हाथ क्यों डाला?‘‘ कृष्ण ने कहा-‘‘मैं एक बछड़े को ढूँढ़ रहा था, तुम दुखी नहीं होना।‘‘ इस मधुर वार्तालाप को सुनकर कृष्ण की वाक् चातुरी से हम आनंदित हैं।
बालक कृष्ण स्वप्न की अवस्था में शिव, ब्रह्म और देवगण को स्मरण करते हुए बात करते हैं तो माँ यशोदा आशंकित हो जाती है, नजर उतारने लगती है। मातृ हृदय का सहज चित्रण है-
‘‘शम्भोस्वागतमास्यतामित इतो नाथेन पद्मासने
क्रौंचारे कुशलं सुखं सुरपते वित्तेश नो दृश्यते।
इत्थं स्वप्न गतस्य कैटःभजित श्रुत्वा यशोदा गिरः
किं किं बालक, जल्पतीति रचितं थू थू कृतं पातु नः।। 2-59
एक बार बालक कृष्ण सपना देखते हुए कह रहे थे-
‘‘हे शिव! आपका स्वागत है। हे ब्रह्म! उस तरफ बैठिए। हे कुमार! तुम कुशल हो? हे देवेंद्र! तुम सुखी हो? कुबेर! आजकल दिखायी नहीं देते हो।‘‘ यह सुनकर यशोदा व्याकुल हो जाती है, कहती है-बेटा! क्या बड़बड़ा रहे हो, चुप हो जाओ, सो जाओ कहते हुए ‘‘थू‘‘ ‘‘थू‘‘ कह कर नजर उतारती है। यह साक्षात् विष्णु अवतार श्रीकृष्ण हमारी रक्षा करें! बालक के प्रति माँ का सहज वात्सल्य चित्रित है जो माँ यह नहीं जानती कि उसका पुत्र स्वयं महाविष्णु का अवतार है।
कृष्ण के बाल चरित्र यह अद्भुत प्रसंग अत्यंत प्रसिद्ध है-
माँ यशोदा बालक कृष्ण का मुँह दिखाने को कहती है, कहीं उसने माखन तो नहीं खा लिया। तब बाल कृष्ण के मुँह में ब्रह्मांड गोल का दर्शन करती हैं। उस प्रसंग को लीलाशुक ने मातृहृदय के सहज अबोध स्वभाव का चित्रण निम्नलिखित श्लोक में दर्शाया है-
‘‘कैलासो नवनीत क्षितिरयं प्राग्जग्धमृल्लोष्टति।
क्षीरोदोपि निपति दुग्धति लसत् स्मेरे प्रफुल्ले मुखे।।
मात्राजीर्णधिया दृढं चकितया नष्टास्मि दृष्टः कया
थू थू वत्सक जीव। जीव चिरमित्युक्तो वदन्तो हरिः।।‘‘
लीलाशुक ने बाल मनोविज्ञान और साथ ही माँ का मनोविज्ञान भी अपने श्लोकों में दर्शाते हैं। और एक श्लोक अवलोकनीय है-
यशोदा बालक श्रीकृष्ण को दूध पीने के लिए कृष्ण को कैसे प्रलोभन देती है-
‘‘कालिंदी पुलिनोदरेषु मुसली यावद्गतः खेलितुं।
तावत् कार्परिकः भयः पिबहरे वर्द्धिष्यते ते शिखा।।
इत्थं बालतया प्रतारणपराः श्रृत्वा यशोदा गिरः
पायान्न स्स्वशिरवां स्पृश्यन् प्रमुदितः क्षीरोर्द्दपीते हरिः।।‘‘ 2-6
यशोदा ने बालक श्रीकृष्ण से कहा-
तुम्हारा भाई बलराम कालिंदी किनारे खेलने गया। उसके लौटने से पहले इस कटोरे का दूध पी लो। इससे तुम्हारी वेणी बढ़ेगी। यशोदा किसी बहाने बालक कृष्ण को दूध पिलाना चाहती है। बालक कृष्ण दूध आधा पीते ही अपनी शिखा को देखकर टटोल रहे थे कि यह बढ़ा है या नहीं और आनंदित हो रहे थे। ऐसे भोले बालक हमारी रक्षा करें!
लीलाशुक स्थान-स्थान पर बालक कृष्ण का चित्रण करते हुए इस श्लोक में यह आभास करते हैं कि कृष्ण विष्णु का अवतार है। भोली माता सहज वात्सल्य के कारण समझ नहीं पाती। साथ ही निद्रा में बालक कृष्ण की बाल सहज चेष्टा का भी वर्णन करते हैं।
‘‘रामो नाम बभूव हुं, तदबला सीतेति हुं तां पितु
र्वाचा पंचवटी तटे विहरतस्तस्या हर द्रावणः।।
निद्रार्थं जननी कथयपि हरे हुंकारतः श्रृण्वतः।।
सौमित्रे! क्व धनुर्धनुः र्धनुरिति व्यग्राः गिरः पातु नः।।‘‘ 2-72
यशोदा बालकृष्ण को सुलाने के लिए रामायण की कथा सुनाते हुए कह रही थी-राम एक था। उसकी पत्नी सीता थी। वह अपनी पत्नी के साथ पिता की आशा के कारण पंचवटी परिसर में विहार कर रहा था। हुंकार भरते हुए बालक कृष्ण सुन रहा था। माँ ने आगे कहा-तब रावण के सीता का अपहरण का प्रसंग आया तो आवेश के साथ तंद्रा की अवस्था में ही बड़बड़ाने लगा-हे लक्ष्मण? मेरा धनुष कहाँ है? मेरा धनुष कहाँ है? ऐसे लीला पुरुष बालक कृष्ण हमारी रक्षा करें।
माता यशोदा पूरे वात्सल्य के साथ शिशु कृष्ण को स्तन-पान करा रही है। इसमें माता-शिशु के मनोज्ञ दृश्य को लीलाशुक पूरी तन्मयता से प्रस्तुत करते हैं।
‘‘किंचत् कुंचित लोचनस्य पिबत पर्याय पीत स्तनं
सद्यः प्रस्नुतदुग्ध बिंदुमपरं हस्तेन सम्मार्जितः।
मात्रैकांगुलि लालितस्य चुबके स्मेरानस्याधरे।
शौरेः क्षीर कणान्यिता निपतिता दन्तद्युतिः पातु नः।।‘‘
अर्द्धनिमीलित नेत्रों से स्तनपान करते हुए शिशु कृष्ण, उस स्तन को छोड़ कर जिससे दूध की बूंदें टपक रही थी, उस स्तन को छोड़कर दूसरे स्तन का दूध पीते हुए, पहले स्तन को सहलाते हुए, माँ के चुबुक को उंगली से स्पर्श करने पर मुस्कान की दंत कांति, दूध की बूँदों से शोभायमान शिशु कृष्ण हमारी रक्षा करें।
इस श्लोक में माँ यशोदा और शिशु कृष्ण का सुंदर चित्रात्मक वर्णन है और एक गतिशील बिंब का पूरा आयोजन परिलक्षित होता है। यहाँ शौरेः शब्द का प्रयोग विशिष्ट हैं लीलाशुक को यह ज्ञात है कि यह शिशु कृष्ण विष्णु का साक्षात् अवतार है। किंतु अवतार स्वरूप शिशु कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं को देखकर, कल्पना कर स्वयं मुग्ध हो जाते हैं।
लीलाशुक किशोर कृष्ण के मुख बिंब का वर्णन करते हुए उस रूप-सौंदर्य पर रीझ जाते हैं-
‘‘माधुर्य वारिधि मदान्ध तरंगभंगी
श्रृंगार संकलित शीत किशोरम्।
आमन्दहास ललितानन चंद्र बिंबं
मानंद संप्लवमनुप्लवतां मनो मे।।" 1-14
सौंदर्य सागर में श्रृंगार की तीव्र तरंगें जैसे कृष्ण के रूप में साकार हैं, मधुर मंदहास के कारण अत्यंत मनोहर लगने वाले मुखमंडल जैसे चंद्रमा है। मेरी इच्छा है कि ऐसे आनंद प्रवाह में मुझे अवगाहन करने का वरदान मिलें।
इस श्लोक में शब्द योजना के माधुर्य के साथ किशोर कृष्ण की छवि के साथ उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा है।
किशोर कृष्ण के नयनों में अनुराग की कांति है, विभ्रम है साथ ही करुणामय दृष्टि भी है। लीलाशुक भक्ति भावना से उसकी कृपा दृष्टि की कामना करता है-
लीला विलास एवं अनुराग से आप्लावित, नीलिमा एवं किंचित् अरुणिमा से नयनाभिराम कमलों के समान नयनों से, जिनमें आश्चर्य की चंचलता भी है वह श्रीकृष्ण जो किशोर रूप में लीला कर रहा है, उसकी कृपा दृष्टि पता नहीं, मुझ पर कब होगी?
लीला शुक ने कृष्ण के नयनों की अपनी मोहक सुंदरता के साथ जो कृपा दृष्टि है, उससे समन्वित नयनों का नयनाभिराम चित्र प्रस्तुत किया है।
लीलाशुक कहते हैं-मुरली वादन करते हुए, शीतल दृष्टि का प्रसार करते श्रीकृष्ण की छवि देखकर जन मुग्ध होते हैं।
अधर के समान अरुण एवं मधुर है, जिसका मनोहर मंदहास है, अपनी वाणी से जो अमृत की शीतलता देता है, जिसकी दृष्टि से हृदय शीतल होता है, जिसके विशाल नेत्रों में अनुराग की अरुणिमा है, मुरलीवादन के लिए जो लोक प्रसिद्ध है, उस मरकत मणि छवि समान देह कांति है, उस बाल कृष्ण को मुग्ध भाव से देख रहे हैं।
लीलाशुक बिल्व मंगल ने वेणुनाद करते श्री कृष्ण की गान माधुरी तन्मय गोपियों का अभिराम चित्र प्रस्तुत करते हैं-
‘‘आमुग्धमर्द्धनयनाम्बुज चुम्बयमान
हर्षाकुल ब्रज वधू मधुराननेःदोः।
आरब्ध वेणुरवमादि किशोर मूर्ते
राविर्भवन्ति मम चेससि कोपि भावाः।।" 1-19
मुरली गान सुन कर अत्यंत आनंदित गोपियों के अधखिले कमलों के समान अर्द्धविमीलित नेत्रों से चुंबित चंद्रमा समान मुख बिंब जिसका है, उस किशोर रूप श्रीकृष्ण की अनेक भावों से युक्त वेणु गान मेरे हृदय में उन्हीं भावों को प्रकाशित कर रहा है।
राधा और कृष्ण के परस्पर प्रेमजन्य परवशता का चित्रण है-
मंथानमाकलती दधि रिक्त पात्रे।
तस्याः स्तन स्तबक चंचल लोल दृष्टि
छोवोपि दोहनधिया वृषभं निरुन्धन्।।" 1-25
कृष्ण की स्मृतियों में लीन (परवश) राधा जो दधि रहित घड़े में मथनी से मथ रही है और उधर कृष्ण जिनकी चंचल लालायित दृष्टि राधा में स्तनों पर पड़े हुए पुष्प स्तबक से हट नहीं रही थी, इसी कारण कृष्ण दूध दुहने के लिए बैल को बांध रहे थे। ऐसी प्रेम की परवशता में आकण्ठ मग्न राधा और कृष्ण जगत् की रक्षा करें।
लीलाशुक/बिल्वमंगल बालक श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अद्भुत लावण्य से कृष्ण के इस रूप रत्नाकर की आराधना राधा भी करती है-
‘‘राधाराधित विभ्रमाद्भुत रसं लावण्य रत्नाकरं
साधारण्य पद व्यतीत सहज स्मेराननांम्भोरुहम्।।
आलम्बे हरिनील गर्वगुरुता सर्वस्व निर्वापणं
बालं वैणविकं विमुग्ध मधुरं मूर्धाभविक्तं महः।।" 3-2
बालकृष्ण का तेज जिसका राधा भी आराधना करती है, अद्भुत श्रृंगार रस पूर्ण है, सौंदर्य का रस सागर है असाधारण एवं सहज सिद्ध मुस्कान के साथ मुख कमल है, इंद्रनील मणियों की गरिमा का गर्व दूर करने वाला मधुर मुरलीवादन से मन मुगध करनेवाला, मनोज्ञ वस्तुओं से अभिषिक्त बालक कृष्ण की तेजस्विता का आश्रय चाहता हूँ।
आगे का श्लोक राधा और कृष्ण की प्रेमातिशयता और कृष्ण के मुख कमल के सौंदर्य की अभिव्यक्ति के कारण अत्यंत विशिष्ट है-
गायन के विविध प्रकारों के संयोग से मधुर अमृत के समान आस्वादनीय वेणुवादन, कमनीय मुस्कान से शोभित कमल समान और शीतल चंद्रमा के समान जो श्रीकृष्ण का मुख मंडल है, जिसे प्रगाढ़ आलिंगन आबद्ध होकर आश्चर्य एवं प्रेमातिशय के साथ राधा देखती रह गई थी, राधा की दृष्टि के ललित मुस्कान से मंडित श्रीकृष्ण के मुख कमल की शोभा पर मेरा मन रीझ गया।
यहाँ भाव सौंदर्य के साथ शब्द सौंदर्य की छटा दर्शनीय है।और एक श्लोक में राधा-कृष्ण केलि-क्रीडा का वर्णन है-
राधा के साथ के लिए समय श्रीकृष्ण के वक्षस्थल को अलंकृत करती राधा के कटाक्ष-वीक्षण, श्रृंगार क्रीडा के पश्चात् सुप्त लक्ष्मी के अवबोधन के बाद मुग्ध दृष्टि से श्रीकृष्ण आनंद साम्राज्य को द्विगुणीकृत करने वाली पुलकावली शाश्वत रहे।
श्रीकृष्ण कर्णामृतम् में रासक्रीड़ाष्टक
लीलाशुक के ‘श्रीकृष्णकर्णामृतम्‘ में ‘रासक्रीड़ाष्टक‘ का विशेष महत्व है। इस पुस्तक में बालकृष्ण के प्रति लीलाशुक की अनन्य भक्ति के श्लोक अधिक मिलते हैं। लीलाशुक बालकृष्ण के सर्वशक्ति संपन्न अवतार पुरुष की बाल छवि पर न्यौछावर होते हैं। उन्होंने बालकृष्ण के सौंदर्य का, बाल-लीलाओं का, माखनचोरी, मुरलीवादन, अद्भुत लीलाएँ, माता यशोदा और बालकृष्ण के आदि अनेक प्रसंगों का मनोहारी चित्रण किया। गोपियों के साथ युवा कृष्ण का श्रृंगार मंडित चित्रण किया। गोपियों के साथ रास-लीला का भी मनोमुगधकारी चित्रण है। श्रीमद् भागवत के बाद पहली बार लीलाशुक ने मनोमुग्धकारी वर्णन किया।
द्यातय है भारतीय साहित्य में कृष्ण भक्त कवि विद्यापति, जयदेव, चण्डीदास, चैतन्य महाप्रभु से भी लीलशुक पूर्ववर्ती भक्त कवि थे। लीलापुरुष श्रीकृष्ण के चरित का भक्तजन रंजक रूप का श्रीमद् भागवत् के बाद सांगोपांग वर्णन करने का भक्तिभाव को मधुर अभिव्यक्ति के लिए लीलाशुक दक्षिण में १२ वीं १३वीं शताब्दी में ही प्रसिद्ध है। विभक्त बिल्वमंगल की कृष्णलीला वर्णन, माधुरी के कारण ही उनके जीवन काल में ‘लीलाशुक‘ के नाम से प्रसिद्ध हुए। रासक्रीड़ा के अत्यंत प्रसिद्ध प्रसंग हैं। हिंदी साहित्य में जिसे रासलीला कहते हैं वह दक्षिण ‘रासक्रीड़ा‘ के नाम से वर्णित है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों के अनेक कृष्ण भक्तों के लिए यह कंठस्थ और अत्यंत प्रिय प्रसंग है। वल्लभ संप्रदाय के भक्तों के लिए कंठाभरण बना हुआ है।
रासक्रीड़ाष्टक के श्लोकों को पढ़ते हुए गोपियों के साथ श्रीकृष्ण रासलीला के दृश्य नयनाभिराम प्रस्तुत होने लगते हैं-
एक एक नारी के बीच माधव, माधव और माधव के मध्य अंगना (गोपी) मण्डलाकार आयोजित उस वृंद के मध्य में भी स्वयं कृष्ण ही अपनी वेणु का मधुर वादन करते हुए विराजमान हैं।
कृष्ण के शरीर की श्याम छाया देख कर, मयूर मेघ समझ कर के कीरव करने लगे, ऋतु समझकर हंसों की पंक्तियाँ कमलों में हृदयाकर्षक गति से इधर-उधर चलायमान हो रहे थे, तो कृष्ण अपने वेणु गान से उनको आनंदित करते हुए, कंस के वंश रूपी अटवी (वन) के लिए दावानल के समान श्रीकृष्ण बड़ी मधुरता से वेणुवादन कर रहे थे।
मंडलाकार गोपियों के बीच एक गोपी के वीणावादन के अनुरूप श्रीकृष्ण नर्तन कर रहा है, कहीं वीणवादन के अनुरूप किंकिणी ध्वनि से मोहित करते हुए, वीणा वादन के मध्य स्वयं गायन करते हएु देवकीनंदन श्रीकृष्ण मधुर वेणुगान से मोहित कर रहा था।
गोप गोवृन्द गोपालिका वल्लभः।
वल्लवीवृन्दवृन्दारकः कामुकः
संगगौ वेणुनः देवकीनन्दनः।।" 2-38
चंद्रमुखि गोपियों के मोहित नयनों के दृष्टिपात से समाहित, गोप गोपीजन के प्रियतर, ग्वाल बालाओं के लिए आराध्य, स्वयं उनके प्रति आकर्षित होकर, (कृष्ण) देवकीनंदन मधुर वेणुवादन कर रहा है।
केशराशि जूडी में आबद्ध है। उन जूडों में सजी पुष्पमालाओं से आकर्षित भृंगियों (मादा भौरों) के (कोलाहल) से गुंजन से अत्यंत भयभीत गोपियाँ श्री कृष्ण को विभ्रम से आलिंगन करती हैं। उस आलिंगन में हड़बड़ाहट के कारण वक्षस्थल के वस्त्र हट जाने के कारण गाढ आलिंगन में पूर्ण रूप से मगन देवकीनंदन श्रीकृष्ण ने वेणु से मधुर गायन किया।
‘‘चारु चामीकराभास भामा विभुः
वैजयन्ती लता वासितोरस्थलः।
नन्द वृन्दावने वासिता मध्यगः
संगगौ वेणुना देवकीनन्दनः।।" 2-40
स्वच्छ कनक के समान जिसके शरीर की कांति है, उस सत्यभामा के विभु-श्रीकृष्ण, जिसके वक्षस्थल वैजयन्तीमाला के सुगंध से सुवासित है, वह श्रीकृष्ण नंद के वृंदावन की गोपियों के बीच मुरली के मधुर स्वर से बजा रहा है।
‘‘बालिका तालिका ताल लीलालया
संग सन्दर्शित भ्रूलता विभ्रमः।
गोपिका गीत दत्तावधान स्स्वयं
संगगौ वेणुना देवकीनन्दनः।।" 2-41
ताल देने में निष्णात गोप बालिकाओं के ताल के अनुसार अपनी भ्रू भंगिमा से वर्तन करते हुए, गोपियों के गीतों को दत्तचित्त होकर पूरे अवधान के साथ सुनते हुए श्रीकृष्ण वेणुवादन कर रहा है।
‘‘पारिजातं समुद्धृत्य राधावरो
रोपयामास भामागृहस्यांगणे।
शीतशीते वटे यामुनीये तटे
संगगौ वेणुना देवकीनन्दनः।।‘‘
राधावल्लभ श्रीकृष्ण इंद्र के नंदन वन से पारिजात वृक्ष को उखाड़ कर सत्यभामा के गृह के प्रांगण में रोपण करते हैं। ऐसे शक्ति संपन्न कृष्ण यमुना नदी के किनारे शीतल वट वृक्ष के नीचे वेणु से मधुर गायन कर रहा है।
इस प्रकार लीलाशुक/बिल्वमंगल श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला आठ श्लोकों में वर्णन करते हैं। इस चित्रण में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति के साथ कृष्ण के अवतार पुरुष के रूप का भी समन्वय करते हैं। इस वर्णन में भाषा माधुर्य अवलोकनीय है।
श्रीकृष्ण कर्णामृत में कृष्ण की बाल लीला, माखन लीला, यशोदा की वात्सल्य भावना, बल्कि कृष्ण में बाल सुलभ चपलता, युवा कृष्ण की श्रृंगार लीला, गोपियों और राधा के साथ अत्यंत कोमल कांत पदावली में रम्यता के साथ चित्रण किया गया है। लीलाशुक कृष्ण के प्रति अपनी संपूर्ण भक्ति भावना के साथ, विष्णु के अवतार के रूप में ही मानते हैं। दक्षिण में श्रीमद् भागवत के बाद कृष्ण चरित का गायन श्रीकृष्ण कर्णामृत में ही हुआ है। इसलिए इस ग्रंथ का परवर्ती कृष्ण भक्ति साहित्य पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
प्रोफ़ेसर पी मणिक्याम्बा ‘मणि’ , ओस्मानिया विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुई हैं! वे हैदराबाद में रहती है और स्वतन्त्र लेखन कर रही हैं।
आदरणीया मणि जी,
ReplyDeleteप्रणाम, आपका लीलाशुक/ बिल्वमंगल स्वामी जी को संदर्भित आलेख बहुत ही सुंदर और रोचक बन पड़ा है। शब्दों का चयन और उसके भावार्थ को बड़ी बारीकी से सुलझाकर प्रस्तुत किया है। श्रीकृष्ण कर्णामृत को सीमित शब्दों में तथा उसके श्लोकों के अर्थ को रचते हुए जो आनंद की अनुभूति हुई है वह आपके लेखन से साफ नजर आ रही है। श्रीकृष्ण के बाल्यावस्था के सौंदर्य रूपी वर्णन और बचपन की अठखेलियाँ बड़ी ही मार्मिकता से प्रदर्शित हो रही है। अद्भुत और अतिरमणीय आलेख से इस महान ग्रंथ के बारे में जानकर अत्यंत खुशी हो रही है। बहुत कुछ सीखने योग्य है। इस खूबसूरत आलेख के लिए आपका आभार। धन्यवाद। हम पर आशीर्वाद बना रहे।
आदरणीय दीदी बहुत ही रोचक लेख लिखा आपने बहुत श्री जानकारी हमें मिली वह साथ ही कृष्ण की अनुपम छटा उनके सौंदर्य को बखूबी आपने वर्णन किया । इतने सुन्दर आलेख के लिए साधुवाद आपको ।
ReplyDeleteआदरणीय मणी जी
ReplyDeleteआहा आनन्द आ गया। ऐसा लगता है जन्माष्टमी की धूम अभी भी मची है। मै करारविन्देन पादारविन्दम ....रोज पढती हूः और याद भी नही किस उम्र से पढ रही हू, लेकिन आज मालूम हुआ यह श्लोक लीलाशुक जी का लिखा हा। ऐसा ज्ञानवर्धक लेख के लिये आपको बधाई और दिल से आभार।
प्रो. मणि जी नमस्ते। आपने कविवर लीलाशुक पर बहुत अच्छा लेख लिखा। लेख में दिए गए सुंदर श्लोकों एवं उनकी समृद्ध व्यख्या पढ़कर आनन्द आ गया। आपके लेख के माध्यम से लीलाशुक जी के रचना संसार को जानने का अवसर मिला। उनके द्वारा रचित स्त्रोत को बहुत सुना, गाया पर रचयिता से आज परिचित हुआ। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteडॉ मणि जी, कविवर लिलाशुक के विभिन्न श्लोकों से परिचय हुआ।दक्षिण भारतीय कृष्ण भक्ति परंपरा की जानकारी मिली। उत्कृष्ट लेख हेतु हार्दिक बधाई।🙏💐
ReplyDeleteभारत की साहित्य परंम्परा कितनी महान है , और उतनी ही रसरंजक रही है भक्ति परंम्परा । श्री कृष्ण कर्णामृत के रचयिता के रचयिता लीला शुक के विषय में इतना रम्य चित्रण करने और अमुल्य जानकारी प्रदान करने के लिये आदरणीय मणि जी का अभिवादन एंव धन्यवाद ।
ReplyDeleteआपके आलेख ने इतनी गहरी जानकारी दी है. आपका सादर आभार🙏🙏
ReplyDeleteमन में भक्ति भाव जगाता हुआ लेख
आपके एक एक शब्द अमूल्य हैं.
जय श्री कृष्णा 🙏🙏
सादर अभिनंदन और नमस्ते 🙏
ReplyDeleteॐ
ReplyDeleteजय जयतु श्रीकृष्ण हरि
बिल्वमंगल, लीलाशुक १२ वीं सदी में श्री कृष्ण भक्ति की वैतरणी में सांगोपांग डूब गए।
आप ने दक्षिण भारत से श्रीकृष्ण भक्ति स्तवन, उत्तर भारत में, आगे विस्तृत हुई
यह तथ्य, दृष्टांत सहित आपके आलेख द्वारा प्रस्तुत किया है। आपको ढेरों बधाई।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:
~ लावण्या