"रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री, बाक़ी सब ढह जाएगा" - 'आम्रपाली'
भन्ते, बताइए, कैसे समझे कोई, कौन सगा? . . .
"चित की लौ को निष्कम्प करे जिसकी उपस्थिति
वही सगा, अनामिका, सगा वही
जो तुमको मंथर गति से चलना सिखाए,
बढ़ना सिखाए जो ऐसे जैसे कि युद्धभूमि में हाथी बढ़ता है
बौछार तीरों की
हर तरफ से झेलता!
जीवन का हासिल बस
धीरज और शालीनता!"
यह है 'वानप्रस्थ: एक' कविता से मानव के सच्चे मीत की परिभाषा और जीवन के हासिल की व्याख्या! अनामिका का रचना संसार ऐसे सहज, स्पष्ट किन्तु गहन वार्तालापों से समृद्ध है!
अपने अहम की चादर उतारिए, न्याय को करुणा से तर कीजिए, विद्या को आंतरिक प्रज्ञा से दीप्त होने दीजिए, शहरी बौद्धिकता को गाँव क़स्बों की बतकही से आत्मीय होने दीजिए, भाषाई शुद्धता में आ जाने दीजिए कुछ बाल सुलभ शब्द! आइए चलिए, हिंदी कविता के अनामिका युग में!
अनामिका आज के समय की प्रमुख हिन्दी-भाषी रचनाकार हैं। उनके यहाँ स्त्रियाँ बिना दीवारों के घरों का महास्वप्न देखती हैं; परंपरा और आधुनिकता के बीच की खाई को समझौते के पुल से पाटती हैं; व्यवस्था की विडंबनाओं की अवज्ञा तो करती हैं, परन्तु सविनय! स्त्रीअस्मिता के प्रश्न और उसकी वैचारिकता के विभिन्न आयाम समेटती उनकी कविताएँ आज के समाज का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। अनामिका कहती हैं, "मेरी स्त्रियाँ साधारण हैं और वे संवाद के ज़रिए बदलाव चाहती हैं।" वे जानती हैं कि "एक सजग स्त्री की जो विश्व-दृष्टि होती है, वह छद्म क्रांतिकारिता से बिलकुल अलग है।" उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि में एक आदिम बहनापा सदा झलकता है। 'भामती की बेटियाँ' में अनामिका एक स्वप्न देखती हैं,
कृपा नहीं, प्रेम का प्रसाद भी नहीं लेंगी
भामती की बेटियाँ
ग्रन्थ अपने स्वयं ही रचेंगी लगातार
इसी तरह हर युग में!
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार के एक शिक्षित, संभ्रांत परिवार में १७ अगस्त १९६१ को अनामिका का जन्म हुआ। माता-पिता प्रोफ़ेसर थे। दादा और नाना दोस्त थे। उस माहौल में जब बिटिया पैदा हुई तो पिता, श्यामनंदन किशोर जी ने उसका नाम रखा 'अनामिका'। अपनी कविता 'चुनाव' में अनामिका लिखती हैं,
पापा ने तो नाम रखते हुए
की होगी यह कल्पना
कि नाम-रूप के झमेले
बाँधें नहीं मुझको
और मैं अगाध ही रहूँ
आद्या जैसी
घूमूँ-फिरूँ जग में
बनकर जगद्यातृ जगत्माता।
एक प्रेमपगे वातावरण में अनामिका और उनके बड़े भाई अमिताभ राजन की परवरिश हुई। घर किताबों से भरा था। पिताजी हिन्दी के मूर्धन्य कवि एवं विद्वान थे। वे बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति रहे और वर्ष १९७२ में उन्हें साहित्य और शिक्षा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अनामिका पर उनके व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव रहा।पिताजी को अँग्रेज़ी, इतालवी, रूसी, चेक आदि भाषाएँ आती थीं, सो अनामिका की भी भाषाओं से दोस्ती रही। माँ, आशा जी, भी पढ़ने-लिखने में दक्ष थीं। घर में विद्वानों का आना-जाना लगा रहता। घरवालों को ढेरों कविताएँ कंठस्थ रहा करतीं। कविता की अन्ताक्षरियों, समस्या-पूर्तियों से शुरू हुआ काव्य-रंग धीरे-धीरे अनामिका के अंतस में गहराता गया।
दस साल की उम्र में उन्होंने खेल-खेल में अपनी पहली कविता लिखी, पिताजी ने देखा तो दंग रह गए। धीरे-धीरे उनकी कविताएँ अख़बारों में प्रकाशित होने लगीं। माँ-पिताजी ने लाड़ से उनकी कविताओं का एक संग्रह युवास्था में ही छपवा दिया।
अनामिका की प्राथमिक शिक्षा मुज़फ़्फ़रपुर के सेंट ज़ेवियर्स स्कूल में हुई। स्नेहिल, साहित्य से तर जीवन की आदी अनामिका को कठोर मिशनरी अनुशासन और उसकी उपयोगिता समझने में कुछ समय तो ज़रूर लगा, परन्तु इसने उनके जीवन-निर्माण में सहयोग दिया। भाई अमिताभ (आज वे एक सेवानिवृत आईएएस हैं) अनामिका को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली ले आए। यहीं हॉस्टल में छोड़ते समय उन्होंने अंतिम बार अपने पिताजी को देखा। ५५ वर्ष की उम्र में पिता की असमय मृत्यु ने अनामिका के हृदय को कभी न भरने वाला एक घाव दे दिया। पिताजी की अनुपस्थिति में भी वे उनकी दिखाई राह पर चलती रहीं। श्यामनंदन जी लिख गए थे,
सालों बाद अनामिका लिखती हैं,
अनामिका ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी साहित्य में एम.ए., पी.एचडी.और डी.लिट् किया। आजकल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज के अँग्रेजी विभाग में अध्यापन कर रही हैं। अनामिका का विवाह उनके पिता ही तय कर गए थे। पतिदेव विंदु अमिताभ डॉक्टर हैं। दो सलोने, सुसंस्कृत पुत्रों को उन्होंने उसी ममता से पाल कर बड़ा किया, जो ममता उनकी लिखी हर पंक्ति में दृष्टिगोचर है।
छलक न जाए आँसू बनकर
द्रवित हृदय की पीर, सँभालो!
इन नयनों के नीर, सँभालो! . . .
दुर्दिन के ही आघातों से
जीवन का मंजीर, बजा लो!
सालों बाद अनामिका लिखती हैं,
जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टाँकें हैं फूल सभी धरती पर!
अनामिका ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी साहित्य में एम.ए., पी.एचडी.और डी.लिट् किया। आजकल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज के अँग्रेजी विभाग में अध्यापन कर रही हैं। अनामिका का विवाह उनके पिता ही तय कर गए थे। पतिदेव विंदु अमिताभ डॉक्टर हैं। दो सलोने, सुसंस्कृत पुत्रों को उन्होंने उसी ममता से पाल कर बड़ा किया, जो ममता उनकी लिखी हर पंक्ति में दृष्टिगोचर है।
उनकी पैनी, सुशिक्षित दृष्टि भेद लेती है मुखौटे, शिक्षादीप्त मानस जान लेता है महानगर के बाहरी आवरण के भीतर का सत्य। पढ़िए - 'मुश्किलें स्त्री कवि की',
अनामिका की कविताओं के भवन में अनुभव, ज्ञान, भावना और प्रज्ञा की खुली खिड़कियाँ हैं; साथ ही हैं कई चोर दरवाज़े जहाँ से कथ्य समय और स्थान की वीथियों को लाँघ कर आता-जाता रहता है और पाठक को पता ही नहीं चलता कि "ऐ लो! हम तो तिरहुत, मिथिला के आँगन हो कर वापस दिल्ली लौट भी आए!" अनामिका अपने शब्दों और भावों से एक चटाई सी बुनती हैं और कहती हैं थकी हुई मानवता से, "भाई आओ, बंधु आओ, इन कविताओं की छाँव में बैठो!" अनामिका की कविताएँ अपनी गोद में पौराणिक कथाएँ, विश्व का इतिहास, गमकता मिथिला-तिरहुत का लोक जीवन समोए हैं। उनकी कविताओं में पुराने के छूटने की टीस है तो नव-स्वप्न भी हैं। वे कहती हैं, "परंपरा की बैटरी चार्ज करनी है, लेकिन नए तरह के अनुभवों के सॉकेट से!"
कविता भी है तो स्त्री ही
कोई उसे सुनता नहीं,
सुनता भी है तो समझता नहीं,
सब उसके प्रेमी हैं और दोस्त कोई नहीं!
कितनी अकेली है
अपनी इस छूँछी मांसलता में वो!
अनामिका की कविताओं के भवन में अनुभव, ज्ञान, भावना और प्रज्ञा की खुली खिड़कियाँ हैं; साथ ही हैं कई चोर दरवाज़े जहाँ से कथ्य समय और स्थान की वीथियों को लाँघ कर आता-जाता रहता है और पाठक को पता ही नहीं चलता कि "ऐ लो! हम तो तिरहुत, मिथिला के आँगन हो कर वापस दिल्ली लौट भी आए!" अनामिका अपने शब्दों और भावों से एक चटाई सी बुनती हैं और कहती हैं थकी हुई मानवता से, "भाई आओ, बंधु आओ, इन कविताओं की छाँव में बैठो!" अनामिका की कविताएँ अपनी गोद में पौराणिक कथाएँ, विश्व का इतिहास, गमकता मिथिला-तिरहुत का लोक जीवन समोए हैं। उनकी कविताओं में पुराने के छूटने की टीस है तो नव-स्वप्न भी हैं। वे कहती हैं, "परंपरा की बैटरी चार्ज करनी है, लेकिन नए तरह के अनुभवों के सॉकेट से!"
अनामिका एक साझा संसार के स्वप्न देखती हैं, जहाँ पुरुष अतिवादी नहीं प्रज्ञावान होगा! जो धैर्य, सौम्यता, गहनता और एकनिष्ठता अब तक स्त्रियों में अपेक्षित रही है, अनामिका उन्हें पुरुषों में भी निवेशित करना चाहती हैं। कविता 'जनम ले रहा है एक नया पुरुष' में हम इस नवपुरुष के दर्शन करते हैं,
नया पुरुष जो कि अतिपुरुष नहीं होगा --
क्रोध और कामना की अतिरेकी पेचिश से पीड़ित,
स्वस्थ होगी धमनियाँ उसकी
और दृष्टि सम्यक --
अतिरेकी पुरुषों की भाषा नहीं बोलेगा --
फिर धीरे-धीरे खड़ा होगा नया पुरुष --
प्रज्ञा से शासित संबुद्ध अनुकूलित,
प्रज्ञा का प्यारा भरतार,
प्रज्ञा को सोती हुई छोड़कर जंगल
इस बार लेकिन नहीं जाएगा।”
भारतीय समाज तथा जनजीवन की घटनाओं और उनके प्रभाव की सूक्ष्म पड़ताल और भावुक अभिव्यक्ति अनामिका के यहाँ देखने को मिलती है। सम्यक ज्ञान सहज शब्दों की कविता में ढल जाता है। आज के स्वार्थी और स्वकेन्द्रित सोशल-मीडिया संसार से दूर, वे अपने काम और लेखन में संलग्न रहती हैं। उन्हें किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, कहीं जाने की कोई जल्दी नहीं है। वे जानती हैं कि बेहतरीन परिणाम सामूहिक श्रम से मिलता है, स्पर्धा से नहीं।
कविता 'सेल्फ़ी' में मुस्कुराते हुए वे कह जाती हैं यह महत्त्वपूर्ण बात,
कि सेल्फ़ का दायरा इतना टुन्ना-मुन्ना भी हो सकता है
जो एक क्लिक में समा जाए!
ख़ुद फ़रीद बाबा, कबीर, और मीरा ने
मुझको सिखाया था यही सदा
कि आदमी के विराट सेल्फ़ में
पूरा ब्रह्मांड ही समाया है -
एक साथ इसमें समाए हैं
बूँद और समुन्दर, पहाड़ और चींटी
यह दुनिया, वो दुनिया
जंगल की वीथियाँ।
जीवन के सौंदर्य और उसकी अनुभूति को अनामिका अपने बिंबों में इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि लगता है यह तो हम जानते थे लेकिन कह नहीं पाए। अनामिका की कविताओं में साधारण लगने वाले निजी अनुभव विस्तृत सार्वजनिक अनुभव बन जाते हैं। पेब्लो नेरुदा की तरह उनकी बहुत सी कविताएँ ऐसे विषयों पर केंद्रित हैं जिनके बारे में हम तब तक नहीं सोचते जबतक वे काव्य-रूप में हमारे सामने आ नहीं जाते। 'बस टिकट' के लेने वाले से देने वाले तक के सहयोग प्रकरण से फूटी उनकी कविता तत्काल से आदिकालीन मानवता तक की यात्रा चंद पंक्तियों में तय कर लेती है। एक चोर दरवाज़े से यह कविता बिहारीलाल के दोहे को भी याद करती है और पाठक को छोड़ती है स्वतन्त्र, कि आप भी कर आएँ सैर उस पुरातन प्रज्ञा में!
यह अनायास होती बहुयुगीन यात्रा ही शायद अनामिका की सबसे बड़ी खासियत है,
"आँखों-आँखों में हो जाती है गुफ़्तगू
और हाथों-हाथ बढ़ता चला आता है सिक्का,
पुल-सा बन जाता है अनजान हाथों का,
दुनिया का सबसे अनूठा पुल! …
आदमी का आदमीयत से रोमांस यह
शायद है
आदिकालीन!"
अनामिका की कविताएँ राजनीतिक जागरुकता और आत्म-प्रतिबिंब का एक परिष्कृत संयोजन हैं। नारीवादी और मानवाधिकारों की चिंता व्यक्त करती हुई अनामिका की दृष्टि सूक्ष्म और स्थिर है। नैतिक और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों को वे इस सहजता से उठाती हैं कि कुछ आरोपित नहीं लगता। हर वर्ग की नारी के अनकहे आवेग उनकी कलम से अनायास निःसृत होते हैं। एक अदृश्य बहनापे की स्याही से 'तलाशी' में वे लिखती हैं,
"हलो धरती, कहीं चलो धरती
कोल्हू का बैल बने गोल-गोल घूमें हम कब तक?
आओ, कहीं आज घूरते हैं तिरछा
एक अगिनबान बन कर
इस ग्रह-पथ से दूर!"
अपनी बहुचर्चित कविता 'नमक' में अनामिका दुनिया के हर तरह के नमक का अन्वेषण सा करती हैं,
नमक दुःख है धरती का और उसका स्वाद भी! . . .
वो जो खड़े हैं न-
सरकारी दफ्तर-
शाही नमकदान हैं
बड़ी नफ़ासत से छिड़क देते हैं हरदम
हमारे जले पर नमक। . . .
जिनके चेहरे पर नमक है
पूछिए उन औरतों से
कितना भारी पड़ता है उनको
उनके चेहरे का नमक!
अनामिका एक कवयित्री ही नहीं, श्रेष्ठ उपन्यासकार, आलोचक और अनुवादक भी हैं। उनके उपन्यास - 'दस द्वारे का पींजरा' और 'तिनका तिनके पास'- मराठी और मलयालम में नाटकों के रूप में मंचित किए गए हैं। नारीवादी विषयों पर उनके निबंधों का कई भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। ख़ुद भी वे अंग्रेज़ी से लगातार अनुवाद करती रहती हैं। चूँकि वे अंग्रेजी की अध्येता हैं, तो अंग्रेजी कविताओं पर उनकी कई शोधपरक पुस्तकें, निबंध प्रकाशित हुए हैं।
अनामिका विदेशों में भी हिन्दी कविता का एक चर्चित नाम हैं। अब तक बांग्ला, पंजाबी, मलयालम, असमिया, तेलुगु, अँग्रेज़ी, रूसी, स्पेनिश, जापानी और कोरियाई भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं। उनकी किताबों 'खुरदुरी हथेलियाँ', 'दूब-धान' और 'टोकरी में दिगंत' से कविताएँ राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। उनका एक बेहद ख़ूबसूरत द्विभाषी संग्रह 'वैशाली कॉरिडोर' वर्ष २०२१ में निकला। अनामिका एड्रियेन रिच, एलिस वॉकर, फ़हमीदा रियाज़ और फैज़ अहमद फैज़ की कविताओं में आश्रय पाती हैं।
अनामिका को उनके कविता-संग्रह 'टोकरी में दिगन्त- थेरीगाथा:२०१४' के लिए वर्ष २०२० में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। अकादमी ने पहली बार किसी कवयित्री को कविता-संग्रह के लिए यह पुरस्कार दिया। इस उपलक्ष्य में उनके पुत्रों उत्कर्ष अमिताभ और उन्नयन ने GenZ कवियों के लिए ५ लाख रुपयों के पुरस्कार की घोषणा की। पुरस्कार के बाद के एक साक्षात्कार में अनामिका कहतीं हैं, "यह हमारा साझा अवार्ड है, दुनिया में पुरस्कार हो या तिरस्कार, साझा ही होता है!" इसलिए जब भी अनामिका की बात होती है तमाम महिलाओं का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है।
'समालोचन' में ओम निश्छल जी अनामिका के लिए लिखते हैं,
"'खुरदुरी हथेलियाँ' में अनामिका के यहाँ स्त्री अंतःपुर से बाहर आती हुई तथा अपने दुख, अवसाद, अकेलेपन तथा संत्रास को भूल कर तमाम तरह के चरित्रों से बोलती-बतियाती और उनके सुख-दुख में शामिल दिखाई देती है। अनामिका की अंतश्चेतना में गँवई और घरेलू चरित्र तथा उनकी बोली-बानी के चीन्हे-अचीन्हे संवाद भी उसी पुलक से समाए होते हैं, … अपने समूचे विट और चपल वाग्वैभव का अहसास कराती अनामिका की कई कविताओं का पाठ कभी कभी खुरदुरी हथेलियों-सा खुरदुरा भी लग सकता है, किन्तु ये अलग प्रजाति की कविताएँ हैं, यह अलग प्रकार के अनुभवों की दुनिया है, जिसे सजाने के लिए अनामिका आख्यानों, बतकहियों, परंपराओं और जनश्रुतियों का पूरा सहयोग लेती हैं। फिर भी यह कहना जरूरी है कि वे उन कवयित्रियों में नहीं हैं जो अपनी ही बनाई दुनिया के अवसाद और अकेलेपन का विषण्ण राग गाती हुई निःशेष हो जाती हैं, बल्कि समाज के खटराग के बीच उठती हुई धुन को जीवन के वस्तुनिष्ठ संसार में सहेजती हुई चलती हैं।"
उनकी कविता 'इतिहास' की अंतिम पंक्तियाँ हैं,
कि गई हुई चीज़ें कहीं नहीं जातीं
ओझल हो जाती हैं
गिरती दीवारों के पार कहीं
धूल का दुपट्टा लपेटे
यों ही कहीं ऊँघ जाती हैं यादें
एक पूरी क़ौम की!
पढ़ते ही लगता है, अरे! यह तो चंद पंक्तियों में 'रेत समाधि' है! यह है एक गहन-कवि की लालिमा!
अनामिका प्रशिक्षित कत्थक नृत्यांगना हैं; जीवन को सम्पूर्णता से देखती हैं; आपसदारी, बहनापे और सहकारिता के बीज बोती हैं; विज्ञान कविताएँ लिखती हैं; युवाओं के साथ अध्यापन और कविता के इतर भी सामाजिक कार्य करती हैं।
यदि आपने उनका मधुर काव्य-पाठ सुना है तो आप उनकी कोई भी कविता उसी शैली में पढ़ना चाहेंगे! आज के युग में यदि आपको कविता की तलाश है तो मिलिए अनामिका से - वह स्वयं एक सम्पूर्ण कविता हैं!
यदि आपने उनका मधुर काव्य-पाठ सुना है तो आप उनकी कोई भी कविता उसी शैली में पढ़ना चाहेंगे! आज के युग में यदि आपको कविता की तलाश है तो मिलिए अनामिका से - वह स्वयं एक सम्पूर्ण कविता हैं!
अनामिका यशस्वी हों! दीर्घायु हो! जन्मदिन मुबारक!
सन्दर्भ
- अनामिका जी के साथ गुज़ारे एक दिन की बातें
- अनामिका जी के साक्षात्कार
- https://youtu.be/p7WyTVEp3DI
- https://www.youtube.com/watch?v=54oks5uGpKI
- https://www.accesstoinsight.org/tipitaka/kn/thig/index.html
- https://youtu.be/vlEY_2bYhX4
- https://www.outlookindia.com/videos/
- https://unmelodiousness59.rssing.com/chan-39383031/all_p16.html
- https://navbharattimes.indiatimes.com/
लेखक परिचय
शार्दुला नोगजा
शार्दुला अनामिका की सच्ची प्रशंसक हैं। वे अनामिका जी और उनकी कविताई के प्रेम में आकंठ डूबी हैं! शार्दुला मिथिला से हैं तो अनामिका के कविताओं की आंचलिक पृष्ठभूमि उन्हें बिल्कुल बहनापे की बात सी लगती है!
Shardula.Nogaja@gmail.com
बहनापे शब्द के बहुत गूढ़ अर्थ-भाव से परिचय कराया आपका आलेख एक नयी रंगत का आभास कराता है। साधुवाद!
ReplyDeleteइस आलेख़ को पढ़ना बहुत ही अच्छा लगा। मैं खुद मुज़फ़्फ़रपुर की हूँ तो यह बहनापे शब्द को दिल की गहराइयों से महसूस कर पा रही हूँ। कुछ दिनो पहले ही अनामिका जी से मेरी मुलाक़ात हुई थी और कार्यक्रम में उनके वक्तव्य को सुनना कितना आनंदायक रहा था उसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती।शार्दूला जी को इस उत्कृष्ट लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteशार्दुला, यह अनामिका जी के रचना-संसार और उनकी सोच, प्रेरणा आदि से मिलवाता अत्युत्तम लेख है। इसकी एक ख़ूबी यह भी है कि इसमें तिरहुत, मिथिला की मिट्टी में सने शब्दों की प्रतिध्वनि भी है हो इसमें मिठास घोल रही है। अनामिका जी को जानना एक सुखद अनुभव रहा। इस सुंदर परिचय के लिए आभार और बधाई।
ReplyDeleteअनामिका जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ कि उनकी लेखनी सतत ऐसा सुंदर सृजन करती रहे।
एक बार अनामिका जी को देखिए, एक बार शार्दुलाजी को, बहनापा चेहरे की स्मित मुस्कान से, लेखनी की स्निग्ध धारा तक दिखाई पड़ सकता है। अनामिका जी के प्रेम में सब हैं, शार्दुला जी भी और शार्दुला जी के प्रेम में हम। भाषा में द्रव्यता कहां से आती है, व्यक्तित्व की तरलता से। यह सरलता दोनों में है, दोनों की रचनाधर्मिता में है साधुवाद
ReplyDeleteअपनापा, बहनापा बड़े प्यारे शब्द हैं, शारदुलाजी के आलेख में इन शब्दों के भाव उमड़ घुमड़ रहे हैं, अनामिकाजी पर लिखे इस सुन्दर आलेख के लिए हार्दिक बधाइयां
ReplyDeleteवह शार्दुला! बहुत सार्थक आलेख लिखा है तुमने अनामिका जी पर। कई जगह तो तुमने कविताएँ रच दी हैं। आलेख पर टिप्पणियाँ पढ़ना भी बहुत रोचक लग रहा है। अनामिका जी से ऐसे दमदार आलेख के माध्यम से मिलवाने के लिए तुम्हें धन्यवाद और बधाई।
ReplyDeleteअनामिका जी के काव्य संसार को शार्दुला जी ने अपने हृदय से उपजे भावों से चित्रित किया है। सुंदर कविताएं और सुंदर आलेख।
ReplyDeleteशार्दुला जी नमस्ते। हमेशा की तरह आपने बेहतरीन लेख हम पाठकों को उपलब्ध कराया। अनामिका जी के बारे में पहले भी पढ़ा परन्तु आपके लेख में वो बात है कि लगता है पहली बार पढ़ रहा हूँ। लेख में सम्मिलित कविताओं के अंश लेख को काव्यमय बना रहे हैं। आई टिप्पणियों एवं विशेष लेखक द्वय की तस्वीर ने भी लेख को सुंदर विस्तार दिया। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअनामिका सच में साक्षात कविता हैं जिन का हृदय काव्यमयी भावाभिव्यक्तियों द्वारा स्पंदित होता है । स्नेह करूणा और प्रेम से वे किसी को भी पलभर में अपना बना लेती है ।शार्दुला को बधाई कि उन्होंने उतने ही मनोयोग और स्नेहसिक्त अभिव्यक्तियों से यह आलेख लिखा है।
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