इन पंक्तियों
द्वारा राष्ट्रीयता तथा राष्ट्र प्रेम को मनुष्यता का पर्याय घोषित करनेवाले और “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती, भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती” जैसे शब्दों से अपने देश की शुभाशंसा को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व की प्रेरणा बनानेवाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म एक संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता, श्री
रामचरण गुप्त,
एक निष्ठावान् राम भक्त और काव्यानुरागी व्यक्ति
थे। उनके
ये दोनों
गुण मैथिलीशरण जी को विरासत
के रूप
में प्राप्त
हुए थे।
मुंशी अजमेरी ने उनका मार्गदर्शन किया और १२ वर्ष की आयु में ब्रजभाषा में ‘कनकलता’ नाम से उन्होंने अपनी पहली कविता लिखनी आरंभ की । घर पर ही अँग्रेज़ी, बँगला,
संस्कृत एवं
हिन्दी का अध्ययन करने
वाले गुप्त
जी की प्रारंभिक रचनाएँ
कोलकाता से प्रकाशित वैश्योपकारक नामक
पत्रिका में
छपती थीं।
आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी जी के संपर्क में
आने पर उनके आदेश,
उपदेश एवं
स्नेहमय परामर्श
से गुप्त
जी खड़ी
बोली में
कविता लिखने
लगे। महादेवी वर्मा से परिचय के बाद उनकी कविताएँ सरस्वती में प्रकाशित होनी प्रारंभ हुईं। उन्होंने गाँधी जी से प्रभावित होकर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग
लिया और कारावास भी गए ।
गुप्त जी ने खड़ी
बोली के स्वरूप-निर्धारण एवं विकास
में महत्वपूर्ण योगदान किया। उनकी
प्रारंभिक रचनाओं
में इतिवृत्तात्मकता की अधिकता है,
किंतु बाद
की रचनाओं
में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं
सूक्ष्म मनोभावों की मार्मिक
अभिव्यक्ति हुई
है। गुप्त
जी ने चवालीस से अधिक रचनाओं
में प्रबंध
के अंतर्गत
गीतिकाव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है।
उनकी चरित्र
कल्पना में
कहीं भी अलौकिकता के लिए स्थान
नहीं है।
सारे चरित्र
मानव हैं,
उनमें देव
एवं दानव
नहीं है।
उनके राम,
कृष्ण, गौतम
आदि सभी
प्राचीन और चिरकाल से हमारी श्रद्धा
प्राप्त किए
हुए पात्र
हैं। गुप्त
जी ने मानवीय स्वरूप
में उनकी
संकल्पना की है। ‘साकेत’ के राम ईश्वर
होते हुए
भी तुलसीदास के राम
की भाँति
अलौकिक नहीं,
हमारे ही बीच के एक मानव
हैं।
वे गंभीर विषयों को भी सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी भाषा में लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग से जीवंतता आई है। गुप्त जी मूलत: प्रबन्धकार थे, लेकिन प्रबंध के साथ-साथ मुक्तक, गीति, गीतिनाट्य, नाटक आदि क्षेत्रों में भी उन्होंने रचनाएँ की हैं। हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में गुप्त जी का बड़ा योगदान है। उनकी भाषा में माधुर्य, भाव की तीव्रता और संस्कृत के शब्दों की बहुलता उसको अभिव्यंजकता, प्रवाहमयता और संगीतात्मकता से समृद्ध करती है।
‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ में गुप्त जी ने नारी विमर्श की एक मौलिक उद्भावना की, जिसने यशोधरा और उर्मिला के त्याग के प्रति पूर्ववर्ती कवियों की उदासीनता को दर्शाया तथा कैकेयी के चरित्र के सदियों से प्रचलित कलुष को पश्चाताप की अग्नि से तपा कर एक उज्जवल गरिमा प्रदान की। उन्होंने नारी की मानवीय संवेदना को रेखांकित ही नहीं किया, बल्कि उसके साथ पाठक को साधारणीकृत भी किया। यह उनके काव्य की महती उपलब्धि और हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत रचनाओं के कारण हिन्दी साहित्य में मैथिलीशरण जी का विशेष स्थान है। वे सच्चे अर्थों में लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को भरकर उनमें जनजागृति लाने वाले राष्ट्रकवि हैं। ‘भारत-भारती’ में प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रेरणाप्रद चित्रण हुआ है तथा आज की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं। गाँधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है। अपने काव्य की कथावस्तु गुप्त जी ने आज के जीवन से न लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है। उनका अभीष्ट अतीत की गौरव गाथाओं को वर्तमान जीवन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करके मानवतावाद एवं नैतिक प्रेरणा का शंखनाद करना है।
‘यशोधरा’ गुप्त जी की नारी-भावना का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। भूमिका में गुप्त जी लिखते हैं- “भगवान बुद्ध और उनके अमृत तत्त्व की चर्चा तो दूर की बात है, राहुल-जननी के दो-चार आँसू ही इसमें मिल जाएँ तो बहुत समझना। और उनका श्रेय भी साकेत की उर्मिला देवी को है। ...सुगत का गीत तो देश-विदेश के कितने ही कवि-कोविदों ने गाया है, परंतु गर्विणी गोपा की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता देखकर मुझे शुद्धोदन के शब्दों में यही कहना पड़ता है कि – गोपा बिना गौतमी भी ग्राह्य नहीं मुझको।” यशोधरा को बिना बताये, सोती छोड़कर सिद्धार्थ गृहत्याग कर सिद्धिलाभ हेतु चले गए। उसे इस बात का गर्व है कि स्वामी सिद्धि- हेतु गये, पर उसे बताये बिना चोरी-चोरी गये, यह व्याघात सालता है। यशोधरा एक उदात्त नारी है, वह अपने पति की साधना के मार्ग में कभी बाधक नहीं बनती। पर उसे वे पहचान नहीं पाए, इस बात का उसे असह्य कष्ट है। सिद्धि प्राप्ति के उपरांत लौटने पर वह उन्हें उपालंभ नहीं देती है। उनका स्वागत करते समय उन्हें उनकी महानता और अपनी तुच्छता का आभास कराके वह वास्तव में त्याग और बलिदान की प्रतिमा बन गई। इसकी चरम परिपूर्ति उन्हें अपने एकमात्र पुत्र राहुल को सौंपने से होती है। उसके नारी हृदय को यह संतोष है कि भिक्षुक बनकर लौटे बुद्धदेव ने स्वयं उसके निकट आकर क्षमायाचना की। बुद्धदेव नारी जाति की शक्ति का वर्णन करते हैं, वे सिद्धि प्राप्ति का श्रेय यशोधरा को देते हैं, जिसके कारण सिद्धि के मार्ग में आए प्रलोभन उन्हें विचलित नहीं कर सके:
सन् १९१२ में प्रकाशित ‘भारत-भारती' की रचना तत्कालीन हिन्दी साहित्य में एक बहुत बड़ी कमी को पूरा करने के लिए हुई थी। स्वयं गुप्त जी के शब्दों में- “हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्यत् के लिए प्रोत्साहन भी।” अतीत खण्ड में गुप्त जी ने भारतवर्ष के स्वर्णिम अतीत का गुणगान किया है। भारतवर्ष ऋषियों की भूमि है, जहाँ हिमालय के उत्तुंग शिखर हैं और पावन जलदायिनी गंगा प्रवाहित होती हैं| भारतवर्ष का इतिहास सबसे पुराना है। गुप्त जी अपनी इस मान्यता की पुष्टि के लिए प्रसिद्ध इतिहासकार टाड को उद्धृत करते हैं, जिनके अनुसार- “आर्यावर्त के अतिरिक्त और किसी भी देश में सृष्टि के आरम्भ का हिसाब नहीं पाया जाता। इससे आदि सृष्टि यहीं हुई, इसमें संदेह नहीं|”
कवि भारतवासियों की वीरता, आदर्श, विद्या-बुद्धि, कला-कौशल, सभ्यता-संस्कृति,
साहित्य-दर्शन एवं आदर्श स्त्री पुरुषों का गुणगान करता है:
इसके विपरीत वर्तमान खण्ड में देश की वर्तमान अवनत दशा पर क्षोभ एवं संताप की अभिव्यक्ति है। जहाँ प्राचीन भारत में काव्य, संगीत, कला और दर्शन का उत्कर्ष था, वर्तमान भारत में उन सभी का अपकर्ष कवि की राष्ट्रीयता की भावना को संतप्त करता है। गुप्त जी को इस बात की बहुत ग्लानि थी कि “जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद–पद पर पराया मुँह ताक रही है।” देशवासियों को उन्नति और आत्मनिर्भरता की प्रेरणा देने के लिए आवश्यक था कि उन्हें भारत के स्वर्णिम इतिहास और वर्तमान अधोगति से अवगत कराया जाए। कवि ने वर्तमान भारतीय समाज के पतन का चित्रण करके अपनी दुराशा अभिव्यक्त करने व वर्तमान स्थिति से बाहर आने के लिए मार्गदर्शन किया है: “हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिलकर वे समस्याएँ सभी।” नशेबाजी, दम्भ, आलस्य, ईर्ष्या-द्वेष, मालिन्य, मदमोह् आदि से ग्रस्त समाज के प्रति कवि का आक्रोश एवं क्षोभ 'वर्तमान खण्ड' की मुख्य संवेदना है:
वर्तमान भारत के पतन का चित्रण करते समय भी वे राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित हैं। साहित्य, संगीत, धर्म, दर्शन आदि के क्षेत्र में हुई अवनति, युवावर्ग की विलासिता, तीर्थ-स्थलों और मंदिरों की दुर्गति तथा स्त्रियों की दुर्दशा का वर्णन जनमानस को जागृत करके अधोपतन की दशा से निवृत्त कराने के उद्देश्य से किया गया है। अंत में वे तामसिक विचारों में डूबे भारतवासियों को दिशा निर्देश करते हुए उन्हें उद्बोधित करते हैं: “अब भी समय है जागने का देख”- में उनकी भविष्य के प्रति आस्था एवं “क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो!”- में एकराष्ट्र की परिकल्पना है।
भविष्यत खण्ड के अंतर्गत कवि भारतीय समाज को अपने स्वर्णिम अतीत का स्मरण कराके पुन: उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होने की प्रेरणा देता है। गुप्त जी का आशावादी दर्शन एवं शुभांशसा “भगवान भारतवर्ष को फिर पुण्य भूमि बनाइए” में निहित है। ‘भारत-भारती' ने हिन्दी-भाषियों में अपनी जाति और देश के प्रति गौरव की भावना जगाई। उनकी इस कृति ने उन्हें राष्ट्रकवि की पदवी से सुशोभित कराया था। ‘भारत-भारती’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी गुप्त जी के रचनाकाल में थी।
डॉ नगेन्द्र के अनुसार, गुप्त जी चाहते थे कि ‘साकेत’ उनकी अंतिम रचना हो। समय-समय पर उसमें परिवर्तन हुए। रचना के मध्य गुप्त जी गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए थे, किन्तु जब वे स्वस्थ हुए तो स्वर्गीय अजमेरी जी और सियारामशरण जी ने ‘साकेत’ को पूरा करने का आग्रह किया । ‘साकेत’ पंद्रह-सोलह वर्षों में पूरा हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के उपेक्षिता
उर्मिला विषयक लेख से प्रेरित होकर मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ की रचना की। उसके पहले टैगोर ने अपने ‘काव्य की उपेक्षिता’
नामक आलेख में बँगला साहित्य में रामकथा के अंतर्गत उर्मिला की उपेक्षा पर खेद व्यक्त किया था। राम भक्त गुप्त जी ने वाल्मीकि और तुलसी की परम्परागत कथा में अनेक मौलिक उद्भावनाएँ कीं, जिनमें सबसे प्रधान बात यह है कि ‘साकेत’ में राम-सीता की कहानी प्रासंगिक
और उर्मिला के त्याग की कहानी प्रमुख हो गई। इसका आरम्भ होता है उर्मिला-लक्ष्मण के वाग्विनोद से, जो राम के अभिषेक की सूचना देता है। अभिषेक, कैकेयी-मंथरा-संवाद, विदा-प्रसंग, निषाद-मिलन, दशरथ-मरण, भरत-आगमन, चित्रकूट-मिलाप तक के प्रसंग तो ‘साकेत’ में दृश्य रूप में प्रस्तुत किए गए हैं, परंतु इसके बाद कवि उर्मिला को छोड़कर राम के साथ नहीं जा सका। आगे की सारी घटनाएँ वशिष्ठ जी अपनी योग दृष्टि से साकेत-वासियों को दिखाते हैं। प्रथम सर्ग में ‘‘कनक लतिका भी कमल सी कोमला’’ नवविवाहिता उर्मिला का परिचय देकर उसके वाग्वैधग्य की झलक लक्ष्मण- उर्मिला संवाद में चित्रित है। इसके उपरांत वियोग का हृदय-विदारक दृश्य आता है। दशरथ ने सत्य का आलम्बन लिया, कौशल्या ने मातृ आदर्श का पालन किया, सुमित्रा ने क्षत्राणी का कर्तव्य पालन किया, सीता ने सोचा, ‘‘स्वर्ग बनेगा अब वन में’’, लक्ष्मण ने भी इस भय से कि ‘‘प्रभुवर बाधा पाएँगे, छोड़ मुझे भी जावेँगे’’ कह दिया, ‘‘रहो रहो हे प्रिये रहो’’, परंतु उर्मिला क्या सोचती? ‘‘वह भी सब कुछ जान गई, विवश भाव से मान गई’’ उसकी मौन विवशता को, जिसे तुलसीदास नहीं देख पाए, गुप्त जी ने सहानुभूति
दी और यहीं से उर्मिला की महानता प्रारम्भ होती है। ‘‘हे मन, तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन’’ में उसका स्वार्थ त्याग भरा हो जाता है। लक्ष्मण अपने भाई के प्रति कर्तव्य पालन कर सकें यही उसकी मनोकामना है चाहे उसे राजमहल में रहकर भी वनवास की यातना सहनी पड़े, ‘‘भ्रातृ-स्नेह सुधा बरसे’’ में उसकी उदात्त भावना व्यक्त है। सीता के शब्दों में ‘‘बहन उर्मिला महाव्रता’’ है, उसके त्याग की महानता को सीता ‘‘सिद्ध करेगी वही यहाँ, जो मैं भी कर सकी कहाँ’’ कहकर स्वीकारती है।
लक्ष्मण के वियोग में उर्मिला अपनी ही छाया भर बन कर रह गई। पति का साथ न दे पाने का दु:ख उसे सालता है, पर उनके भ्रातृ-प्रेम में बाधा नहीं बनना चाहती उसके लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि
उर्मिला के चरित्र की गरिमा का उदाहरण, वियोग में भी अधीर होने की जगह परिवार की मंगल कामना करना है। उसे कौशल्या, सुमित्रा आदि माताओं की स्थिति देखकर कष्ट होता है। दशरथ के शब्दों में वह ‘‘रघुकुल की असहाय बहू’’ है। गुप्त जी के अनुसार उसके आँसू कैकेयी पर लगाए कुल-कलंक को भी धोने का सामर्थ्य रखते हैं। उर्मिला स्वप्न में भी लक्ष्मण की तपस्या भंग नहीं करना चाहती। स्वप्न में उसे लौटा देखकर चौंक कर उसे वापस जाने को कहती है। कवि के शब्दों में ‘‘हुआ योग से भी अधिक, उसका विषम वियोग!’’ ऐसी विषम स्थिति में भी उसकी संवेदना अयोध्या की विरहिणी नारियों के प्रति है।
उर्मिला वियोग में भी आशावादी है, प्रिय के लौटने की प्रतीक्षा
उसे जीवित रखती है। घर-गृहस्थी के कर्तव्य, ललित कला में रुचि, खेती-बाड़ी आदि सांसारिक दायित्वों का पालन करने के प्रसंग उसके चरित्र की गरिमा को बढ़ाते हैं। उर्मिला के रूप में कवि ने भारतीय नारी के त्याग, आदर्श और आशावादिता
को मूर्त किया है।
मैथिलीशरण गुप्त का हृदय नारी जाति के प्रति सम्मान, करुणा और सहानुभूति
से परिपूर्ण था। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदियों से उपेक्षित उर्मिला, यशोधरा आदि के चरित्र की उदात्तता चित्रित करके एक नवीन परम्परा का सूत्रपात किया, जिसका उदाहरण ‘साकेत’ की कैकेयी का चरित्र है। पुत्र-प्रेम से प्रेरित और दासी मंथरा के उकसाने पर वह राम के लिए वनवास और भरत के लिए राज्य अवश्य माँगती है। तुलसी ‘गई गिरा मति फेर’ कहकर उसके अपराध का मार्जन नहीं करते, किंतु गुप्त जी ने उसे आजन्म विमाता होने का कलंक वहन करने देने की अपेक्षा उसको अपनी कुटिलता का पश्चाताप करने का अवसर दिया।
पंचवटी में अयोध्यावासियों की सभा में तुलसीदास के राम कैकेयी के व्यवहार को ईश्वर-इच्छा मानकर कहते हैं, “अम्ब ईस आधीन जब काहु न देइय दोषु”, किंतु गुप्त जी कैकेयी को पश्चाताप की अग्नि में तपाकर पूरी तरह से दोषमुक्त करते हैं। राम के कथन, “हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”, के उत्तर में भरत अत्यंत दुखी होकर उनसे अयोध्या लौट चलने की विनती करते हैं। भरत इन सबके लिए अपनी माँ को दोष देते हैं,
“हा इसी अयश के लिए जनन था मेरा, निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा”,
किंतु राम यह कहकर कि जिसे स्वयं जन्म देनेवाली माँ ही न समझ पाई उसके हृदय की गहराई को और कौन समझ सकेगा, भरत को सर्वथा निर्दोष मानते हैं। इस प्रसंग में गुप्त जी ने कैकेयी को पश्चाताप का अवसर दिया है। कैकेयी के निष्प्रभ रूप का चित्रण करके कवि उसके प्रति सहानुभूति
जगाता है। कैकेयी जो सिंहनी थी, आज गोमुखी गंगा बन गई। वह मानती है कि भरत को जन्म देकर भी वह उसे नहीं जान पाई और यदि
कैकेयी का स्वयं को राम की मैया कहकर राम के प्रति वात्सल्य भाव की प्रतीति कराना गुप्त जी की नारी भावना से प्रेरित है। कैकेयी आज गंगा के सदृश शांत, शीतल और पावन थी, कह कर गुप्त जी ने उसको पूर्णत: दोषमुक्त कर दिया। राम से घर लौटने का अनुरोध कर वह केवल भरत को ही निर्दोष नहीं ठहराती, बल्कि मंथरा को भी इसका दोष नहीं देती है। वह अपने पहाड़-से बड़े पाप का पूरी तरह से प्रायश्चित करती है। श्रीराम सहित सारे अयोध्यावासी “सौ बार धन्य वह एक लाल की माई” कहकर उसके अपराध का परिशोधन करते हैं। इस प्रकार कवि ने कैकेयी को दोषमुक्त कर उसके हृदय की पवित्रता को स्थापित करने का सफल प्रयास किया है। डॉ नगेन्द्र के शब्दों में, “मैथिलीशरण व्यक्ति और कवि की जीवनव्यापी तपस्या का फल अखण्ड रूप में ‘साकेत’ में ही मिलता है। इस कवि ने अपने जीवनभर भारतीय (हिंदू) जीवन को देखने और समझने का प्रयत्न किया है – और भारतीय जीवन का इतना भव्य चित्र आधुनिक अन्य किसी कवि में नहीं मिल सकता!” गुप्त जी की रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
जीवन परिचय |
|
नाम |
मैथिलीशरण गुप्त |
जन्म |
३ अगस्त, सन् १८८६, चिरगाँव,
झाँसी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु |
१२ दिसंबर,
सन् १९६४, चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश |
पिता |
सेठ रामचरण गुप्त |
माता |
काशीबाई |
भाई |
सियारामशरण गुप्त |
गुरु |
महावीरप्रसाद द्विवेदी |
कृतियाँ |
रंग में
भंग (१९०९),
जयद्रथ-वध
(१९१०), भारत-भारती (१९१२),
किसान (१९१७),
शकुंतला (१९२३),
पंचवटी (१९२५),
अनघ (१९२५
), हिंदू (१९२७),
त्रिपथगा (१९२८),
शक्ति (१९२८),
झंकार (१९२८),
गुरुकुल (१९२९),
विकटभट (१९२९
), साकेत (१९३१),
यशोधरा (१९३२),
द्वापर (१९३६),
सिद्धराज (१९३६),
नहुष (१९४०), कुणालगीत (१९४२), अर्जन और विसर्जन (१९४२), काबा और कर्बला (१९४२), पृथ्वीपुत्र (१९५०), प्रदक्षिणा (१९५०), जयभारत (१९५२), विष्णुप्रिया (१९५७) इनके अतिरिक्त यशोधरा में निम्न लिखित कृतियों की सूची है, जिनके रचनाकाल का उल्लेख नहीं है: उच्छ्वास, लीला, चंद्रहास, तिलोत्तमा, अजित, रत्नावली, वक-संहार, सैरंध्री, किसान, पत्रावली (पत्रशैली में लिखा काव्य), वैतालिक, भूमिभाग, हिडिम्बा, अंजलि और अर्घ्य, राजा-प्रजा, युद्ध, गुरु तेगबहादुर, विश्ववेदना, दिवोदास्। |
अनुवाद |
बँगला भाषा के काव्य-ग्रन्थ ‘मेघनाथ बध’ तथा ‘ब्रजांगना’ और संस्कृत के प्रमुख काव्य-ग्रन्थ ‘स्वप्नवासवदत्त’ का हिन्दी में अनुवाद। |
साहित्य में योगदान |
खड़ी बोली हिन्दी को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने और अपने काव्य में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करने का श्रेय गुप्त जी को है। |
पुरस्कार/सम्मान |
सन् १९३६ में उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। उनकी साहित्य सेवाओं के लिए आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि से विभूषित किया। सन् १९५२ में गुप्त जी राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए और सन् १९५४ में उन्हें 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 'साकेत' पर 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' तथा 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। |
संदर्भ:
- भारत-भारती – मैथिलीशरण गुप्त
- साकेत १९०९- मैथिलीशरण गुप्त
- यशोधरा - मैथिलीशरण गुप्त
- भारत कोश
- भारत दर्शन
- साकेत एक अध्ययन- डॉ. नगेन्द्र
लेखक परिचय:
डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई स्वातंत्र्य युग के हिन्दी उपन्यास पर पी एच डी
पेशे
से अध्यापन
और देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच
साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में
रुचि,
सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा
में हिन्दी
की मुख्य
परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में
कार्यरत।
आदरणीय अरुणा जी, मैथिलीशरण गुप्त जी के जीवन के विभिन्न पहलुओं और उनके कृतित्व को समग्रता से समेटता आपका लेख पढ़कर बहुत कुछ नया जानने को मिला। आपका अभिनन्दन💐
ReplyDeleteराष्ट्र कवि को शत शत नमन।बहुत ही अच्छा लेख।अभिनंदन।
Deleteअरुणा जी, नमस्ते। मनभावन लेख। आपने मैथिलीशरण गुप्त जी के साकेत में उर्मिला के विशाल चरित्र को रेखांकित करते जो उद्धरण और उनकी उत्तम व्याख्या और विवेचना दी है, वह राष्ट्रकवि को उनका भी प्रिय और माननीय बना देते हैं जिन्होंने उन्हें ज़्यादा पढ़ा नहीं है। आपको छोटे-से आलेख में मैथिलीशरण गुप्त जी का समग्र-सा परिचय देने के लिए आभार और बधाई।
ReplyDeleteअरुणा जी नमस्ते। आपने राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। आपने उनकी साहित्यिक यात्रा का सुंदर सार प्रस्तुत किया है। उनकी हर रचना बेहतरीन है पर लेख में सम्मिलित उनकी रचनाओं के अंश भी लेख को सरस बना रहे हैं। आपको इस रोचक एवं शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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