"संस्कृति एक प्रकार का मानसिक विकास है, एक विशिष्ट दृष्टिकोण, जो सभ्य मानव में हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। यह एक प्रकार का संस्कार है, मानसिक निखार, और यह संस्कार व्यक्तिगत भी हो सकता है, सामूहिक भी---------"
पुरातत्व व इतिहास द्वारा मानव मूल्यों व समानता के तत्वों के खोजकर्ता भगवतशरण उपाध्याय ने उपरोक्त पंक्तियों में संस्कृति के अंतरावलम्बन को प्रस्तुत किया है। भगवतशरण उपाध्याय प्रसिद्ध शिक्षाविद तथा हिन्दी के साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी कृतियों में भारतीय कला, संस्कृति, इतिहास, स्थापत्य एवं पुरातत्व जैसे गहन विषयों पर गंभीर गवेषणा प्रस्तुत की है।
भगवतशरण उपाध्याय का जन्म १९१० ई० में बलिया जिले के उजियारपुर गाँव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम पंडित रघुनन्दन उपाध्याय तथा माता का नाम महादेवी था। इनके पिताजी बलिया जनपद के एक अच्छे व प्रसिद्ध वकील थे। भगवत शरण उपाध्याय जी ने वर्ष १९२७ में बलिया से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक तथा बनारस विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात पटना में परम विद्वान, प्रसिद्ध इतिहासकार व दार्शनिक काशीप्रसाद जायसवाल के साथ इतिहास पर शोधकार्य किया। इन्होंने मध्य पूर्व तथा पश्चिमी एशिया के प्राचीन स्थलों ट्राय, निनेवे, बाबुल आदि का पुरातात्विक अध्ययन किया।
भगवतशरण उपाध्याय जी के बारे में यह भी कहा जाता है कि अपने छात्र जीवन में इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में भाग लिया व दो बार जेल भी गये। वर्ष १९४० से वर्ष १९४४ तक पुरातात्विक संग्रहालय लखनऊ के क्यूरेटर व उसके विभागाध्यक्ष रहे। तत्पश्चात पिलानी के बिड़ला कालेज में इतिहास के प्राध्यापक नियुक्त हुए। वर्ष १९५२ में चीन में होने वाले विश्व शांति सम्मेलन में भारतीय शिष्ट मंडल के एक प्रमुख सदस्य की हैसियत से भाग लिया। वर्ष १९५३ से १९५६ तक इंस्टीट्यूट आफ एशियन स्टडीज़, हैदराबाद के निदेशक रहे। इन्होंने अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, पेरिस, कैनबरा आदि स्थानों पर भी शिष्ट मंडल के सदस्य के रूप में यात्रायें कीं। उपाध्याय जी ने काशी विश्वविद्यालय की 'अनुसंधान' पत्रिका का संपादन भी किया। वर्ष १९५७ से १९६४ तक चार खंडों में 'हिन्दी-विश्व कोश' का संपादन किया। जिसका प्रकाशन काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा किया गया। इनके द्वारा तीन खंडों में 'भारतीय व्यक्ति कोश' का संपादन भी किया गया। यूरोप के विद्यालयों में इन्होंने विजिटिंग प्रोफेसर की भूमिका में अनेकों विद्यार्थियों को प्राचीन इतिहास को गहनता के साथ पढ़ाया। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के निमंत्रण पर वह कई बरसों तक प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष रहे। तत्पश्चात प्राच्य विद्या सम्मेलन, उज्जैन के कालीदास विभाग में मनोनीत किये गए। वर्ष १९८१ में उन्हें मारीशस का राजदूत नियुक्त किया गया।
भगवतशरण उपाध्याय जी का रचना संसार
भगवत
शरण उपाध्याय जी ने साहित्य, पुरातत्व व
इतिहास से संदर्भित सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की है। इतिहास के अति प्राचीन
पन्नों से उन्होंने इस समाज को जीवंत करने के लिये अनेकों अमूल्य निधियों को
प्रस्तुत किया। इसी प्रकार पुरातत्व के गह्वरों की अतल गहराइयों से तमाम पुरानी
सभ्यताओं के अवशेषों से उस काल खंड का समूचा चित्र हमारी आँखों के समक्ष साकार कर
दिया है। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘कालिदास का भारत’ दो खंडों में प्रकाशित हुई। उसके
प्रकाशन से संबधित लेखक का यह अंश उस समय की सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि से अवगत
कराता है।
"कालिदास पर मेरा यह १६ वर्षों का अध्ययन प्रस्तुत है, यह अध्ययन भौगोलिक सामग्री, राज्य-शास्त्र और शासन, सामाजिक जीवन, ललित कला, आर्थिक स्थिति, शिक्षा और साहित्य एवं धर्म तथा दर्शन आदि प्रकरणों में संपन्न हुआ है। -------- जैसा कि ग्रंथ के नाम ‘कालिदास का भारत’ से प्रकट है, प्रस्तुत अध्ययन उस भारत के पट खोलता है, जिसमें महाकवि ने साँस ली है, अपनी साहित्य कला का रूपायन किया है---------।"
यूनानी इतिहास, दर्शन व वहाँ के धार्मिक साहित्य का गहन अध्ययन कर भगवत शरण उपाध्याय जी ने यूनानी देवताओं व नायकों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेकर कई निबंधों की रचना की। यूनानी नायकों का एक पात्र गिलगमेश है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आज भी समुद्र की अतल गहराइयों में तैरता हुआ मृत्यु पर विजय पाने की औषधि खोज रहा है। जब उसे यह औषधि मिल जायेगी, तभी वह एक विजेता के रूप में लौटकर विश्व की सँपूर्ण मानव-जाति का कल्याण करेगा।
भगवत शरण उपाध्याय जी की कृति 'कला का इतिहास' में वास्तु-स्थापत्य, मूर्तन और चित्रण तीनों कला- विधाओं का प्रागैतिहासिक काल से पन्द्रहवीं सदी तक सांगोपांग इतिहास प्रस्तुत किया गया है। कहा जाता है कि भारतीय कला से सम्बंधित हिन्दी में यह पहली वैज्ञानिक पुस्तक है। इस पुस्तक में भारतीय संस्कृति से प्रभावित दूसरे देशों - नेपाल, तिब्बत, लंका, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, चीन आदि तथा अन्य दक्षिणी - पूर्वी एशियाई देशों की कला को भी समाहित किया गया है।
भगवत शरण उपाध्याय जी की दूसरी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के स्रोत' में आर्यों और उनके पूर्ववर्ती समाज से लेकर इस्लाम व अंग्रेजों के काल तक के इतिहास की प्रमुख सांस्कृतिक प्रवृत्तियों व उपलब्धियों को रेखांकित किया गया है।
भगवत शरण उपाध्याय की एक और पुस्तक ‘भारतीय समाज के ऐतिहासिक विश्लेषण’ में अपने ऐतिहासिक- सांस्कृतिक निबंधों के माध्यम से इतिहास, दर्शन, राजनीति से जुड़े प्राचीन, मध्ययुगीन और समसामयिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें गीता-दर्शन, भारतीय चिंतन की द्वंद्वात्मक प्रगति, संस्कृतियों का अंतरावलम्बन, भारतीय संस्कृति के निर्माण में विविध जातियों का योग, भारतीय संस्कृति में ग्राह्य और अग्राह्य, भारतीय वर्ण व्यवस्था,
दास-प्रथा
का विकास, संस्कृति के
विरुद्ध प्राकृतों का विद्रोह, इतिहास-दर्शन आदि कुल मिलाकर
चौदह निबन्धों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
इनकी एक और बहुचर्चित कृति 'खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर' है। जिसमें मानवीय प्रवृत्तियों, नारी और शूद्रों, गुलामों व अस्पृश्यों का भयंकर शोषण को रेखांकित किया गया है। जिसमें नारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दास, अन्त्यज, लेखक के मुख से उनकी गाथा-व्यथा-पीड़ा कहलाई गई है। इस पुस्तक का एक अंश दृष्टव्य है। "मैं अन्त्यज हूँ, अछूत! मेरा इतिहास उतना प्राचीन है, जितना भारत पर आर्यों का आक्रमण। मेरे विषय में, विशेषकर मेरी शाखाओं-प्रशाखाओं के विषय में जानने के लिए मनुस्मृति का बारहवां अध्याय देख लीजिए। परंतु वह, जहाँ तक मेरी जातीयता का सम्बंध है, एक विजयी जाति का दृष्टिकोण है। अपना इतिहास मैं स्वयं कहना चाहूँगा। ------- कहानी दर्द की है और उसके दौरान स्याही पुती है। नि:संदेह दु:ख का अनवरत तारतम्य, जीवन की अनुभूति होने के कारण, दुःख भी सामान्य हो गया है। फिर भी समय-समय की भीषण कष्ट-चेतना उन युगों की याद दिलाती है जो भारतीय इतिहास के गौरवमय अतीत पर गहरे व्यंग हैं।"
भगवतशरण उपाध्याय जी की एक और पुस्तक 'बुर्जियों के पीछे' बहुत ही रोचक व बोधगम्य शैली में लिखी गई है। इस पुस्तक में स्थापत्य कला की विश्व में प्रसिद्ध इमारतें, जिनकी कारीगरी देखकर आश्चर्य चकित रह जाता है। लेकिन इनके बनने के पीछे के दारुण चीखें, जुल्म और अत्याचारों की दास्तान जो उस मेहनतकश जनता ने झेले, जिन्होंने उन इमारतों के निर्माण में अपना सब कुछ होम कर दिया यहाँ तक कि अपना और अपने परिवार का जीवन भी। पुस्तक में जिन इमारतों की कहानियों को लिपिबद्ध किया गया है, उनमें ताज, उड़ीसा के मन्दिर, पिरामिड, कोलोसियम, वर्साई का महल, चीनी दीवार, बैस्टिल, ऊर की कब्र हैं।
यों तो भगवत शरण उपाध्याय जी ने १०० से अधिक पुस्तकें लिखीं हैं, उनकी सभी किताबें अद्भुत तो हैं ही, इसके साथ ही नव ज्ञान का दर्शन कराती हैं। लेकिन इस संक्षिप्त आलेख में उक्त सभी का उल्लेख संभव नहीँ है। अंत में उनके निबन्ध, 'सूना' के इस अंश का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। “और सामने की पहाडियाँ जैसे नज़र से ओझल हो उठती हैं। उनके ऊपर घनीभूत धुएँ की तरह एक आवाज़ उठती आ रही है, उमड़ती घुमड़ती आवाज़। उस जुलूस की आवाज़ जिसे महादेव सिंह लिए जा रहा है। जो धारा-सभा की ओर बढ़ता जा रहा है और बाजू में चारों ओर रिसाला है, चट्टानों सा खड़ा। 'हाली' (हैदराबादी सिक्के) की बदलती तकदीर मजदूरों की मजूरी से टकरा गई है। मजदूरों का जुलूस बढ़ चलता है, लाठियाँ उठ पड़ती हैं, आंसू-बम फट पड़ते हैं। महादेव सिंह लड़खड़ाकर गिर जाता है। जन- कवि म़ँजीत की आवाज़ मजदूरों की आवाज़ के ऊपर उठ हवा के परों पर चढ़ चलती है। लाठी की चोट से वह गिर जाता है और बेहोश हो जाता है। पर आवाज़ बुलन्द है, क्योंकि आवाज़ कभी नहीं मरती। वह हवा के डैनों पर है। सामने पहाड़ियों पर, बिखरी चोटियों पर वह आवाज़ धुएँ से छाई हुई है। जिंदगी अस्मत के लिए लड़ रही है।"
ऐसे
महान इतिहासकार, पुरातत्वविद, साहित्यकार भगवतशरण
उपाध्याय मारीशस में भारत के राजदूत रहते हुये १२ अगस्त, १९८२ को वह
हमारे बीच से सदा- सदा के लिए चले गये। वह
अपने पीछे विपुल साहित्यक, पुरातात्विक व
ऐतिहासिक खजाना छोड़ गये। जिसकी रश्मियाँ जहाँ एक ओर तो विद्या का रसास्वादन करने
वाले महान मनीषियों को आकर्षित करतीं हैं, तो वहीं दूसरी ओर न्याय, बंधुता, समानता व
स्वतंत्रता के आधार, शोषण रहित समाज के स्वप्नदृष्टाओं व उसके लिए अथक कर्मरत योद्धाओं का
पथप्रदर्शन करतीं हैं।
आज भी प्रतीत होता है कि सत्य का वह अन्वेषी कहीं दूरस्थ क्षेत्र में ऐतिहासिक धरोहरों को निरंतर खोज रहा है और अभी एक और अमूल्य ऐतिहासिक व पुरातात्विक धरोहर हमारे समक्ष प्रकट होने वाली है।
भगवतीशरण उपाध्याय जी का जीवन परिचय |
|
पिता का नाम |
पंडित
रघुनन्दन उपाध्याय |
माता का नाम |
महादेवी |
जन्म |
१९१० ई० बलिया
(उत्तर-प्रदेश)
के उजियारपुर में |
शिक्षा |
प्रारम्भिक
शिक्षा बलिया में वर्ष १९२७ में मैट्रिक पास किया। |
कार्य क्षेत्र |
§ दार्शनिक, इतिहासकार, साहित्यकार § काशी
विश्वविद्यालय की 'अनुसंधान' पत्रिका का सम्पादन § १९४० में लखनऊ
संग्रहालय के पुरातात्विक विभाग के अध्यक्ष § प्रयाग
संग्राहलय के भी अध्यक्ष रहे। § वर्ष १९४३ में
पिलानी बिड़ला कालेज में इतिहास के प्राध्यापक § विक्रम
विश्वविद्यालय, उज्जैन में
प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर व
कालांतर में अध्यक्ष § प्राच्य
विद्या सम्मेलन, उज्जैन के कालिदास
विभाग के मनोनीत अध्यक्ष रहे। § वर्ष १९५३ से
१९५६ तक इंस्टीट्यूट आफ एशियन स्टडीज़, हैदराबाद के निदेशक
रहे। § वर्ष १९९८१
में मारीशस में भारत के राजदूत रहे। |
साहित्यक कृतियाँ - १०० से अधिक
पुस्तकों का सृजन |
|
प्रमुख पुस्तकें |
§ विश्व साहित्य
की रूपरेखा, कालिदास का
भारत (दो खँड में), कादम्बरी, ठूँठा आम, लाल-चीन, गँगा-गोदावरी, बुद्ध वैभव, साहित्य और
कला, सागर की लहरों पर, खून के छींटे
इतिहास के पन्नों पर, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भारतीय कला
का इतिहास, भारतीय
संस्कृति के स्रोत, बुर्जियों के
पीछे, पुरातत्व का रोमांस,
समीक्षा
के संदर्भ, गुप्तकाल का सांस्कृतिक
इतिहास, वीमेन इन
ॠगवेदा, एनिशिएन्ट
वर्ल्ड, फेदर्स आफ इंडियन
कल्चर आदि। |
ज्ञान कोश एवं
संपादन |
§ भारतीय
व्यक्ति कोश (तीन खँडों
में) § भारतीय साहित्य कोश
(चार खँडों में) § भारतीय इतिहास
के आलोक स्तंभ (दो खँडों में), § प्राचीन
यात्री (तीन खँडों में) |
मृत्यु |
१२ अगस्त, १९८२ |
लेखक: सुनील कुमार कटियार
सुनील कुमार कटियार जनवादी लेखक संघ की उत्तर-प्रदेश राज्यपरिषद के सदस्य, उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवा निवृत्त, जनवादी चिंतक, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, शिक्षा-एम०ए० अर्थशास्त्र, जनपद फर्रुखाबाद में निवास
मोबाइल नं०
७९०५२८२६४१ / ९४५०९२३६१
मेल आईडी-sunilkatiyar57@gmail.com
सुनील जी, रोचक लगा भगवत शरण जी का जीवन और कृतित्व। बहुत काम
ReplyDeleteकिया और १०० किताबें लिख डालीं।खूब व्यस्त रहे।
आपने लेख का प्रवाह बनाए रखा है और पाठक को उनका परिचय व्यवस्थित ढंग से दिया है। बधाई। 💐आपको कहीं गिलगामेश मिल जाए तो उससे कहें व्यर्थ ही समुद्र में समय बर्बाद ना करे। मानव बहुत पहले मृत्यु पर विजय प्राप्त कर चुका है। मृत्यु से भय पर विजय ही मृत्यु पर विजय है। 😊
नमस्कार सुनील जी, भगवतशरण उपाध्याय के जीवन और काम से परिचय कराने के लिए धन्यवाद। हैरान हूँ मैं इनके काम की व्यापकता से। इस शोधपरक, ज्ञानवर्धक और दमदार आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। भगवतशरण उपाध्याय जी पर आपका लेख बहुत अच्छा है। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी, नमस्ते। आपने एक और अनुपम लेख पटल पर पेश किया। भगवत शरण उपाध्याय को जानना वैसे ही है जैसे सोते का नींद से जाग जाना। बलिया के उजियारपुर में जन्म से मॉरिशस के राजदूत तक के सफर के बीच साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों को यूँ अपनी रचनाओं से सँवार जाना अविश्वसनीय-सा लगता है। आप का आलेख भगवत शरण जी के प्रति न केवल उत्सुकता जगाता है बल्कि श्रद्धा भाव भी जगाता है। लेखनी की इस उपज के लिए आपको हार्दिक बधाई और आभार।
ReplyDeleteनमस्ते सुनील जी। भगवतशरण उपाध्याय जी पर लिखा आपका यह लेख बहुत जानकारीपूर्ण और रोचक लगा। आपने बहुत व्यापकता के साथ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराया है। इस प्रवाहमय लेख के लिए सादर धन्यवाद व बहुत बहुत बधाई। 🙏🏻
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