इस्मत चुग़ताई को आयरलैंड के बर्नार्ड शॉ बेहद पसंद थे। उनकी कितनी ही बातें उन्हें ज़बानी याद थीं। अलीगढ़ के महिला स्कूल (अब महिला कॉलेज) में पढ़ते वक़्त उन्होंने दूसरे पश्चिमी लेखकों को भी पढ़ना शुरू किया और ख़ूब पढ़ा। इस्मत चुग़ताई की पहली रचना थी - साल १९३८ में उर्दू रिसाले साक़ी में छपा नाटक ‘फ़सादी’। उसे इतनी मक़बूलियत मिली कि लोगों को यह अंदेशा होने लगा कि अज़ीम बेग़ चुग़ताई ने छोटी बहन के नाम से उसे लिखा है।
वर्ष १९४१ में आया चुग़ताई का लघु उपन्यास ‘ज़िद्दी’, घर के मालिक और नौकरानी के बीच की मुहब्बत की दास्तान है जो समाजी ढाँचे के कारण परवान न चढ़ सकी। अपने उपन्यास ‘टेढ़ी लकीर’ के पेश-लफ्ज़ में इस्मत चुग़ताई लिखती हैं, “जब नॉवेल ‘टेढ़ी लकीर' शाया (प्रकाशित) हुआ तो कुछ लोगों ने कहा कि मैंने एक जिंसी-मिज़ाज और बीमार ज़ेहनियत वाली लड़की की सरगुज़श्त लिखी है। इल्म-ए-नफ़सियात (मनोविज्ञान) पढ़िए तो यह कहना मुश्किल हो जाता है कि कौन बीमार है और कौन तंदुरुस्त … मगर जहाँ तक मेरे मुताले (समीक्षा) का ताल्लुक है, टेढ़ी लकीर की हीरोइन न ज़ेहनी बीमार है न जिन्सी। जैसे हर ज़िंदा इंसान को गंदे माहौल और आस-पास की ग़ज़ालत से हैजा हो सकता है, इसी तरह एक बिलकुल तंदुरुस्त ज़ेहनियत का मालिक-बच्चा भी अगर ग़लत माहौल में फँस जाए तो बीमार हो सकता है और मौत हो सकती है।”
नेक इरादे से और संकीर्णताओं में जकड़े समाज में पल-बढ़ रही लड़कियों को रास्ता दिखाने के उद्देश्य से लिखे गए उपन्यास में इन चीज़ों को न देख पाना हमारी मानसिकता का अंधापन ही तो हुआ न! वे आगे कहती हैं, “शम्मन की कहानी किसी एक लड़की की कहानी नहीं है। यह हज़ार लड़कियों की कहानी है। उस दौर की लड़कियों की कहानी है, जब वे पाबंदियों और आज़ादी के बीच एक ख़ला (शून्य) में लटक रही थीं। और मैंने ईमानदारी से उनकी तस्वीर इन सफ़ात में खींच दी है, ताकि आने वाली लड़कियाँ उससे मुलाक़ात कर सकें और समझ सकें कि एक लकीर क्यों टेढ़ी होती है और क्यों सीधी हो जाती है। और अपनी बच्चियों के रास्ते को उलझाने के बजाय सुलझा सकें और बजाय तंबीहुल ग़ाफ़लीन (बात-बात पर नसीहत करने वाले माता-पिता) के अपनी बेटियों की दोस्त और रहनुमा बन सकें।”
इस्मत चुग़ताई के किरदार बिलकुल मामूली हैं। किसी भी आकर्षण के पात्र न होकर, वे समाज की दृष्टि में तिरस्कृत और गिरे हुए लोग हैं। बहुतेरे उन्हें इंसानियत पर दाग़ मानते हैं। ऐसे किरदारों को लेकर अपने क़लम से इस्मत आपा बड़े सलीक़े से उनके चरित्रों की शल्य-चिकित्सा करती हैं, उन पर पड़ी धारणाओं की परतें उधेड़ती हैं और जब वे उन चरित्रों के केंद्र में पहुँचती हैं तो हम पाते हैं कि ये घिनौने-से लगने वाले लोग मानवीय गुणों से कितने भरे-पूरे हैं। साथ ही वे समाज के दिखावे के पर्दों को चीरकर गिरा देती हैं। उनकी रचनाएँ मुस्लिम समाज के मध्य और निचले तबक़े के लोगों, मुख्यतः महिलाओं की समस्याओं को सामने लाती हैं। आज से लगभग अस्सी साल पहले वे महिलाओं के काम-प्रवृत्ति, यौनाकर्षण, कामुकता, शारीरिक शोषण आदि मुद्दों को खुलकर उठाती हैं। यह उस दौर की बात है जब पश्चिम में नारीवाद ने अभी अंगड़ाई लेनी शुरू ही की थी। कुछ साल पहले जिस नारी विमर्श ने हमारे देश में ज़ोर पकड़ा, उसे उसके उरूज पर इस्मत चुग़ताई पिछली सदी के पूर्वार्ध में पहुँचा चुकी थीं। सन् १९४२ में इनकी कहानी ‘लिहाफ़‘ रिसाले ‘अदब-ए-लतीफ़’ में छपी। इस कहानी में एक छोटी-सी बच्ची अपनी माँ की मुँह-बोली बहन बेगमजान और उनके दबे-घुटे, बेजान और नाक़ाबिले-बर्दाश्त, बीमार माहौल में उपजे बेगमजान और नौकरानी के बीच के ‘अकथनीय’ और ‘वर्जनीय’ संबंध का आँखों देखा हाल बयान करती है। इस कहानी ने रूढ़िवादी भारतीय-समाज की जर्जर दीवारों को भूकंप-सा झटका दिया। रूढ़िवादी क्या, प्रगतिशील तबक़ा भी इस ज़लज़ले को झेल न पाया। बहरहाल इस कहानी ने इस्मत आपा की रचनाशीलता और बेबाकी के झंडे मज़बूती से गाड़ दिए। पुरुष-प्रधान समाज और अदबी दुनिया को उनका लोहा मानना पड़ा। इस कहानी ने इनपर अश्लीलता का जुर्म भी चस्पा किया, जेल और लाहौर अदालत के चक्कर भी लगवाए। आख़िरकार अदालत ने इन्हें बाइज़्ज़त बरी किया।
मंटो ने जब कहानी ‘लिहाफ़’ पढ़ी तो बहुत मुतअस्सिर (प्रभावित) हुए, उन्हें बस उसका आख़िरी जुमला - एक इंच उठे हुए लिहाफ़ में मैंने क्या देखा, कोई मुझे लाख रुपये भी दे तो नहीं बताऊँगी - पसंद न आया और कृष्ण चंदर से यह तक कह डाला कि अगर मैं अहमद नदीम कासमी की जगह पर एडिटर होता तो उसे यक़ीनन हज़्फ़ कर (काट) देता। इस मुद्दे पर मंटो की बात जब इस्मत चुग़ताई से हुई तो जिरह की बजाय मंटो का सामना आम लड़कियों के चेहरों पर मिलने वाले शर्म और झिझक के हिजाब से हुआ और मंटो के दिमाग़ में कौंधा: “यह तो कम्बख़्त बिलकुल औरत निकली।” बाद में ‘सोच-विचार’ और चुग़ताई की दूसरी रचनाओं को पढ़ने के बाद मंटो के ख़यालात बिलकुल पलट गए और उन्होंने लिखा: इस्मत अगर बिलकुल औरत न होती तो उसके मजमूओं में भूल भुलैयाँ, तिल, लिहाफ़ और गेंदा जैसे नाज़ुक और मुलायम अफ़साने कभी नज़र नहीं आते। ये अफ़सानें औरत की मुख़्तलिफ़ अदाएँ हैं, साफ़, शफ़्फ़ाक, हर क़िस्म के तसन्नो (दिखावा) से पाक। ये अदाएँ वे इश्वे, वे ग़मज़े (आँखों के इशारे, नाज़ नख़रे) नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किये जाते हैं। जिस्म की भोंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई ताल्लुक़ नहीं। इन रूहानी इशारों की मंज़िले-मक़सूद इंसान का ज़मीर है, जिसके साथ वह औरत की ही अनजानी, अनबूझी मगर मख़मली फ़ितरत लिए बग़लगीर हो जाता है।
इस्मत चुग़ताई जिस वक़्त अफ़साने लिख रही थीं, उर्दू कहानी की पतवार सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी और कृष्णचन्दर जैसे दिग्गजों के हाथों में थी। ये कहानीकार समाज के उन तबक़ों और लोगों पर अफ़साने लिखते थे, जिनके दर्द-ओ-परेशानियों को उन्होंने क़रीब से देखा-समझा होता था। यही वजह है कि इस्मत चुग़ताई के यहाँ हमें ग्रामीण परिवेश और किसानों से जुड़ीं कहानियाँ नहीं मिलती हैं। ताज़िन्दगी जिस मध्यवर्गीय समाज से वे वाबस्ता रहीं उसी के अक्स को उन्होंने अपने सफ़हों पर उतारा। उनकी कलम की सबसे ज़्यादा तवज्जो इस वर्ग की महिलाओं को मिली, जो अक्सर नाचीज़ की तरह हाशिये पर रहती थीं। आपा की पैनी नज़रों और संवेदनशील हृदय ने जो देखा उसे निर्भीक शैली में बिलकुल साफ़ अल्फ़ाज़ में ऐसे पेश किया कि ८० साल पहले का पुरुष-प्रधान समाज तो क्या ख़ुद को अदीब कहने वालों के बीच भी तहलका मच गया। तभी तो कृष्णचन्दर ‘चोटें’ के अपने दीबाचे (भूमिका) में लिखते हैं - “इस्मत का नाम आते ही मर्द अफ़साना-निगारों को दौरे पड़ने लगते हैं। शर्मिंदा हो रहे हैं। आप ही आप ख़फ़ीफ़ हुए जा रहे हैं। यह दीबाचा भी उसी ख़िफ़्फ़त को मिटाने का एक नतीजा है।”
लेखन के साथ-साथ वे बतौर सामाजिक कार्यकर्ता बहुत सक्रिय रहीं। इंसानियत इनका मज़हब था और धार्मिक पाखंडों और सामाजिक विषमताओं का विरोध ये अपने कामों और कलम से हमेशा करती रहीं। इस आग की चिंगारी बहुत जल्दी दिख गयी थी। एक बार किसी मौलवी ने अलीगढ़ के महिला स्कूल को, जहाँ वे पढ़ रही थीं, चकले की संज्ञा देकर कहा कि उसमें गंदगी की फ़सल बोई जाती है, इसलिए उसे बंद कर देना चाहिए। इस बयान के ख़िलाफ़ इस्मत चुग़ताई ने ‘अलीगढ-गज़ट’ में मज़मून लिखकर छात्रों और प्रगतिशील लेखकों से गुहार लगायी कि वे आगे आकर स्कूल और नारी-शिक्षा के समर्थन में आवाज़ बुलंद करें। उनकी इस पहल के नतीजे उनके हक़ में रहे। छात्र-जीवन से शुरू हुई यह मुहिम उनके आख़िरी दिनों तक चली। विरोध करते समय इन्होंने विरोधी और समाज में उसके स्थान को कोई मान्यता न दी। मौलवी हो या पुजारी, राजनेता हो या बड़ा अधिकारी, हर किसी की जड़ता और पिछड़ी सोच के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की।
साल १९४२ में इनकी शादी फिल्म-निर्देशक और लेखक शाहिद लतीफ़ से हुई। मायानगरी के कुछ सितारे और फ़िल्में जिन पर हम फ़ख़्र करते हैं, उनसे हमारा तआरुफ़ इसी जोड़ी ने कराया। देवानंद को बतौर नायक और किशोरकुमार को पार्श्वगायक की तरह फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ में यही लेकर आए थे; कालांतर में इन दोनों सितारों ने जो इतिहास रचा उसे कौन नहीं जानता! इस्मत चुग़ताई ने अपने प्रोडक्शन हाउस के लिए ज़िद्दी (१९४८) से महफ़िल (१९८१) तक पटकथा और संवाद लिखे। श्याम बेनेगल की बहुचर्चित फ़िल्म ‘जूनून’ के लिए संवाद भी इन्होंने लिखे थे और जेनिफ़र कपूर की माँ का किरदार भी अदा किया था। देश के बँटवारे पर आज तक बनी बेहतरीन फ़िल्म ‘गर्म हवा’ की कहानी भी इस्मत चुग़ताई की उँगलियों को छूकर आयी है।
इस्मत आपा आख़िरी दिनों में चकाचौंध और आकर्षण की दुनिया से बेहद दूर हो गईं थीं। लेखक और कवि रमन मिश्र की अनायास उनसे सुखद भेंट हुई, उस दौर के उनके अकेलेपन के चंद मनाज़िर वे अपने संस्मरण ‘इस्मत आपा, आप कहाँ हैं’ में कुछ यूँ लिखते हैं, “पहली मंज़िल के एक फ़्लैट पर एक बहुत पुरानी घिस-सी गयी और जंग खाई नेमप्लेट लगी थी, जिस पर शाहिद लतीफ़ लिखा हुआ था… आप फर्श पर बिछी चटाई पर मसनद के सहारे अधलेटी मुद्रा में बैठी थीं। ताश के पत्ते और सिगरेट के धुएँ जैसे उनके अकेलेपन की दास्तान बयान कर रहे थे…”
बदायूँ से बम्बई तक के सफ़र में कई तरह के मुक़ाम आये, पर इस्मत आपा अपनी सोच और फ़ितरत से कभी नहीं डिगीं। तीज-त्यौहार वही मनाए जो दिल को भाए। बक़रीद बेहद नापसंद थी, होली सबसे पसंदीदा त्यौहार था। ज़मीन के भीतर दफ़न होना मंज़ूर न था। उनकी वसीयत के मुताबिक़ उनका दाह-संस्कार किया गया। उनकी आख़िरी-यात्रा में आये मुट्ठीभर लोगों ने बम्बई के चंदनबाड़ी में उनसे अंतिम विदा ली। लेकिन जिसने एक बार उन्हें पढ़ लिया, उनसे वे कभी जुदा नहीं होंगी।
जीवन परिचय : इस्मत आपा (इस्मत चुग़ताई) |
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जन्म |
२१ अगस्त, १९१५, बदायूँ, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु |
२४ अक्टूबर, १९९१, मुंबई, महाराष्ट्र |
पिता |
मिर्ज़ा क़सीम बेग़ चुग़ताई |
माँ |
नुसरत ख़ानम |
बड़े भाई |
मिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई (इनके अलावा ३ बहनें
तथा ५ और भाई थे) |
पति |
शाहिद लतीफ़ |
बेटियाँ |
सीमा साहनी, सबरीना लतीफ़ |
शिक्षा |
जोधपुर,
अलीगढ़,
लखनऊ |
कर्मभूमि |
अलीगढ,
मुंबई |
कार्यक्षेत्र |
सामाजिक कार्य, अध्यापन, लेखन, पटकथा लेखन, संवाद लेखन, फ़िल्म निर्देशन, अभिनय, |
लेखन की भाषा |
इस्मत चुग़ताई ने साल १९७२ में ‘महफ़िल’ को दिए
साक्षात्कार में कहा था,
“मैंने तथाकथित ‘साहित्यिक’
शैली में कभी नहीं लिखा। मैं बोलचाल की सरल
भाषा में लिखती हूँ।” उनकी रचनाएँ
मुहावरों से युक्त गंगा-जमुनी भाषा में हैं, इसीलिए उनमें
ग़ज़ब की रवानी और ज़िन्दगी होती है। |
साहित्यिक रचनाएँ |
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कहानी संग्रह |
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उपन्यास |
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ख़ाका (रेखाचित्र) |
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नाटक |
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बाल साहित्य |
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आत्मकथा |
काग़ज़ी है पैरहन,
१९८८ |
निबंध |
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सम्मान और पुरस्कार (अपवादों और कड़ी
आलोचनाओं में लम्बे समय तक घिरे रहने के बाद इनके क़लम के कमाल को सम्मानित किया
जाना शुरू हुआ) |
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ग़ालिब पुरस्कार |
टेढ़ी लकीर, १९७४ |
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, फ़िल्मफेयर अवार्ड |
गरम हवा, सर्वश्रेष्ठ
कहानी, कैफ़ी आज़मी के साथ संयुक्त रूप से |
पद्म श्री |
१९७६ |
मख़्दूम साहित्य पुरस्कार |
आंध्र प्रदेश उर्दू अकादमी, १९७९ |
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार |
१९८२ |
इक़बाल सम्मान |
राजस्थान उर्दू अकादमी, १९९० |
२१ अगस्त, २०१८, १०७ वीं जयंती के अवसर पर |
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कुछ रोचक तथ्य |
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नाना उमराव अली |
ये उर्दू के इब्तिदाई दौर के नॉवेलनिगारों
में थे, इनके दो नावेल खूब मक़बूल हुए थे -
‘रज़्म बज़्म’ और ‘अल्बर्ट बिल’ |
तालीम के लिए ज़िद्द |
अलीगढ स्कूल से आठवीं जमात पास करने के बाद
उनके वालिदीन उन की मज़ीद (अधिक) तालीम के हक़ में नहीं थे और उन्हें एक सलीक़ा-मंद
गृहस्थ औरत बनने की तरबियत देना चाहते थे,
लेकिन इस्मत को आला तालीम की धुन थी।
उन्होंने अपने माँ-बाप से कह दिया कि अगर उन्हें आगे पढ़ने न दिया गया तो वे घर
से भाग कर ईसाई धर्म अपना लेंगी और मिशन स्कूल में पढ़ने लगेंगी। आख़िर उनकी ज़िद्द
के सामने कलक्टर वालिद को झुकना पड़ा था। |
मंटो से दोस्ती |
“… और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तनदेही से जुट कर बहस करने लगे जैसे इतने अरसे एक-दूसरे से नावाक़िफ़ रह कर हमने बड़ा घाटा उठाया हो और उसे पूरा करना हो। दो-तीन बार बात उलझ गयी लेकिन ज़रा-सा तकल्लुफ़ बाक़ी था लिहाज़ा, दूसरी मुलाक़ात के लिए उठा रखी, कई घंटे हमारे जबड़े मशीनों की तरह मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर जुमले करते रहे। और हमने जल्दी मालूम किया कि मेरी तरह मंटो भी बातें काटने का आदी है। पूरी बात सुनने से पहले वो बोल उठता है। और जो रहा-सहा तकल्लुफ़ था वो भी ग़ायब हो गया। बातों ने बहस और बहस ने बा-क़ायदा नोक-झोंक की सूरत इख़्तियार कर ली और सिर्फ़ चंद घंटों की जान-पहचान के बल-बूते पर हम एक दूसरे को निहायत अदबी क़िस्म के लफ़्ज़ों में अहमक़, झक्की और कज-बहस कह डाला।” - |
शादी |
१९४२ में शाहिद लतीफ़ से शादी, ख्वाजा अहमद
अब्बास (क़ानूनी) गवाह |
कहानी ‘लिहाफ़’ की कथावस्तु |
लिहाफ़ की कहानी को आधार अलीगढ़ में एक बेगम और
उनकी नाइन के बीच संबंधों की अफ़वाहों से मिला था। लिहाफ़ द्वारा मची खलबली की
तरंगें आज तक महसूस की जा सकती हैं। इस्मत चुग़ताई जैसी बेबाक महिला भी उनसे किसी
हद तक परेशान हुई थी। लेकिन लिहाफ़ के प्रकाशन के कुछ साल बाद इस्मत
की मुलाक़ात उन बेगम से हुई और यह जानकर उन्हें बहुत सुकून मिला कि कहानी के
प्रकाशन के बाद बेगम ने अपने शौहर नवाब साहब को तलाक़ दे दिया और दूसरी शादी कर
ली, जिसमें वे खुश भी हैं और उनका एक बेटा भी है। इस मुलाक़ात के अपने एहसासात के बारे में
चुग़ताई ने अपने संस्मरण में कुछ यूँ लिखा है, फूल पत्थरों में
भी खिलते हैं। बस शर्त यह होती है कि कोई अपने दिल के ख़ून से उन्हें सींचे। इस्मत आपा ने यह सिंचाई अपने क़लम की स्याही
से की। |
उपन्यास टेढ़ी लकीर |
इस्मत चुग़ताई एक विपुल लेखिका थीं। उन्होंने
अपना अर्ध आत्मपरक उपन्यास
“टेढ़ी लकीर” सात-आठ दिन में
उस हालत में लिखा जब वे गर्भवती और बीमार थीं। इस उपन्यास में उन्होंने अपने
बचपन से लेकर जवानी तक के अनुभवों व अवलोकनों को बड़ी ख़ूबी से समोया है और समाज
की धार्मिक, सामाजिक और वैचारिक अवधारणाओं के सभी पहलुओं की कड़ाई से नुक़्ता-चीनी की है। |
बेहतरीन नॉवेल |
इनके मुताबिक़ इनका बेहतरीन उपन्यास ‘दिल की दुनिया’ है, हालाँकि
मक़बूलियत इनके उपन्यास टेढ़ी-लकीर को सबसे ज़्यादा मिली। |
इस्मत आपा से बातचीत |
“झूठ,
आडम्बर, दयनीयता और कमज़ोरी से उन्हें बेइंतिहा चिढ़ थी। वे जब भी गुज़रे ज़माने की बात
करतीं,
ऐसे लोगों को
अपनी बातचीत का हिस्सा कभी न बनाती। वे साहित्य पर कम ही बातें करतीं। आम
इंसानों और दोस्तों के बारे में ज़्यादा बतियातीं। बात करते-करते बीच-बीच में कोई
सवाल पूछ लेतीं। जवाब सुनकर कभी ठहाके लगातीं तो कभी डाँट देतीं…” - रमन मिश्र आख़िरी दिनों तक अपने उसूलों और आदतों पर अडिग
रहीं। |
विकिपीडिया
रेख़्ता
सआदत हसन मंटो दस्तावेज़, खंड ५
https://www.celebrityborn.com/biography/ismat-chughtai/14056
https://www.google.com/search?q=ismat+chughtai%27s+works&oq=ismat+chughtai%27s+works&aqs
https://thewire.in/books/how-ismat-chughtai-stood-up-for-freedom-of-speech
https://www.pustak.org/index.php/books/bookdetails/2717/Tedi%20Lakir
https://www.rekhta.org/authors/ismat-chughtai/profile?lang=ur
https://en.wikipedia.org/wiki/Ismat_Chughtai
उर्दू अदब का प्रचलित दायरे को तब लाँघना कुफ्र रहा था, तब इस्मत चुग़ताई की कहानियों ने आम औरतों को ढूँढा।उनकी रचित समग्र साहित्यिक योगदान का वस्तुनिष्ठ आकलन वर्तमान संदर्भ में जरूरी है।
ReplyDeleteप्रगति, भारतीय साहित्य की सशक्त लेखिका इस्मत चुगताई पर बहुत शोध करके लिखा है तुमने यह आलेख। पहली बार उनकी ‘लिहाफ़’ कहानी पढ़ते समय स्वयं के पढ़े हुए पर विश्वास नहीं हो रहा था कि अस्सी साल पहले कोई समाज का ऐसा सच उजागर कर सकता है। मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए थे। अपने समय से आगे चलने वाली मजबूत नारीवादी इस्मत आपा के जीवन और साहित्यिक सफर की सुन्दर यात्रा कराई है तुमने। उन्हें ख़ूब पढ़ने के लिए प्रेरित करता है तुम्हारा यह सार्थक और रोचक आलेख। तालिका के अंत में दिए गए रोचक तथ्यों से आलेख की सार्थकता और बढ़ गई है। एक और दमदार आलेख पटल पर लाने के लिए तुम्हें हार्दिक बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रगति जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा लेख लिखा है। आपने लेख के माध्यम से इस्मत चुगताई जी के सृजन एवं जीवन को बढ़िया ढँग से प्रस्तुत किया। आपको जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteयह उस दौर की बात है जब पश्चिम में नारीवाद ने अभी अंगड़ाई लेनी शुरू ही की थी - What a fantastic expression. What a great personality Ismat Chughtai. Very well composed successful write up with good flow and rich expressions. Great job Pragati.
ReplyDeleteबेहद नफीस आलेख लिखा है आपने है प्रगति जी। इस्मत चुगताई के लेखन को समझना और उनके व्यक्तित्व को शब्दों में बाँध पाना कठिन चुनौती रही होगी। पर आपकी सुदृढ़ लेखनी ने इसे बड़ी सुंदरता से साधा है।
ReplyDeleteमुझे अपने बचपन का एक प्रसंग याद आ गया। इस्मत चुगताई से पहली मुलाकात हुई, तब मैं बहुत छोटी थी, छठी कक्षा में पढ़ती थी, तब छोटे दादा के यहाँ बंबई (अब का मुंबई) जाना हुआ अपने मम्मी पापा के साथ। छोटे दादा इस्मत चुगताई के पड़ोसी और गहन मित्र रहे हैं। हमारा रहना भी इस्मत आपा के यहाँ ही हुआ था। सख्त हिदायत थी कि उनके कमरे की तरफ नहीं जाना, शोरगुल नहीं करना, उनके आराम मे खलल नहीं डालना। जितनी बंदिशें, उतनी ही बढ़ती जिज्ञासा खींच ले गई थी उनके कमरे में। प्रश्नसूचक निगाहों से उन्होंने देखा, तो कह दिया कि अपनी गुड़िया खोजने आए हैं। वे हँसी थीं। मुझे याद है, उन्होंने कहा था, गुड्डो, गुड़िया से तो सब लड़कियाँ खेलती हैं। तुम लफ़्ज़ों से खेलो। कहानी लिखोगी? और अपनी किताब, जो वे पढ़ रही थीं, उसमें से निकाल कर एक पेन मुझे पकड़ा दिया था।
तब शायद उनकी बातों का मर्म समझ नहीं आया होगा, पर अलग अलग तरह के pens के प्रति लगाव और लेखन की आधारभूमि वही अनुभव रहा शायद।
बाद में कुछ बार और मुलाकात हुई, हर बार गुड्डो कह कर ही पुकारा उन्होंने।
फिर उन्हें पढ़ा, तो लफ़्ज़ों के सही संदर्भ खोजना भी सीखा।
आपके आलेख ने बचपन की स्मृतियाँ और इस्मत आपा का तोहफा याद दिला दिया।
आपकी कलम की ताक़त को सलाम।
प्रगतिशील हिंदी साहित्य की क्रांतिकारी लेखिका इस्मत चुगताई जी पर आपका लेख बेहद उम्दा और जानकारीपूर्ण है। नारी संघर्ष की गाथा है। हार्दिक बधाई,प्रगति जी 💐🎉
ReplyDeleteमुझे मराठी की क्रांतिकारी लेखिका मालती बेडेकर (विभावरी शिरूरकर) की याद आयी जब उन्होंने एक महिला आश्रम की पर्यवेक्षक रहते हुए दबी कुचली फंसाई गई कुमारिका माताओं के अनुभवों पर अपना नाम गुप्त रखते हुए समाज को हिलानेवाली कहानियां लिखी थी। बाद में मराठी के लेखक,नाटककार विश्राम बेडेकर के साथ विवाह हुआ था।
उनके बारे में मराठी लेख
https://maharashtranayak.in/baedaekara-maalatai-vaisaraama
तमाम दुनिया से कटा हुआ एकदम आम सा वर्ग, तिस पर उस वर्ग की दबी कुचली स्त्री और उस से जुड़ी विडम्बनाएं, विद्रूपताएं, शोषण सहित तमाम और समस्याएं, जिन पर कोई बात नहीं करना चाहता था, उन सभी पहलुओं को, सच को अपने लेखन से उजागर करने वाली इस्मत आपा पर प्रगति जी आपने बहुत शोधपरक और सशक्त लेख लिखा है। आपने इस लेख में जिस ख़ूबसूरती और सिलसिलेवार तरीके से इसमत आपा के व्यक्तित्व और कृतित्व का खाका खींचा है, वह अद्भुत है। एक और शानदार लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
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