Wednesday, August 10, 2022

हरिशंकर परसाई : व्यंग्य साहित्य के शिरोमणि

 

हिंदी साहित्य में जब भी विधाओं की बात आती है तो सबसे पहले जिन विधाओं की चर्चा होती है, वे हैं- कविता, कहानी, उपन्यास; उसके बाद निबंध और आलोचना की चर्चा की जाती है, तब जाकर कहीं अन्य गद्य आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रावृत्त, रिपोर्ताज जैसी विधाओं का नाम आता है। पर इन सबमें सबसे रोचक विधा व्यंग्य कही जा सकती है, क्योंकि एक ओर जहाँ उसमें हास्य की शक्ति होती है, वहीं उसका पैनापन व्यवस्था की खामियों को कुछ पंक्तियों में धराशायी करने की अद्भुत क्षमता रखता है और जब व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हों तो फिर बात ही क्या? 

२२ अगस्त १९२४ को मध्य प्रदेश के ज़िला होशंगाबाद के छोटे से गाँव जमानी में इनका जन्म हुआ। इनको बचपन से ही विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, मैट्रिक होने से पूर्व इनकी माता का देहांत हो गया और कोयले की ठेकेदारी करते पिता असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे। यहीं से उनके संघर्ष का आरंभ हो गया। फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी, आगे अध्ययन किया और नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात शिक्षा-शास्त्र में डिप्लोमा किया। कुछ समय अध्यापन करने के पश्चात जबलपुर से 'वसुधा' पत्रिका का संपादन भी किया, पर लाभ न होने की स्थिति में इसे बंद करना पड़ा। हरिशंकर परसाई जबलपुर-रायपुर से निकलने वाले अख़बार 'देशबंधु' में एक कॉलम 'पूछिए परसाई से' में लोगों के प्रश्नों का उत्तर देते थे, पहले हल्के-फुल्के सवालों से शुरू हुई शृंखला बाद में गंभीर सवालों की ओर उन्मुख हुई, उनका ऐसा प्रभाव पड़ा कि इसकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक होने लगी। हालांकि परसाई जी के लेखन में मार्क्स का प्रभाव देखा जा सकता है, पर वह उसका अंधानुकरण नहीं है। उनकी अभिव्यक्ति और शैली अपनी है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है। परसाई जी ही वे व्यंग्यकार हैं, जिन्होंने लोगों का ध्यान पहली बार प्रेमचंद के फटे जूतों की ओर आकृष्ट कराया और एक सच्चे लेखक के महत्त्व को सही अर्थों में अभिव्यक्त किया, यही  इनकी सजगता का परिचय है। १० अगस्त १९९५ को यह महान व्यंग्यकार हमें छोड़कर चला गया।

कोई भी साहित्यकार समाज से विलग नहीं हो सकता और जब वह व्यंग्य लेखन कर रहा हो तो उसे कुछ अधिक ही सावधान रहना पड़ता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर की विशेषता पर लिखते हुए कहते हैं, "व्यंग्य वह है, जहाँ कहनेवाला अधरोष्ठों से हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहनेवाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।" ठीक यही प्रवृत्ति हमें हरिशंकर परसाई में देखने को मिलती है। अकादमिक दुनिया हो या साहित्यिक महफ़िल, धर्म हो या राजनीति कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं, जहाँ तक उनका व्यंग्य नहीं पहुँचा हो। उनकी कलम की धार ने हर क्षेत्र की कमियों को उजागर कर उसकी बखिया उधेड़कर रख दी है। सूक्ष्म से सूक्ष्म बात क्यों न हो, उन्होंने उसको इतनी रचनात्मकता से शब्द-बद्ध किया है कि पाठक अभिभूत हो जाता है। उदाहरण के लिए उनका एक व्यंग्य है, 'राम का दुःख और मेरा'। बादल और वर्षा को लेकर ऐसे प्रतीक बनाए गए हैं कि समस्या की अभिव्यक्ति तो हो ही जाती है, इसके माध्यम से व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न भी लग जाता है, उनके किराए के मकान में बारिश आफ़त बनकर सामने आती है, तब उन्हें लगता है कि उनका दुख राम के दुख से बड़ा है; जिनके विषय में बाबा तुलसीदास 'रामचरित मानस' के किष्किंधा कांड में लिखते हैं,
"घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥"

अपने चुटीले अंदाज़ में वे इस पर लिखते हैं, "राम की बात राम जानें! बादलों की गर्जन से डरता मैं भी हूँ, पर इस डर का कारण जानता हूँ और बता भी सकता हूँ। नहीं राम वाला कारण नहीं है। मेरे डर का कारण कोई हरण की गई प्रिया नहीं है यह मकान है, जिसकी छाया तले बैठा हूँ।" आगे मकान के बहाने मकान मालिक और फिर इंजीनियरिंग को ही अपनी चपेट में ले लेते हैं। यही उनकी पहचान है। उनके व्यंग्य के आखिरी वाक्य तो पूरी बात को जैसे खोल के सामने रख देते हैं। इसी व्यंग्य के अंत में वे लिखते हैं, "बादल गरज गरज कर मन कंपा जाते हैं। राम प्रियाहीन थे, इसलिए डरते थे। हम गृहहीन हैं, इसलिए डरते हैं। किसका अभाव बड़ा है?" इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, भारतीय मध्यम वर्ग ख़ासकर साठोत्तरी के दौर में तमाम कठिनाइयों को देख रहा था और साहित्यकार उसको अपनी अपनी तरह से प्रस्तुत कर रहे थे, परसाई जी ने इसके लिए अपनी विशिष्ट भाषा और शैली का सहारा लिया।

धार्मिक आडंबर और रूढ़ियों को अपने मारक व्यंग्य के माध्यम से परसाई जी ने आड़े हाथों लिया है। व्यक्ति ने आज दोहरा चरित्र अपना लिया है, और केवल अपना ही नहीं लिया है; बल्कि बड़ी ही साफ़गोई से उसे प्रदर्शित करना भी सीख गया है। परसाई जी के व्यंग्य ऐसे व्यक्तियों और समाज के उन संस्कारों को भी मज़ेदार ढंग से अपने निबंध 'संस्कारों और शास्त्रों की पढ़ाई' के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। वे पुरुषवादी सोच को एक वाक्य में धराशायी करते हुए लिखते हैं, "दांपत्य संहिता का नियम ७३ कहता है- पत्नी अपना स्वतंत्र मत व्यक्त न करे। व्यक्त करना हो तो उसमें पति को शामिल करे।" यह उस व्यक्ति पर किया गया व्यंग्य है, जो लगातार परसाई जी को घर चलने के लिए आग्रह कर रहा है; यह कहते हुए सरिता (उसकी पत्नी) का जोर है कि आपको घर बुलाया जाए, पर घर जाकर वही पत्नी परदा करके खड़ी है। इसी तरह उनका एक और प्रसिद्ध निबंध है, 'वैष्णव की फिसलन'; जिसमें वे अपने ढंग से लिखते हैं कि कैसे वैष्णवों के समस्त आचार-विचार और धर्म-धंधे में आकर धरे के धरे रह जाते हैं। अहिंसा, सात्त्विकता और करुणा धंधे के आगे तार्किक ढंग से खारिज किए जा सकते हैं; अर्थात मनुष्य जानता है कि कब धर्म को अपने अनुसार मोड़ा जा सकता है?

राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन को लेकर तो उनके बहुत से निबंध और कहानियाँ हैं जिनमें एक प्रसिद्ध कहानी है, 'इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर'। इस कहानी के माध्यम से वे लिखते हैं, कैसे पुलिस इंस्पेक्टर ने चाँद पर जाकर वहाँ की व्यवस्था को भी 'दूर अस्त' कर दिया और बाद में वहाँ के अधिकारियों द्वारा उनको वापस भेजने का आग्रह किया गया। यह व्यंग्य पढ़कर केवल गुदगुदी नहीं होती, बल्कि समाज की विडंबना भी सामने आती है, मध्यवर्ग की पीड़ा इन व्यंग्यों में दिखती है। इनकी भाषा-शैली का चमत्कार ही है, जो उस विडंबना को हास्य में परिवर्तित कर देता है, लेकिन वे चोट पूरी शक्ति से करते हैं और यही इनकी विशेषता है। अगर मध्यकाल में कबीर ने समाज व्यवस्था पर अपने कठोर व्यंग्यों से आघात किया तो स्वातंत्र्योत्तर भारत में परसाई ने उसी लहजे़े में एक बार फिर इस विधा के माध्यम से अलख जगाई।

अकादमिक दुनिया को लेकर भी उनकी लेखनी चली है। उनका प्रसिद्ध निबंध 'विकलांग श्रद्धा का दौर' इसी प्रकार का व्यंग्य है। वे लिखते हैं, "पांच घायल अस्पताल में भर्ती हुए, वे पाँचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती 'डॉक्टर साहब'! तो बोल पड़ते थे, ये हिंदी के डॉक्टर।" हर क्षेत्र को बराबर उन्होंने अपने व्यंग्य की चपेट में लिया है। ऐसा नहीं है कि वे उसका फूहड़ मजाक बना रहे हों, बल्कि बहुत नपे-तुले ढंग से उस जगह पर प्रहार करते, जहाँ वास्तव में स्थिति दयनीय है। यही उनकी विशेषता थी और इसीलिए उनके व्यंग्य आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे। यही एक सच्चे लेखक की पहचान भी है। हिंदी साहित्य ने लंबे समय बाद परसाई के रूप में एक सच्चा व्यंग्यकार देखा, जिसने निडर होकर अपनी कलम चलाई और समाज की भ्रष्ट-व्यवस्था और संकीर्णता को व्यंग्य के रूप में खोलकर रख दिया।

हरिशंकर परसाई : जीवन परिचय

जन्म

२२ अगस्त १९२४, ग्राम - जमानी, ज़िला - होशंगाबाद, मध्य प्रदेश

निधन

१० अगस्त १९९५ जबलपुर (मध्यप्रदेश)

पिता

झूमक लाल परसाई

शिक्षा व कर्यक्षेत्र

स्नात्कोत्तर हिंदी - नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर (महाराष्ट्र)

कार्यक्षेत्र - लेखक और व्यंग्यकार

साहित्यिक रचनाएँ

संस्मरण

  • तिरछी रेखाएँ

कहानी संग्रह

  • हँसते हैं रोते हैं

  • जैसे उनके दिन फिरे

  • भोलाराम का जीव

  • दो नाकवाले लोग

उपन्यास

  • रानी नागफनी की कहानी

  • तट की खोज

  • ज्वाला और जल

निबंध संग्रह (व्यंग्य)

  • ठिठुरता हुआ गणतंत्र

  • तब की बात और थी -  ज्ञानमंदिर, जबलपुर

  • भूत के पाँव पीछे

  • बेईमानी की परत

  • वैष्णव की फिसलन

  • पगडंडियों का ज़माना

  • शिकायत मुझे भी है

  • सदाचार की ताबीज

  • विकलांग श्रद्धा का दौर

  • तुलसीदास चंदन घिसें

  • हम इक उम्र से वाकिफ हैं

  • निठल्ले की डायरी

  • आवारा भीड़ के खतरे

  • जाने पहचाने लोग

  • कहत कबीर

  • माटी कहे कुम्हार से

  • काग भगोड़ा

पुरस्कार व सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार - १९८२ (विकलांग श्रद्धा का दौर रचना के लिए)

  • मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान - १९८४

  • भवभूति अलंकरण - मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का सर्वोच्च सम्मान - १९८७

  • शरद जोशी सम्मान - १९९२-९३

  • डीलिट की मानद उपाधि - जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा


संदर्भ

लेखक परिचय


विनीत काण्डपाल 

स्नातक (प्रतिष्ठा) हिंदी - हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

स्नातकोत्तर हिंदी - किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

अनुवाद डिप्लोमा - हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

जेआरएफ हिंदी, शोधार्थी - सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा (उत्तराखंड)

मोबाइल - ८९५४९४०७९५

ईमेल -vineetkandpal१९९८@gmail.com

7 comments:

  1. बहुत मन से लिखे गए इस सार्थक आलेख के लिए बहुत बधाई विनीत ! परसाई जी का सच्चा साहित्यिक और मानवीय रूप साकार करने के लिए हार्दिक आभार !

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    1. आपके लेखन से ही सीख रहा हूँ मैम, सादर आभार 😊😊

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  2. परसाई जी व्यंग्य के सरताज हैं। आपकलेख समग्र भावों से संचित बहुत सुंदर है। बधाई

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  3. हरिशंकर परसाई जी को सीमित शब्दों में सविस्तार प्रस्तुत करता उत्तम लेख। विनीत जी इस सुंदर आलेख के लिए आपको बधाई और आभार।

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    1. आपकी सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

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  4. विनीत जी नमस्ते। हरिशंकर परसाई जी पर अच्छा लेख है। आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ।

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