अपने साहित्य की जड़ों को जिसने यूनानी कवि होमर, लैटिन भाषा के वर्जिल, संस्कृत के कालिदास, फ़ारसी के फ़िरदौसी, हाफ़िज़ तथा सादी, अँग्रेज़ी के शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, प्राचीन हिंदी के सूर, तुलसी, कबीर के गहन अध्ययन से सींचा हो, जिसने लड़कपन में बुआ के बेटे मुंशी राजकिशोर लाल ‘सहर’ की सोहबत में दाग़ देहलवी के अशआर दिन-रात गुनगुनाए तो हों पर जिसके दिल में वालिद गोरख प्रसाद ‘इबरत’ की सरल, सुमधुर और प्रभावशाली शैली घर करती रही हो, वह आख़िर फ़िराक़ गोरखपुरी न बने तो क्या बने! यौवन की दहलीज़ पर चढ़ते ही जिसका मन शे’र कहने को मचला हो, तबीयत संवेदनशील रही हो, पर ख़ुद के बनाए मानदंडों के अनुसार शेर हो न पाए हों, और फिर अगर कालांतर में उसने यह कहा हो “आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो, जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है”, तो निश्चित ही उसने अपनी शायरी से एक नए युग का निर्माण किया होगा!
उनके पिता की अनेक नज़्में आज़ादी के आसपास के दौर में पाठ्य पुस्तकों में शामिल थीं। बीस बरस की उम्र से शेर कहना शुरू करने वाले फ़िराक़ ने सन् १९४७ में मौलाना ख़ैर बहोरवी को लिखे ख़त में अपनी उस तबीयत का बयान कुछ यूँ किया है, मेरी संवेदनशीलता के लक्षण कई शक्लों में ज़ाहिर होते रहे यानी दूसरों के शेरों से, संगीत से और हुस्न से और हुस्न से भी ज़्यादा मोहब्बत और नेकी से और हर चीज़ और हर बात में राज़ और हैरत करने वाले तत्त्वों से बहुत प्रभावित होता रहा। शुरूआती दौर के उनके अशआर पर नज़र डालने से उनकी बुद्धि और मिज़ाज में बीस साल की उम्र में जो थरथरी थी, उसका शायद कुछ अंदाज़ मिल सकता है। दोस्ती और दोस्तों के सम्बंध में -
मुझसे अगर जुदा भी हुए वो तो क्या हुए,
रोना तो है इसी का कि लड़ कर जुदा हुए।
हुस्न के हुए असर के बारे में -
विसाल इससे मैं चाहूँ कहाँ ये दिल मेरा,
ये रो रहा हूँ कि क्यों उसको मैंने देखा था।
उनका मिज़ाज १३ बरस की उम्र से ही शदीद इश्क़िया हो चला था, संवेदनशील थे ही; ऐसे में सत्रह साल की उम्र में शादी कर दी गयी जो इतनी नाकामयाब रही कि उनकी रग-रग में नफ़रत और ग़म ज़हर की तरह समा गए। उस पर क़हर यह कि उनके लिए विवाह के सम्बन्ध बहुत अहम और गहरे मायने रखते थे। उस वक़्त फ़िराक़ एफ. ए. में पढ़ रहे थे और दर्शन, साहित्य, इतिहास, मानव विज्ञान, धर्म, राजनीति और सौन्दर्यानुभूति जैसे विषयों में पैदा हुई रुचि और उसके अध्ययन ने ही उन्हें नासूर साबित हुई शादी से उबरने में मदद की। उनके पिता गोरखपुर के चोटी के वकील थे और परिवार समृद्ध था। बी.ए. की पढ़ाई जैसे ही पूरी हुई, उनके पिता का इन्तिक़ाल हो गया। शादी का ग़म झेल ही रहे थे, परिवार का बोझ भी सिर पर आ गिरा। उनके पिता का देहांत साढ़े चार बजे प्रातः हुआ था, उसने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया था। अपनी उन अनुभूतियों को बाद में उन्होंने एक रुबाई में यूँ गढ़ा -
ग़फ़लत का हिजाब कोहो-सहरा से उठा
पर्द-ए-फ़ितरत के रुए-ज़ेबा से उठा
पौ फटने का किस क़दर सुहाना है समाँ
पूछ ले कि फ़िराक़ कौन दुनिया से उठा
इस रुबाई में उनके ग़म की अनुभूति तो है ही, साथ ही यह इस तथ्य की मिसाल है कि फ़िराक़ ने भारतीय संस्कृति और उससे जुड़े भावों को उर्दू शायरी में पिरो कर शायरी को एकदम नयी शक्ल और ध्वनियाँ प्रदान कीं। बक़ौल डाक्टर ख़्वाजा अहमद फ़ारूक़ी, “अगर फ़िराक़ न होते तो हमारी ग़ज़ल की ज़मीन बेरौनक़ रहती, उसकी मेराज इससे ज़्यादा न होती कि वो उस्तादों की ग़ज़लों की कार्बन कापी बन जाती या मुर्दा और बेजान ईरानी परम्पराओं की नक़्क़ाली करती।”
फ़िराक़ की सौन्दर्यानुभूति में भारतीय परम्पराओं के रचाव (प्रभाव) से रंग और रस की आश्चर्यजनक कैफ़ियत पैदा हो गयी है। इसकी बेहतरीन मिसाल ‘रूप’ की रुबाइयाँ हैं। रूप की रुबाइयाँ लिखते समय अपनी तमाम परेशानियों के इलावा फ़िराक़ एक प्रेम-प्रसंग में उलझे हुए थे। माशूक़ा के साथ सम्बन्ध हिचकोले खा रहे थे। रूप की ४०० रुबाइयाँ सिर से पैर तक हिला देने वाले जज़्बाती भूकंप की देन हैं। फ़िराक़ कहते थे कि वे एक मिटा देने वाली परीक्षा या बाल-बाल बच जाने की आज़माइश की मिसालें हैं। इन रुबाइयों में फ़िराक़ ने भारतीय सौंदर्य चेतना को वाणी और रूप देने का लक्ष्य रखा था और इनमें स्त्री को साज-सज्जा और बाज़ार की वस्तु के दर्जे से निकालकर घर-परिवार के एक अभिन्न सदस्य के रूप में पेश किया गया है और स्त्रीत्व के भेद इस सुंदरता से खोले गए हैं कि पाठक अवाक् हुए बिना नहीं रह पाता, भारतीय नारी को उन्होंने जगत-माता के सिंहासन पर बिठाया -
है ब्याहता पर रूप अभी कुँवारा है
माँ है, पर अदा जो भी है दोशीज़ा (अल्हड़ लड़की) है
वो मोद भरी माँग भरी गोद भरी
कन्या है सुहागन है जगत माता है
लहरों में खिला कँवल नहाए जैसे
दोशीज़ा-ए-सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये कोमल रूप का सुहानापन - आह!
बच्चा सोते में मुस्काए जैसे।
इनसान के पैकर में उतर आया है माह
क़द या चढ़ती नदी है अमृत की अथाह
लहराते हुए बदन पे पड़ती है जब आँख
रस के सागर में डूब जाती है आँख
सौंदर्य को ध्वनियों में उतारने का मुश्किल काम फ़िराक़ ने बख़ूबी इन रुबाइयों में किया है। स्व. प्रो. गोपीचंद नारंग लिखते हैं, “भारतीय स्वर और सौन्दर्यानुभूति उर्दू शायरी में पहले भी थी परन्तु फ़िराक़ की उपलब्धि यह है कि उन्होंने ख़ुदाए-सुख़न मीर तक़ी ‘मीर’ की काव्य-परंपरा को पुनर्जीवित किया और सदियों की भारतीय-आत्मा से संवाद स्थापित कर उसे सृजनात्मक प्रस्तुति का नया स्तर प्रदान किया। उनकी शायरी में हमारी संस्कृति की सदियाँ बोलती हैं।” अब फ़िराक़ की ज़ुबानी सुनिए शायरी की बयानी, “शायर के नग़मे वे हाथ हैं जो रह-रह कर आफ़ाक़ (सृष्टि) के मंदिर की घंटियाँ बजाते हैं।”
अँग्रेज़ी के रूमानी शायरों के साथ-साथ संस्कृत-काव्य और शृंगार-रस की परम्परा का उनकी शायरी पर असर स्पष्ट और सर्वत्र नज़र आता है। वे भावों की थरथराहटों, शरीर और रूप की सुकुमारताओं और आनंद तथा पीड़ा की हलकी-गहरी कैफ़ियतों के शायर हैं। उनकी आवाज़ में एक ऐसा रस, सुकोमलता, लोच और धीमापन है जो उनका विशेष अधिकार है। आइये, आप इस बात के गवाह ख़ुद बनिए -
सितारे जागते हैं रात लट बिखराए सोती है
दबे पाँवों ये किसने आ के ख़्वाबे-ज़िन्दगी बदला
आग भभूका गोरा मुखड़ा
ज़ुल्फ़ें काले-काले नाग
क़ातिल उस को कौन कहे
हँस मुख आँखें कोमल गात…
प्रेम कामिनी रस की पुतली
भीतर ठंडक बाहर आग
अगर अदब की तारीख़ उठा कर देखी जाए तो सामने आता है कि दुनिया का कोई भी शायर अपने अहद का तभी अज़ीम शायर बना है जब उसका रिश्ता अपनी ज़मीन से गहरा रहा है। बक़ौल सैफ़ी सिरोंजी “फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी धरती से रिश्ता इस क़दर मज़बूत रखा कि उस ज़मीन की एक-एक चीज़ को अपनी शायरी में समो कर रख दिया। यहाँ के पेड़-पौधे, सुब्ह-ओ-शाम के मनाज़िर, यहाँ की रातें, हिंदुस्तानी त्योहारों की झलकियाँ, क्या कुछ फ़िराक़ की शायरी में नहीं है! ‘परछाइयाँ’ और ‘आधी रात’ फ़िराक़ की नज़्म-निगारी की बेहतरीन मिसालें हैं। अपनी शख़्सियत के तमाम पहलुओं, ज़िन्दगी की सभी ऊँचाइयों और दलदलों, प्रकृति प्रेम, ख़यालात और एहसासात के साथ-साथ अपने मुल्क और उसकी तारीख़ को फ़िराक़ ने अपनी नज़्म ‘हिंडोला’ में क़ाबिले-तारीफ़ तरीक़े से ढाला है।
बेहतरीन नज़्मों, लाजवाब रुबाइयों के रचयिता होने के बावजूद फ़िराक़ को मुख्यतः ग़ज़लों का शायर माना जाता है।
क़ायल हूँ फ़िराक़ की ग़ज़ल का/अफ़सानों को कर दिया हक़ीक़त
उन्होंने हर तरह की ग़ज़लें लिखी हैं - छोटी बह्रों में, लम्बी में, सरलतम से जटिलतम रूप और आकार वाली, साधारण उपमाओं से गूढ़ उपमाओं तक में पिरोयी हुई। यह वह दौर था जब इक़बाल, फैज़, जोश, मोहानी की शायरी का ज़ोर नज़्मों में ज़्यादा दिखाई पड़ता था और ग़ज़ल शिखर के पायदान से दूसरे की ओर उतर रही थी। फ़िराक़ ने अपनी सभी विशेषताओं के साथ हिन्दुस्तानियत को ग़ज़ल के पैकर में यूँ ढाला कि वह फिर उसी शीर्ष स्थान पर पहुँच गयी जिस पर वो लम्बे समय से विराजमान रही थी।
ढूँढ़ेंगे मुझको बज़्मे-सुख़न में अगर कहीं
पाएँगी मुझ को बाद की नस्लें ग़ज़ल के बीच
हिंदी और उर्दू को वे दो भाषाएँ नहीं मानते थे और आजीवन उनके बीच बढ़ाई जाने वाली खाई को पाटने में लगे रहे। उन्हें एक प्रगतिशील और आधुनिक शायर माना जाता है, लेकिन प्रगतिशील रहते हुए उन्होंने अपनी जड़ें परंपरा की धरा से जोड़ी रखीं। उनकी शायरी प्रयोगात्मक होने के साथ-साथ स्रोतों और सिलसिलों से जुड़ी है। उन्होंने आगाह किया था, “याद रहे कि साहित्य और संस्कृति-क्रांतियों के चलते अगर हम अपने सिलसिलों और स्रोतों से विमुख हो गए, तो सख़्त घाटे में रहेंगे। संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक ‘ऋग्वेद’ से लेकर टैनिसन, स्विनबर्न, तलस्तोय, टैगोर, ग़ालिब और इक़बाल तक के साहित्य में दूसरों को प्रभावित करने के जो ढंग और कलात्मक चमत्कार हमें मिलते हैं, यदि हमने उन्हें प्राप्त न किया तो केवल प्रगतिशील उद्देश्य हम से महान साहित्य की रचना नहीं करवा सकते… हमें प्राचीन साहित्य की आत्मा को अपने अंदर समाना है। यह प्राचीन साहित्य के अध्ययन मात्र से संभव नहीं बल्कि उसके प्राणों तक पहुँचने की ज़रूरत है। अगर हम प्राचीन साहित्य के तत्त्वों का भेद न पा सके तो हमारा साहित्य प्रगतिशील होते हुए भी कटी पतंग के समान होगा।”
ज़िन्दगी अपने उसूलों और शर्तों पर बसर करने के कारण क़रीबी लोग उनसे नाता तोड़ते चले गए। निजी ज़िन्दगी में वे बेढंगेपन की तस्वीर थे। मिज़ाज में हद दर्जे की ख़ुद-पसंदी थी। कुछ ऐसे शौक़ थे जो समाज के मानकों के अनुसार अमान्य थे लेकिन न तो वे उनको छिपाते थे और न ही शर्मिंदा होते थे।
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फ़िराक़
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
उनके सगे-सम्बन्धी भी, विशेष कर छोटे भाई यदुपति सहाय, जिनको वे बहुत चाहते थे और बेटे की तरह पाला था, धीरे-धीरे उनसे अलग हो गए थे, जिसका उन्हें बड़ा दुःख हुआ था। इकलौते बेटे ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में ख़ुदकुशी कर ली थी। शादी नाकामयाब तो थी ही और वर्ष १९५८ में बीवी अपने भाई के यहाँ जो गयीं तो उनके जीते-जी वापिस नहीं लौटीं। इस तन्हाई में शराब-ओ-शायरी ही फ़िराक़ के साथी और दुखहर्ता थे। उनका कहना था कि चाहे सविस्तार हो या संक्षिप्त, हर हैसियत से अस्तित्त्व के दुःख-सुख का अहसास ही शायरी की रूह है। यही अहसास सच्ची कविता का प्रेरक है। उनके पास इस प्रेरणास्रोत की कभी कमी नहीं रही।
घर के बाहर फ़िराक़ सम्माननीय और महान थे, लेकिन घर के भीतर वे एक ऐसे बेबस वुजूद थे जिसका कोई हाल पूछने वाला नहीं था। बाहरी दुनिया ने उनकी शायरी के इलावा उनकी हाज़िर-जवाबी, हास्य-व्यंग्य, विद्वता, ज्ञान और विवेक तथा सुख़न-फ़हमी को भी देखा था, लेकिन अफ़सोस अपने अंदर के आदमी को वे अपने साथ ही लेकर रुख़्सत हो गए। उसी अंदर के आदमी की अभिव्यक्ति उनकी शायरी में यदा-कदा झलक जाती है।
चुपके-चुपके उठ रहा है मध्-भरे सीनों में दर्द
धीमे-धीमे चल रही हैं इश्क़ की पुरवाइयाँ
ऐसी बात नहीं कि उनके अच्छे दोस्त-अहबाब नहीं रहे। शुरूआती दौर से ही प्रेमचंद से गहरी दोस्ती रही और उन्हीं ने फ़िराक़ की शुरूआती ग़ज़लें छपवाने की कोशिश की और ‘ज़माना’ के संपादक और घनिष्ठ मित्र दयानारायण निगम को भेजी थीं। जोश मलीहाबादी से दोस्ती आख़िरी पल तक रही। कहते हैं कि जोश क्या गुज़रे इस दुनिया से कि फ़िराक़ में ज़िन्दगी की लौ ख़ुद को समेटने लगी। दोनों शायर एक दूसरे के प्रशंसक और बड़े आलोचक थे। एक बार दोनों के बीच किसी बात पर दिल्ली में बहस होती है, जोश पूना चले जाते हैं, फ़िराक़ इलाहाबाद लौट आते हैं। फ़िराक़ उसके पहले रुबाइयाँ बहुत कम कहते थे, पर इलाहबाद पहुँचते ही उन्होंने इस अनबन पर रुबाई लिखी-
मासूम ख़ुलूसे-बातिनी कुछ भी नहीं
वो क़ुर्ब, वो क़द्रे-बाहमी कुछ भी नहीं
एक रात की वो झड़प, वो झक-झक, सब कुछ
और आठ बरस की दोस्ती कुछ भी नहीं
अदबी दुनिया शायद इस झड़प की ताज़िन्दगी कर्ज़दार रहेगी क्योंकि यही रुबाई ‘रूप’ की रुबाइयों का शगुन बनी थी।
फ़िराक़ की दास्तान चिराग़ों की उस लड़ी की तरह है जहाँ एक चिराग़ से दूसरे जलते चले जाते हैं और दूसरा सिरा है कि नज़र ही नहीं आता! इस लड़ी के कुछ ख़ुशनुमा चिराग़ नीचे उनकी ज़िन्दगी की अहम बातें बनकर झिलमिला रहे हैं। आपसे गुज़ारिश है कि ख़ुद को फ़िराक़ की उस रौशनी से महरूम न रखें। जोश मलीहाबादी के अल्फ़ाज़ से बेहतर शब्द मेरे पास इस अज़ीम शख़्सियत की कहानी को समाप्त करने के लिए नहीं हैं -
“मैं फ़िराक़ को युगों से जानता हूँ और उनकी अख़लाक़ (शिष्टाचार) का लोहा मानता हूँ। इल्म-ओ-अदब की समस्याओं पर जब उसकी ज़बान खुलती है तो लफ़्ज़ों के लाखों मोती रोलते हैं और इस अधिकता से कि सुननेवाले को अपनी कम-स्वादी का एहसास होने लगता है… जो शख़्स यह तस्लीम (स्वीकार) नहीं करता कि फ़िराक़ की शख़्सियत हिन्दू सामिईन (श्रोतागण) के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरू और शायरी की माँग का सिन्दूर है, वो ख़ुदा की क़सम कोर मादर-ज़ाद (जन्मजात अँधा) है।”
फ़िराक़ को इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हुए ४० साल हो चुके हैं और आज भी उनके अंदाज़े-सुख़न और वैश्विक अनुभवों से सांस्कृतिक महत्त्वों को जोड़ने वाले हुनर का डंका बज रहा है।
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
|
|
जन्म |
२८ अगस्त, १८९६, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु |
३ मार्च, १९८२, नई दिल्ली |
पिता |
मुन्शी गोरख प्रसाद ‘इबरत’ |
पत्नी |
किशोरी देवी |
शिक्षा |
गोरखपुर, इलाहाबाद, आगरा |
कर्मभूमि |
इलाहाबाद |
कार्यक्षेत्र |
शायर, लेखक, आलोचक, प्राध्यापक, वक्ता |
लेखन की भाषा |
खड़ी बोली (उर्दू, हिन्दी), फ़ारसी, अँग्रेज़ी |
साहित्यिक रचनाएँ |
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रुबाइयाँ संकलन |
रूप |
चुनिंदा नज़्में |
आधी रात, परछाइयाँ, आज़ादी, हिण्डोला, जुगनू, जुदाई, शाम-ए-अदायत, आज की दुनिया |
चुनिंदा काव्य-संग्रह |
गुल-ए-नग़्मा, गुल-ए-राना, मशाल, रूप-ए-कायनात, शब्नमिस्तान, सरगम, बज़्मे-ज़िन्दगी, रंग-ए-शायरी |
लेख |
हसरत मोहानी, उर्दू ग़ज़ल की टेक्निक, ग़ज़ल क्या है, शेर-ओ-शायर, प्रेमचंद की शख़्सियत, इश्क़िया शायरी की परख, एक सवाल के कई जवाब, रियाज़, उर्दू-हिंदी मसअला१),उर्दू-हिंदी मसअला(२), अदबी डायरी, याद-ए-जिगर |
फ़िराक़ गोरखपुरी पर कुछ पुस्तकें |
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लेखक |
रचनाएँ |
लेखक मुश्ताक़ नक़वी |
फ़िराक़ साहब: ज़िन्दगी, शख़्सियत, शायरी, १९८४ |
लेखक, मतरब नियाज़ी |
फ़िराक़ गोरखपुरी, यादों के झरोखों से, १९८७ हज़रत फ़िराक़ गोरखपुरी ज़ेहनी ख़ाकों में |
लेखक, नवाज़िश अली |
फ़िराक़ गोरखपुरी: शख़्सियत और फ़न, १९९३ |
संपादक, अमीर आरिफ़ी, उर्दू विभाग के प्रमुख, दिल्ली विश्वविद्यालय |
फ़िराक़ और नयी नस्ल, १९९७ |
संकलन, फ़ारूक़ अरगली |
शायर-ए-हिन्द: रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी, १९९७ |
लेखक, अजय मानसिंह (भतीजा) |
Firaq Gorakhpuri: The Poet of Pain & Ecstasy |
तक़ी आबिदी |
मुताअला-ए-रुबाइयात फ़िराक़ गोरखपुरी मा रूप, २०२१ |
चुनिंदा सम्मान और पुरस्कार |
|
साहित्य अकादमी पुरस्कार |
१९६०, गुल-ए-नग़्मा |
पद्म भूषण |
१९६८, साहित्य और शिक्षा |
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार |
१९६८ |
ज्ञानपीठ पुरस्कार |
१९६९, गुल-ए-नग़्मा, उर्दू साहित्य के लिए पहला ज्ञानपीठ |
साहित्य अकादमी फेलोशिप |
१९७० |
ग़ालिब अकादमी पुरस्कार |
१९८१ |
ऑल इंडिया रेडियो |
प्रोडूसर एमेरिटस |
विश्वविद्याल अनुदान आयोग |
रिसर्च प्रोफ़ेसर |
सन्दर्भ:
१. उर्दू ग़ज़ल एवं भारतीय मानस व संस्कृति, गोपीचंद नारंग, अनुवाद - अम्बर बहराइची
२. गुफ़्तगू (फ़िराक़ गोरखपुरी से बातचीत), वार्ताकार - सुमत प्रकाश ‘शौक़’
३. फ़िराक़ गोरखपुरी और उनकी शायरी, संकलन प्रकाश पंडित
४. सरगम, फ़िराक़ गोरखपुरी
५. Rekhta.org
६. विकिपीडिया
८. https://www.thefridaytimes.com/2019/09/13/firaq-gorakhpuri-as-connoisseur-of-beauty/
९. https://www.newsclick.in/firaq-gorakhpuri-his-revolutionary-legacy
लेखक:
प्रगति टिपणीस
संक्षिप्त परिचय: प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। मॉस्को की सबसे पुरानी भारतीय संस्था ‘हिंदुस्तानी समाज, रूस’ की सांस्कृतिक सचिव हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
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ReplyDelete'होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
ReplyDeleteइश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम'
ऐसी खूबसूरत अदायगी के शायर फ़िराक गोरखपुरी पर बड़ा ही अज़ीम लेख लिखा है आपने प्रगति। उनके व्यक्तित्व के क्रमिक विकास को आपने बड़ी संजीदगी से उद्धरण दे कर लिखा है, आप वाक़ई बधाई की पात्र हैं।
बहुत ख़ूब,प्रगति जी, फिराक गोरखपुरी की ग़ज़ल और उनकी साहित्यिक यात्रा।
ReplyDelete*पाते जाना है और न खोते जाना*
*हँसते जाना है और न रोते जाना*
*अव्वल और आख़िरी पयाम-ए-तहज़ीब*
*इंसान को इंसान है होते जाना*
~फिराक़ गोरखपुरी
🙏🙏🙏💐
विजय नगरकर
महाराष्ट्र
प्रगति, अनूठे शायर फ़िराक़ पर अनूठे अंदाज़ और शैली में लिखा आलेख पढ़ाकर दिल बाग़-बाग़ कर दिया तुमने। तुमने फ़िराक़ पर ख़ूब जानकारी एकत्रित करके, उसका निचोड़ आलेख में दिया है; बड़े रोचक क़िस्से चुने हैं उनके जीवन के। इस अद्भुत व सारगर्भित आलेख के लिए तुम्हें बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteनमस्ते प्रगति जी, बहुत उम्दा लेखन। फिराक साहब के जीवन के बारे में ,उनकी रुबायियों ,कलामों के बारे में इतने वाकयों के साथ बारीकी से जानकारी मिली वो बहुत अद्भुत लगा। जानदार व्यक्तित्व पर शानदार कलम चली। वाह👍🏻🙏🏻🥰फिराक साहब को नमन।
ReplyDeleteप्रगति जी नमस्ते। फ़िराक़ साहब पर आपका लिखा लेख पढ़कर आनन्द आ गया। फ़िराक़ साहब बहुत लोगों के पसन्दीदा शायर हैं ये लेख पर आई टिप्पणियों ने भी बयां किया है। मुझे भी ग़ज़ल लिखने पढ़ने की चाहत कॉलेज के दिनों में फ़िराक़ साहब को पढ़कर ही पैदा हुई। आपने के बेहतरीन लेख लिखा है। लेख में सम्मिलित अशआर भी बेहद उम्दा हैं। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी आपने मखमली अफ़सानानिगारी की मिसाल पेश करते हुऐ, फ़िराक़ साहब के समग्र लेखन को इस लेख में बहुत ही खूबसूरत और सिलसिलेवार अंदाज़ में समाहित किया है। लेख पढ़ कर आनंद आया और पसंदीदा शायर को नज़दीक से जानने का अवसर मिला। इस रोचक, शोधपूर्ण लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई व हार्दिक धन्यवाद। 💐
ReplyDeleteअभिनंदन
ReplyDeleteअगर फिराक ना होते तो हमारी गज़ल की ज़मीन बेरौनक़ रहती....
ReplyDeleteये उक्ति कहीं से भी अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं लगती.
उन की शायरी, गज़लें, नज़रें, रुबाईयां, अदब की दुनियाँ में कोहिनूर की हैसियत सरीखी हैं.
धन्यवाद प्रिय प्रगति इतने शायराना आलेख के लिए.