Saturday, August 6, 2022

भर्तृहरि : अपने जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव से सिखाने वाले रचयिता

 

हे सुधी पाठकों! निम्नलिखित तीन श्लोक ध्यान देकर पढ़ें -

द्रष्टव्येषु  किमुत्तमं  मृगदृशां प्रेमप्रसन्नं  मुखं 

घ्रातव्येष्वपि  किं तदास्यपवन: श्राव्येषु किं तद्वच:।

किं स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरसः स्पृश्येषु किं तत्तनु-  

र्ध्येय  किं नवयौवनं सहृदयैः सर्वत्र तद्विभ्रमः।।७।। 

(सहृदय रसिक जन के लिए देखने योग्य श्रेष्ठ वस्तु क्या है? - मृगनयनी का प्रेम से प्रसन्न मुख। 

घ्राण के योग्य उत्तम पदार्थ क्या है? - उसके मुख का श्वास। 

सुनने योग्य क्या है? - उसके प्रिय वचन। 

स्वादिष्ट पदार्थों में सेवन योग्य क्या है? - उसके ओष्ठपल्लवों का रस। 

स्पर्श योग्य क्या है? - उसका शरीर। 

और ध्यान योग्य क्या है? - उसका नवयौवन और हाव-भाव का विलास।)

करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता

मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोर्वीर्यमतुलम्।

हृदि स्वच्छा वृत्तिः  श्चुतमधिगतं  श्रवणयो-

र्विनाऽप्यैश्वर्ये प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम्।।६५।।

(हाथों की शोभा दान में है, सिर की शोभा गुरुजन के चरणों में प्रणाम करने में है, मुख की शोभा सत्य बोलने में और भुजाओं की शोभा अपार बल प्रदर्शित करने में है। हृदय की श्लाघा स्वच्छता में और कानों की शास्त्र श्रवण में है। सज्जनों के लिए यह सब ऐश्वर्य और महान भूषण हैं।)

अजानन्माहात्म्यं  पततु शलभो दीपदहने 

स मीनोऽप्यज्ञानाद् बडिशयुतमश्नातु पिशितम् । 

विजानन्तोऽप्येते  वयमिह विपज्जालजटिलान्न

मुञ्चामः कामानहह! गहनो मोहमहिमा।।२०।।

(अग्नि के महात्म्य से अनभिज्ञ पतंग दीपक की लौ में स्वयं को भस्म कर डालता है। मछली भी फंदे को न जानकर वंशी में लगे मांस को खाने के लिए लपकती है। इस प्रकार हम अपनी कामनाओं की विपत्ति के जटिल जाल को जंजालयुक्त जानते हुए भी उन्हें नहीं छोड़ना चाहते। अहो, मोह की महिमा कैसी गहन है!)

क्या विश्वास होता है कि ये तीनों श्लोक एक ही व्यक्ति ने लिखे हैं? ये अर्थ और दृष्टिकोण में कितने भिन्न और विरोधाभासी हैं। यह शृंगार से नीति के मार्ग होते हुए वैराग्य की यात्रा है। यह संस्कृत भाषा के महान विद्वान भर्तृहरि की शतकत्रयी है। सौ श्लोक शृंगार शतक के, सौ नीति शतक के और सौ वैराग्य शतक के। पहला श्लोक शृंगार शतक से है (७), दूसरा नीति शतक से है (६५) और तीसरा वैराग्य शतक से है (२०)। आपको जिज्ञासा हो रही होगी कि कौन थे ये भर्तृहरि और उन्होंने ऐसी विरोधाभासी शतकत्रयी की रचना क्यों की?

हे जिज्ञासु पाठक! अब आप भर्तृहरि की कथा सुनिए!

कथा भर्तृहरि की 

भर्तृहरि उज्जयिनी के समृद्ध राज्य के राजा थे। वे प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। विक्रमादित्य इनके प्रधानमंत्री थे और बड़ी कुशलता से सारा राज्य-कार्य देखते थे। विक्रमादित्य बड़े भाई का बहुत सम्मान करते एवं आज्ञा पालन में तत्पर रहते। राजा भर्तृहरि बड़े रसिक स्वभाव के थे। उनकी कई रानियाँ थी। नित्य प्रति नर्तकियों के कार्यक्रम होते। राजा नाच-गाने और शृंगार रस काव्य में डूबे रहते। राज-काज की चिंता थी नहीं क्योंकि विक्रम ने सब संभाल रखा था। सब कुछ सुव्यवस्थित था, प्रजा खुशहाल थी। इतना सब होने पर भी राजा ने एक पिंगला नाम की अनुपम सुंदरी से ब्याह रचाया (कुछ लेखक यह नाम अनंगसेना बताते हैं)। पिंगला नई रानी थी और राजा को अत्यंत प्रिय। भर्तृहरि दिन-रात पिंगला के साथ मगन रहते। उसकी उंगलियों के इशारों पर नाचते। शीघ्र ही दरबारियों ने समझ लिया कि पिंगला सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहेगी, वही होगा। रानी पिंगला भर्तृहरि के प्रति निष्ठावान नहीं थी। उसके मन में कपट था। वह भर्तृहरि के सामने तो सती-सावित्री होने का अभिनय करती लेकिन जब भी राजा राज-काज के, दरबार के काम से बाहर जाते, वह अपना प्रेम-प्रसंग खोल लेती। राज्य का अश्वपाल (घोड़ों के अस्तबल का दारोगा) उसक गुप्त प्रेमी था। गुप्तचरों ने विक्रम को इस गुप्त प्रेम-प्रसंग की जानकारी दी। विक्रम को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं जांच पड़ताल की और फिर चिंता में पड़ गए। उनके राजा और राज्य पर यह कैसी मुसीबत आ गई। बड़ी हिम्मत जुटा कर विक्रम ने एकांत में भर्तृहरि को सारी बात बताई। भर्तृहरि उन पर बरस पड़े। कहा ऐसी पवित्र स्त्री पर लांछन लगाते हुए लाज आनी चाहिए। आज तो यह अपमान सहन कर लिया लेकिन स्मरण रहे कि आगे छोटे भाई की ऐसी लज्जाहीनता असहनीय होगी। विक्रम सिर झुका कर लौट गए। उधर पिंगला ने यह जान लिया कि विक्रम उसका राज़ जान गए हैं। उसने विक्रम के विरुद्ध राजा के कान भरने शुरु कर दिए। राजा ने समझाया कि व्यर्थ चिंता नहीं करनी चाहिए, विक्रम सच्चरित्र और आज्ञाकारी है। मगर पिंगला को चैन कहाँ? उसने डरा-धमका कर नगर-सेठ को अपनी तरफ़ कर लिया। नगर सेठ ने भरी सभा में गुहार लगाई कि विक्रम उसकी युवा पुत्रवधू के साथ अभद्र व्यवहार कर रहा है और उस पर शासन का दबाव डाल रहा है कि वह उसकी बात मान ले। राजा लाल-पीले हो गए। विक्रम को तुरंत देश-निकाला का आदेश दे दिया। कहा यदि तुरंत नहीं गए तो मृत्यु-दंड दिया जाएगा। विक्रम ने लाख समझाया कि आरोप झूठा है, आनन-फ़ानन में, बिना पड़ताल किए यूँ सज़ा सुनाना राजा को शोभा नहीं देता, लेकिन राजा टस-से-मस नहीं हुए और विक्रम को राज्य के बाहर वन के लिए प्रस्थान करना पड़ा। कुछ समय बाद एक कृश्काय, तपस्वी ब्राह्मण राजा के दरबार में आया और एकांत में मिलने की इच्छा प्रकट की। एकांत में उसने भर्तृहरि को एक फल भेंट किया और बोला- राजन, यह देव-प्रदत्त अमरफल है। इसे जो भी खाएगा, वह चिर-यौवन की प्राप्ति करेगा। उसे कभी वृद्धावस्था छुएगी भी नहीं। राजा ने ब्राह्मण को एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ देकर विदा किया। फिर सीधे पिंगला के महल पहुँचा। पिंगला ने पलक-पाँवड़े बिछा कर स्वागत किया, फिर पूछा कि अचानक दरबार के समय आगमन कैसे हुआ। राजा ने उसे अमरफल देते हुए कहा कि उसे तुरंत खा ले। वह चिर-यौवन को प्राप्त हो जाएगी और राजा के लिए इससे बड़ा सुख भला क्या होगा। पिंगला ने बहुत आभार जताया और कहा कि पवित्र फल है, वह स्नान-ध्यान करने के पश्चात अवश्य सेवन कर लेगी। राजा के जाते ही उसने अपने प्रेमी अश्वपाल को बुलवा भेजा और उसे अमर फल दे दिया। अश्वपाल रूपलेखा नाम की नर्तकी से प्रेम करता था। उसने वह फल उसे दे दिया। नर्तकी जब संध्या समय राजा की महफ़िल में नृत्य करने गई तो यह अनुपम भेंट राजा के लिए ले गई। भर्तृहरि ने फल देखा तो चकराए। नर्तकी से सारी कहानी पता की। फिर सबका भेद खुल गया। भर्तृहरि को काटो तो खून नहीं। जो पिंगला उन्हें प्राणों से अधिक प्यारी थी, वह किसी और से प्रेम करती थी। उनका हृदय चीत्कार उठा और उनके मुख से निकला-

यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता

साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।

अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या

धिक् तां च तं मदनं च इमां च मां च।।२।।

(मैं सदा जिसका चिंतन करता रहता हूँ, वह (पिंगला) मुझसे विरक्त होकर अन्य पुरुष (अश्वपाल) की कामना करती है, और वह अन्य पुरुष किसी अन्य स्त्री (नर्तकी) की कामना करता है, तथा वह अन्य स्त्री मुझसे प्रीति करती है। अतः धिक्कार है मेरी स्त्री को, उस अन्य पुरुष को, मुझे चाहने वाली उस अन्य स्त्री को, मुझे और उस कामदेव को भी धिक्कार है) 

नीति शतक यहीं से प्रारंभ होता है। मंगलाचरण के बाद यह नीति शतक का दूसरा श्लोक है।   

हे बुद्धिमान पाठक! भर्तृहरि हमें अपने जीवन का यथार्थ बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि तुम ऋषियों, संतों की बातों को काल्पनिक, किताबी बातें कह कर झुठला सकते हो लेकिन मैं तुम्हें मेरा अपना जिया हुआ, भोगा हुआ सत्य बता रहा हूँ। कामांध व्यक्ति, चाहे स्त्री हो या पुरुष, को मान-मर्यादा, कुल का नाम, पारिवारिक कर्तव्य, कुछ भी याद नहीं रहता। वह मदांध हाथी की तरह विनाश की ओर बढ़ता चला जाता है। जो लोग सिद्धांत-आधारित जीवन न जीकर केवल मनचाहा करना चाहते हैं, उन्हें भर्तृहरि जगाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि हम उनकी ना सुनें तो यह विनाश को सुनिश्चित करना होगा। भर्तृहरि स्वयं कहते हैं- 

प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरेवक्त्रदष्ट्रांतरात्

समुद्रमपि संतरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम्।

भुजंगमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारयेत्

न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।४।।

(मगर की दाढ़ों में दबी हुई मणि चाहे निकाली जा सके; चाहे उन्नत लहरों से उलझते गहन समुद्र को तैर कर पार किया जा सके; चाहे क्रुद्ध हुए सर्प को पकड़ कर सिर पर धारण किया जा सके; परंतु मूर्ख व्यक्ति के किसी वस्तु पर जमे हुए मन को वहाँ से हटाना संभव नहीं है।)

तो क्या हम यह अर्थ निकालें कि जीवन में काम का पूर्ण निषेध कर दिया जाए। क्या काम प्रकृति-प्रदत्त मानवीय गुण नहीं है? क्या यह हमारे जीवन का अनिवार्य अंग नहीं हैहै! काम को निषेध की नहीं, सुप्रबंध की आवश्यकता है।

हे चरित्रवान पाठक! जिस प्रकार क्रोध को वश में कर बुद्धिमान मनुष्य उसे शत्रु कहने वाले व्यक्तियों के भी हृदय जीत लेता है; जिस प्रकार ज्ञानी मोह को वश में कर सांसारिक संबंधों का निर्वाह करते हुए भी निर्लिप्त रहता है, शोकविहीन जीवन जीता है; जैसे कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति लोभ को वश में कर इस संसार के कार्य व्यापार को सफलतापूर्वक संपन्न करता है, धन का सदुपयोग करता है; जैसे भक्त अहंकार को वश में कर विनम्र व्यवहार से सारे जगत में सम्मान पाता है; उसी प्रकार चरित्रवान व्यक्ति धर्मसंगत, युक्तियुक्त आचरण से इस जगत में काम का सुख भी प्राप्त करता है और उसके कलंक और दुष्प्रभाव से भी मुक्त रहता है। काम उसके लिए वाहन है, वाहक नहीं; सेवक है, स्वामी नहीं। 

भर्तृहरि को पिंगला ने ऐसा आघात दिया कि उन्होंने तुरंत संन्यास लेने की घोषणा कर दी। मंत्रियों से कहा कि विक्रम को खोज लाएँ और उनके सुयोग्य भाई को सम्राट घोषित करें। इस प्रकार भर्तृहरि संन्यासी हो गए। क्या भर्तृहरि को संन्यास लेने पर परम शांति की प्राप्ति हो गई

हे सत्यशोधक पाठक! भर्तृहरि जैसे महापुरुष हमारे कल्याण के लिए अपने जीवन को ही प्रयोगशाला बना डालते हैं। वे शरीर और मन पर विविध प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोग कर हमारे लिए उनके परिणाम अपने साहित्य में छोड़ जाते हैं, जिस से हम भटकाव से बच सकें और सुगमता से परम सत्य को प्राप्त कर सकें। भर्तृहरि हमें वैराग्य शतक में बताते हैं कि वन-वन भटकने से, शरीर को कष्ट देने से आत्म-प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वे कहते हैं-

भ्रांत देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं

त्यक्त्वाजातिकुलाभिमानमुचितंसेवाकृतानिष्फला।

भुक्तं मानविवर्जितं परगृहे साशंकया काकव-

तृष्णे दुर्गतिपापकर्मनिरते नाऽद्यापि संतुष्यसि।।५।।

(मैंने अब तक बहुत-से देशों और विषम दुर्गों में भ्रमण किया तो भी कुछ फल न मिला। अपनी जाति और कुल के अभिमान को छोड़कर जो दूसरों की सेवा की, वह भी व्यर्थ ही गई। अपने मान की चिंता न करते हुए पराए घर में काक के समान भोजन किया, तो भी हे पाप कर्म में निरत दुर्गति रूप तृष्णा! तू संतुष्ट नहीं हो सकी।)

खलालापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै-

र्निगृह्यांतर्वाष्पं हसितमपि शून्येन मनसा।

कृतश्चित्तस्तंभः प्रहसितधियामंजलिरपि

त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्तयसि माम्।।६।।

(दुष्टों की आराधना करते हुए मैंने उनकी कटु उक्तियों को सहन किया। अश्रुओं को भीतर ही रोक कर मैंने शून्य मन से हँसी का भाव रखा और मन को मार उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ा रहा। तो फिर (हे तृष्णा) अब तू मुझे और क्या क्या नाच नचाने की इच्छा करती है?)

कहने का भाव यह है कि मन पर विजय पाना आवश्यक है। मन का वैराग्य महत्वपूर्ण है। बाह्य त्याग, आडंबर से कुछ प्राप्त नहीं होता। राजा जनक महलों में रहते हुए भी वैदेह कहलाए। 

भर्तृहरि ने केवल शतकत्रयी की ही रचना नहीं की। उनका साहित्य-संसार बड़ा है। 

हे साहित्यप्रेमी पाठक! अब आप भर्तृहरि के साहित्य जगत में चलिए!

भर्तृहरि का साहित्य जगत

विविध प्राचीन उल्लेखों के आधार पर भर्तृहरि द्वारा रचित निम्नलिखित नौ कृतियाँ बताई गई हैं,

१. महाभाष्यटीका 

२. वाक्यपदीय 

३. वाक्यपदीय के प्रथम दो कांडों पर स्वोपज्ञा वृत्ति

४. शतकत्रय -नीति, शृंगार एवं वैराग्य

५. मीमांसासूत्रवृत्ति

६. वेदांतसूत्रवृत्ति 

७.शब्द-धातुसमीक्षा

८. भागवृत्ति

९. भर्तृहाव्य।

उपरोक्त में से प्रथम चार तो किसी न किसी रूप में उपलब्ध हैं, लेकिन बाद की पाँच रचनाओं का केवल उल्लेख मिलता है।

भारत कोश के अनुसार, "संपूर्ण महाभाष्य की प्रदीप नामक टीका का लेखक कैयट, ग्यारहवीं सदी में हु‌आ। उसने टीका के प्रारंभ में "भर्तृहरि के द्वारा बांधे हु‌ए सेतु से मेरे जैसा पंगु भी महाभाष्य रूपी प्रचंड सागर पार करने में समर्थ हो सका", ऐसा कहते हु‌ए भर्तृहरि के प्रति अत्यंत आदर प्रकट किया है। यह प्रमाण भी महाभाष्य दीपिका का कर्ता प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि ही हु‌आ होगा, इस मत का समर्थन करता है।"

भाषा प्रौद्योगिकी विभाग के योगेश उमाले लिखते हैं,

"कैयट के 'महाभाष्यप्रदीप' के अध्ययन एवं विश्लेषण से पता चलता है कि उसे न केवल 'वाक्यपदीय' एवं 'महाभाष्यटीका' दोनों का पूरा परिचय था, बल्कि उसने उन दोनों का पूरा लाभ भी उठाया है। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कैयट एवं महाभाष्य के अन्य अनेक परवर्ती टीकाकारों ने भर्तृहरि की 'महाभाष्यटीका' का अनुकरण संक्षेप मात्र ही किया है। स्वयं भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय में 'भाष्य' की ओर बार-बार इंगित करते हैं। वे सब बातें महाभाष्य में उल्लिखित नहीं मिलती। यदि भर्तृहरि की टीका पूर्णतः उपलब्ध होती, तब उनका तथ्यांकन हो सकता था। दूसरी ओर, यदि उनकी टीका का विश्लेषण किया जाए, तो वाक्यपदीय का को‌ई भी अध्येता यह पा‌एगा कि पदे-पदे वाक्यपदीय के ही वक्तव्य गद्यात्मक ढंग से कहे गए हैं। यह अवश्य है कि कहीं-कहीं शब्दावली वाक्यपदीय में प्रयुक्त शब्दावली से भिन्न है। पूर्ण विश्लेषण करने पर विद्वानों ने पाया है कि टीका की रचना निश्चय ही भर्तृहरि पहले ही कर चुके थे। वाक्यपदीय : पिछले दो-तीन दशको में ही इस अकेली कृति ने विश्व के भाषाविदों का जितना ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है, उतना किसी अन्य कृति ने नहीं। इसलि‌ए इसे सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है।"

भर्तृहरि के वाक्यपदीय को तीन कांडों में विभाजित किया गया है।

प्रथम कांड  - आगम या ब्रह्मकांड

द्वितीय कांड  - वाक्यकांड

तृतीय कांड - व्याकरण का दर्शन 

हे भाषाविद पाठक! उपरोक्त वर्णन से हम समझ सकते हैं कि भर्तृहरि का संस्कृत व्याकरण में कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

भर्तृहरि के काल के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। सर्वाधिक प्रचलित मत यह है कि भर्तृहरि ५५० ईस्वी के आसपास हुए होंगे। विक्रम संवत का प्रारंभ ५४४ ईस्वी से मानने वाले इसे सही मानते हैं। कई लोग कहते हैं कि विक्रम संवत ईस्वी से ५६ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ। लेकिन वे विक्रमादित्य कोई और होंगे क्योंकि अनेक राजाओं ने विक्रमादित्य नाम अपनाया था। चीनी यात्री इत्सिंग ने अपने यात्रा विवरण में कहा है कि ६५१ ईस्वी में वैयाकरण भर्तृहरि की मृत्यु हुई थी, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। कई लेखकों का कहना है कि वे कोई और भर्तृहरि थे। कुछ का यह कहना भी है कि शतकत्रयी लिखने वाले और वाक्यपदीय लिखने वाले भर्तृहरि अलग व्यक्ति थे।

हे जागरूक पाठक! कालातीत साहित्यकारों, संतों, विचारकों के बारे में अक्सर इस प्रकार के अनुमान लगाए जाते हैं। इस लेखक का विचार है कि यदि हम इन महापुरुषों की शिक्षा पर चलकर उत्कृष्ट मानवीय जीवन का उदाहरण बन सकें तो यह उनकी तपस्या को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जिस प्रकार किसी भौतिक वैज्ञानिक द्वारा गुरुत्वाकर्षण की फिर से खोज करना समय व्यर्थ करना होगा, उसी प्रकार हज़ारों वर्षों में अनेक प्रयोगों द्वारा सिद्ध नैतिक नियमों का पालन न करना हमारी मूर्खता होगी एवं जीवन व्यर्थ जाएगा।

भर्तृहरि कहते हैं,

पातालमाविशसि यासिनभोविलंध्य

दिड़्मण्डलं भ्रमसि मानसचापलेन।

भ्रांत्यापिजातुविमलं कथामात्मनानं

तद् ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषियेन।।६४।। 

(अरे मन! तू अपनी चंचलता के कारण कभी पाताल में जाता है तो कभी आकाश का उल्लंघन करता है, और कभी सब दिशाओं में घूमता है। परंतु कभी भूल कर भी उस विमल आत्मा-रूप ब्रह्म का चिंतन नहीं करता जिससे सब दुखों की निवृत्ति हो सके।)

भर्तृहरि : जीवन परिचय

जन्म स्थान

उज्जयिनी

माता

रूप देई

पिता

चंद्रसेन

पत्नी

पिंगला/अनंगसेना

रचना क्षेत्र

आध्यात्मिक / व्याकरण

रचनाएँ

  • महाभाष्यटीका

  • वाक्यपदीय

  • शतकत्रय-नीति 

  • शृंगार एवं वैराग्य

  • वाक्यपदीय के प्रथम दो कांडों पर स्वोपज्ञा वृत्ति

  • मीमांसासूत्रवृत्ति

  • वेदांतसूत्रवृत्ति

  • शब्द–धातुसमीक्षा

  • भागवृत्ति

  • भर्तृहाव्य


संदर्भ

लेखक परिचय

हरप्रीत सिंह पुरी

एक विद्यार्थी जो भर्तृहरि के जीवन से शिक्षा लेकर सदैव आनंदमयी, संतोषप्रद, कल्याणमयी जीवन जीना चाहता है।

12 comments:

  1. हरप्रीत सिंह जी आपने भर्तुहरि पर अद्भुत लेख प्रस्तुत किया है।भाषा और साहित्य की दृष्टिकोण से उनकी रचनाएं विश्व के पाठकों के लिए निश्चित दैवी रत्नावली है। मैंने पहली बार इतना रोचक परिचय पढ़ा है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में इस तरह का साहित्य पढ़ना चाहिए। मूल्य वर्धित शिक्षा पाठ्यक्रम में हमारी भारतीय परंपरा के श्रेष्ठ संत रचनाओं को शामिल करना बहुत जरूरी है। आपने हमारी जिज्ञासा बढ़ा दी। हार्दिक साधुवाद।🙏💐

    ReplyDelete
    Replies
    1. विजय जी, हार्दिक आभार। आपकी स्नेहमयी टिप्पणी ने प्रसन्न किया है एवं और लिखने को प्रोत्साहित किया है।

      Delete
  2. अद्भुत शैली अनूठा आलेख ! एक प्रिय रचनाकार को आपकी लेखनी में साकार पाकर चित्तम प्रसन्नम !
    हार्दिक बधाई शुभकानाश्च !
    इति

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय विजया जी, आपको आलेख पढ़कर प्रसन्नता हुई तो लिखना सार्थक हुआ। हम सब ज्ञान के आदान-प्रदान से आनंदित हों , यही जीवन का सुख है।

      Delete
  3. हरप्रीत जी, आपने इस आलेख को संवादात्मक शैली में लिखकर जीवंत बना दिया। मैंने आज पहली बार ही भर्तृहरि का परिचय पाया और वह इतने अनुपम एवं रोचक ढंग से हुआ कि मन प्रसन्न और थोड़ा-सा प्रबुद्ध हो गया। इस अत्युत्तम लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  4. धन्यवाद, प्रगति जी। आप जैसे प्रबुद्ध लेखक एवं पाठक जब आलेख से आनंदित हों तो खुंशी भी होती है और स्वयं को भाग्यशाली भी समझता हूँ । 💐

    ReplyDelete
  5. आपका विषय चयन, भाषा, भावों को शब्दों में पिरोकर, मौक्तिक माला सम प्रस्तुत करने की विधि अनुपम है । हमारे लिए अनुकरणीय है । साधुवाद । अद्भुत आलेख ।

    ReplyDelete
  6. श्रृंगार से नीति और वहाँ से वैराग्य की यात्रा, व्यक्ति के रूप में विकास की यात्रा भी है भतृहरि को जानना...और हरप्रीत जी आपने अपना परिचय जिस तरह से दिया वह भी सीखने योग्य है...साधुवाद

    ReplyDelete
  7. आज एक प्रकार का आलेख पढ़ने को मिला बहुत सुंदर लेख लिखा आपने , धाराप्रवाह में अद्भुत आलेख लिखा है आपने ।

    ReplyDelete
  8. हरप्रीतजी नमस्कार, भृर्तहरि पर आपका आलेख पढ़कर दिल बाग़-बाग़ हो गया। भृर्तहरि का बस नाम सुना हुआ था, आज आपके आलेख से उनके बारे में जानने को मिला। पाठक को सम्बोधित करके लिखी मज़ेदार शैली में लिखे इस दमदार, शानदार और हृदयग्राही आलेख के लिए आपको धन्यवाद और बधाई।

    ReplyDelete
  9. हरप्रीत जी नमस्ते। भर्तृहरि पर आपका आलेख पढ़कर आंनद आ गया। आपने बहुत रोचक शैली में यह लेख लिखा जो कहानी की तरह पाठक को बाँध कर रखता है। इस लेख के माध्यम से इस महाभाष्य टीका जैसे ग्रन्थ के रचयिता के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  10. नमस्कार सर🙏🏻इस लेख के लिए आपको हार्दिक साधुवाद।संतों द्वारा रचित साहित्य हमारे लिए अनमोल निधि हैं। भृतहरि के जीवन वृतांत पर लिखे आलेख ने रोमांचित कर दिया। धन्य है ऐसे सम्राट जिन्होंने ब्रम्ह विद्या जानकर खुद का उद्धार किया और ऐसी कालजयी कृति रच कर समाज का पथ प्रदर्शन किया ।जिन्होंने राजस्थान को अपनी कर्मस्थली बनाया और अलवर जिले के पास सरिस्का नामक स्थान के पास समाधि ली। जहाँ आज भी अखंड ज्योत स्वतः ही जल रही जो भृतहरि के आत्मज्ञान के प्रकाश को आज भी आलोकित कर रही है।नाथ संप्रदाय के ऐसे संत शिरोमणि को हार्दिक नमन।आपको हार्दिक आभार और अभिनंदन की आपने परिचय में भृतहरि के विद्यार्थी के रूप में अपना परिचय दिया। जो बहुत हृदय स्पर्शी लगा। नमस्कार

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...