Thursday, June 30, 2022

लाला लाजपत राय - आजीवन संघर्षरत योद्धा


घर में बड़े-बुज़ुर्गों से मिले विभिन्न धार्मिक और पारिवारिक संस्कारों में पला एक बालक जब समाज में फैली विषमताओं और अन्याय से रूबरू हुआ तो उसका रोम-रोम प्रतिरोध कर उठा। सोचने-समझने के अपने आरंभिक दिनों से लेकर आख़िरी साँस तक वह इस ऊहापोह में लगा रहा कि कैसे उसके देश के लोगों को भी अपनी ज़मीन पर वही सम्मान और स्थान मिले, जो दूसरे देशवासियों को उनके देशों में मिलता है। अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए उसने कई बार अपनी राह में यथावश्यक परिवर्तन किए, विभिन्न पैंतरे आज़माए, पर स्वराज्य प्राप्ति के अपने ध्येय पर अंत तक टिका रहा। उसका कहना था, यदि स्वराज लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बन जाएँ तो एक प्रकार की स्वतंत्रता अँग्रेज़ हमें दे देंगे परन्तु स्वराज तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरुप में स्थिर रह कर राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरुप है हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारी देशगत-जातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज स्वराज्य नहीं है।”  ऐसे विचारों से ओतप्रोत व्यक्तित्व था लाला लाजपत राय का। उन्होंने सदैव लेखन, वकालत तथा राजनीतिक और सामजिक गतिविधियों द्वारा मुखर स्वरों में अपनी बात रखी।

बाल्यावस्था से ही लाजपत राय का स्वास्थ्य कमज़ोर रहा, प्रारम्भिक पाठशाला की शिक्षा अधिकांशतः पिता से पाई। उनके पिता का पसंदीदा शग़ल इतिहास तथा समसामयिक विषयों पर किताबें पढ़ना था, साथ ही उन्हें सभी धर्मों का अच्छा ज्ञान था। पिता ने न केवल बेटे को लिखना-पढ़ना या स्कूली विषय सिखाए, बल्कि धर्म और इतिहास में भी रुचि पैदा कर दी। बचपन में ही फ़ारसी की ‘सिकन्दरनामा’ और फ़िरदौसी का ‘शाहनामा तथा उर्दू की ‘रसूमे हिन्द’ और मौलवी मुहम्मद हुसैन की ‘क़सस-ए- हिन्द’ (भारत की गाथाएँ) लाजपत की सर्वाधिक प्रिय पुस्तकें बन गयीं। गुलिस्ताँ’ का यह शे’र सदा उसका प्रेरणास्रोत रहा-

आन न मन बाशम कि रोज़े जंग बीनी पुश्त-ए-मन
आन मनम गर दरमियाने ख़ाक-ओ-ख़ून बीनी सरी

(मैं वह नहीं हूँ कि लड़ाई के दिन तू मेरी पीठ देखे,
मैं वह हूँ कि मिट्टी और ख़ून के बीच तू मेरा सिर देखे।)

इतिहास गवाह है कि स्वाधीनता के इस योद्धा ने इस शे’र को अपने जीवन से जीवंत कर दिखाया, उसने मृत्यु बिलकुल इसी अंदाज़ में पाई।

मिडिल स्कूल पास करते ही १३ वर्ष की आयु में विवाह हो गया। इस मेधावी छात्र ने जब विश्वविद्यालय में दाख़िले के लिए कलकत्ता और लाहौर विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षाएँ दीं, तो चयन दोनों जगह हो गया। पिता ने तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा देने का फ़ैसला किया और चयन लाहौर पर ठहरा। फरवरी १८८१ में वह लाहौर पहुँचा। यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि लाजपत का स्वास्थ्य नाज़ुक ही रहा करता था और माता-पिता अपनी सभी व्यस्तताओं और बंदिशों के बावजूद दिन-रात बेटे की तीमारदारी में लगे रहते थे। सेवा-शुश्रूषा के ये पल बालक में कर्तव्य के प्रति आत्म-समर्पण और माता-पिता के लिए गहन श्रद्धाभाव जगा गए। माता-पिता द्वारा उच्च-शिक्षा के लिए उठाये कष्ट सदा उसके हृदय में रहे। इसीलिए लाजपत राय ने शिक्षा जल्दी समाप्त करके आजीविका कमाने को प्राथमिकता दी। कमज़ोर स्वास्थ्य तथा अन्य सार्वजानिक कार्यों में सक्रियता के चलते वकालत की कक्षा में स्थान प्राप्त करने के लिए इन्हें दो वर्ष इंतज़ार करना पड़ा; परन्तु इस दौरान मुख़्तारी की योग्यता प्राप्त कर ली। यही वे दिन थे जब वे महात्मा हंसराज, पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी, राजा नरेन्द्रनाथ तथा प्रोफ़ेसर रुचिराम साहनी जैसे सहपाठियों के संपर्क में आए, जिनका  आधुनिक पंजाब के निर्माण एवं आर्य समाज तथा डीएवी कॉलेज के गठन एवं विकास में उल्लेखनीय योगदान रहा। गुरुदत्त, हंसराज और लाजपत राय के सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश हिंदी-उर्दू आंदोलन से हुआ, जिसमें वे हिंदी के पक्ष में थे। असल में लाजपत राय फ़ारसी, उर्दू, अँग्रेज़ी भाषाओं में तो दक्ष थे परन्तु हिंदी और संस्कृत में कच्चे थे। इससे ज़ाहिर होता है कि क़ौमी फायदों के मुक़ाबिले ज़ाती सहूलियतें उनके लिए कोई मायने न रखती थीं। सामजिक कार्यों की राह में पहला उल्लेखनीय पड़ाव आर्य समाज से संलग्नता बना। लाजपत राय को आर्य-समाज से जोड़ने का श्रेय लाहौर आर्यसमाज प्रधान साईंदास को जाता है। सन् १८८६ में लाजपत राय और उनकी मित्र-मंडली की दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज खोलने और सञ्चालन में मुख्य भूमिका रही। महात्मा हंसराज इसके प्रिंसिपल बने। पंजाब में धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन तथा जागरूकता जगाने में इन संस्थाओं की अहम भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। इन संस्थाओं से जुड़ने के दौरान ही लाजपत राय को इस बात की अनुभूति हुई कि प्रभावशाली भाषण भी एक बड़ी भारी शक्ति है।

कॉलेज के पहले साल में सुरेंद्र बैनर्जी की अँग्रेज़ी की क्लास में इटली के जोसेप्पे मैज़िनी पर व्याख्यान सुनकर उनके युवा हृदय पर जाति और राष्ट्र सेवा के ऐसे भाव जगे कि मैज़िनी अंत तक उनके राजनीतिक गुरु बने रहे; इसी सन्दर्भ में इतालवी गैरीबाल्डी ने भी अमिट छाप छोड़ी। लाजपत राय के शब्दों में, “मुझ पर मैज़िनी की पुस्तक ‘जीवनी तथा उपदेश’ का अपेक्षाधिक प्रभाव पड़ा। उस महान इटालियन की गहरी राष्ट्रीयता, उनके दुःख तथा संकट, उनकी उच्च नैतिकता तथा उनकी विशाल सहानुभूति ने मुझे मुग्ध कर दिया।” इस बेचैन युवक को आर्य समाज और कॉंग्रेस से जुड़ने से पहले ही अपनी विषयवस्तु तथा लक्ष्य और उसकी राह मैज़िनी के सिद्धांतों में मिल गयी थी; सभी संस्थाएँ उस उद्देश्य पूर्ति की साधन मात्र थीं। लाजपत राय फ़ौरन ही मैज़िनी की पुस्तक ‘मनुष्य के कर्तव्य’ का उर्दू अनुवाद करने में जुट गए, ताकि राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, देश में एकता आदि पर उनके भाव अधिकाधिक देशवासियों तक पहुँचे, उन्हें प्रेरित करें।

उन्होंने देशवासियों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से १८९६ में ‘संसार के महापुरुष’ नाम से एक पुस्तकमाला शुरू की। इस पुस्तकमाला के अंतर्गत उन्होंने मैज़िनी, गैरीबाल्डी के अलावा शिवाजी, दयानन्द एवं श्रीकृष्ण के जीवन-चरित्र लिखे। मैज़िनी के प्रखर विचारों को मूर्तरूप देने का काम गैरीबाल्डी के हाथों हुआ था। इन पुस्तकों ने सरकारी महकमों में ख़ासी खलबली मचा दी थी किन्तु उनमें लेखक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाने योग्य कोई सुराग़ ढूँढ़ा न जा सका। शिवाजी की छवि उन दिनों तक मुग़ल शासकों के फ़ारसी इतिहासकारों द्वारा लिखित ग्रंथों के कारण धूमिल तथा नकारात्मक-सी थी; उस महान योद्धा के चरित्र से धूल पोंछने और उसे यथोचित सम्मान दिलाने में इस पुस्तक का बड़ा योगदान रहा। इस कृति के लिए प्रेरणा उन्हें बाल गंगाधर तिलक द्वारा गणपति त्योहार को प्रचलित करने के कार्यों से मिली और ठोस सामग्री रानाडे महोदय के मराठा इतिहास ग्रन्थ से प्राप्त हुई। महानुभवों को समर्पित पुष्पमाला का चौथा फूल दयानन्द सरस्वती की सुगंध बिखेरता है। यह जीवनी १८९७ के अकाल में सहायता-अभियानों में लालाजी की सक्रिय भूमिका और पुनः हुईं स्वास्थ्य-सम्बन्धी गंभीर समस्याओं के कारण सितम्बर १८९८ में ही प्रकाशित हो सकी। इस पुस्तक की उपयोगिता यह है कि इसमें स्वामीजी के जीवन की मुख्य घटनाएँ और उनके बचपन के कुछ दिलचस्प क़िस्से संग्रहित हैं। यह स्वामीजी के व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण आदि पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है। इस पुस्तकमाला का अंतिम मोती श्रीकृष्ण हैं। लाजपतराय का श्रीकृष्ण मुख्यतः महाभारत का श्रीकृष्ण है। उनका श्रीकृष्ण लोक-प्रचलित छवियों में बँधे श्रीकृष्ण से कोई नाता नहीं रखता; वह ग्वालिनों के पीछे लगे रहने वाला माखन-चोर नहीं है।

लाला लाजपत राय ने १८८५ से १८९० तक हिसार में वकालत का काम किया और इस क्षेत्र में ख़ूब चमके। उनकी औसत मासिक आय उन दिनों डेढ़ हज़ार रुपये थी। अच्छी आमदनी प्राप्त होते ही सबसे पहले उन्होंने अपने पिता से नौकरी छोड़ने का अनुरोध किया और फिर सम्पूर्ण परिवार के गुज़ारे तथा भाई-बहनों की शिक्षा और ब्याह आदि के लिए धनराशि अलग से रख दी। वकालत की यह भारी सफलता उन्हें धनिकों की सूची में रख सकती थी, पर इस नौजवान के मन में वकालत छोड़ कर पूरी तरह से देश के कामों में कूद पड़ने की धुन लगी थी। उनके जीवन में धन-संपत्ति का स्थान बस इतना था कि परिवार ग़रीबी के दिन न देखे। उनके हृदय में हिसार छोड़कर लाहौर उड़ जाने की प्रबल इच्छा रहती थी।

लाहौर की कायापलट तेज़ी से हो रही थी, वह अँग्रेज़ी हुकूमत के पैर जमाने की ज़मीन बन रहा था। वहाँ नए कारख़ाने या मिलें तो नहीं खुल रही थीं, लेकिन बाबू तैयार करने के कारख़ाने- स्कूल और कॉलेज - तेज़ी से काम कर रहे थे। ये परिवर्तन मात्र भौतिक नहीं थे, शहर की मानसिकता भी बदल रही थी। सोते हुए पंजाब में राजनीतिक सरगर्मियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया था। इन सब का नतीजा यह हुआ कि लाहौर पंजाब की यथार्थ राजनीतिक-राजधानी बनने लगा। सन् १८८१ में सरदार दयाल सिंह की उदारता से साप्ताहिक ट्रिब्यून का जन्म भी हो गया था; जो बाद में हफ़्ते में दो दिन निकलने लगा। लाजपत राय को लाहौर में वह माहौल मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी।

आर्य-समाज और डीएवी कॉलेज में अहम दायित्व निभाने के साथ-साथ लाहौर में १८९३ में उनकी गतिविधियों में कॉलेज पत्रिका का संपादन, ‘भारत सुधार’ तथा ‘आर्य मैसेंजर’ पत्रों के लिए लेखन, रोज़ी-रोटी के लिए वकालत आदि शामिल थे। साथ ही वे कॉलेज के लिए धन-संग्रह हेतु दौरा भी किया करते थे। कांग्रेस के पंजाब में १८९३ में हुए अधिवेशन में स्वागत-समिति का कार्यभार और सार्वजनिक सभाओं में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे। आर्यसमाज के आन्तरिक कलह को सुलझाने की ज़िम्मेदारी भी वही उठाते थे।

लाजपत राय का कांग्रेस पार्टी के प्रति उत्साह शुरूआती सालों में कभी सर्द तो कभी गर्म रहा। लाहौर में हुए अधिवेशन के समय भी कई बातों पर मतभेद रहे, मुख्य मुद्दा कांग्रेस के लिए विधान स्वीकार करने का था। बहरहाल, इसी सम्मलेन में उनकी मुलाक़ात गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक से हुई, जो आगे चलकर महत्त्वपूर्ण दोस्ती में बदल गयी।

लाजपत राय ने १८९७ में मध्यप्रदेश में आये महा-अकाल में अनाथ बच्चो के संरक्षण के लिए लाहौर तथा मेरठ में अनाथ-आश्रम खुलवाने और बच्चों की पोषण-व्यवस्था आदि के लिए दिन-रात एक कर दिए। इसके लिए उन्होंने अपनी वक्तृत्व कला, तर्क-शक्ति, सञ्चालन, संगठन तथा नियंत्रण प्रतिभा का उत्तम परिचय दिया। इस कार्य के लिए उनके साथ बहुत स्वयंसेवक जुड़े। इस अकाल के दौरान लगभग दो हज़ार बच्चों को आसरा मिला और सैकड़ों कार्यकर्ताओं को विशेषतः विद्यार्थियों को देशानुराग के कार्य तथा नागरिकता की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त हुई। साथ ही लोगों के मन से यह भ्रम टूटा कि केवल सरकार और मिशनरी संस्थाएँ ही घोर-संकट के समय उबारने के काम कर सकती हैं।

दूरदर्शी और ठोस क़दमों से उनकी छवि एक कारगर और कर्मठ नेता की बनने लगी। सोया हुआ पंजाब भी उनके आह्वान से जागने लगा, राजनैतिक पटल पर उभरने लगा। लेकिन अकाल के कठिन श्रम और स्वास्थ्य पर ध्यान न देने के कारण वे मौत के मुँह तक पहुँच गए थे।

एक और समस्या जिससे देश १९वीं सदी के अंत में जूझ रहा था, वह थी देशवासियों के अपने बैंक के न होने की। व्यापारिक स्वतंत्रता के लिए बैंक का होना बहुत ज़रूरी था। अंततः उनकी सक्रियता, लाला हरकिशन लाल और लाला मूलराज के उद्योग से १८९४ पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना हुई

वकालत और सार्वजानिक काम अब एक दूसरे के रास्ते का रोड़ा बनते जा रहे थे। वे वकालत छोड़कर पूरी तरह से देश सेवा में जुटना चाहते थे, परन्तु परिवार को पहुँचने वाली आर्थिक सहायता के कारण निर्णय नहीं ले पा रहे थे। अंततः १८९८ से वकालत का समय घटाना शुरू कर दिया।

ट्रिब्यून उन दिनों पंजाब का एकमात्र समाचार-पत्र हुआ करता था, जिसने बाद में अंदरूनी-राजनीति के चलते अपनी प्रासंगिकता खो दी। आवाज़ न उठा सकने की मजबूरी ने पंजाब-वासियों को राजनैतिक रूप से सुस्त बना दिया था। लोगों में सक्रियता बढ़ाने और सरकारी अफ़सरों पर सार्वजनिक मत का प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से उर्दू में समाचार पत्र ‘पंजाबी’ की शुरुआत की गयी। अक्टूबर १९०४ के पहले हफ़्ते में ‘पंजाबी’ का पहला अंक छपा और अपनी बेबाकी तथा तटस्थता के चलते फ़ौरन मक़बूल हो गया।

यह कर्मवीर पूरी तन्मयता से देश-विदेश में भारत की बात और उसके परिप्रेक्ष्य को व्याख्यानों और अपनी किताबों के ज़रिये रखता रहा। देश और कांग्रेस पार्टी में जो भी बात उसे स्वराज की प्राप्ति की राह में खटकी उसका उसने खुलकर विरोध किया। स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य आंदोलनों का ध्वजवाहक बना रहा। न्याय के पक्ष में खड़े रहने के लिए देश-निकाले में माण्डले जाना पड़ा, लेकिन फिर भी उसने अँग्रेज़ों के हर अत्याचार का विरोध किया। सन् १९२४ में अछूतोद्धार समिति का गठन कर पूरे देश में दलितों के उद्धार का भारी रचनात्मक कार्य किया। अक्टूबर १९२८ में साइमन कमीशन जब लाहौर पहुँचा, तलाजपत राय के नेतृत्व में उसका रास्ता रोका गया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसकी चोटों के कारण १७ नवम्बर १९२८ को इस योद्धा के शरीर का तो अंत हो गया परन्तु वह अपनी लौ से अनेक युवा हृदयों में आज़ादी के क्रांति-दीप जला गया और उनके ज़िम्मे अपने अधूरे काम छोड़ गया। उसकी विदाई में पूरा लाहौर ‘क़ौम दा गुज़र गया सरदार’ की ध्वनि में गरज उठा था, लाहौर क्या पूरा देश जाग उठा था, मचल उठा था। 

जीवन परिचय : लाला लाजपत राय (पंजाब केसरी)

जन्म

२८ जनवरी, १८६५, गाँव ढूडिके, तहसील मोगा, ज़िला फ़िरोज़पुर (ननिहाल), अविभाजित भारत  

मृत्यु

१७ नवम्बर, १९२८, लाहौर, अविभाजित भारत

पिता

मुंशी राधा कृष्ण आज़ाद 

माँ

गुलाब देवी

पत्नी

राधा देवी

भाई

मेलाराम, गणपतराय, धनपतराय, नन्दलाल जो बाद में दलपतराय कहलाए

बहन

नाम अज्ञात

बच्चे

अमृत राय, प्यारेलाल, पार्वती

शिक्षा

स्कूल - गवर्नमेंट मिडिल स्कूल, रोपड़, अम्बाला 

कॉलेज - यूनिवर्सिटी गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर

कर्मभूमि

हिसार, लाहौर (मुख्यतः), सम्पूर्ण भारत, विदेश  

कार्यक्षेत्र

वकालत, संपादन, लेखन, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी 

साहित्यिक रचनाएँ

उर्दू किताबें 

     आर्य समाज की तारीख

     मैज़िनी

     गैरीबाल्डी

     शिवाजी

     दयानन्द सरस्वती

     ग़ुलामी की अलामतें और ग़ुलामी के नताइज  

     महाराज श्रीकृष्ण और उनकी तालीम

     स्वराज्य का रास्ता

अँग्रेज़ी किताबें

     The Story of My Deportation, 1908

     Arya Samaj, 1915

     The United States of America:A Hindu’s Impression, 1916

     England’s Debt to India: A Historical Narrative of Britain’s Fiscal Policy in India, 1917

     Unhappy India, 1928

राजनीतिक गतिविधियाँ एक नज़र में (कांग्रेस के गर्म दल का नेतृत्व - बाल,पाल, लाल तिकड़ी)

     १९०५ में पहली विदेश यात्रा पर इंग्लैंड प्रस्थान; गोखले के साथ कई स्थानों पर एक ही मंच से व्याख्यान

     १९०६ में स्वदेशी, बहिष्कार और स्वाराज आन्दोलनों में अग्रणी हिस्सेदारी

     १९०७ में देशनिकाला

     १९१४ में पुनः ब्रिटेन की यात्रा; इण्डिया बिल की धाराओं के लिए बतौर कांग्रेस प्रतिनिधि 

     १९१७-१९२० तक संयुक्त राज्य अमरीका में वास; १९१७ में वहाँ होम रूल लीग का गठन

     १९२० में कांग्रेस के कलकत्ता में हुए विशेष सत्र में अध्यक्षता करने का न्योता

     जालियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड के खिलाफ पूरे पंजाब में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन

     १९२० में महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में पंजाब से नेतृत्व

     १९२० में उर्दू दैनिक ‘बन्दे मातरम’ का श्रीगणेश; साहसपूर्ण नीति और शिक्षापूर्ण सामग्री के कारण प्रसिद्धि

     गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापिस लेने की मुख़ालिफ़त 

     दिसंबर १९२० में तिलक राजनीति विद्यालय का गठन,

     २६ मई १९२० से जेनेवा के अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर सम्मलेन में शिरकत;२ जून को भाषण 

     अक्टूबर १९२१ में महात्मा गाँधी के करकमलों से लोक सेवक मंडल का लोकार्पण कराया 

     १९२५ में साप्ताहिक अँग्रेज़ी पत्र ‘People’ की शुरुआत; पूरे भारत की जनता के जागरण के लिए

     फरवरी १९२८ में पंजाब विधान सभा में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पेश

     ३० अक्टूबर १९२८ को साइमन कमीशन के विरोध में घातक लाठीचार्ज झेला

     ३,४ नवम्बर, १९२८ को भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में शिरकत

     १७ नवम्बर, १९२८ को लाठीचार्ज के कारण स्वास्थ्य बिगड़ने से मृत्यु

     लाठीचार्ज होने पर निकले उद्गार, “आज मेरे ऊपर बरसी हर लाठी की चोट अँग्रेज़ों के ताबूत की कील बनेगी। 

सन्दर्भ:

१. जीवनी लाला लाजपतराय, संकलनकर्ता अलगूराय शास्त्री

२. लाला लाजपतराय की आत्म-कथा, संपादक भीमसेन विद्यालंकार 

३. https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/lala-lajpat-rai-biography-1580207229-1

४. विकीपीडिया

लेखक परिचय :

प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच-सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।

 

5 comments:

  1. प्रगति, लाला लाजपत राय के नाम की ज़रा-सी कल्पना से ही अक्सर इनका क्रांतिकारी रूप ही आँखों के सामने आता है। अब, तुम्हारा आलेख पढ़ने के बाद इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के दूसरे पक्षों के बारे में मालूम चला। बड़ी तन्मयता से लिखा है तुमने। लाला लाजपत राय पर बहुत शोधपरक, ज्ञानवर्धक, मानीखेज और संतुलित आलेख के लिए तुम्हें हार्दिक बधाई।

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  2. A beautifully compiled write-up about Lala Lajpat Rai. His name is well known to Indians but the sacrifices and contributions to our nation is less known I feel. Besides your incredible expressing style, the job you have done by writing this article is praiseworthy Pragati.

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  3. प्रगति जी नमस्ते। आपका एक और बेहतरीन लेख पढ़ने को मिला। आपने स्वतंत्रता आंदोलन के पुरोधा लाला लाजपतराय जी पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई। उनके बारे में बचपन से सुना, पढ़ा लेकिन आपके लेख से नई जानकारी मिली। लाला जी के योगदान को बार बार नमन। लेख पर आई टिप्पणियों ने भी लेख को सुंदर विस्तार दिया है। आपको इस क्रांतिकारी लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. प्रगति टिपनिस,लाला लाजपत राय पर तुमने अच्छी नई जानकारी दी।

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  5. प्रगति जी आपका एक और बढ़िया लेख पढ़ने को मिला है। लाला लाजपत राय की जीवन यात्रा का अद्भुत और विवरणात्मक खाका खींचा है आपने। आपके इस आलेख के द्वारा लाला जी की कर्मठ जीवन के साथ साथ उनके विलक्षण व्यक्तित्व की कई रोचक जानकारियां प्राप्त हुईं | इस शोधपरक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।

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