"सृजनात्मकता मेरे भीतर संभवतः जन्म से थी तभी तो उसके स्फुलिंग आंदोलित कर रहे थे लेकिन उस दुनिया में प्रवेश के बाद जो प्रयास करने पड़े वह मै ही जानता हूँ, कितना लिखा, काटा ,फाड़ा, किस प्रकार भोजन, परिवार संबंधों का मोह छोड़ कर साहित्य के पीछे दीवाना रहा, हाँ यही कह सकता हूँ कि एक अच्छा लेखक तो नहीं बन पाया मगर लिखने के प्रति गंभीर जरूर हुआ, कामकाजी दुनिया की जिम्मेदारियों में जब महीने दो महीने बीत जाते तो लगता कि मेरे मूल्यवान दिन निरर्थक हो गए।"
ऐसा उद्घोष वही व्यक्ति कर सकता है जिसकी रग-रग में साहित्य की धारा नित्य बहती हो, जिसकी सोच साहित्य सृजन का अखंड हिस्सा हो, जिनके अनुभव के दरवाजे विस्तृत हो, कुछ भी वर्जित न हो। हाँ मैं बात कर रही हूँ, डॉ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी की, जिन्हें अपने समय को अपनी आकृतियों में बांधने की कला आती है। यही कारण है कि साहित्य का पक्ष-विपक्ष, संतुलन-असंतुलन इनकी उपस्थिति के बिना निर्जीव सा लगता है । अध्ययन-अध्यापन को ही उन्होंने अपनी अभिरुचि की आजीविका चुना। विश्वनाथ जी को देखकर उनके बाबा ने उनके पिता से कहा था, "सोने की कुदारी से खेत नाही कोड़ल जाला" उन्हें विश्वास था कि विश्वनाथ खेती करने के लिए नहीं बने है, उन्हें विद्या के क्षेत्र में आगे जाना चाहिए। इनके पिताजी स्वभाव से परदुखकातर थे, जिसके कारण विश्वनाथ जी को चौदह-पंद्रह की उम्र में ही घर का दायित्व स्वीकार करना पड़ा। इनकी माताजी में दया, ममता की भावना कूट कूट कर भरी थी। पड़ोस में अगर कोई भी भूखा दिखता तो उसे चावल दही जो भी हो दे दिया करती थी। विश्वनाथ जी ने बी० ए० सेंट एंड्रयूज कॉलेज गोरखपुर से और गोरखपुर विश्व विद्यालय से एम० ए० किया। विश्वनाथ जी में सहज मानवीय संवेदना है जिसका तार लोक संवेदना से जुड़ा है। स्वयं विश्वनाथ जी का संवेदनशील मन देश एवं निजी दुनिया की उलझनों से विचलित होता है वे अपने को निरंतर साध रहे हैं किंतु मन है कि सध नहीं रहा है ,उनकी काव्य पंक्तियाँ हैं,
रेखाएँ अपनी ही खींची हैं
उलझा हूँ
उठता हूँ
गिरता हूँ
तिवारी जी बेहद सरल सहज शख्सियत है, मगर भीतर उनके अंदर चिंतन की एक धारा नित्य प्रवाहित होती रहती है। इनका जीवन उस पीपल की तरह है जिसकी छांव तले साहित्यनुरागी असीम शांति का अनुभव करते हैं । समय की सुइयों के प्रति सजग रहना वे अपना दायित्व समझते हैं। आत्मज्ञान को सर्वाधिक महत्व देते हैं। उनकी रचनाएँ भीतर झांकने के लिए प्रेरित करती है। साथ ही साथ उनके निबंध सचेत करते है। स्वयं के बारे में वे कहते हैं, "यह कहने में संकोच तो होता है पर सच यही है कि मैं एक संवेदनशील आदमी हूँ । भय जहाँ भी दिखता है, जिन आँखों में भी, मुझे रचनात्मक बनाता है और कुछ कहने के लिए प्रेरित करते है। खास तौर से जो बेजुबान है,पराधीन है,और अपने विरोध किए जा रहे उत्पीड़न का विरोध नहीं कर सकते।"
तिवारी जी की कविताओं में इतनी शक्ति है जो अथ से इति तक झलकती है। लगभग आधी सदी का अनुभव अपनी कविताओं के अतल में बिछा दिया है और पाठक को अपने कवि कर्म के जरिए पूरे लोक की गहराई उतरने, समझने और फिर सक्रिय होने के लिए प्रेरित करती है। हिम्माच्छादित पहाड़, समुद्र तट की हिलोर, वेग से गिरते जलप्रपात, कल कल करती नदियों के जल स्त्रोत, उमड़ घुमड़ कर आते काले बादल डॉ० तिवारी की कलम का संस्पर्श पाते ही जीवंत हो उठते हैं, प्रकृति अपने आदिम सौंदर्य के साथ पृष्ठों पर नाचती जाती प्रतीत होती है उनकी अनूठी सौंदर्य दृष्टि से अनुप्राणित भारत का नयनाभिराम चित्र पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देता है। तिवारी जी का नायकत्व कविता तक ही सीमित नहीं है, समीक्षक और साहित्यकार में भी उतना ही सशक्त और निर्णायक भूमिका निभाते देखा जा सकता है। कवि, समालोचक, संपादक, चिंतक, निबंधकार, यायावर सभी रूपों का भलीभांति विश्वनाथ जी ने निर्वाह किया है।
गुरु भक्त सिंह 'भक्त' की नूरजहां और तुलसी कृत रामचरित मानस जैसी कृतियाँ ढिबरी की मंद और कंपकपाती लौ में वे पढ़ते रहे। यही समय था जब उनके भीतर की मिट्टी को फोड़ कर साहित्य अंकुर निकलने के लिए छटपटा रहा था। 'चीज़ों को देखकर', उनकी पहली काव्य पुस्तक है, जिसमें बाबा के वैराग्य और पिता की कर्त्तव्य-साधना की झलक देखने मिलती है।
कौन जाने
कौन सा संकेत
मुझको दिशा दे
गति दे
मुझे मेरी नियति दे
कौन जाने
किस घड़ी
किस द्वार
मिल जाए हमारा देवता
इंटर में उनके पाठ्यक्रम में पंडित राम नरेश त्रिपाठी का खंड काव्य पाथेय था, जिसका प्रभाव किशोर वय विश्वनाथ जी के मन पर इस कदर पड़ा कि उनकी प्रथम कविता 'जीवन सुमन' और 'कर्म भावना' में साफ़ साफ़ दिखाई देता है। 'साथ चलते हुए' काव्य संग्रह इमरजेंसी के दौरान प्रकाशित हुआ जिसमें समसामयिक परिस्थियों का प्रोटेस्ट दर्ज है। आपातकाल के विरोध में कवियों ने अनेक कविताएँ लिखी जो एक संग्रह "दस्तावेज" के नाम से प्रकाशित हुआ। दस्तावेज त्रैमासिक पत्रिका का १०० वां अंक महात्मा गाँधी पर केंद्रित किया क्योंकि उनका मानना है कि मेरे लिए अपने देश में गाँधी से उपयुक्त कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था जिस पर मैं पत्रिका का १०० वां अंक केंद्रित करता। महात्मा गाँधी पर २५०० पंक्तियों की लंबी कविता "महामानव" लिखी। दस्तावेज के मुख्य पृष्ठ पर जो गोला छपता है उसके पीछे का तात्विक विवेचन है सब कुछ चक्राकार गतिमान है। न कोई प्रारंभ न अंत, कुछ भी अपूर्ण नहीं, सब कुछ पूर्ण, दस्तावेज से संबद्ध सभी विद्वानों एवं रचनाकारों को उन्होंने आदर एवं आत्मीयता से याद किया है। 'रचना के सरोकार' रचना में १९८७ में १९६८ से लेकर १९८४ के बीच के सोलह वर्षों के आलेख संकलित है। "रचना के सरोकार" से लेकर "आलोचना के हाशिये" तक मे जहाँ विश्वनाथ जी की सैद्धांतिकी उजागर हुई है, वहीं 'तर्कशास्त्र' से उनकी लोकतांत्रिक मनीषा का पता चलता है। 'तैत्तरीय उपनिषद' के हवाले से विश्वनाथ जी कहते हैं, "मनुष्य के विवेक और उसके भीतर के देवता को ही अंतिम निर्णय का अधिकार है।"
विश्वनाथ तिवारी की आत्मकथा 'अस्ति और भवति' उनके दार्शनिक चिंतन का द्योतक है। अस्ति और भवति आत्म से सर्वात्म और फिर विश्वात्मा की ओर प्रयाण की चेष्टा की गाथा है। २९ अध्यायों और ४२५ पृष्ठों की इस रचना में लेखक का आत्मनिरीक्षण तो है ही अपने परिवेश को जानने समझने का भी रोचक ग्रंथ है। लेखक ने संयम की खोज या आत्मज्ञान के लिए बुद्ध के निर्देश को आधार बना कर अपने अतीत की यात्रा की है। इस आत्मकथा का प्रारंभ बुद्ध से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर से शुरू होता है।
"भारतीय चिंतन में ऋत के साथ सत की अवधारणा है। ॠत एक ब्रह्मांडीय व्यवस्था है जिसे भक्ति का प्रवाह कह सकते हैं। उसके साथ सत का आधार भी होगा तो वह उस प्रवाह को संभव बनाए है। क्या है वह सत? मै नहीं जानता, मगर मै जो इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, भक्ति के प्रवाह में अस्ति की एक पुकार जरूर है।" विश्वनाथ जी हरिद्वार में गंगा की विपुल जलराशि के तीव्र अविरल प्रवाह को देखते हुए उससे तदाकार महसूस करते हैं, "मै यदि सत्य हूँ तो एक विराट प्रवाह का ही तो सत्य हूँ। सृष्टि के महाप्रवाह से निकटता की अनुभूति से उनका चिंतन ही नहीं उनकी भाषा भी प्रवाहमान हो उठती है, जो जा रहा है जगत है, अर्थात जहाँ कुछ भी स्थिर न हो, सब कुछ चला जा रहा है, कितनी मिलन की गूंजे, विरह की तड़पनें, कितनी शोक लहरियाँ, स्वाभिमान की दीप्तियाँ, दर्प की ठसके, यातना, दमन, और उत्सर्ग की अविश्वनीय कथाएँ सांस ले रही खंडहरों की हवाओं में, सारी महत्त्वकांक्षाएँ प्रपत्तियाँ, सारे विश्वास-अविश्वास, निष्पत्तियाँ, सारे मानवीय कर्म, फलाफल, सारी प्रेरणाएँ, प्रक्रियाएँ और पाप-पुण्य समाहित हो गए महा प्रवाह में।" आत्मकथा में उन्होंने सूत्रात्मक शैली में गंभीर और मानव-जीवन की अनिवार्य बातों को समाहित किया है। एक सूत्र वाक्य है, "कोई व्यक्ति चाहे जितनी दूर निकल जाए या जिस ऊँचाई पर पहुँच जाए, उसे उस जगह को नहीं भूलना चाहिए, जहाँ से वह चला था।" पुस्तक के समापन की ओर बढ़ते हुए विश्वनाथ जी कहते हैं, "उत्तर ना मिलना विवशता है मगर प्रश्न का ही न उठना मनुष्य के होने को ही संदेहास्पद बना देता है। क्या स्वयं सिद्धार्थ को इन्हीं अव्याकृत प्रश्नों की जिज्ञासा ने बुद्ध नहीं बनाया?"
'दिन रैन' डायरी हिंदी के एक अध्यापक, एक लेखक, आलोचक और संपादक की डायरी है तो इन की छवियाँ भी इसमें जगह जगह बिखरी है। जहाँ लेखक का सात्विक स्वाभाव तो बोलता ही है वहीं साहित्य, समाज, राजनीति, यात्राओं, गोष्ठियों, पुस्तकों, लेखकीय बतकहियों के अनेक अनिंद्य ब्योरे भी दर्ज हैं।
'एक नाव के यात्री' संस्मरणों का संग्रह जिसमें उन्होंने चार साक्षात्कार भी जोड़ दिए हैं। 'अतलांत पार से लौट कर' लेख में अमेरिका के बारे में इतनी जानकारी दी है, जिसे सामान्यतः यात्रा संस्मरण में देखा नहीं जाता है। 'आत्म की धरती' पुस्तक में लेखक ने कहा है, "भारत विविधताओं और विचित्राओं का देश है। आधा अंधकार में डूबता आधा प्रकाश में चमकता।"
इन्होंने माँ पर भी अनेक कविताएँ लिखी है मसलन ... उड़ गई माँ, अचानक नहीं गई माँ, नहीं दिखेगी माँ, यमदूत ढूंढ रहे हैं माँ को, कैसे जायेगी माँ, माँ नहीं थी वह, माँ और आग, एक दुर्लभ दृश्य, जंगलों का कटना,आदिवासियों का दर्द, इसे चाहिए एक हाथ आदि और अनेकों।
क्या तुम्हें यकीन है
मर जाएँगी जिजीविषाएँ
झर जाएँगी आस्थाएँ
सूख जाऐंगे सपने
व्यर्थ हो जाऐंगे शब्द
..........
नहीं, जरूर कुछ रह जाऐगा
इनकी कविताएँ अनुभवों और सपनों की मंजूषा है। आत्मा की धुन खोजती कविताएँ आदमी, बुद्ध, स्त्री, जानवर के चार बिंदुओं के माध्यम से समस्त जीवन को समेटती हुई जग की विराटता का एहसास करा देती है। जिसमें कोई बड़बोलेपन नहीं है। क्रांति की कोई मुद्रा नहीं है। विचारधारा की प्रतिबद्धता का आग्रह नहीं है। एक सहज कवि की नैसर्गिक ईमानदारी है।
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी : जीवन परिचय |
जन्म | १९४०, कुशीनगर जनपद, उतर प्रदेश |
पिता | पं० रामजतन तिवारी |
माता | श्रीमती गुलाबी देवी |
पत्नी | श्रीमती दुर्गावती देवी |
शिक्षा | एम० ए०, पी० एच० डी० |
कार्यक्षेत्र | गोरखपुर विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश से हिंदी विभागाध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू डिग्री कॉलेज महराजगंज में व्याख्याता और प्रिन्सिपल २०१३ से २०१७ तक की अवधि के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष
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साहित्यिक रचनाएँ |
कविता संग्रह | चीजों को देख कर १९७० साथ चलते हुए १९७८ बेहतर दुनिया के लिऐ १९८५ आखर अनंत १९९१ फिर भी कुछ रह जाऐगा २००८
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यात्रा संस्मरण | |
अनुवाद | ओडिया, गुजराती, मराठी, तमिल, नेपाली, तेलुगु, अँग्रेजी मे कविताओं का संकलन हजारी प्रसाद द्विवेदी (आलोचना ग्रंथ) गुजराती और मराठी में प्रकाशित अस्ति और भवति का मराठी में अनुवाद प्रकाशित रूसी, कन्नड, मलयालम, पंजाबी, राजस्थानी, बांग्ला, उर्दू, आदि भाषाओं में रचनाएँ अनूदित
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संपादन | |
शोध एवं आलोचना ग्रंथ | छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य १९६८ नये साहित्य का तर्कशास्त्र १९७५ आधुनिक हिंदी कविता १९७७ समकालीन हिन्दी कविता १९८२ रचना के सरोकार १९८७ हजारी प्रसाद द्विवेदी १९८९ कविता क्या है १९८९ गद्य के प्रतिमान ९९९६ कबीर १९९७ कुबेर नाथ राय २००७ आलोचना के हाशिये पर २००८ गद्य का परिवेश २०१३ साहित्य का स्वधर्म २०१८
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लेखकों के संस्मरण | |
डायरी | |
आत्मकथा | |
साक्षात्कर | मेरे साक्षात्कार २००१ बातचीत २०१४
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संकलित पुस्तकें | |
संपादित पुस्तकें | अज्ञेय १९७८ हजारी प्रसाद द्विवेदी १९८० प्रेमचंद १९८० आठवें दशक की हिन्दी कविता १९८२ रामविलास शर्मा १९८५ रामचंद्र शुक्ल १९८५ मुक्तिबोध १९८६ प्रतिनिधि कविताएँ : श्री कांत वर्मा १९८७ आठवें दशक की हिन्दी आलोचना १९९१ जयशंकर प्रसाद १९९२ निराला १९९७ महादेवी रचना संचयन ११९९८ तुलसीदास १९९९ बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य २००५ पुस्तक समीक्षा का परिदृश्य २००५ महात्मा गांधी : सहस्राब्द का महानायक २००९ अज्ञेय पत्रावली २०१२ आधुनिक भारतीय कविता संचयन २०१२ गौतम बुद्ध २०१९
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विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साहित्य पर प्रकशित पुस्तकें
| स्वप्न और यथार्थ के कवि - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, संपादक -अरविन्द त्रिपाठी कविता सबसे सूंदर सपना है, ए. अरविंदाक्षन साहित्य का स्वाधीन विवेक, संपादक ओम निश्छल विश्वनाथ तिवारी का काव्य ,डॉ जितेंद्र पांडेय लोकवाणी संसथान दिल्ली विश्वनाथ तिवारी का गद्य , डॉ जितेंद्र पांडेय लोकवाणी संसथान दिल्ली
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विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पर पत्रिकाओं के अंक | समावर्तन , उज्जैन ,अंक -१५ ,जून २००९ सृजन समीक्षा , उरई ,२०१० अभिनव इमरोज ,अंक -१२ दिसम्बर २०१५
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सम्मान व पुरस्कार |
महत्तर सदस्य्ता ,साहित्य अकादेमी ,नई दिल्ली २०१९ मूर्तिदेवी सम्मान ,भारतीय ज्ञानपीठ ,दिल्ली २०१९ गंगाधर मेहर राष्ट्रीय कविता पुरस्कार,सम्बलपुर विश्वविद्यालय २०१९ मैथिलीशरण गुप्त सम्मान ,मध्यप्रदेश शासन ,२०१६ कृतित्व समग्र सम्मान भारतीय भाषा परिषद्,कोलकात्ता २०१५ महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा २०१३ व्यास सम्मान, बिड़ला फाउंडेशन, दिल्ली २०१० शिक्षक श्री सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार २००८ हिन्दी गौरव सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, २००७ पुष्किन सम्मान, भारत मित्र संगठन, मास्को, रूस २००३ साहित्य भूषण सम्मान, , उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, २००० सरस्वती सम्मान, दस्तावेज पत्रिका उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,१९८५, ८८
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संदर्भ
लेखक परिचय
संतोष भाऊवाला
इनकी कविता कहानियाँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी है। वे कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहा लिखती है। रामकाव्य पियूष व कृष्णकाव्य पियूष व अन्य कई साँझा संकलन प्रकाशित हुए हैं।
ईमेल ; santosh.bhauwala@gmail.com
व्हाट्सएप्प ९८८६५१४५२६
सहज, सरल भाषा में लिखा आलेख । साहित्यकारों की जानकारी प्राप्त करने का सफल प्रयास ।
ReplyDeleteसंतोष जी, आपने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी की साहित्यिक चेतना और विचारों से परिचय सुंदर और सरल शब्दों में करवाया। आपका आलेख रोचक और ज्ञानवर्धक है। आपको इस लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteसंतोष जी नमस्ते। आपने डॉ. विश्वनाथ तिवारी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख से उनके जीवन एवं साहित्यिक यात्रा की कई बातें पढ़ने को मिली। उनकी कविताओं के भी अच्छे अंश आपने लेख में शामिल किए। आपको लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteसुंदर आलेख के लिए बधाई हो। नमस्कार
ReplyDeleteमीनाक्षी जी, दीपक जी, प्रगति जी, कामेश्वरी जी बहुत-बहुत धन्यवाद
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