Thursday, June 2, 2022

रमेश कुंतल मेघ : सौंदर्यबोध के नए आयामों की खोज में

 

हिंदी साहित्य में सौंदर्यबोध के नए आयामों को परखने और उद्घाटित करने वाले विशिष्ट चिंतक-आलोचक रमेश कुंतल मेघ का जन्म ०१ जून १९३१ में बुंदेलखंड के एक छोटे-से शहर सागरताल में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों से उत्तरप्रदेश के कानपुर, इलाहाबाद, बनारस से होती रही। पिता रेलवे सेवा में थे, स्थानांतरण होता रहा। परिवार के विषय में वे कहते हैं, "मेरे पिताजी मिडिल क्लास पास थे। मेरी मां निरक्षर भट्टाचार्या थीं।" विज्ञान विषय छोड़कर पारिवारिक विरोध के बावजूद वे साहित्य की दुनिया में जब आ गए, तो फिर मुड़कर नहीं देखा। यहीं आकर उन्होंने रमेश प्रसाद मिश्र से रमेश कुंतल और फिर कुंतल मेघ तक की यात्रा की। संस्कृत में भाषिक क्रांति के जनक आचार्य कुंतक और फिर बड़े बालों के कारण मेघ! उनकी अभिरुचि चित्रकला में भी थी, उनकी कई पुस्तकों के मुखपृष्ठ स्वयं उन्होंने बाद तक बनाए; किंतु दृष्टि संबंधी परेशानी के कारण इस कला को त्यागना पड़ा और वे साहित्य को समर्पित हुए। इस कला ने ही उन्हें वह सौंदर्याभिरुचि दी कि आगे के जीवन में सौंदर्य के संधान के प्रति समर्पण जागा। 

वे मानते हैं कि उनका चित्रकला का शौक सौंदर्य-शास्त्र के प्रति लगाव में बदला। कार्ल मार्क्स और हजारी प्रसाद द्विवेदी इन दोनों को वे गुरु का दर्जा देते हैं। द्विवेदी जी के प्रति अपनी आस्था को शब्द देते हुए वे कहते हैं, "मैं तो मिट्टी था, मुझे बनाया आचार्य जी ने।" अपनी जीवन-दृष्टि के संबंध में वे कहते हैं, "सब संस्कारों से गुजरा हूँ, लेकिन मैं ये सारी केंचुलें छोड़ता चला गया: एक केंचुल पकड़ ली मानवतावाद, मार्क्सिस्ट ह्यूमनिज्म।"

उन्होंने हिंदी साहित्य में एम०ए० और पी०एच०डी० उपाधि प्राप्त की। अध्ययन समापन पर मेघ जी का आरंभिक जीवन अध्यापक के रूप में बिहार प्रांत के आरा जिले से शुरू हुआ। प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग की भूमिकाओं में वे चंडीगढ़ (१९६०- ७४) जालंधर (छ: वर्ष), अंबाला से अंततः अमृतसर पहुंचे और लंबे अरसे तक यहाँ महत्त्वपूर्ण काम किया। वे अमेरिका में फुलब्राइट स्कॉलर भी रहे। १९९१ में वे गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय अमृतसर से सेवानिवृत्त हुए। 

अपने शिष्यों में प्रसिद्ध लेखक डॉ० गंगा प्रसाद विमल के लिए वे गर्व से कहते हैं, "गंगा प्रसाद विमल मेरे पहले पी०एच०डी० थे।"

वे केवल प्रोफ़ेसर रमेश कुंतल मेघ नहीं, जनवादी लेखक संघ पंजाब के अध्यक्ष कामरेड रमेश कुंतल के रूप में भी अपनी पहचान रखते हैं। सर्वप्रथम संपादक डॉ० विनय ने अपनी पत्रिका 'दीर्घा' का अंक रमेश कुंतल मेघ पर केंद्रित किया। 'पल प्रतिपल' पत्रिका के संपादक देश निर्मोही ने सितंबर-दिसंबर अंक में लिखा, "प्रस्तुत अंक में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक रमेश कुंतल मेघ पर विशेष खंड केंद्रित किया जा रहा है। इस खंड में उनका आत्मकथ्य, विनोद शाही से उनकी लंबी बातचीत और डॉ० मैथिली प्रसाद भारद्वाज का उनकी समीक्षा-दृष्टि पर एक विस्तृत मूल्यांकन हासिल किया गया है। यह पूरी सामग्री रमेश कुंतल मेघ को एक दार्शनिक, सौंदर्यशास्त्री, समाज-विज्ञानी एवं गंभीर आलोचक के रूप में हमारे सामने रखती है।" उन पर एक पुस्तक डॉ० अश्विनी पाराशर ने संपादित की है, 'अनंत से अशेष तक' जो उनकी २००४ से २०१८ तक की जीवन और साहित्य यात्रा को समेटती है। 'बरोह' पत्रिका ने वर्ष २०१९ में एक बार फिर डॉ० मेघ के मूल्यांकन का प्रयास किया। बनारस जन पत्रिका का मेघ केंद्रित अंक डॉ० प्रदीप सक्सेना के संपादन में फरवरी २०२२ में आया। पत्रिका के 'अपनी ज़मीन से' शीर्षक के अंतर्गत मेघ जी को सौंदर्य-तत्त्ववेत्ता, समाज-दार्शनिक, कला-सिद्धांतकार, आलोच्य-चिंतक कहकर संबोधित किया गया है।  

इस समग्र अध्ययन के सार स्वरूप यह कहा जा सकता है कि डॉ० रमेश कुंतल मेघ का अध्ययन मुख्यतः आधुनिकता, सौंदर्यशास्त्र, समाजशास्त्र और मिथक जैसे क्षेत्रों का संस्पर्श करता है। हिंदी जगत को उनकी देन यह है कि आलोचना में अंतरानुशासन को महत्त्व देते हुए उन्होंने मध्यकालीन संस्कृति और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय अध्ययन की पहल की। उन्होंने मध्यकालीन सौंदर्यशास्त्र का विश्लेषण किया। वे कृति की सौंदर्य-दृष्टि और सामाजिक भूमिका के माध्यम से मूल्यांकन करने वाले आलोचक हैं। 'तुलसी आधुनिक वातायन से' और 'मन खंजन किनके' कृतियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। 


उनकी व्यावहारिक आलोचना 'क्योंकि समय एक शब्द है' जैसी कृति में रूप पाती है, तो पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से भी उन्होंने अपनी स्थापनाएँ की हैं। डॉ० मेघ के जादुई व्यक्तित्त्व को साहित्य का 'पारंपरिक और आधुनिक सौंदर्य-शास्त्रीय व्याख्याकार' कहकर शब्द-बद्ध करने की कोशिश की गई है। 


आलोचक मानते हैं कि डॉ० रमेश कुंतल मेघ ने हिंदी आलोचना को काव्यशास्त्र के घेरे से बाहर निकाल कर समाजशास्त्र और सौंदर्यबोध के शास्त्र से जोड़ने का बड़ा काम किया। उनकी नई निष्पत्तियों और नई अवधारणाओं को मान देने का आग्रह भी रहा है। हिंदी की कई पत्र-पत्रिकाओं में उनकी मान्यताएँ और स्थापनाएँ बहस का मुद्दा बनी और पर्याप्त वाद-विवाद हुआ। अपनी कृतियों में वे चुनौती, प्रश्न और समस्याएँ उठाते रहे हैं; इसलिए उनके लेखन में संप्रेषण और कठिनाई के मद्देनज़र पाठक की ओर से विशेष बौद्धिक तैयारी की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। उन्होंने साहित्यिक कृतियों, कृतिकारों, मूर्तिकला, चित्रकला और वास्तु जैसे विषयों पर विविधतापूर्ण विचार प्रकट किए हैं। कविता के संदर्भ में उनका एक महत्त्वपूर्ण कथन है, "छंद अगर कविता से चला गया है तो हिंदी कविता लोक के पास नहीं जा पाएगी। छंद लोक के पास ले जाता है।"


मिथकों पर अपने महत्वपूर्ण कार्य में उनकी यह दृष्टि व्यक्त हुई है, "प्रतीकों के रूप (फॉर्म्स) तो राष्ट्रीय होते हैं, किंतु अंतर्वस्तु (कंटेंट) वैश्विक।"


सृजन के क्षेत्र में मेघ जी का आलोचना कर्म 'प्रसाद और उनकी कामायनी' से आरंभ होता है। उसके बाद उनके लेखन की विशद शृंखला से हमारा साक्षात्कार होता है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं,

  • मिथक और स्वप्न : कामायनी की मनस्सौंदर्य सामाजिक भूमिका (१९६७)

  • तुलसी : आधुनिक वातायन से (१९६७) 

  • आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण (१९६९)

  • मध्ययुगीन रस दर्शन और समकालीन सौंदर्य बोध (१९६९) 

  • क्योंकि समय एक शब्द है (१९७५) 

  • कला शास्त्र और मध्ययुगीन भाषिकी क्रांतियाँ (१९७५) 

  • सौंदर्य-मूल्य और मूल्यांकन (१९७५) 

  • अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (१९७७) 

  • साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (१९८०)

  • वाग्मी हो लौ! (१९८४) 

  • मन खंजन किनके? (१९८५)

  • कामायनी पर नई किताब (१९९५) 

इनके अतिरिक्त खिड़कियों पर आकाशदीप, शील और सौंदर्य, मिथक से आधुनिकता तक, मानव देह और हमारी देह भाषाएँ पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ।

निस्संदेह उनके लेखन, सृजन और चिंतक की कुछ सीमाएँ भी हैं। भाषा के स्तर पर दुरूहता इनमें से एक है। वे एक कठिन आलोचक माने जाते हैं। बहुत-सी स्वरचित शब्दावलियों ने उनके लेखन की दुरूहता को बढ़ाया। 'विश्व मिथक सरित्सागर' से इसका एक उदाहरण पर्याप्त है, "मिथक के रहस्य से संदर्श की माया तक का एक विशृंखल सिलसिला है जिसके बीच रूपक एवं मिथ्यात्व, अवचेतन एवं अनिवर्चनीयता छाई है। गोया मिथक का चमत्कार, संदर्श का मायावरण एवं सौंदर्य की अनुभूति तीनों एक तान हैं।"

इस प्रसंग में वे स्वयं कहते हैं, "एक चुटकुला मेरे बारे में बनाया कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गंगा प्रसाद विमल से कहा कि विमल कुंतल की किताब आई है, ज़रा इसका हिंदी अनुवाद तो करके हमें पढ़ा दो...यह मुहावरा बड़ा चल गया।"

उनके व्यक्तित्त्व का एक संवेदनशील पहलू उन पत्रों में उजागर होता है, जो उन्होंने प्रियजनों को लिखे। इन पत्रों में रमेश कुंतल मेघ कुछ अलग तरह से पेश आते हैं। उनके जीवन-मूल्यों और जीवन की ऊष्मा का परिचय मिलता है। जब एक पत्र में वे कहते हैं, “ऊम्र ऐसी है हम सभी की, कि कुछ लाभों के लिए समझौतों का बीमा भी गुपचुप करते चलते हैं।” 

एक अन्य पत्र में साहित्यिक परिदृश्य पर यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं, "हिंदी संसार सर्वत्र एक जैसा है: चावल, दाल, तिल और कंकड़ों का मिश्रण। एक भयानक तथा दर्दनाक स्थिति है कि अस्मिता मिट गई है, आत्मरति में लेखक मंत्रमुग्ध हैं, ‌‌...चारों ओर घटियापन-अनगढ़पन के माहौल में सभी लोग प्रतिभाशाली होने के मुखौटों से लैस हैं। व्यक्तिवाद और उपभोक्तावाद में यही नियति होती है: हर रचना और संस्कृति वस्तु बन जाती है, ...उपयोग-उपभोग की हेतु। तुम जैसे लोग आत्मदीप जलाए संघर्ष करते रहते हो। मैं भी तो यही करता आ रहा हूँ।" कभी बहुत सादगी से मित्र को टेरते हैं, कभी इधर भी आओ। संबंधों के लिए यह साझेदारी भी लाजिमी होती है।"

हिंदी जगत में प्रोफ़ेसर मेघ के योगदान को महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने अपनी-अपनी तरह से प्रस्तावित किया है। डॉ० शिव कुमार मिश्र ने यदि उन्हें सौंदर्यबोध-शास्त्र का गंभीर और मर्मी व्याख्याता कहा है, तो डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल के शब्दों में, "सौंदर्यबोध-शास्त्र क्या है? शिव की जटाएँ हैं, जिन्हें सुलझाने में डॉ० मेघ ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। ...सौंदर्यबोध-शास्त्र के क्षेत्र में डॉ० मेघ का प्रदेय अविस्मरणीय है।"

डॉ० रमेश कुंतल मेघ : जीवन परिचय

वास्तविक नाम

रमेश प्रसाद मिश्र

जन्म

०१ जून १९३१

गुरु

कार्ल मार्क्स और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

अध्ययन की दिशाएँ

कला, दर्शन, सौंदर्य-शास्त्र, मिथक

शिक्षा व कार्य-क्षेत्र

स्नातक

प्रयाग विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

स्नातकोत्तर

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस

पी०एच०डी०

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस

कार्य-क्षेत्र (अध्यापन)

  • महाराजा कॉलेज आरा बिहार १९५७-१९६६ 

  • पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ १९६६-१९७२

  • गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर १९७२-१९८६-१९९२

  • लखनऊ विश्वविद्यालय (विजिटिंग प्रोफ़ेसर) १९९२-१९९३

  • यूनिवर्सिटी ऑफ़ अराकांसस अमेरिका २०००-२००१

साहित्यिक रचनाएँ

  • मिथक और स्वप्न : ‘कामायनी’ की मनस्सौंदर्य सामाजिक भूमिका (१९६७)- ग्रंथम, रामबाग, कानपुर

  • तुलसी : आधुनिक वातायन से (१९६७)- राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

  • आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण (१९६९)- अक्षर प्रकाशन (प्रा०लि०)

  • मध्ययुगीन रस दर्शन और समकालीन सौंदर्य बोध (१९६९)- राधाकृष्ण प्रकाशन

  • क्योंकि समय एक शब्द है (१९७५)- लोकभारती प्रकाशन

  • कला शास्त्र और मध्ययुगीन भाषिकी क्रांतियाँ (१९७५)- गुरुनानक वि०वि०

  • विश्व मिथक सरित्सागर

  • सौंदर्य-मूल्य और मूल्यांकन (१९७५)- नेशनल पब्लिशिंग हाउस

  • अथातो सौंदर्य जिज्ञासा (१९७७)- वाणी प्रकाशन 

  • साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक (१९८०)- नेशनल पब्लिशिंग हाउस

  • वाग्मी हो लौ ! (१९८४)

  • मन खंजन किनके? (१९८५)- वाणी प्रकाशन

  • कामायनी पर नई किताब (१९९५) 

पुरस्कार व सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार २०१७, ('विश्व मिथक सरित्सागर' के लिए)


संदर्भ

  • विश्व मिथक सरित्सागर

  • पत्रिका बनास जन फरवरी २०२२ 

  • विकीपीडिया


लेखक परिचय

डॉ० विजया सती 

पूर्व एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
पूर्व विजिटिंग प्रोफ़ेसर, ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी
पूर्व प्रोफ़ेसर हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया

प्रकाशनादि- राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति और उनका प्रकाशन

संप्रति - स्वांतः सुखाय, लिखना-पढ़ना

ईमेल - vijayasatijuly1@gmail.com

8 comments:

  1. २०१७ में किस कृति पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ?
    खिड़कियों पर आकाशदीप, शील और सौन्दर्य, मानव देह... आदि पुस्तकों के नाम व प्रकाशन वर्ष क्या तालिका में उल्लेख के योग्य नहीं हैं?

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  2. हिन्दी महान साहित्य- मनीषी,आलोचक, प्रखर चिन्तक एवं चित्रकार डॉ.रमेश
    कुन्ती के बहु-आयामी विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित डॉ.विजया
    सती का लेख "रमेश कुन्तल मेघ: सौन्दर्य-बोध के नये आयामों की खोज में"
    मनोयोगपूर्वक पढ़ा। विदुषी लेखिका ने मेघ जी के सौन्दर्य- बोधीय पक्ष को
    बड़ी बारीकी से विवेचित किया है और अनेक डॉ.मेघ के साहित्य में सौन्दर्य
    के तत्व के वैशिष्ट्य को अनेक साहित्यकारों के मन्तव्यों एव कथनों से अपने
    विचारों की पुष्टि की है। वस्तुतः रोमांटिकयुगीन अंग्रेजी कवियों की सौन्दर्य-
    भावना से लेकर छारावादी चेतना तक स्थूल एवं सूक्ष्म तत्वों में सौन्दर्य-बोध
    की अवधारणा रही है। प्रकृति (नारी) -सौन्दर्य शील यानी अन्तःसौन्दर्य है
    जिसके प्रति मेघजी की संकल्पना अतिरिक्त ध्यानाकर्षक करती है। इस पक्ष
    के प्रति लेखिका का विश्लेषण का होना लाजिमी था। खैर लेख शोधात्मक
    प्रकृति का तथा विशेष ज्ञानवर्धक है।
    है।
    हिन्दी से प्यार है: तिथिवार साहित्यकार के अन्तर्गत आलोच्य आलेख
    पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। तदर्थ सम्पादक समूह को साधुवाद!
    डॉ.राहुल,नई दिल्ली (भारत)

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  3. विजया जी, रमेश कुंतल मेघ के जीवन और उनकी साहित्यिक यात्रा से रोचक और ज्ञानवर्धक आलेख के माध्यम से परिचय कराने के लिए आपका हार्दिक आभार। सराहनीय आलेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. आप सभी का हार्दिक आभार
    मैं अपनी सभी कमियों को सहज स्वीकार करती हूं
    इस अनूठी प्रतिभा को शब्द सीमा में बांधना मुश्किल था, क्या छोडूं, क्या लूं ?
    मेघ जी पर यह मेरा पहला आलेख है, कुछ और विस्तार दूंगी तो सब समेट पाऊंगी
    सादर अभिवादन सहित

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  5. साहित्य अकादमी पुरस्कार विश्व मिथक सरित्सागर पर.
    लिखा था, फिर भूल से छूट गया
    क्षमाप्रार्थी हूं

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  6. डॉ. विजया मैडम नमस्ते। आपने हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण चिंतक-आलोचक रमेश कुंतल मेघ जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख शोधपूर्ण एवं रोचक है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  7. विजया जी, नमस्ते। एक बार फिर आपके आलेख ने ज्ञानवर्धन किया, आनंद की अनुभूति कराई। पत्रिकाओं में एक साहित्यकार को समर्पित इतने विशेषांक छपे, यह तथ्य ही साहित्य-जगत में उसकी पैठ को सिद्ध करते हैं। आपने उनके ज़रिये कई दिलचस्प पहलुओं को मेरे लिए उजागर किया, विशेषकर सौंदर्यबोध-शास्त्र के। चिंतक-आलोचक, कामरेड रमेश कुंतल मेघ जी को नमन। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

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