सत्येंद्रनाथ ठाकुर एक मशहूर लेखक, कवि, अनुवादक, साहित्यकार और समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। ये भारत के प्रथम आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेज) अधिकारी थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के गर्व को खंडित कर आईसीएस में चयनित हो कर दिखाया।
सत्येंद्रनाथ का जन्म १ जून १८४२ में 'जोरासांको' कोलकाता में हुआ। उनके पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर और माँ शारदा देवी थीं। उनके तेरह भाई-बहन थे, जिसमें से विश्व प्रसिद्ध कवि रवींद्रनाथ ठाकुर उनके छोटे भाई थे। राजेंद्रनाथ, बीरेंद्रनाथ, सोमेंद्रनाथ, सुवर्णाकुमारी, सुकुमारी, वर्णकुमारी ये सभी उनके सहोदर थे। उन सभी को साहित्य और कला के क्षेत्रों में प्रसिद्धि प्राप्त थी।
सत्येंद्रनाथ एक कुशाग्र विद्यार्थी थे। उन्होंने घर पर ही अंग्रेजी और संस्कृत सीखी। हिंदू स्कूल में पढ़ने के बाद सत्येंद्र ने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढ़ाई की। वे कोलकाता यूनिवर्सिटी की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों के प्रथम बैच से थे।
आईसीएस - इंडियन सिविल सर्विसेज़
ब्रिटिश काल में सन १८६१ में इंडियन सिविल सर्विसेज एक्ट पास हुआ था। इसके तहत भारतीय सिविल सेवा का गठन हुआ। सत्येंद्रनाथ और उनके मित्र मनमोहन घोष ने आईसीएस परीक्षा देने की ठानी और १८६२ में लंदन जाकर तैयारी शुरू कर दी। १८६३ में सत्येंद्रनाथ आईएएस में चयनित होने वाले पहले भारतीय बने। एक भारतीय के लिए यह आसान नहीं था, जबकि तब परीक्षा में अधिकतम अंक यूरोपियन क्लासिकस को दिए जाते थे।
१८६४ में सत्येंद्रनाथ सिविल सर्विसेज की ट्रेनिंग कर के भारत लौट आए।
कार्यकाल
उनकी पहली नियुक्ति बॉम्बे प्रेसिडेंसी में हुई। उसके बाद १८६५ में अहमदाबाद में असिस्टेंट मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के पद पर रहे। उन्होंने अपने काम से संबंधित देश भर में यात्रा की, इससे उनको बहुत सी भाषाएँ सीखने में मदद मिली और अन्य संस्कृतियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। उनके तबादलों के साथ बदलते घरों में उनके साथ रहने उनके भाई-बहन आया-जाया करते रहते। रवींद्रनाथ तो कितनी ही बार उनके पास आ कर रहे। रवींद्र की पहली इंग्लैंड यात्रा पर सत्येंद्रनाथ ही उनके साथ विलायत गए थे।
उन्होंने लगभग ३० वर्षों तक सरकारी कार्यभार संभाला और अंत में १८९७ में महाराष्ट्र के सतारा के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
वैवाहिक जीवन
१७ साल की उम्र में उनका विवाह आठ वर्षीय ज्ञानदानंदनी मुखोपाध्याय से हुआ। विवाह के पश्चात वे अपनी पत्नी को भी लंदन ले जाना चाहते थे, लेकिन उनके पिता देवेंद्र नाथ ने अनुमति नहीं दी। सत्येंद्रनाथ के भारत वापस आने पर ज्ञानदानंदनी देवी उनके साथ मुंबई रहने चली गई। सत्येंद्रनाथ ने महिलाओं की आजादी और उत्थान में भी अहम भूमिका निभाई, जिसमें उनकी पत्नी ज्ञानदानंदनी ने उनका पूरा-पूरा सहयोग दिया। वे उल्टे पल्ले की साड़ी पहनने वाली पहली भारतीय स्त्रियों में से एक थीं! उन्होंने १८८५ में पहली बांग्ला बाल पत्रिका 'बालक' निकाली और उसका संपादन किया। रवींद्रनाथ ठाकुर ने सबसे पहले बच्चों की कविताएँ उसी पत्रिका के लिए लिखीं थीं।
जब सत्येंद्रनाथ मुंबई में थे तो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नी की तरह उन्होंने अपनी पत्नी को वहाँ बिना परदे के, पूरी स्वतंत्रता से रखा। जब वे कोलकाता वापस आए तो वायसराय के आमंत्रण पर गवर्नमेंट हाउस में आयोजित एक पार्टी में अपनी पत्नी को साथ ले गए। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि एक बंगाली महिला किसी ऐसे समारोह में सम्मिलित हो। यह एक साहसिक कदम था और संभ्रांत और उच्च श्रेणी के बंगाली महिलाओं के लिए पर्दा प्रथा से बाहर निकलने का प्रथम प्रयास भी।
ऐसा एक और साहसिक कदम उठाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे को एक रिश्तेदार के यहाँ अकेले इंग्लैंड भेज दिया। फिर कुछ दिनों बाद वे रिश्तेदार के यहाँ से हटकर स्वयं ही एक अलग घर लेकर रहने लगीं। यह बंगाली समाज में उथल-पुथल मचाने वाली खबर थी। सत्येंद्रनाथ के सहयोग की वजह से वे यह कर पाईं। उनके पुत्र का नाम सुरेंद्रनाथ ठाकुर और पुत्री का नाम इंदिरा देवी चौधरानी पड़ा। इंदिरा ने स्वयं एक नामी लेखिका, साहित्यकार और संगीतकार के रूप में नाम कमाया। बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर उनसे मिलने लंदन जाते थे। सत्येंद्रनाथ की पुत्री इंदिरा देवी ने बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ बहुत काम किया। अंत में सभी लौट कर भारत आ गए।
हिंदू मेला
१८७६ में सत्येंद्रनाथ ठाकुर बेलगछिया कोलकाता में स्थपित हिंदू मेला से जुड़े और इसके लिए बहुत सारे देशभक्ति के गीत लिखे। यहाँ सभी हिंदुओं को संगठित कर देश के लिए सोचने और देश प्रेम जागृत करने के लिए सभाएँ होती थीं। इसका कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था, अपितु ये देशप्रेम से संबंधित थीं। यह मेला प्रतिवर्ष चैत्र संक्रांति को आयोजित किया जाता था, जिसमें देशभक्ति के गीत और व्याख्यान हुआ करते थे। इन्हीं गीतों में सत्येंद्रनाथ का गीत, "मिले सबे भारत संतान एकतान मनोप्राण गाओ भारतेरो जशोगान" बहुत प्रसिद्ध हुआ।
"मिले शोबे भारोतेर शॉन्तान एक तान मोनोप्राण गाओ भारोतेर जशोगान
शॉबे भारोत शॉन्तान
भारोत भूमि तुल्य आछे कोनो स्थान
शॉबे भारोत शॉन्तान
कोनो आद्रि कोनो आद्रि हिमाद्रि शॉमान
भारोत भूमि तुल्य आछे कोनो स्थान
फूलोवति बोशुमति शॉतशति पुण्य वति
शॉतखोनि शॉतखोनि रत्नेर निदान
भारोतेर जय, गाओ भारोतेर जय
की भय की भय
गाओ भारोतेर जय"
अर्थात….
हम सब भारत के संतान मिल कर मन से भारत का यश गान गाएँ
भारत भूमि के समान कोई भूमि नहीं है
हमारे हिमालय के समान कोई पर्वत नहीं है
हमारी वसुंधरा फूलों से सजी है,
हमारे देश में रत्नों का भंडार है ,
हमें किस बात का डर है
आओ भारत का यशगान गाएँ
ये देशभक्ति और देशप्रेम से ओतप्रोत गीत आज भी सबके रोंगटे खड़े कर देता है। इसे प्रथम राष्ट्रगान भी कहा जाता है।
ब्रह्म समाज
राजा राममोहन रॉय ने जब ब्रह्मसमाज की स्थापना की, तब सत्येंद्र के पिता देवेंद्रनाथ ने उसमें पूरा सहयोग दिया और स्वयं को इस कार्य के लिए समर्पित कर दिया। अपने पिता के साथ-साथ सत्येंद्रनाथ का भी ब्रह्म समाज के प्रति झुकाव था और वे उसके प्रचार व प्रसार के लिए काम करते थे। सत्येंद्रनाथ ने इंग्लैंड में भी ब्रह्म समाज का प्रसार किया और जर्मन के भाषाविद और विशारद मैक्समुलर को भी इससे अवगत कराया। १९०७ में सत्येंद्रनाथ ब्रह्मसमाज के प्रसिडेंट और आचार्य बने। उनके बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ ठाकुर भी वहाँ आचार्य थे। द्विजेंद्रनाथ अपने भाई सत्येंद्रनाथ के बहुत करीब थे, परंतु द्विजेंद्रनाथ समाज के पारंपरिक सुधारों के अनुयायी थे जबकि सत्येंद्रनाथ इन सुधारों को तोड़ने और एक नया आधुनिक समाज बनाने के पक्ष में थे।
साहित्यिक यात्रा
सत्येंद्रनाथ एक प्रसिद्ध लेखक, बहु भाषाविद, साहित्यकार और संगीतकार थे। उन्होंने अंग्रेजी और बांग्ला भाषा में बहुत से किताबें लिखीं जिनमें से प्रमुख हैं
१- सुशीला और बीरसिंह (नाटक १८६७)
२- बॉम्बे चित्र (१८८८)
३- नवरत्न माला
४- बौद्ध धर्म (१९०१)
५- भारतवर्षीय इंग्रेज (१९०८)
६- राजा राममोहन रॉय
७- स्त्री बंधिता
८- अमार बाल्यकथा ओ बॉम्बे प्रबास (१९१५)
९- श्रीमद्भागवत गीता (बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित “गीता रहस्य” का बांग्ला अनुवाद)
१०- उन्होंने बांग्ला साहित्य को संत तुकाराम से परिचित कराया और उनके अभंगों का बांग्ला में अनुवाद किया
११ - अमार बाल्यकथा
१२ - कालिदास रचित मेघदूत का बांग्ला में अनुवाद
१३ - अपने पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर की बांग्ला आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद
आदि।
उन्होंने बहुत सारे देशभक्ति गीत लिखे जिसमें से एक बांग्ला गीत "मिले सब भारतो संतान" जो कि हिंदू मेले में गाया जाता था, बहुत प्रसिद्ध हुआ।
सत्येंद्रनाथ ठाकुर ने कुछ समय तक तत्वबोधिनी पत्रिका का संपादन भी किया।
बॉम्बे चित्र में उन्होंने संत तुकाराम से प्रभावित होकर बहुत कुछ लिखा है। "सुशीला बीरसिंघा" एक नाटक है जो उन्होंने १८६७ में लिखा था। यह एक अंग्रेजी नाटक का रूपांतरण है। "अमार बाल्यकथा" इनकी अपनी कहानी है। सत्येंद्रनाथ के अनुसार जब ९ वर्ष में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हो रहा था तब उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी, उन्हें केवल वह खीर खाने को मिलती थी जो उन्हें बहुत पसंद थी। आह रे बाल मन!
"द ऑटो बायोग्राफी ऑफ महात्मा देवेंद्रनाथ ठाकुर" में उन्होंने अपने पिता के बारे में लिखा है। सत्येंद्रनाथ ठाकुर अपने पिता से बहुत प्रभावित थे। एक संस्मरण के अनुसार देवेंद्रनाथ सभी नवरत्नों के बीच बैठें हैं और श्वेत वस्त्र धारण किए हुए ऐसे लग रहें हैं मानों स्वयं अडिग पर्वत हो जिसके समक्ष कोई विघ्न, विघ्न नहीं रहता। वे अचल, अडिग हैं।
उनकी और राजा राममोहन रॉय की वजह से ही सत्येंद्रनाथ का ब्रह्म समाज की तरफ झुकाव हुआ था।
सत्येंद्रनाथ १९०० से १९०१ तक बांगिय साहित्य परिषद के प्रधान रहे।
अंतिम काल
अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर वे कोलकाता वापस आ गए। जब वे पाक स्ट्रीट में रहते थे उनका घर एक तरह से साहित्यिक मजलिस हुआ करता था। शहर के नामी गिरामी लोग वहाँ मिला करते थे और साहित्यिक मंडली जमा करती थीं। ९ जनवरी १९२३ को ८० साल की उम्र में उनका देहावसान हो गया।
संदर्भ
https://:scotstagore.org/satyendranath-tagore-1842-1923-brotherofrabondranath-by-christine-kupter/
https://:www.bhaskar.com>news
https://hi.m.wikipedia.org>wiki
https://www.samenyagyan.com/hindi/biography-satyendranath-tagore
Blog- The Scottish centre of Tagore studies
https://en-academic.com/dic.nsf/enwiki/3674221
बहुत सार्थक प्रस्तुति, अचला जी, सत्येंद्रनाथ ठाकुर जी का संबंध महाराष्ट्र से भी रहा। सातारा से वे सेवानिवृत्त हुए।भारत की कई भाषा सीखने का मौका मिला। कई भाषाओं की जानकारी उनके काम उस समय आई जब उन्होंने संत तुकाराम और बाल गंगाधर तिलक की किताबों का बांग्ला में अनुवाद किया।
ReplyDeleteमहाराष्ट्र रहते समय उनके अनेक पत्र अब तक अप्रकाशित थे।
महाराष्ट्र के अहमदनगर शहर निवासी मेरे मित्र सुप्रसिद्ध बांग्ला अनुवादक एवं साहित्य अकादेमी पुरस्कृत श्री विलास गीते जी ने सत्येंद्रनाथ और रवींद्रनाथ के पत्राचार का मराठी अनुवाद किया है।
अचला जी, निर्भीक और इरादे के पक्के सत्येंद्रनाथ ठाकुर जी की आपने एक सुन्दर और समग्र तस्वीर पेश की है। स्त्रियों के सम्बन्ध में उनके द्वारा उठाए गए क्रन्तिकारी क़दमों के चलते हमारा समाज आज इस स्थान तक पहुँचा है, निश्चित अभी बहुत आगे जाना है, पर शुरुआत कितनी मुश्किल रही होगी इसका अंदाज़ा लगाना तक कठिन है आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं सरल शब्दों से सजा हुआ लेख हैं। आदरणीय सत्येन्द्रनाथ ठाकुर जी का जीवन और साहित्यिक परिचय भी अत्यंत सुसज्जित मात्रा में रखा गया हैं। सौम्य लेखन के लिए आदरणीया अचला जी को हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअचला जी नमस्ते। आपने सत्येन्द्रनाथ ठाकुर जी पर एक अच्छा लेख लिखा। इस लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं समाजिक, साहित्यिक योगदान को जानने का अवसर मिला। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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