Thursday, June 23, 2022

मध्यवर्गीय जीवन को बाँचते सजग कवि : भारत भूषण अग्रवाल

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‘संचारित करो कुछ नव-आशा

बदलो जीवन की परिभाषा 

परियों के गाने सीख चुके 

सीखो मानवता की भाषा 

युग-धर्म यही तो कहता है’


जीवंत भाषा में गढ़ी, मानवता को परिभाषित करती कलात्मक अभिव्यक्ति से युक्त ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो सरल, सहज प्रवाह व लय का पालन करती हुई, बिना किसी अटकाव के अपनी बात कहती हैं और सुचिंतन की धरती पर पुष्पित-पल्लवित विचारयुक्त उस सशक्त कलम की ओर ले जाती हैं, जो संवेदनशीलता और यथार्थवादी दृष्टिकोण से मध्यवर्गीय मन को साधने के लिए नए-नए प्रयोग अपनी कविताओं में करती रही। यह कलम निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ जिस कवि के हाथों में शोभायमान रही और हिंदी साहित्य के फलक को विस्तार देती रही, वे कवि और कोई नहीं, अज्ञेय द्वारा संपादित कृति ‘तार-सप्तक’ के महत्वपूर्ण कवि भारत भूषण अग्रवाल जी हैं।

      छायावादोत्तर हिंदी कविता और आधुनिक भाव-बोध के सशक्त हस्ताक्षर भारत भूषण अग्रवाल जी का जन्म ३ अगस्त, १९१९ को तुलसी जयंती के दिन मथुरा(उत्तर प्रदेश) के सतघड़ा मोहल्ले में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा मथुरा और चंदौसी में हुई, फिर उच्च शिक्षा आगरा और दिल्ली में पूरी हुई। वह बचपन से ही काव्य-कला में प्रवीण होने लगे थे। तार सप्तक के लिए दिए गए वक्तव्य में वे कहते हैं -“स्कूल की प्रारंभिक कक्षाओं में दूसरों की कविता कंठस्थ कर उनकी आवृत्ति करने ने ही संभवतः मुझे कविता की ओर प्रेरित किया।‘ इसी प्रेरणा के चलते, १९३६ में १७ वर्ष की आयु में उनकी पहली कविता माधुरी में प्रकाशित हुई थी। भारतभूषण  जी की पत्नी बिन्दु अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘कुछ यादें, कुछ चर्चाएं’ में, चम्पा अग्रवाल, हाईस्कूल में अध्यापक रहे डॉ. सत्येन्द्र बताते हैं- “भारत भूषण एक विशिष्ट छात्र थे। अपने आचरण के शील और माधुर्य के साथ अपनी प्रतिभा की जगमगाहट से वे सभी प्राध्यापकों के प्रिय हो गए थे। उनमें श्रद्धा का विशेष गुण था। इसी श्रद्धा के कारण वे जब सेंट जान्स कॉलेज, आगरा में बी. ए की पढ़ाई कर रहे थे, तब अपने घनिष्ठ मित्र नेमिचन्द्र जैन के साथ मथुरा आकर मुझसे हिंदी पढ़ा करते थे।“


१९४१ में भारत भूषण जी नौकरी की तलाश में कलकत्ता गए जहाँ उन्होंने मारवाड़ी समाज के मुखपत्र ‘समाज सेवक’ का सम्पादन किया। उन्होंने एक कारख़ाने में भी काम किया फिर साहित्यिक संस्थानों में उच्च पदस्थ कर्मचारी बने। बाद में इलाहाबाद की ‘प्रतीक’ पत्रिका से संबद्ध हुए और १९४८-५९ तक आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी रहे। इसके उपरांत उन्होंने १९६०-७४ तक साहित्य अकादमी, दिल्ली के उपसचिव के रूप में कार्य किया और अकादमी के प्रकाशनों तथा कार्यक्रमों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने में अपना योगदान दिया। १९७५ में शिमला के उच्चतर अध्ययन संस्थान से विज़िटिंग फ़ेलो के रूप में संबद्ध हुए और मृत्युपर्यंत 'भारतीय साहित्य में देश-विभाजन' विषय पर शोध करते रहे। अपनी व्यंग्यमुखर प्रखरता के नाते उनकी रचनाएं जहां अपने समकालीनों से सर्वथा अलग प्रतीत होती हैं, वहीं संदर्भगत समस्याओं और सामाजिक सरोकारिता के कारण आज भी  प्रासंगिक हैं: 

‘एक सांस्कृतिक चूहे की तरह
कुतरता रहा हूँ
कभी लोक-प्रथाएँ, कभी इतिहास के पन्ने
और कभी सड़क दुर्घटनाएँ
पहले मित्र बनाए
और फिर परिवार
बरसों एक राजनीतिक पार्टी के बनाने में मशगूल रहा
दफ़्तर में अफ़सर बनाता रहा
और शामों को एक साहित्यिक संस्था
पर अब सोचता हूँ यह सब बनाना छोड़कर
अगर मैं ख़ुद कुछ बन सकूँ।‘

अग्रवाल जी के काव्य में भाषा का प्रयोग भावों के अनुकूल किया गया है। उनकी कविताओं में अनेक नवीन उपमानों के प्रयोग देखे जा सकते हैं। प्रयोगवादी कवि होने के नाते, उनके काव्य में घोर अहंनिष्ठता देखी जा सकती है। उन्होंने जीवन के सुख-दुःख को नितांत वैयक्तिक आधार पर व्यक्त किया है। उन्होंने रूढ़ियों को कभी नहीं स्वीकारा। भारत भूषण का आत्मविश्वास और उनकी काव्य-संपदा अपने कहन, शिल्प और भाव-भंगिमाओं में अनूठी, सुपठनीय और माधुर्य से परिपूर्ण मानी जाती है। इनकी कविताएँ आम जन की पीड़ा के पक्ष में खड़ी मिलती हैं। 'अहिंसा', 'चलते-चलते', 'परिणति', 'प्रश्नचिह्न', 'फूटा प्रभात', 'भारतत्व', 'मिलन', 'विदा बेला', 'विदेह' जैसी कविताएँ चिंतन और मनन को प्रेरित करती हैं। 'उतना वह सूरज है' कविता-संग्रह पर उन्हें १९७८ का साहित्य अकादमी सम्मान मिला। जीवन के प्रति अशेष प्रेम, ललक और अपनी अटूट विश्वसनीयता के कारण भारत भूषण का काव्य जन-जन में स्पंदन उत्पन्न करने में समर्थ है। 

इसने नारे की हवाई छोड़ी
उसने भाषण की चर्खी
तीसरे ने योजना की महताब
चौथे ने सेमिनार का अनार

पाँचवे ने बहस के पटाखों की लड़ी
छठे ने प्रदर्शन की फुलझड़ी
-छन भर उजाले से आँखें चौंधिया गईं
पर फिर
खेल ख़त्म होते ही
और भी अदबदा कर अँधेरे ने घेर लिया ।

‘कवि की ईमानदारी ही उसको थामे रह सकती है’ इस पंक्ति को भारत भूषण जी ने सिर्फ कहा ही नहीं बल्कि जिया भी। उन्होंने अपनी ईमानदारी को बखूबी बचाए रखा। वे भली-भांति समझते थे कि सच्चाई के बिना कोई भी रचना सार्थकता के मापदंड पर ठहर नहीं सकती। वे एक आम इंसान की तरह बेशक आगे बढ़ना चाहते रहे, परन्तु उन्होंने अपनी सीमाओं को कभी नहीं भुलाया। इस सत्य के आलोक में रचनाकर्म करते हुए वे अपनी रचनाओं में जीवन के उतार-चढ़ाव, दर्द, हार-जीत, संघर्षों, सफलताओं, विफलताओं को, जीवन के यथार्थ के संग पिरोते रहे, सहेजते रहे :

‘ज़िंदगी को पकड़ूँ
या अपनी समझ को
क्योंकि दोनों के बीच
मैंने जो रिश्ता
खींच-खींचकर बैठाया था
वह अब टूट रहा है ।
और उसकी पीठ पर टिका जो चैन था
वह बीच सड़क पर बिखर गया है
साइकिल के पीछे बँधे आटे की कनस्तर की तरह’


एक ओर जहाँ हम उनकी, काव्य-सौन्दर्य, मधुर शब्दावली से रची-पगी कविता पाते हैं:

‘फूटा प्रभात, फूटा विहान,

बह चले रश्मि के प्राण, विहग के गान

मधुर निर्झर के स्वर झर-झर, झर-झर’


वहीं दूसरी ओर हम देखते हैं कि वे सामने खड़े समय की पड़ताल कर रहे हैं:

‘मुश्किल यह है कि मैं
ज़िंदगी को एक इमारत की तरह गढ़ना चाहता था
एक नक्शे के अनुसार
और क्योंकि नक्शा
हर कलैण्डर के साथ बदलता गया
इसलिए हर बार अधबनी इमारत में
तोड़फोड़ करनी पड़ी’

भारत भूषण यथार्थ के प्रति उन्मुक्त दृष्टि रखते हुए कविताओं मे बहुत बड़ी और गहरी बात कह जाते रहे हैं। उन्होंने समकालीन जीवन के यथार्थ को बेहद ईमानदारी के साथ अपनी कविताओं में अंकित किया है। भारत जी ने अहम केंद्रित होने से स्वयं को बचाए रखा। वे जिस बेतकल्लुफ़ी से लोगों से मिला करते थे, उसी खुलेपन को उन्होंने कविता में भी जगह दी। वे अपने आप को एक वाक्य में व्यक्त करते हुए कहते है- “ मैँ व्यंग्य का नहीं, आत्म-व्यंग्य का कवि हूँ।”


मैं जिसका पट्ठा हूं, उस उल्लू को खोज रहा हूँ। 

डूब मरूंगा जिसमें, उस चुल्लू को खोज रहा हूँ।’


भारत जी के काव्य में नारी पात्र बहुत सशक्त है। वे सीता के माध्यम से नारी के सशक्त रूप को शब्द देते हैं:

‘राम ने तो मुझे बहुत पहले ही छोड़ दिया था,

आज मैँ भी राम को छोड़ती हूँ। 

अब मैँ स्वतंत्र हूँ, मुक्त हूँ, अपने आप में पूर्ण हूँ,

आप अपनी निर्देशिका, आप अपनी कर्तृ और आप अपनी भोक्ता हूँ।’

 बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि ने कविताओं के अतिरिक्त गद्य विधा में भी अपना योगदान दिया है। ‘सेतुबंधन’, ‘अग्निलीक’, ‘और खाई बढ़ती गई’ उनके प्रमुख नाट्य संग्रह हैं। ‘लौटती लहरों की बाँसुरी’ उनका उपन्यास है और उनकी कहानियों का संकलन ‘आधे-आधे जिस्म’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘प्रसंगवश’ में आलोचनात्मक लेख, ‘कवि की दृष्टि’ में निबंध और ‘लीक-अलीक’ में ललित-निबंधों का संकलन है। वे लियर के लिमरिक से पहले ही बहुत प्रभावित थे, उस पर उनकी फबतीबाजी का हुनर। तुक्तक की विधा का जन्म उनकी इसी कला की वजह से हुआ, जिसे उन्होंने ‘कागज के फूल’ पुस्तक में सहेजा :

‘बारह बजे मिली जब घड़ी की दो सुइयाँ 

छोटी बोली बड़ी से, ‘सुनों तो मेरी गुइयाँ

कहाँ चली मुझे छोड़ ?

बड़ी बोली भौं सिकोड़ 

आलसी का साथ कौन देगा अरी टुइयाँ’ 

       

        भारत जी ने अनुवाद की दिशा में भी खूब काम किया है। बांग्ला कृतियों का अनुवाद बड़ी सरलता से कर लेते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘ताशेर देश’ का उनके द्वारा किये अनुवाद का अब तक मंचन होता है। शंकर के उपन्यास ‘निवेदिता रिसर्च लेबोरेट्री’ का अनुवाद भी उन्होंने किया है। लेखकों और कवियों की आए हुए पत्र हों या उन्हें भेजे गये पत्र की कार्बन कॉपी हो, वे उन्हें एक फाइल मे सहेजते रहते थे। इनमे से कई महत्वपूर्ण पत्र, बिन्दु अग्रवाल जी द्वारा संपादित पुस्तक ‘पत्राचार’ मे सम्मिलित हैं।   


         भारत जी की संपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन उनकी धर्मपत्नी बिंदु अग्रवाल के संपादन में ‘भारतभूषण अग्रवाल रचनावली’ के चार खंडों में किया गया है। भारत जी के मरणोपरांत उनकी धर्मपत्नी बिंदु अग्रवाल जी ने साहित्य अकादमी से प्राप्त ५००० हजार रुपए की धनराशि से युवा कवियों के प्रोत्साहन के लिए वर्ष 1979 में 'भारतभूषण अग्रवाल' पुरस्कार की स्थापना की थी। अब यह पुरस्कार राशि २१००० रुपए है, जो अब तक हिंदी के लगभग ४१ युवा कवि-साहित्यकारों को प्राप्त हो चुका है। १९७५ जून की २३ तारीख को मानवीयता को अपने जीवन और कविताओं का ओढ़ना-बिछाना बनाने वाले कवि ने अंतिम सांस ली। हिंदी साहित्य के इतिहास में यह एक चमत्कारिक वाकये की तरह दर्ज किया जा सकता है कि उनका जन्म तुलसी जयंती के दिन और निधन सूर जयंती के दिन हुआ था। मनुष्य-जीवन के यथार्थ को समग्रता से अभिव्यक्त करती पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं:

देह से अलग होकर भी मैं दो हूँ, मेरे पेट में पिट्ठू है।
जब मैं दफ्तर में साहब की घंटी पर उठता बैठता हूँ
मेरा पिट्ठू नदी किनारे वंशी बजाता रहता है!
जब मेरी नोटिंग कट–कुटकर रिटाइप होती है
तब साप्ताहिक के मुखपृष्ठ पर मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है!
शाम को जब मैं बस के फुटबोर्ड पर टँगा–टँगा घर आता हूँ
तब मेरा पिट्ठू चाँदनी की बाहों में बाहें डाले
मुगल–गार्डन में टहलता रहता है!
और जब मैं बच्चे की  दवा के लिए
आउट डोर वार्ड’ की क्यू में खड़ा रहता हूँ
तब मेरा पिट्ठू कवि सम्मेलन में मंच पर पुष्पमालाएँ पहनता है!


संक्षिप्त जीवन परिचय 

नाम 


भारत भूषण अग्रवाल 

जन्म 


३ अगस्त १९१९, मथुरा (उत्तर प्रदेश)

मृत्यु 


२३ जून १९७५ 


जीवनसांगिनी 


बिन्दु अग्रवाल 

 माता-पिता


श्रीमती विद्यावती अग्रवाल - श्री नत्थीमल अग्रवाल

संतान


अन्विता अब्बी (भाषा-वैज्ञानिक), स्व. अर्पिता [पुत्रियाँ], अनुपम भारत [पुत्र]

व्यवसाय 

आकाशवाणी और साहित्यिक संस्थाओं मे सेवा 

काव्य-संसार 









छवि के बंधन(१९४१)

जागते रहो (१९४२)

तारसप्तक में शामिल हुए (१९४३)

मुक्ति मार्ग (१९४७)

ओ अप्रस्तुत मन (१९५९)

अनुपस्थित लोग (१९६५)

एक उठा हुआ हाथ (१९७६)

उतना वह सूरज है (१९७७)

कागज के फूल

नाट्य-संग्रह 

सेतुबंधन

और खाई बढ़ती गई

उपन्यास 

‘लौटती लहरों की बाँसुरी

कहानी-संग्रह 

आधे-आधे जिस्म 

आलोचनात्मक लेख 

प्रसंगवश 


निबंध व ललित निबंध संकलन 

कवि की दृष्टि

लीक-अलीक

सम्पादन 

मुखपत्र और प्रतीक पत्रिका 

सम्मान 

साहित्य अकादमी सम्मान (१९७८)



संदर्भ :

  • कविता कोश और विकिपीडिया 
  • कुछ यादें, कुछ चर्चाएं / बिन्दु अग्रवाल 
  • भारत भूषण रचनावली खंड ४ / बिन्दु अग्रवाल 
  • मधुमती में प्रकाशित लेख 
  • भारत भूषण अग्रवाल: कैसे कहूँ? / अन्विता अब्बी


लेखक परिचय


आभा खरे मूलतः विज्ञान विषय से संबद्ध हैं | हिंदी और सृजन से लगाव होने के कारण वे निरंतर लेखन में सक्रिय हैं | पिछले दो साल से वे कविता की पाठशाला से जुड़ी हैं ।

संपर्क : khareabha05@gmail.Com


8 comments:

  1. भारत भूषण अग्रवाल जी को उनकी पुण्यतिथि पर नमन।
    प्रस्तुत लेख के सन्दर्भ में जिन दो पुस्तकों को पढ़कर मैंने भारत भूषण जी के बारे में जानकारियां जुटाई थीं। उन पुस्तकों में भारत जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक वरिष्ठ और मर्मज्ञ साहित्यकारों के लेख संकलित हैं। भारत जी की साहित्यिक यात्रा के बारे में बहुत सामग्री मिली, पढ़ने और लिखने के लिए। चूंकि मेरे पिछले दो लेख शब्द सीमा के पार चले गए थे इसलिए इस लेख को लिखते हुए मैंने शब्द सीमा का ध्यान रखा।
    कुछ बातें जो लेख में दर्ज होने से रह गयीं :
    उनके माता-पिता का नाम
    नत्थीमल अग्रवाल और विद्यावती अग्रवाल
    उनकी बड़ी बेटी पद्मश्री अन्विता अब्बी विख्यात भाषा वैज्ञानिक हैं। अपने पिता की तरह उनका भी व्यक्तित्व और कृतित्व विराट है।
    छोटी बेटी अर्पिता की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है।
    वे कवि और चित्रकार थीं।
    बेटा अनुपम भारत , सफ़ल इंजिनियर हैं और एक कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट हैं।
    वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी उनकी भतीजी हैं।
    उनकी पत्नी बिंदु अग्रवाल, उनके मित्र नेमिचंद्र जी की छोटी साली थीं। वे सही मायनों में उनकी जीवनसंगिनी थीं। जब उनकी शादी हुई थी, तब वे आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। उन्होने हिंदी साहित्य में पीएच.डी. तक की शिक्षा शादी के बाद ही प्राप्त की। भारत जी ने उन्हें पूरी सुख-सुविधा प्रदान की थी कि वे बिना किसी अड़चन के अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। वे, भारत जी की सृजन प्रक्रिया में बराबर साथ रहीं। बांगला कृतियों के अनुवाद भारत जी सीधे कृति से बोलकर लिखवाते थे। वे डिक्टेट करते जाते और बिंदु जी लिखती जातीं थीं।
    अज्ञेय, नेमिचंद्र जैन, शमशेर बहादुर सिंह, मोहन राकेश, मुक्तिबोध, यशपाल, हरिवंश राय बच्चन, नरेश मेहता, उपेन्द्र नाथ अश्क, अमृत राय आदि से भारत जी की दोस्ती और पत्राचार का सिलसिला बराबर बना रहा। अमृतलाल नागर जी उनके अभिन्न मित्र थे। ( अन्विता जी के लेख से)
    अन्विता जी यह भी बताती हैं... " पापा के पास काले मुलायम चमड़े की जिल्द वाली एक मोटी नोटबुक थी। जिसके पन्ने राइस पेपर के बने थे। वे अपनी सभी कविताएँ इस नोटबुक में लिखते थे। वह नोटबुक उनके कविता-रचना काल का पूरा इतिहास है।" वे यह भी बताती हैं कि भारत जी की मृत्यु के बाद, अशोक बाजपेयी जी के आग्रह पर बिंदु जी ने उस नोटबुक को उन्हें भेंट स्वरुप दे दिया था। क्योंकि वे उस समय एक अद्भुत संग्रहालय बना रहे थे, जिसमें सभी प्रसिद्ध कवियों की पांडुलिपियां रखने का विचार था।
    भारत जी ने रेडियो नाटक, संस्मरण, बच्चों के लिए कहानियाँ-कविताएँ और cross word पहेलियाँ भी लिखीं

    कन्हैयालाल नंदन और शमशेर बहादुर अपने- अपने लेख में भारत जी के ज़िन्दगी से लबरेज़ होने, ज़िंदादिल होने और उनकी आशामय दृष्टिकोण की तमाम बातें लिखते हैं।

    नयी कविता के विषय में भारत भूषण जी ने लिखा है..." नयी कविता कोई धारा नहीं है कि उसमें कवि का व्यक्तित्व महत्वहीन हो। नया कवि आधुनिक जन युग की विभीषिका का दर्शक ही नहीं, भोक्ता भी है, और वह चीखने को मजबूर है। अभी तो ये शुरुआत है ज्यों-ज्यों यह यात्रा आगे बढ़ेगी, त्यों-त्यों नयी कविता और भी पुष्ट और समर्थ होगी। यदि नयी कविता का समग्रता के साथ अध्ययन करें तो पाएंगे कि कविता और जीवन शायद ही कभी इतने आत्मीय संगी बने हों।"

    --आभा खरे

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    1. वाह कमाल का लेखन...तार सप्तक में सिर्फ पढ़ा था पर आज उनके बारे में विस्तृत जानकारी मिली।.काव्यात्मक भाषा में निबद्ध आलेख आपकी सृजनशीलता की अलग छाप दिखा रहा। सार्थक और शोध परक आलेख लेखन के लिए बधाई

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  2. आभा, क्या रम कर लिखा है तुमने संवेदना और मानवता के मर्मज्ञ कवि भारत भूषण अग्रवाल जी पर। आलेख में दिया गया प्रत्येक उद्धरण अनुपम है। संदर्भानुसार भाषा के साथ किए गए उनके प्रयोग बहुत भाए। कुल मिलाकर बहुत अच्छा लगा आलेख और भरपूर जानकारी भी मिली। बहुत बहुत आभार और बधाई तुमको।

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  3. आभा जी, भारत भूषण के बहुआयामी व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक यात्रा का क्या समृद्ध खाका खींचा है आपने। कविताओं का चुनाव बहुत संजीदगी के साथ किया है। मज़ा आ गया। इस शोधपूर्ण, सारगर्भित और सराहनीय आलेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. आभा जी नमस्ते। छायावादोत्तर हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर भारत भूषण अग्रवाल जी पर आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपने एक शोध पूर्ण लेख प्रस्तुत किया है। लेख पर आपकी पूरक टिप्पणी भी लेख को सुंदर विस्तार दे रही है। उनकी कविताओं के चुनिंदा अंश एवं कथन लेख को सरस बना रहे हैं। ‘कवि की ईमानदारी ही उसको थामे रह सकती है’  / 'मैँ व्यंग्य का नहीं, आत्म-व्यंग्य का कवि हूँ।' ऐसा सोचने वाले और इसे जीने वाले कवि की जीवन एवं साहित्यिक यात्रा को आपने बखूबी लेख में समेटा है। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  5. भारत भूषण अग्रवाल जी की बेटी की प्रतिक्रिया :

    आभा जी, आपने थोड़े में बहुत कुछ समेटने का जो कार्य किया है वह बहुत सराहनीय है, वरना भारत भूषण अग्रवाल पर लिखने के लिये एक पुस्तक ग्रंथ भी कम है। उनकी कविताएं खास तौर पर वे जो आत्म व्यंग पर लिखी गई थीं अपने रचना काल से कहीं आगे थीं। उनको हरदम लगता था कि उनकी कविताओं का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। आपकी पहल देख कर बहुत राहत हुई। उनका व्यक्तित्व भी उतना ही विशाल था जितना उनका कृतित्व। व्यक्तित्व को जानने के लिए आपके पाठकों को माँ (श्रीमती बिन्दु अग्रवाल ) की 'स्मृतियों के झरोखे से' पढ़नी होगी जो हिन्दी साहित्य मे पहली महिला biography है । मुझ तक इस ब्लॉग को पहुंचाने के लिए धन्यवाद। ----अन्विता अब्बी

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  6. सुविचारित एवम संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय।

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