भेजे मनभावन के उद्धव के आवन की,
सुधि ब्रज-गाँवनि में पावन जबै लगीं।
कहैं ‘रतनाकर’ गुवालिनि की झौरि-झौरि,
दौरि-दौरि नन्द-पौरि आवन तबै लगीं॥
उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै,
पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगीं।
हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा,
हमकौं लिख्यौ है कहा कहन सबै लगीं॥
एक साथ विरह और मिलन की छवियाँ लिए अनोखी-सी कसक और प्रेम की अकथ पीर की कथा कहता, आलौकिक-सा आनंद देता यह छंद ब्रजभाषा के अनन्य प्रेमी कवि जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ के ‘उद्धव-शतक’ काव्य से है। आधुनिक काल के इस कवि को मध्यकालीन एवं प्राचीन साहित्य तथा ब्रज भाषा से असीम प्रेम था। इन्होंने उस रंग में ख़ुद को ऐसा रँगा कि अपनी वेश-भूषा और साहित्य-कर्म भी उन्हीं के अनुरूप ढाल लिए थे। मध्ययुगीन साहित्य उनके जीवन में उतर आया था।
रत्नाकर का जन्म वर्ष १८६६ में काशी के एक धनी वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता पुरुषोत्तमदास फ़ारसी भाषा के विद्वान और हिंदी-साहित्य प्रेमी थे, इसलिए घर पर फ़ारसी और हिंदी कवियों का जमघट रहता था। आधुनिक हिंदी-साहित्य के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र इनके पिता के अच्छे मित्र थे और अक्सर इनके घर आया-जाया करते थे। भारतेन्दु बालक जगन्नाथ दास की कविता में रुचि देखकर हमेशा उसे प्रोत्साहित करते थे; एक बार तो उन्होंने उसकी तारीफ़ में कहा था- “यह बालक आगे चलकर हिंदी की शोभा बढ़ाएगा।” और वास्तव में वैसा ही हुआ। जगन्नाथ ने लेखन के लिए अपना नाम ‘रत्नाकर’ रखा, जो अनेक छंद-रत्नों की रचना के कारण सार्थक हो गया।
इनकी शिक्षा उर्दू-फ़ारसी से शुरू हुई थी, इनमें असाधारण काव्य-प्रतिभा जन्मजात थी। विद्यार्थी-जीवन में ही ‘ज़की’ तख़ल्लुस से फ़ारसी शायरी की दुनिया में नन्हे-नन्हे क़दम रखे। अँग्रेज़ी और फ़ारसी विषयों से बी. ए. की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद फ़ारसी में एम. ए. की पढ़ाई प्रारम्भ कर दी थी, लेकिन माँ की मृत्यु के कारण परीक्षा नहीं दे पाए थे। उनकी औपचारिक शिक्षा वहीं थम गयी थी, लेकिन स्वाध्याय से मध्यकालीन हिंदी काव्य, उर्दू, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं, पौराणिक साहित्य, आयुर्वेद, संगीत, ज्योतिष, छंदशास्त्र, इतिहास आदि की अच्छी जानकारी हासिल करते रहे। साथ ही समय-समय पर भारत भ्रमण करके भी अनुभवों को ख़ूब समृद्ध किया। बड़े कवि सम्मेलनों की बजाय रत्नाकर को कवि-मंडलियों के आयोजन या काव्य-गोष्ठियाँ प्रिय थीं। उनमें वे अपने सुगठित अष्टक और अन्य फुटकर कविताएँ सुनाया करते थे।
रत्नाकर मध्ययुगीन ‘दरबारी-कवि’ वाली काव्य-प्रवृत्ति से बहुत प्रभावित थे और ख़ुद भी उसी प्रवृत्ति का आश्रय लेना चाहते थे। इसी मनोवृत्ति से इन्होंने दो वर्ष ‘अवागढ़ रियासत’ के ख़ज़ाने के निरीक्षक के पद पर काम किया था। उसके बाद क़रीब २० वर्ष (१९०२ से १९२१-२२ तक) पहले ५-६ वर्ष अयोध्या के राजा प्रताप नारायण सिंह और उनकी मृत्यु के बाद वहाँ की महारानी के निजी सचिव के रूप में काम किया था। तब वे लेखन को पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे, क्योंकि अधिकांश समय राज्य का कार्य-भार संभालने में ही चला जाता था।
राज्याश्रय में रत्नाकर ने जमकर साहित्य का अध्ययन किया और तदोपरांत साहित्य की सेवा में जुटे रहे। इस समय तक काव्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का काफ़ी विकास हो चुका था, लेकिन रत्नाकर को जो रस, जो माधुर्य ब्रज भाषा में मिलता था, वह खड़ी बोली में न मिल सका, इसलिए उन्होंने उसी पुरानी श्रुतिमधुर ध्वनि का ध्यान करके दुबारा कलम उठायी।
रत्नाकर रीतिकालीन कवियों घनानंद, बिहारी आदि से प्रभावित थे, लेकिन जिसने सबसे अधिक प्रभावित किया, वे थे- पद्माकर। पद्माकर के लिए रत्नाकर कहते हैं -
शब्दमाधुरी, शक्ति प्रबल, मानत सुरनर।
जैसे हो ‘भवभूति’ – भयो तैसे पद्माकर॥
गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखा है रत्नाकर ने, लेकिन प्रसिद्धि उन्हें कवि रूप में अधिक मिली। पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों को इन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया था। उनकी रचित कृतियों मे हिंडोला, गंगावतरण, हरिश्चंद्र, वीराष्टक, उद्धव-शतक, रतनाष्टक, शृंगार-लहरी, गंगा तथा विष्णु-लहरी, प्रकीर्ण पद्यावली आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। अयोध्या की महारानी की प्रेरणा से रत्नाकर ने ‘गंगावतरण’ लिखना शुरू किया था। यह गंगा के अवतरण की पुराण-प्रसिद्ध कथा १३ सर्गों में है। इसके पूरे हो जाने पर इन्हें प्रयाग हिंदुस्तान अकादमी से इसके लिए ५०० रुपये पुरस्कार स्वरूप मिले थे।
उद्धव-शतक- १०० घनाक्षरी छंदों में रचित यह दूत-काव्य रत्नाकर का सर्वोत्कृष्ट काव्य माना जाता है। इस काव्य की रचना के समय ९० से अधिक छंद एक कॉपी में लिख लेने के बाद इनकी वह कॉपी खो गयी थी। इन्होंने अपनी स्मृति से उन्हें फिर से लिखकर और शेष छंदों की पूर्ति कर, नए सिरे से इसे तैयार किया था। आलोचक, संपादक श्यामसुंदर दास ने रत्नाकर के सम्पूर्ण काव्य-संग्रह ‘रत्नाकर अर्थात गोलोकवासी’ की भूमिका में उद्धव-शतक के बारे में लिखा है- “रत्नाकर की इससे अधिक तन्मयी काव्य-साधना दूसरी नहीं मिलती।… उनके जीवन-व्यापी शृंगार में छिपी हुई दुःख की छाया ही मानो ‘उद्धव-शतक’ का केंद्र पाकर सार्थक हो गयी है। सच ही है- हमारी श्रेष्ठतम कविता वही है, जो करुणतम कथा कहे।”
देखिये वियोग शृंगार की एक मार्मिक अभिव्यक्ति ‘उद्धव-शतक’ से-
सुनि सुनि ऊधव की अकथ कहानी कान,
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
कहै ‘रतनाकर’ रिसानी, बररानी कोऊ,
कोऊ बिलखानी, बिकलानी, बिथकानी हैं॥
कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं,
कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी हैं।
कोऊ स्याम-स्याम कह बहकि बिललानी कोऊ,
कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं॥
आइये, तनिक मनहरण सवैया छंद में लिखे, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास एवं रूपक अलंकारों से सुसज्जित तथा वियोग-शृंगार एवं भक्ति रसों में डूबे इस छंद का आनंद लेते हैं। इस छंद की पृष्ठभूमि यह है कि उद्धव ब्रज आए थे गोपियों को समझाने के लिए, लेकिन ख़ुद कृष्ण की भक्ति में सराबोर होकर ब्रज से मथुरा के लिए निकलते हैं। रत्नाकर ने उद्धव का बड़ा सुंदर रेखाचित्र खींचा है। भाव-विह्वल उद्धव के पैर प्रेम के नशे में सराबोर होने के कारण कहीं के कहीं पड़ने लगते हैं। उनका प्रत्येक अंग शिथिल हो गया है और आँखों में आलस्य छाया है। उद्धव कृष्ण के पास ऐसे चले जा रहे हैं, मानों कोई पुरानी स्मृति याद आ गयी है। एक हाथ में यशोदा का दिया हुआ मक्खन और दूसरे हाथ में राधा की दी हुई बाँसुरी के प्रति अत्यधिक सम्मान-भाव के कारण उन्हें ज़मीन पर नहीं रखते हैं और प्रेम-वेग से आए आँसुओं को वे अपनी बाहो से पोंछते जा रहे हैं।
प्रेम... कहाँ के कहाँ
थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।
कहै ‘रतनाकर’ यौं आवत चकात ऊधौ
मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है॥
धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं
सारत बँहोलिनी जो आँस-अधिकाई है।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ
एक कर बंशी वर राधिका पठाई है॥
ब्रज भाषा में मधुर काव्य रचने वाले रत्नाकर ने अँग्रेज़ी कवि अलेक्जेंडर पोप के समालोचना सम्बन्धी प्रसिद्ध काव्य ‘Essays on Critism’ का हिंदी में काव्यानुवाद भी किया है।
संपादन के क्षेत्र में कविवर रत्नाकर का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने कवि बिहारी के ग्रन्थ ‘बिहारी रत्नाकर’ के संपादन के लिए उन पर गहरा शोध करके उनके जीवन और लेखन पर कई निबंध लिखे थे; लेकिन रत्नाकर की मृत्यु हो जाने के कारण वह सामग्री प्रकाशित नहीं हो पायी थी। बहुत वर्ष बाद वह बिखरी-बिखरी सामग्री रत्नाकरजी के पोते रामकृष्णजी को मिलने पर उन्होंने उसका संपादन और प्रकाशन करके हिंदी-साहित्य को एक बड़ा तोहफ़ा भेंट किया था। उस पुस्तक का नाम है- ‘कविवर बिहारी’। इसमें तत्कालीन भारत की राजनीतिक परिस्थितियों से लेकर, ब्रज भाषा का उद्भव, व्याकरण, बिहारी के काव्यात्मक-गुण, बिहारी पर तब तक की गयी सभी टीकाओं के विस्तृत इतिहास समेत कवि बिहारी की जीवनी भी है। यह पुस्तक कवि बिहारी पर अध्ययन और शोध के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
‘सूरसागर’ के नए संस्करण के लिए भी रत्नाकर ने सूरसागर की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त करके उन पर ख़ूब काम कर लिया था, लेकिन दुर्भाग्यवश उसे भी अंतिम रूप दे न पाए। रत्नाकर के मरणोपरांत सम्पादित ग्रन्थ ‘सूरसागर’ का प्रकाशन नन्ददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ था।
रत्नाकर-काव्य भक्ति-काल और रीति-काल दोनों का प्रतिनिधित्त्व करता है। इसमें भक्ति कवियों की-सी भावुकता, रसमग्नता और रीतिकालीन कवियों जैसा शब्द-कौशल मिलता है।
कवि रत्नाकर ने ब्रज भाषा को भरपूर समृद्ध किया। इन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग खुलकर किया, संस्कृत पदावली को बड़ी सरलता से ब्रज में मिला दिया। अपनी काशी की बोली से भी शब्द लेकर ब्रज भाषा के साँचे में ढाल दिए। इन्होंने ‘कृष्ण काव्य’ में शुद्ध ब्रज भाषा का और ‘गंगावतरण’ में संस्कृत मिश्रित ब्रज का इस्तेमाल किया है। दोनों के एक-एक उदाहरण देखिए।
जग सपनौ सौ सब परत दिखाई तुम्हैं
तातैं तुम ऊधौ हमैं सोवत लखात हौ।
कहै ‘रतनाकर’ सुनै को बात सोवत की
जोई मुँह आवत सो बिवस बयात हौ॥
सोवत मैं जागत लखत अपने कौ जिमि
त्यौं ही तुम आप ही सुज्ञानी समुझात हौ।
जोग-जोग कबहूँ न जानै कहा जोहि जकौ
ब्रह्म-ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ॥
(शुद्ध ब्रज)
स्यामा सुघर अनूप-रूप गुन-सील-सजीली।
मंडित मृदु मुख चंद-मंद मुसक्यानि-लजीली॥
काम-वाम-अभिराम सहस सोभा शुभ-धारिनि।
साचे सकल सिंगार दिव्य हेरति हिय-हारिनि॥
(संस्कृत-मिश्रित)
फ़ारसी के बड़े जानकार होते हुए भी रत्नाकर ने न तो कहीं फ़ारसी के कठिन या अप्रचलित शब्दों का इस्तेमाल किया और न ही उसे एकदम दरकिनार किया है। ‘कृष्ण-काव्य’ में गोपियों द्वारा कृष्ण के लिए कभी-कभी ‘सरताज’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जो बिलकुल भी अटपटा नहीं लगता।
रत्नाकर ने अपने काव्य में मुहावरों का भी प्रचुरता से प्रयोग किया है-
अहह जाति तव मत्सरता अजहूँ न भुलाई।
हेर फेर सौ बेर जदपि मुँह की तुम खाई।।
शब्द-योजना के आचार्य रत्नाकर ने ब्रज भाषा की ख़ूब सेवा की। प्रयाग में ‘ब्रज भाषा कवि समाज’ की स्थापना इन्हीं की प्रेरणा से हुई थी। वर्ष १९३० में इन्हें भारतीय हिंदी साहित्य का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ के भी ये सदस्य रहे। साहित्य सेवा में ये इतने उदार थे कि अपना पुस्तक संग्रहालय भी ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ के नाम कर दिया था।
लेखन और भाषा के क्षेत्रों में उनके द्वारा किये गये अनुपम प्रयोगों से उन्हें हिंदी-साहित्य में विशेष सोपान प्राप्त है। ब्रज-भाषा कवियों में जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ का स्थान महत्त्वपूर्ण है, इन्हें आधुनिक काल में इस मधुर भाषा में काव्य रचने के लिए हमेशा याद किया जाएगा।
सन्दर्भ:
१.https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.483736/page/n17/mode/2up?view=theater
२.https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.480920/page/n9/mode/2up?view=theater
४.https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.308698/page/n3/mode/2up?view=theater
५.https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.403638/page/n19/mode/2up?view=theater
लेखक परिचय:
डॉ. सरोज शर्मा
भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी;
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव;
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
सरोज, कवि जगन्नाथदास रत्नाकर पर तुम्हारा आलेख उद्धृत छंदों सा सरस और सुंदर बन पड़ा है। रत्नाकर जी के ब्रजभाषा के प्रति समर्पण और उसके संवर्धन के लिए किए गए कार्यों को नमन। तुम्हें इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteप्रिय कवि पर प्रिय आलेख !
ReplyDeleteबहुत सुंदर सारगर्भित लिखा आपने ...साकार कर दिया सब कुछ !
सरोज जी आपने कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सुरुचियर्न और सारगर्भित लेख प्रस्तुत किया है। कवि के रचनात्मक और साहित्यिक योगदान से परिचित कराने के लिए आभार। इस सुन्दर लेख के लिए आपको बहुत बधाई।
ReplyDeleteअभिनंदन
ReplyDeleteसरोज जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से जगन्नाथदास रत्नाकर जी के विस्तृत रचना संसार को जानने का अवसर मिला। उनका लिखा गद्य, पद्य एवं सम्पादित साहित्य बहुत विस्तृत है। आपने उनके लिखे छन्दों के उदाहरणों सहित लेख को बहुत रोचक रूप दिया है। उद्धव-शतक की विशेषता एवं 'उसके कुछ हिस्से के खो जाने एवं पुनः लेखन' का किस्सा भी विशेष है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteनमस्कार मेम, रत्नाकर और उनके उद्धव शतक की विस्तार से जानकारी कराने के लिए आभार। सार्थक लेखन के लिए बधाई हो।
ReplyDeleteसरोज जी, नमस्ते। रत्नाकर पर आपका आलेख बहुत रसमय और मधुर लगा।ब्रजभाषा की मिठास उनके छंदों में स्पष्ट झलकती है।
ReplyDeleteउद्धव जी के शिथिल, डगमगाते कदमों से लौटने का चित्रण बहुत सुंदर है। बधाई, शुभकामनाएँ। 💐💐