Saturday, June 25, 2022

शिवकुमार मिश्र - एक सुलझा हुआ आलोचक



शायद उत्तर प्रदेश भारत का ऐसा राज्य है जहाँ की माटी में विधाता ने सृजन के बीज बो डाले हैं, जो पल्लवित होकर साहित्य वाटिका की शोभा को नित्य प्रति बढ़ाते चले जा रहे हैं। वर्ष १९३० में इस वाटिका की कनपुरिया क्यारी में शिवकुमार मिश्र जन्म लेते हैं, जिनकी आलोचनात्मक दृष्टि ने इस संपूर्ण वाटिका को अपने स्वच्छंद विचारों की सकारात्मक ऊर्जा से सुवासित किया है। 

निरंतर अध्ययन से स्पष्ट अवधारणाओं को प्रस्तुत करते मिश्र जी की आलोचना यात्रा १९५५ से शुरू होती है। ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा के प्रति मिश्र जी को आलोचक वर्ग की उदासीनता जब अखरती है, तब वे 'वृंदावनलाल वर्मा : उपन्यास और कला’ जैसा ग्रंथ लेकर प्रस्तुत होते हैं। वे हिंदी में वर्मा जी की समता का ऐतिहासिक उपन्यासकार दूसरा नहीं मानते।

एक साधारण रसवादी पाठक से आलोचक तक की यात्रा में वर्मा जी के उपन्यासों पर व्यक्त किए गए अपने विचारों को माँजते हुए मिश्रजी स्वप्रमाणित करते हैं कि इस पुस्तक में उन्होंने निज की स्वतंत्र बुद्धि से, बिना किसी मत का सहारा लिए हुए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। जिस क्षेत्र में आलोचक किन्हीं दो वर्ग विशेष के बीच संतुलन साधने में प्रायः असफल रहते हैं, उसी आलोचनात्मक क्षेत्र में यह आत्म स्वीकृति उनकी निष्पक्षता को परिभाषित करती है। 

अपने उपन्यासों में वर्माजी की जनसाधारण के प्रति गहरी सहानुभूति मिश्र जी को आकर्षित करती है। भारतीय संस्कृति एवं मानवता के उज्ज्वल भविष्य के प्रति अडिग आस्था रखने वाले मिश्र जी कहते हैं, “जनसाधारण के प्रति मेरी भी सहानुभूति है, सामंतीय व जनसाधारण का शोषण करने वाली अन्य व्यवस्थाओं से मैं भी घृणा करता हूँ। यह भी किसी विशेष प्रभाव के कारण नहीं प्रत्युत अपनी स्वतंत्र विचारधारा के कारण, मानवता के नाते, जनसाधारण का ही एक अंग होने के नाते। क्या भारतीय, क्या पाश्चात्य, कोई भी दर्शन, कोई भी विचारधारा यदि जनसाधारण के प्रति अपनी सहानुभूति रखती है तो मैं उसका कायल हूँ। उन पाश्चात्य विचारों से भी मैं सहमत हूँ जो एक स्वस्थ समाज की स्थापना एवं स्वस्थ जीवन दर्शन की ओर इंगित करते हैं।”

 

लोक के यथार्थ को अपने लेखन में प्रमुखता देने वाले आलोचक मिश्र जी हिंदी के अप्रतिम यथार्थवादी उपन्यासकार प्रेमचंद को बार बार पढ़ने के बाद कहते हैं, “अपने लगभग चार दशकों के रचनाकाल में ज़िंदगी की सीधी रगड़ से अनुभवों की विपुल पूंजी प्रेमचंद ने कमाई और अपनी रचनाओं में उसका सार्थक विनियोग किया है। हिंदी क्षेत्रों के गाँवों का उस समय का जीवन जितनी प्रामाणिकता के साथ उनकी रचना में मूर्त है, शहरी मध्य वर्ग की मानसिकता को भी उतनी ही विश्वसनीयता से उन्होंने पहचाना और उजागर किया है।”

जिस समय हिंदी में छिछली, कुरुचिपूर्ण तथा सतही मन बहलाव वाली कृतियाँ यथार्थवाद का चोला पहनकर साहित्य में प्रवेश पा रही थी उस समय प्रेमचंद ने यथार्थवाद की ऐसी धारणा का विरोध किया। मिश्र जी ने यथार्थवाद संबंधी किसी सुस्पष्ट दार्शनिक या कलागत दृष्टिकोण के अभाव में इस धारणा का उभरना स्वाभाविक माना है। समाज के धरातलीय सत्य को सहज ही साहित्य की सतह पर रख देने वाले प्रेमचंद मिश्र जी को इतने प्रिय हो जाते हैं कि वे उनके विषय में तीन पुस्तकें लिखते हैं। 

वे मानते हैं कि प्रेमचंद जिस दौर में रचना कर रहे थे वह दौर कुरुचिपूर्ण उपन्यासों का था। यथार्थ की कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। लोग जीवन के कुत्सित, घिनौने पक्षों को प्रस्तुत करना ही यथार्थवाद समझते थे।

'साहित्य और सामाजिक संदर्भ' के द्वारा मिश्र जी सैद्धांतिक विमर्श करते हुए हरिशंकर परसाई के विचारों से अपनी सहमति तथा आपातकाल सहित कुछ मुद्दों पर असहमति की चर्चा भी करते हैं। तो वहीं 'आलोचना के प्रगतिशील सरोकार' के द्वारा सैद्धांतिक विवेचन के साथ अनेक उपन्यासों का उनका विवेचन उनके सरोकारों  के स्वच्छ साक्ष्य के रूप में उभरता है। सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में व्यवस्थित कार्य करते हुए वे 'यथार्थवाद ' जैसी पुस्तक लिखते हैं, जिसके माध्यम से वे यथार्थवाद के साथ जुड़ने वाले अनेक भ्रमों का निवारण करते हुए इसके विभिन्न उपलब्ध रूपों, आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा के साथ उसके प्रमुख पुरस्कर्ताओं की भी विस्तारपूर्वक चर्चा करते हैं। 

मिश्र जी हिंदी आलोचना के क्षेत्र में उच्च कोटि के आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल से विशेष प्रभावित थे। ‘हिंदी आलोचना की परंपरा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ के माध्यम से वे शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का समग्रता में मूल्यांकन करते हुए कहते हैं कि संस्कार और विवेक की गहरी कश्मकश आचार्य शुक्ल के मानस में निरंतर चलती रही है। यही कारण है कि वे शुक्ल जी के साहित्य में अंतर्विरोध देखने के बावजूद संभावनाएँ देखते हैं। इस पुस्तक की भूमिका में वे स्वयं स्वीकार करते हैं, “मैं शुक्ल के अपने साहित्य चिंतन तथा जीवन दृष्टि में जो अंतर्विरोध हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए कह रहा हूँ। अंतर्विरोध शुक्ल जी में है और बुनियादी रूप में है, परंतु उन अंतर्विरोधों के बावजूद वे तमाम बुनियादी मुद्दों पर कारगर तरीके से हमारे साथ सहयोग करते हैं, हमारा पथ निर्देशन करते हैं। हमारे साथ सक्रिय होते हैं। मध्यकालीन बोध से पूरी तरह मुक्त न होते हुए भी वे आधुनिक विवेक से यथाशक्ति जुड़ते हैं, वर्ण चेतना की ज़मीन पर हमारे साथ पूरी तरह खड़े न होकर भी लक्ष्यों को स्वीकार करते हैं। अपवाद, रीतिवाद, रहस्यवाद, कलावाद, व्यक्तिवाद तथा आधुनिकतावाद के खिलाफ़ हमारी हर मुहिम में वे ऊर्जा देते हैं।” 

प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व मुक्तिबोध जब साहित्य और कला की विशिष्ट प्रकृति के प्रति सचेष्ट रहते हुए उसे सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हैं, तो उनका रचना-प्रक्रिया संबंधी विवेचन मिश्र जी को अत्यंत प्रभावित करता है और वे लिखते हैं, “रचना-प्रक्रिया संबंधी मुक्तिबोध के विवेचन का यह सामाजिक आधार ही उसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। यहाँ इस तथ्य को स्मरण रखना भी आवश्यक है कि वे विवेचन के सामाजिक आधार के बावजूद जहाँ तक साहित्य और कला की अपनी विशिष्ट प्रकृति का प्रश्न है, मुक्तिबोध उनके प्रति भी पूरी तरह से सचेष्ट रहे हैं।”

प्रतिबद्ध मार्क्सवादी समीक्षक मिश्र जी को डॉ० रामविलास शर्मा ने भी प्रभावित किया। वैचारिक कट्टरता को महत्व न देते हुए वे अपना लेखन कार्य एक निष्ठावान साधक की भूमिका में रहकर करते हैं। मिश्र जी के आलोचनात्मक चिंतन में भले ही हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की प्रमुखता दिखाई दे, परंतु मध्यकाल की विवेचना करते समय उनकी विशेषज्ञता और प्रखरता के अद्भुत दर्शन होते हैं। वे भक्ति आंदोलन के अंतर्विरोध और उसकी रीतिवादी परिणति को स्पष्ट करते हुए, मध्यकालीन संतों और भक्तों के संदर्भ में स्त्री-अस्मिता के सवालों से जूझते हुए, बाजार और बाजारवाद के विमर्श तक भी पहुँचते हैं। 

आधुनिक बाज़ारवाद ने स्त्रियों के बढ़ते शोषण पर जो मानसिकता तैयार की है, उस पर मिश्रजी लिखते हैं कि “सौंदर्य-प्रसाधन, वेशभूषा, अलंकार, अपनी देह को सजाए सवाँरे रखने की प्रवृत्ति के मूल में पुरुष को रिझाने की ही मानसिकता है। अपनी कामेषणा के चलते पुरुष बराबर इन बातों में नारी को उकसाता तथा इस्तेमाल करता है।”

१९४२ में आई पुस्तक ‘शृंखला की कड़ियाँ’ व्यापक रूप में संपूर्ण स्त्री जाति से जुड़ती है। महादेवी के अनुसार स्त्रियाँ अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को समझ कर ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूँढ सकती हैं। वे कहती हैं “इस समय हमारे समाज में केवल दो प्रकार की स्त्रियाँ मिलेंगी, एक वे जिन्हें इसका ज्ञान ही नहीं है कि वे भी एक विस्तृत मानव समुदाय की सदस्य हैं और उनका भी एक ऐसा स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके विकास से समाज का उत्कर्ष और संकीर्णता से अपकर्ष संभव है, दूसरी वे जो पुरुषों की समता करने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण से संसार देखने में, उन्हीं के गुणावगुणों का अनुकरण करने में जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति समझती हैं।” 

 शिव कुमार मिश्र महादेवी के इतने प्रांसगिक एवं क्रांतिकारी विचारों को पुनः उजागर करते हुए लिखते हैं कि  “नवजागरण से शुरू हुए हिंदी साहित्य पर निगाह डालें तो भारतेंदु से लेकर मैथलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला यहाँ तक कि प्रेमचंद तक में नारी प्रधानतः करुणा को ही पा सकी है। अपवाद हैं तो महादेवी वर्मा जिनके गद्य में नारी एक बार फिर अपने वजूद से जुड़े हुए दहकते-सुलगते सवाल उठाती हैं, किंतु पुरुष प्रभुता वाले समाज में पुरुष के स्वरों के आगे नारी का अपना स्वर दबा ही रहा है।”

जहाँ धर्मशास्त्र नारी की गति समझाते हुए उसे अपने पतिव्रत पर कायम रहने की वकालत करते हैं फिर चाहे पति कैसा भी क्यों न हो और वैवाहिक जीवन को निष्कलंक बनाए रखने के लिए इसे उसका धर्म घोषित करते हैं, तब मिश्र जी पूरी निडरता के साथ उसका विरोध करते हैं। 

मिश्र जी ने स्त्रियों के प्रति बुद्ध की नकारात्मक धारणा को भी अस्वीकार किया है। वे लिखते हैं,  “महात्मा कहे जाने वाले बुद्ध संघ में स्त्रियों के प्रवेश के पक्ष में नहीं थे। अपने प्रिय शिष्य आनंद के अतिशय आग्रह के चलते उन्होंने बड़ी अनिच्छा से संघ में स्त्रियों के प्रवेश को अनुमति दी। किंतु उन्होंने आनंद से कहा “आनंद, संघ निसंदेह सहस्र वर्ष जीवित रहता किंतु नारी के प्रवेश से उसकी आयु क्षीण हो जाएगी। अब यह केवल पाँच सौ वर्षों तक जीवित रहेगा। इसके उपरांत बुद्ध ने भिक्षुणियों के लिए जो आठ गुरु धर्म निर्धारित किए, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं - “सौ वर्षों से भी संघ में दीक्षित भिक्षुणी को भी आज ही संघ में दीक्षित भिक्षु के चरण अपने मस्तक से स्पर्श करने होंगे। भोजन, आवास, वस्त्रादि पर पहला अधिकार भिक्षु का होगा। क्या सत्य है, क्या असत्य है। इन सवालों पर भिक्षुणियों का भिक्षुओं से बात करना वर्जित है।”

मिश्र जी समाज की जड़ों में व्याप्त स्त्री सशक्तिकरण की इस लड़ाई के पक्ष में अपना स्वर ऊँचा करते हुए लिखते हैं कि “नारी की अस्मिता अलमारी में रखा कोई समान नहीं है कि जरा से प्रयास से हाथ बढ़ा कर उसे पा लिया जाए। जैसा परिदृश्य आज है उसे देखते हुए नारी अस्मिता की बहाली का संघर्ष कठिन तो है ही, वह पेचीदा भी है। इस संघर्ष की फलश्रुति यदि सफलता में होती है, जो होनी भी चाहिए, इस लड़ाई को यदि जीता जाना है, तो संघर्ष धैर्यपूर्वक, वस्तुस्थिति की सही समझ के साथ चलना चाहिए। यह इकहरी लड़ाई नहीं, दुहरी लड़ाई है। प्रतिपक्ष में सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्री भी हैं। बाहर के अलावा, पुरुष प्रभुता वाले समाज के अन्याय और अमानवीयता के अलावा इस लड़ाई को स्त्री को अपने भीतर भी लड़ना है। सदियों के संस्कारों की जमी परतें एकदम से नहीं हट सकतीं। उन्हें तिल-तिल काटना होगा।”

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी को अपना गुरु मानते हुए मिश्र जी उन्हीं के प्रोत्साहन से ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत’ के द्वारा मार्क्सवादी साहित्य चिंतन को भारतेतर संदर्भों में समझने-समझाने की दिशा में एक कदम बढ़ाते हैं। चार खंडों में रचित यह पुस्तक पुर्ण विस्तार और व्यवस्था के साथ पहली बार इतिहास, दर्शन तथा सिद्धांत चर्चा, तीनों स्तर पर मार्क्सवादी साहित्य चिंतन को प्रस्तुत करती है। इसके दूसरे खंड में मार्क्सवादी साहित्य चिंतन के प्रस्थान बिंदु के रूप में ‘ए कॉन्ट्रीब्युशन टू दी क्रिटिक ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी’ कृति की प्रस्तावना में दिए गए मार्क्स के महत्त्वपूर्ण वक्तव्य की व्याख्या की है और एक स्वतंत्र अध्याय के रूप में मार्क्सवादी साहित्य चिंतन की समूची परंपरा का एक ऐतिहासिक विहंगावलोकन किया गया है।

मार्क्सवादी सिद्धांत से मिश्र जी ने अपनी परंपराओं को गहराई से समझना, लोक से जुड़ना और अपनी जातीय जड़ों को पहचानना सीखा था। उनके मार्क्सवादी चिंतन में लोक प्रमुख है। मिश्र जी कहते हैं, “मार्क्सवादी दृष्टि ने मुझे भक्तिकाव्य को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि दी और फलस्वरूप उसके जो शक्तिशाली आयाम मेरे सामने उभरे, वे आज भी ज्यों के त्यों बरकरार है, वरन उनकी मिसाल भी नहीं है।”

मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच अबोध की रेखा को उजागर करते हुए शिवकुमार मिश्र ‘भारतेंदु अंतर्विरोध के बीच' पुस्तक के द्वारा कहते हैं कि “संस्कार और विवेक की एक गहरी कश्मकश प्रबुद्ध भारतीय मानस को आक्रांत किए थी। यह पराधीनता के कठोर एहसास का समय था। एक नई सभ्यता और संस्कृति के दबावों तथा चुनौतियों की बुद्धि तथा विवेक के साथ झेलने और स्वीकार करने का समय था। यह लंबे समय की नींद के बाद एक जागे हुए भारत को अपने अतीत वर्तमान तथा भविष्य को आंकने, पहचानने तथा उनके संदर्भ में परिप्रेक्ष्य के साथ क्रियाशील होने का समय था।”

हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु के प्रयासों को लक्ष्य करके मिश्र ने लिखा है, “हिंदी भाषा तथा साहित्य की उनकी विपुल सेवा को लक्ष्य करके हिंदी भाषी जन-समाज ने उन्हें भारतेंदु के रूप में देखा और पहचाना।”

भारतेंदु जब ‘भारत-दुर्दशा’ के माध्यम से अंग्रेजी राज में सुख समृद्धि और स्वतंत्रता के हनन को व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “भारत भूमि भई सब भाँति दुखारी”, तब मिश्र जी की लेखनी बोलती है, “यह भारतेंदु के आत्म संघर्ष का ही प्रमाण है कि उनके लेखन में उत्तरोत्तर ब्रिटिश राज की आलोचना बढ़ती ही नहीं जाती तीव्रतर होती जाती है और वे खुलेआम ब्रिटिश शासन की माखौल उड़ाने लगते हैं। तथाकथित सुशासन का पर्दाफाश करने लगते हैं। अकाल, बीमारी, बदहाली, अज्ञान, अशिक्षा सबका दोषी ब्रिटिश राज को ठहराते हैं। उनकी मुकरियाँ, उनके नाटकों, उनके लेखों तथा उनके अन्य लेखन में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। जैसे - “चूर्ण साहब लोग जो खाता सारा हिंद हजम कर जाता।”

अस्सी के दशक में कुछ वर्षों के दौरान हिंदी आलोचना के क्षेत्र में विचारधारात्मक संघर्ष का जो रूप एकाधिक स्तरों और आयामों पर ‘अपनों’ और ‘दूसरों’ के साथ विचारधारा के बुनियादी चरित्र को लेकर उभरता रहा है, १९८७ में प्रकाशित मिश्र जी की कृति ‘आलोचना के प्रगतिशील आयाम’ के निबंध उसी की एक बानगी पेश करते हैं। 'आधुनिक कविता और युग-दृष्टि' में संकलित निराला, पंत, महादेवी, नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र आदि की कविताओं पर केंद्रित आलेखों में मिश्र जी अपनी आलोचनात्मक क्षमता के प्रमाण स्वतः ही उपस्थित करते हैं।

अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी शिवकुमार मिश्र की भाषा शैली अत्यंत निर्णयात्मक है। डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल उनकी राग-द्वेष से मुक्त लेखनी को कुछ यों परिभाषित करते हैं, “उनकी व्यावहारिक आलोचना का वैशिष्ट्य यह है कि वे शमशेर और भवानी प्रसाद मिश्र पर विरोधी भाव से गरजते-बरसते नहीं हैं बल्कि इन कवियों की संवेदना के सकारात्मक पक्षों का उद्घाटन करते हैं।”

आलोचना से इतर शिवकुमार मिश्र ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के निदेशक रहते हुए अप्रैल १९७८ में कक्षा ग्यारह के विद्यार्थियों हेतु जीव विज्ञान की पाठ्यपुस्तक तैयार करवाई। इसके साथ ही एक पंजाबी-संस्कृत शब्दकोश के मुख्य संपादक की भूमिका भी निभाई। यह शब्दकोश विशेषतः आधुनिक युवाओं को लुप्त होती संस्कृत भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं के साम्य से परिचित कराने का एक नवीन प्रयास था। यह कार्य १९७९ में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अंतर्गत गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद के विद्वान प्राचार्य डॉ० गयाचरण त्रिपाठी के कुशल निर्देशन में इसी विद्यापीठ के भाषानुभाग द्वारा किया गया। शिवकुमार मिश्र इस विद्यापीठ के अध्यक्ष भी रहे।

 

मिश्र जी को सुनना तथ्यपरक और ज्ञानवर्धक होने के साथ ही अत्यंत रोचक हुआ करता था। उनके आचरण की सरलता उनकी भाषा में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती थी। उन्होंने भाववादी कला चिंतकों का खंडन करते हुए कला और साहित्य की लोकोत्तर व्याख्या करने वाले भौतिकवादी दर्शन की विशिष्टता का उल्लेख किया है। साहित्य और कला को विशिष्ट मानवीय उपलब्धि स्वीकार करने वाले मिश्र जी ने वर्ष २०१३ में २१ जून को अंतिम विश्राम पाया। साहित्य और कलाओं को लेकर इस सुलझे हुए आलोचक की मान्यता रही है कि “साहित्य एवं कलाओं के सामाजिक प्रतिमान का वास्तविक महत्व इस बात में है कि साहित्य एवं कलाएँ जीवन के दूसरे बुनियादी पक्षों से स्वतंत्र नहीं, वरन उनका ही एक अंग हैं, और जीवन के दूसरे बुनियादी प्रश्नों से उनके महत्व का एकांत मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।”


शिवकुमार मिश्र : जीवन परिचय

जन्म

३ सितंबर १९३०, उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के महोत्री गाँव

निधन

२१ जून २०१३

पिता

जदुनंदन प्रसाद

माता

पार्वती देवी

पत्नी

तारा देवी

शिक्षा

  • परास्नातक(१९५२), कानपुर

  • एल० एल० बी० (१९५३)

  • पीएचडी तथा डी० लिट, सागर विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश

  • आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निर्देशन में ‘छायावाद के पश्चात् हिन्दी कविता की विविध विकास दिशाएँ’ विषय पर 1956 से 1959 के मध्य अपनी पी.एचडी.

कार्यक्षेत्र

  • व्याख्याता व रीडर, सागर विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग (१९५९-१९७७)

  • प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष, सरदार पटेल विश्वविद्यालय, गुजरात (१९७७-१९९१)

  • जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष

  • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के निदेशक

  • भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के तहत १५ दिन की सांस्कृतिक यात्रा (१९९१)

साहित्यिक रचनाएँ

  • कामायनी और प्रसाद की कविता गंगा - १९५४ (अप्राप्य)

  • वृंदावनलाल वर्मा : उपन्यास और कला - १९५६

  • नया हिन्दी काव्य - १९६२

  • आधुनिक कविता और युग-दृष्टि - १९६६ (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-२०१२, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)

  • प्रगतिवाद - १९६६

  • मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत - १९७३

  • यथार्थवाद - १९७५

  • साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ - १९७७ (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-२०१२, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)

  • प्रेमचंद : विरासत का सवाल - १९८१

  • दर्शन साहित्य और समाज - १९८१

  • भक्तिकाव्य और लोकजीवन - १९८३ (इस नाम से वाणी प्रकाशन से; संशोधित-परिवर्धित संस्करण-२०१० में भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य नाम से लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से)

  • हिन्दी आलोचना की परम्परा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - १९८६

  • आलोचना के प्रगतिशील आयाम - १९८७ (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-२०१२ में आलोचना के प्रगतिशील सरोकार नाम से प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)

  • कहानीकार प्रेमचंद : रचना दृष्टि और रचना शिल्प - २००२ (लोकभारती से)

  • मार्क्सवाद देव मूर्तियाँ नहीं गढ़ता - २००५ 

  • साहित्य : इतिहास और संस्कृति - २०१०

  • मार्क्सवाद और साहित्य

  • हिन्दी साहित्य : संक्षिप्त इतिवृत्त

  • प्रेमचंद की विरासत और गोदान - २०११ (लोकभारती से)

  • साम्प्रदायिकता और हिन्दी उपन्यास - २०१५

सम्मान व पुरस्कार

  • डॉ॰ मिश्र को उनकी पुस्तक 'मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत' (१९७३) के लिए १९७५ में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया था।

  • गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार से भी पुरस्कृत

 

संदर्भ

  • आलोचना के प्रगतिशील आयाम - शिवकुमार मिश्र

  • मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन : इतिहास तथा सिद्धांत - शिवकुमार मिश्र

  • वृंदावनलाल वर्मा : उपन्यास और कला - शिवकुमार मिश्र

  • पंजाबी-संस्कृत शब्दकोश

 

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

मुझे उन किरदारों की दरकार नहीं

जो उलझनों को छुपा लेते हैं

मैं विचरती हुई एक राही हूँ 

उलझनें सुलझाती चलती हूँ

 

हिंदी विद्यार्थी

ईमेल : kavyasrishtibhargava@gmil.com 

5 comments:

  1. नपे तुले सधे और संतुलित शब्दों में सहेजा गया संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।

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  2. कनपुरिया क्यारी जैसी शुरुआती पंक्तियां ही पढ़ने की उत्सुकता बढ़ाती है, जितने बेबाक लेखक उतनी ही बेबाकी से लिखा है, बधाई सृष्टि जी

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  3. सृष्टि, लेख शुरूआती पंक्तियों से आखिरी तक पूरी तरह से बाँध कर रखता है और सिलसिलेवार तरीके से शिवकुमार मिश्र जी से मिलवाता जाता है, उनके प्रति मन में आदर-भाव जगाता जाता है। एक बार फिर उत्तम आलेख प्रस्तुत किया है तुमने। बधाई, शुभकामनाएँ और आभार।

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  4. सृष्टि जी नमस्ते। आपने शिवकुमार मिश्र जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपका हर लेख ही बहुत अच्छा होता है। आपके लेख के माध्यम से मिश्र जी के जीवन एवं साहित्य के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  5. सृष्टि जी, आपने इस लेख के माध्यम से शिवकुमार मिश्र जी की जीवन यात्रा और साहित्यिक योगदान के विस्तृत संसार से हम पाठकों को परिचित कराया है। आपका एक और जानकारीपूर्ण और रोचक लेख पढ़ने को मिला है। बहुत बहुत बधाई आपको।

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