Wednesday, June 15, 2022

कुशवाहा कान्त : साहित्य जगत के क्रान्तिकारी अमर शिल्पी


 

काशी को प्राचीन काल से साहित्यकारों की कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। कुछ नाम भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा जलाई गयी मशाल को अधिक प्रज्ज्वलित करने के लिए सदा जानेजाते रहेंगे - उनमें प्रसाद, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह आदि प्रमुख हैं। इस मशाल को अपनी लौ देने का श्रेय चिर-युवा साहित्यकार कुशवाहा कान्त को भी जाता है। इनका जन्म ९ दिसम्बर सन् १९१८ को मिर्ज़ापुर के महुवरिया में बाबू केदारनाथ जी के घर में हुआ था, लेकिन उनकी कर्मभूमि काशी बनी। अँग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़े और शीतलहरी के प्रकोप से सहमे जनमानस को तब पता नहीं था कि यह शिशु अपनी कलम से समाज में खलबली मचाएगा, लोगों की रगों में रक्त के प्रवाह को तेज़ करेगा और साहित्य को नई दिशा व नया आयाम देगा।


जिस समय बालक कुशवाहा किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था, उस वक़्त देवकी नन्दन खत्री के तिलस्मी उपन्यास का ख़ुमार छाया हुआ था। जब ये नौवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तो इन्होंने ‘ख़ून का प्यासा’ जासूसी उपन्यास लिखा। जल्दी ही ये ‘कुँवर कान्ता प्रसाद’ के नाम से ख्याति अर्जित करने लगे थे। उस समय साहित्यिक आकाश में दो ऐसे जगमग सितारे थे जिनसे इनका सम्बंध प्रगाढ़ किन्तु अदृश्य व अभौतिक था। ये थे श्रद्धेय त्रिलोचन शास्त्री व श्रद्धेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’। उग्रजी और कान्त (कुशवाहा कान्त) में गुरु द्रोण व एकलव्य सा सम्बंध था। उग्रजी इनके प्रमुख आलोचकों मे रहे और ये उनकी सकारात्मक टिप्पणी का इंतज़ार आजीवन करते रहे। वह मिली तो ज़रूर, पर मरणोपरान्त।

कान्तजी का भाषा भंडार अनोखा था, उनकी उक्तियाँ पिरोने की शैली, भावों में हिलोरे भरने का हुनर, मन को उद्वेलित और गुदगुदाने वाले प्रसंग ऐसे होते थे मानो युवा धड़कनों में कोई बिजली का संचार कर उन्हें आवेशित कर रहा हो। हर कोई उनकी किताबें पढ़ना चाहता था, लेकिन सबको यही ख़ौफ़ सताता रहता था कि, अगर किसी ने देख लिया तो? आख़िर क्या था उन किताबों में ऐसा, जिसने समाज में ऐसी हलचल मचा रखी थी? उन पर अश्लीलता का आरोप इसलिए लगाया जाता था, क्योंकि उन्होंने शरीर के उन अंगों को साहित्यिक शब्द दिए जो वर्जित थे। परंतु ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा था। समान शब्द जब छीतस्वामी (पुष्टिमार्ग) कहते हैं-

अतिहि कठिन कुच ऊंचे दोऊ नितंबनि से, गाढ़े, उर लाइकै, सुमेटी काम हूक।
खेलत में लर टूटी, उर पर पीक परी, उपमा कौ बरनत भई मति मूक॥

तब हम इसे भक्ति कहते हैं, जब कालिदास अभिज्ञान शाकुंतलम में इन शब्दों का प्रयोग करते हैं तो वह शृंगार कहलाता है। तो उन्हीं शब्दो का प्रयोग कुशवाहा कान्त के यहाँ अश्लील क्यों हो जाता है? क्यों सृजनात्मक उद्देश्य से किए गए उनके प्रयोग की सज़ा उन्हें उनकी हत्या के रूप में दी जाती है? हमारे समाज का यह दोगलापन क्यों? कुशवाहा कान्त ने ३४ वर्ष के अपने अल्प जीवनकाल में ३५ से अधिक उपन्यास लिखे। उनके उपन्यासों की विषय-वस्तु राजनीतिक, सामाजिक, तिलस्मी, जासूसी, अय्यारी, क्रांतिकारी के अलावा भी कई क्षेत्रों को छूती रही, उनके ब्योरे लेखकों के सामने लाती रही।

उनकी किताबें छपने के साथ ही आउट ऑफ स्टॉक हो जाती थीं। हर कोई उनकी किताबें बड़े चाव से पढ़ता था, उनका इंतज़ार करता था, पर सामाजिक धारणा ऐसी बन गयी थी कि कुशवाहा कान्त की किताबें घरों में वर्जित थी। इसलिए लोग उन्हें छुपा कर पढ़ा करते थे, कोई रज़ाई में घुस कर टॉर्च की मदद से, तो कोई छत की मुंडेर पर बैठ कर लोगों की नजरों से ओझल हो कर।

एक संस्मरण याद आता है। मैं कक्षा ९ का विद्यार्थी था, मुझे भी उपन्यासों की लत लग चुकी थी। कुशवाहा कान्त का उपन्यास 'लाल रेखा' जब पहली बार पढ़ा था तो एक अलग सा ही रोमांच हुआ था। किशोरावस्था में छुपकर पढ़े गए इस उपन्यास की कहानी से बहुत तरह के अनुभव एक साथ मिले थे- प्रेम कहानी तो थी ही, साथ ही इसमें देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे गुप्त क्रांतिकारियों का रोमांच था। हत्यारा कौन, की जगह इस उपन्यास में यह जानने की जिज्ञासा बनी रहती थी कि उस गुप्त क्रांतिकारी संस्था का मुखिया कौन निकलेगा? रहस्य जब अंत में खुलता है तो पाठकों को अवाक् छोड़ देता है। उपन्यास एक हल्की सी सिहरन वाले प्रेम का अनुभव तो कराता ही है, लेकिन देशप्रेम उसके ऊपर कहीं भारी सिद्ध होता है। मैं छुप कर उपन्यास पढ़ा करता था, और पढ़ लिए हिस्सों को क्लास में टिफ़िन के समय सहपाठियों को सुनाया करता था, सब बहुत उत्सुकता से आगे की कहानी सुनने के लिए बेचैन रहते थे। कहने का अर्थ यह है कि बड़े हों या छोटे, सब के अंदर उन दिनों कुशवाहा कान्त का नशा था। जी हाँ, उनके उपन्यास नशा होते थे।

‘कुशवाहा कान्त - साहित्य और परिचय’ पुस्तक में उनके मित्र केशर लिखते हैं, “तुमने लिखा और ख़ूब लिखा और लिख डाली एक लंबी दास्तान और ख़ुद भी बन गए दास्तान। तुम अंतर्मुख और तुम्हारा व्यक्तित्व अंतर्मुखी था।”

“मैं उन अभागे व्यक्तियों में से हूँ, जिनके साथ नियति ने गहरा मज़ाक़ किया है, अपनी श्रीमती जी ऐसी मिलीं कि घर से उदासीनता हो गयी, मैं अभागा लेखक केवल अपना शरीर लिए कुर्सी पर बैठा लिखा करता परंतु तुरन के आते ही मेरा उजड़ा संसार हरा-भरा हो गया, दिल के बिखरे टुकड़े एकत्रित होकर तुरन कि ओर आकर्षित हो गए, हृदय को स्वच्छ प्रेम पाकर शांति मिली।” यह अंश है उनके उपन्यास जलन का, परंतु लोग कहते हैं यह उनके जीवन की सच्चाई थी और तुरन का नाम उनके साथ जुड़ गया।

ज्वाला प्रसाद लिखते हैं, “भैया कान्त ने जलन, रक्तमन्दिर, और विद्रोही सुभाष में तुरन प्रकरण पर वास्तविकता की पॉलीश कर के उसे सजीव बना दिया था।”

हिंदी के सर्वाधिक पठित और लोकप्रिय लेखकों में से कुशवाहा कान्त एक थे। ये बनारस के ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बग़ावती तेवरों और लेखनी की रुमानियत को आज भी याद किया जाता है। स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारी पात्रों पर बुने गए इनके चर्चित उपन्यास 'लाल रेखा' को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में ग़ैर-हिंदी भाषियों ने हिन्दी सीखी थी। 'लाल रेखा' की लोकप्रियता आज तक अक्षुण्ण है।

चौंतीस वर्ष की उम्र तक इन्होंने ख़ूब लिखा। ख़ूब धारधारऔर धाराप्रवाह लिखा। तब तक बीए क्लास से ही शब्दकोश का इस्तेमाल शुरू होता था। कुशवाहा कान्त के आने के बाद इन्टरमीडिएट के छात्र भी डिक्शनरी तलाशने लगे थे। मसलन रान, जंघा, स्तन आदि शब्द तो आम थे, बोलचाल के थे। मगर उरोज, नितम्ब को व्यापक बनाया कान्त ने। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ट थी, अत: छात्र स्वत: द्विभाषी हो गये।

किस कसौटी पर हिंदी साहित्य में रचनाओं को लुगदी की श्रेणी में रखा जाता है, यह समझना एक मुश्किल काम है। रेल्वे व्हीलर्स और बस स्टैंड्स की दूकानों से ले कर फुटपाथों तक राज करने वाली हिन्दी साहित्य की इन पुस्तकों को समीक्षकों द्वारा कभी गंभीर समीक्षा के दायरे में नहीं रखा गया। मोटे, दरदरे, भूरे-पीले से काग़ज़ पर छपने वाला यह साहित्य पाठकों के दिल-दिमाग़ पर छाया रहता था। कहा जाता है कि माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर इन्हें पढ़ते थे। दूसरी ओर इनमें से कई लेखक ऐसे थे जिनके उपन्यास स्वयं माता-पिता की पहली पसन्द होते थे। लुगदी साहित्य की संज्ञा कुशवाहा कान्त के साहित्य को दी गयी। मैं इस सन्दर्भ में उनके उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ यहाँ अवश्य उद्धृत करना चाहूँगा, पाठक स्वयं निर्णय करें क्या यह साहित्य लुगदी है?

“मदमत्त मेघों ने स्वच्छाकाश पर अपना नृत्य आरंभ कर दिया। वायु वृक्षों के कोमल पल्लवों का आलिंगन करती हुई विचरण करने लगी, मयूर हर्षोत्फूल हो चीत्कार उठे। मनोरम वनस्थली के पक्षी वृक्षों की शाखाओं पर बैठ कर कलरव करने मे निमग्न हो गए। भुवन भास्कर के प्रज्ज्वलित मुख मण्डल को उमड़ती हुई सघन घन राशि ने आच्छादित कर लिया।” -उपन्यास कुमकुम।

कान्तजी के साहित्य को नकारने वाले अगर बहुसंख्या में थे तो उन्हें साहित्यिक जगत में सराहना भी भरपूर मिली।

डा. क्षमाशंकर पांडेय ने कहा कि कुशवाहा कान्त सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन किया। … कुशवाहा कान्त लालरेखा, विद्रोही सुभाष, लालकिला जैसी रचनाएँ लिख अमर हो गए। समाज की कुरीतियों पर उन्होंने जो ‌प्रहार किए, उन्हें नई पीढ़ी को पढ़ने की ज़रूरत है।

सामाजिक अनुसंधानकर्ता संबोधन कुशवाहा ने कहा कि कुशवाहा कान्त ने आज से ७० वर्ष पूर्व ही नक्सल समस्या को भाँप लिया था।

कुशवाहा कान्त ने बनारस में अपना निजी प्रकाशन-गृह ‘चिंगारी’ खोला नाम था। कबीरचौरा के इसी प्रेस में उनकी सनसनीखेज़ कृतियाँ छपा करती थीं। कान्त फरेबी नहीं, सीधे-सच्चे और नेक दिन इन्सान थे। लिखना-पढ़ना उनका जुनून था।

“चिंगारी’ का उस समय दूसरा या तीसरा अंक छप रहा था। हमारे परिचय का माध्यम भी ‘चिंगारी’ ही थी। मैं उस समय गोला दीनानाथ की किराना-दुकान में नौकरी करता था। सोचता हूँ तो रोमांच आता है, अगर कान्तजी के अपनत्व की छाया मुझे न मिली होती तो इसमें कोई संदेह नहीं, केशर, केशर नहीं, अपने पुश्तैनी-पेशे के रूप कोई दुकान कर लिए होता और आजीवन लौंग-मिर्ची-हल्दी के हिसाब-किताब के ग़र्क़ में रहता! वे मेरे गुरु नहीं, निर्माता थे!” - केशर

लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनख़ोर बन गए। कुशवाहा कांत लोकप्रियता के उच्च शिखर की ओर पहुँच ही रहे थे कि अचनाक सब कुछ बिखर गया। हिंदी जगत का यह धूमकेतु महज़ ३३ साल की उम्र में इस दुनिया से रुख़्सत हो गया। २९ फरवरी १९५२ को वाराणसी के कबीरचौरा के पास गुण्डों ने उन पर जानलेवा हमला किया और कुछ दिन अस्पताल में जीवन और मौत से जंग लड़ने के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। हिंदी जगत का महान लेखक देश के लाखों पाठकों को उदास कर गया।

बेचैन शर्मा ‘उग्र’ ने उनके अंतिम उपन्यास ‘ज़ंजीर’ मे एक लेख लिख इस उपन्यास को उनके भाई जयंत कुशवाहा से वर्ष १९५४ में पूरा करवाया। शब्द जो कुशवाहा कान्त की शख़्सियत को बयाँ करते हैं:

“भावुकता की बहस मे कहीं पाठकगण गोडसे पंथ के अनुगामी न बन जाएँ! वह मेरे बीहड़ मिर्ज़ापुर का अल्हड़ लेखक था। वही कुशवाहा कान्त, जो अभी नौजवान था। भले मानसों की राय मे वह बुरा लेखक था। इसलिए नहीं कि वह यौन-सनसनी लिखता था, बल्कि इसलिए कि वह बाज़ार में सफल था। कुशवाहा कान्त के आगे पीछे यौन-सनसनी लेखक भरे थे, उन सबकी आँखों का यह काँटा था। … उसे अगर आदर देकर बढ़ावा दिया गया होता तो संभव था वह और भी उत्तम साहित्य रचता। पर हमारे यहाँ ऐसा प्रचलन नहीं।”

वर्तमान में नकारात्मक विज्ञापन को प्रचार-प्रसार का सशक्त उपकरण माना जाता है, परन्तु उन दिनों किसी पर लाँछन लगाने का मतलब उसकी छवि को धूमिल करना होता था। विश्वनाथ मुखर्जी जैसे विद्जन तक को उनकी किताब पढ़ने की इच्छा न हुई।

“आसाम के घने जंगलों में, नेपाल की तराई में, मध्य प्रदेश के बंजर इलाक़े में और राजस्थान की रेतीली भूमि में जहाँ भी गया, वहाँ वक़्त काटने के लिए जब गृहस्वामी से कोई पुस्तक माँगी तो मुझे ‘कान्त साहित्य’ ही पढ़ने को दिया गया; फिर क्यों नहीं पढ़ा। पता नहीं क्यों? इच्छा ही नहीं हो पाई।”- विश्वनाथ मुखर्जी

अहिन्दी क्षेत्र में हिन्दी पढ़ने की ललक के बढ़ने का कारण भी काफी हद तक कुशवाहा कान्त ही रहे। उनकी चन्द अनुवादित रचनाओं को पढ़ने के बाद उत्पन्न ख़ालीपन की प्यास बुझाने के लिए लोगों की रुचि मूल रचना पढ़ने की ओर बढ़ी। कितनों ने नागरी लिपि सीखी!

“मैंने कान्त-साहित्य अधिक नहीं पढ़ा है। फिर भी जितना पढ़ा है उसके आधार पर कह सकता हूँ कि उसमें अश्लीलता उतनी नहीं है, जितनी बताई जाती है। उनके उपन्यास कथा-संघटन की दृष्टि से बहुत अच्छे बन पड़े हैं। और अनेक दोषों के होते हुए भी उनकी रचनाओं में कथा-तत्त्व का आकर्षण सर्वोपरि रहता है। उनके चरित्रों में जीवन की गुत्थियों के पेंच नहीं हैं। अधिकतर किशोर और किशोरियों के जीवन की गाथाएँ हैं। इसी कारण उनके पाठक भी किशोरवय के ही हैं और इन पाठकों की संख्या उनके अवसान के बाद भी कम नहीं हुई है। उनकी कोई भी कृति पढ़ने के बाद, पाठक दूसरी कृति पढ़ने के लिए बेताब हो उठते हैं।” - त्रिलोचन

साहित्य समाज का दर्पण होता है, अगर किसी कृति के पात्र किशोर-किशोरियाँ हैं, तो उसमें उनके विचारों का प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। यह उम्र शारीरिक विकास के साथ मन में अनेक सवाल खड़े करती है, उनको अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग कर यदि लेखक समाज के सामने लाता है, तो समाज उसे धिक्कारता क्यों है? क्या यह स्वयं को समान विचारों से दूर बताने का छल नहीं है? छल क्या जीवन और साहित्य का सार हो सकता है? हर सत्य को दबाने के लिए असत्य घातक वार करता है। उभरते हुए लेखक कुशवाहा कान्त की लेखनी को विराम दिलाने का उद्देश्य भी अपने दोगलेपन पर पर्दा डालना था। बहरहाल हमने एक ऐसे लेखक की आवाज़ को दबा दिया, जिसके पास भाषा थी, शैली थी, कथा-तत्त्व था; यानी हमने ख़ुद की विरासत को स्वयं ही समृद्ध होने से रोक दिया।

कुशवाहा कान्त : संक्षिप्त परिचय

मूल नाम

कान्त प्रसाद कुशवाहा

औपन्यासिक नाम

कुशवाह कान्त, कुँवर कांता प्रसाद,

महाकवि मोची

जन्म

९ दिसंबर १९१८,  मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश

मृत्यु

२९ फरवरी १९५२ 

संपादित पत्रिकाएँ

चिंगारी, नागिन (मासिक), बिजली

उपन्यास

लाल रेखा

पपीहरा

परदेशी

परदेशी द्वितीय

पारस

जंजीर

मदभरे नैना

नागिन

विद्रोही सुभास

उसके साजन

जवानी के दिन

हमारी गलियां

खून का प्यास

रक्त मंदिर

दानव देश

गोल निशान

उड़ते उड़ते

पराजित

काला भूत

कैसे कहूँ

लाल किले की और

निर्मोही

लवंग

नीलम

आहुति

बसेरा

इशारा

जलन

कुमकुम

पागल

मँजील

भँवरा

चूड़ियाँ

अकेला

अपना पराया

 

उनके नाम से नकली उपन्यास

आहट, काजल, कलंक, कटे पंख, उपासना


























सन्दर्भ:

१. विकिपिडिया
२. कुशवाहाकान्त मेरी दृष्टि में
३. कुशवाहा कान्त परिवार फेसबूक ग्रुप
४. विभिन्न समाचार पत्रों के आलेख
५. उनकी पुस्तकों के परिशिष्ट

लेखक परिचय: 


सुरेश चौधरी
विज्ञान स्नातक, चार्टर्ड अकाउंटेंट, अर्थशास्त्र विशेषज्ञ, मानद विद्यावाचस्पति हिंदी हैं। २९ पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं। ये मुख्यतः अध्यात्म,धर्म, यात्रा संस्मरण, काव्य, बालकविता, आर्थिक विषयों पर लिखते हैं। स्टेनलेस स्टील में विशेष कार्य हेतु भारत गौरव सम्मान। राजभाषा केंद्रीय सचिवालय द्वारा साहित्य गौरव सम्मान, प० बंगाल राजयपाल द्वारा प्रदत्त। अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मलेन द्वारा भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार साहित्य शिरोमणि सम्मान। दामोदर चतुर्वेदी साहित्य शिखर सम्मान।

3 comments:

  1. श्री चौधरी जी का आभार, इस शानदार और सूचनाओं से भरपूर लेख के लिए. मैं भी उन लोगों में से हूं जिन्होंने कुशवाहा कांत (और प्यारे लाल आवारा) के उपन्यासों से साहित्य के साथ अपने रिश्ते की शुरुआत की. लेकिन इनके बारे में कभी ज़्यादा जानने का मौका नहीं मिला. यह लेख बहुत सारी जानकारियां देता है. इसके लिए आभार. एक निवेदन. कृपया 'उग्र' जी का नाम ठीक कर दें. उनका नाम था- पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'. एक बार फिर आभार, और बधाई भी.

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  2. प्रख्यात उपन्यासकार श्री कुशवाहा जी पर आदरणीय सुरेश जी द्वारा लिखित आलेख बहुत ही ज्ञानवर्धक साबित हो रहा है। युवावस्था में कॉलेज के समय में कभी कभी कुशवाहा जी का नाम अपने गुरुजनों से कानो पर पड़ता था पर कभी उन्हें पढ़ने का मौका नही मिला। आज आपके आलेख द्वारा उनके बारे में जानने और पढ़ने की ललक जागृत हुई है। अतिवृस्तत और उत्कृष्ट शब्दसंकल्पना से लिखे आलेख के लिए आपका आभार और अनंत मंगलकामनाएं।

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  3. सुरेश जी नमस्ते। कुशवाहा कांत जी पर आपका लेख जानकारी भरा था। मुझे कभी इनको पड़ने का अवसर नहीं मिल पाया इसलिए उपलब्ध जानकारी मेरे लिए एकदम नई थी। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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