सुनो ऐ हिन्द के बच्चो तुम्हारी है ज़ुबाँ हिन्दी
तुम्हारा हो यही नारा – “हमारी है ज़ुबाँ हिन्दी”
पढ़ो हिन्दी! लिखो हिन्दी! करो सब काम हिन्दी में
अजब दिलकश तुम्हारा हो, अजी तर्ज़े बयाँ हिन्दी
मिली है फ़ारसी-अरबी, मिली है प्राकृत–औ-देशी
भरी आला ख़्यालों से तुम्हारी मेहरबाँ हिन्दी
हज़ारों लफ़्ज़ आएँगे नए, आ जाए क्या डर है
पचा लेगी उन्हें हिन्दी, कि है ज़िंदा ज़ुबाँ हिन्दी
‘कलन्दर’* मुर्शिदे कामिल बड़े ही साफ़गो हो तुम
ज़ुबाँ है हिन्द की हिन्दी, पढ़ेगा सब जहाँ हिन्दी
(कलन्दर नवरत्न जी का उर्दू तख़ल्लुस है)
'हिन्दी से प्यार है' की इससे अनूठी दास्तान नहीं देखी। हिन्दी के इस अनन्य प्रेमी को इतिहास के पन्नों से खोज कर निकालना हर हिन्दी प्रेमी के लिए सौभाग्य की बात होगी। हिन्दी सेवा में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले परम श्रद्धेय पण्डित गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’ का व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली और सहज ही आकर्षित करने वाला था – सुडौल देह, उन्नत ललाट, सौम्य और सरल स्वभाव। प्रस्तुत है उनके जीवन वृत्त के कुछ अनछुए पल,
एक इतिहासकार का इतिहास
पण्डित गिरिधर शर्मा के पितामह गणेशराम राजस्थान के झालावाड़ राज के प्रथम शासक मदनसिंह के प्रथम राजगुरु बने और तभी से यह परिवार झालावाड़ में बस गया। यह परिवार आरम्भ से ही अपनी विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध था। गणेशराम के पुत्र और गिरिधर के पिता बृजेश्वर भट्ट संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्हीं विद्वान् के घर झालरापाटन में ६ जून १८८१ (ज्येष्ठ शुक्ल ८ विक्रम संवत् १९३८) को गिरिधर शर्मा इस धरा पर आए। पिता के रहते पुत्र को प्रारम्भिक शिक्षा के लिए कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। घर पर ही हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, प्राकृत, फ़ारसी जैसी विभिन्न भाषाओं की शिक्षा देकर उनकी नींव मज़बूत की। तत्पश्चात्, जयपुर भेजा जहाँ उन्होंने प्रश्नवर श्री कान्हजी व्यास तथा परम वेदान्त द्रविड़ श्री वीरेश्वर शास्त्री के पास संस्कृत पञ्च-काव्य तथा संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। इसके बाद वे काशी गये जहाँ महामहिम पण्डित गंगाधर शास्त्री से संस्कृत साहित्य एवं दर्शन का विशिष्ट अध्ययन किया। यहीं, गुरु शिवकुमार शास्त्री ने शिष्य गिरिधर से अत्यंत प्रसन्न होकर एक दिन शिष्य मंडली के बीच उन्हें ‘नवरत्न’ से संबोधित किया और तभी से यह उपनाम उनके साथ जुड़ गया। काशी से शिक्षा समाप्त कर वे १९ वर्ष की अवस्था में झालरापाटन लौट आये।
मातृभाषा गुजराती होते हुए भी गिरिधर शर्मा को हिन्दी के प्रति विशिष्ट अनुराग था। परतन्त्र भारत में जन्मे इस स्वतन्त्र सोच वाले प्रतिभावान् व्यक्ति ने भाषा को राष्ट्र के सम्मान और पहचान का हिस्सा बताया। उन्होंने महसूस किया कि प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र की अपनी एक भाषा है जिसमें बच्चों का परिपूर्ण शिक्षण होता है। यह भारत का दुर्भाग्य था कि इसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं थी। यदि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी अपनाई भी जाती तो देश की भावी पीढ़ी के चरित्र-निर्माण संबंधी कोई सामग्री हिन्दी में उपलब्ध नहीं थी। उनका स्वाधीन मन हिन्दी के उत्थान, प्रचार-प्रसार और साहित्य संवर्धन के संकल्प से साथ मैदान-ए-जंग में उतर आया और फिर उन्होंने जो किया वह इतिहास बन गया।
एक कवि, साहित्यकार, अनुवादक, संपादक या संस्कृत सृजनकर्ता : एक नायाब नवरत्न
अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को प्रकट करने के लिए साहित्य का सहारा लेना और बात होती है और भाषा तथा देश को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से सृजन करना कुछ और – प. शर्मा की समस्त रचनाएँ दूसरी श्रेणी के अंतर्गत शामिल की जा सकती हैं। उनकी काव्यगत रचनाएँ देशप्रेम और उच्च विचारों की बहती धारा है जिसमें डूबकर प्रत्येक भारतीय भाग्य पर इठला सकता है।
जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
महिमंडल में सबसे बढके
हो तेरा सन्मान
सौर जगत् में सबसे उन्नत
होवे तेरा स्थान
अखिल विश्व में सबसे उत्तम
है तू जीवन प्रान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
धर्मासन तेरा बढकर है
रक्षक तेरा गिरिवरधर है
न्यायी तू है तू प्रियवर है
है प्रिय तव सन्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
महिमंडल में सबसे बढकर
सौर जगत् में सबसे उन्नत
अखिल विश्व में सबसे उत्तम
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
जय जय जय जय हिन्दुस्तान
कविताओं के साथ-साथ उनकी कलम ने गद्य भी रचा। उन्होंने गद्य सृजन भी दो प्रयोजनों से किया – पहला तो यह कि गद्य भाषा सृजनात्मक कला-शैलियों और समीक्षा के लिए पुख्ता हो सके और दूसरा यह कि राज-काज, लोक-व्यवहार, शिक्षा-संस्कृति, बोल-चाल की प्रामाणिक और संस्कारशील भाषा की तरह पहचानी जा सके। इसी दिशा में १९०६ में उन्होंने ‘विद्याभास्कर’ नामक पत्र निकाला और तरह-तरह का गद्य लिखा। पण्डित जी ने हज़ारों पद्य पंक्तियाँ इस शैली में लिखीं -
बजने लगा भड़ाभड बाजा, चढ़े ब्याह करने वर राजा
चार जनों ने इन्हें उठाया, गली-गली में खूब घुमाया
देख-देख पुर के नर-नारी, खूब हँसे दे दे कर तारी
वर राजा तोरण पर आये बेटी ने टोडरमल गाये
जब देखा वर को कन्या ने, लगी रक्त के आँसू पीने
बोली, “मैं न ब्याह करुँगी, यों न अपना जीवन दूँगी
माता पिता भाई मतिमान, किस को देनी कन्यादान?
इसका करिए नेक विचार, मत करिए यों अत्याचार।”
(वृद्ध विवाह के कुछ अंश)
१९१२ में उन्होंने झालरापाटन में श्री राजपुताना हिन्दी साहित्य सभा की स्थापना की, जिसके संरक्षक झालावाड़ नरेश श्री भवानी सिंह बने। इस सभा का उद्देश्य ‘हिन्दी भाषा की हर तरह से उन्नति करना और हिन्दी भाषा में व्यापार-वाणिज्य, कला-कौशल, इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजनीति, राजनीति, पुरातत्व, साहित्य, उपन्यास आदि विविध विषयों पर अच्छे-अच्छे ग्रन्थ प्रकाशित कर सस्ते मूल्यों पर बेचना’ था। कुछ स्वार्थी धन-लोभियों ने इसकी संपत्ति पर अधिकार कर इसे मृत-प्राय कर दिया। इस सभा द्वारा प्रकाशित साहित्य – जिसमें पण्डित जी की कई अलभ्य कृतियाँ हैं – अब कुछ सेठों के झालरापाटन स्थित पुस्तकालय में दीमकों की ग्रास बन गई हैं।
पण्डित जी ने १९१२ में ही भरतपुर में ‘हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना करके वहाँ के कार्यकर्ताओं को हिन्दी की श्रीवृद्धि, प्रचार-प्रसार एवं साहित्य-संवर्धन का कार्य सौंपा। १९०७ में पण्डित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ मिलकर जयपुर में ‘साहित्य संसद’ तथा कोटा में ‘भारतेन्दु समिति’ के निर्माण में उनका योगदान अविस्मरणीय है। अपने निरंतर प्रयास व परिश्रम के बलबूते उन्होंने १९१४ में इंदौर जैसे कट्टर मराठा राज्य में ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना था। १९३५ में, जब भारतेन्दु इस समिति के अध्यक्ष बने तब इस संस्था को पुनर्जीवन और स्थायित्व मिला, किन्तु हिन्दी विश्वविद्यालय का सपना साकार न हो सका।
इंदौर से पण्डित जी कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित होने बम्बई (अब मुम्बई) पहुँचे जहाँ उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। उन्होंने बेझिझक भारत की एक राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ का दीक्षा मन्त्र गाँधी जी को भी दिया और अगले ही वर्ष १९१८ में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी घोषित कर दी गई। उन्हीं दिनों बम्बई की हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे महामना मदन मोहन मालवीय से निर्भीक स्वर में कहा, “मालवीय जी हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा देश का मान पा सकते हैं किन्तु गिरिधर शर्मा से सम्मान तभी पा सकेंगे जब हिन्दू विश्वविद्यालय को हिन्दी विश्वविद्यालय बना देंगे।”
चरित्र-निर्माण में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ऐसा मानने वाले नवरत्न जी ने नन्हें शिशुओं के लिए प्रार्थनाएँ लिखीं, ‘बच्चा’ कविता द्वारा स्वर्णिम भारत के बालक का चित्र प्रस्तुत किया, नौजवानों में देशप्रेम जागृत करने के लिए ‘राष्ट्रीय गान’ एवं ‘मातृभूमि वंदना’ लिखे और ‘नवरत्न वर्णमाला’ तथा ‘सर्वोदय अक्षरबोध’ की रचना कर हिन्दी की परिपुष्ट निर्माण-सामग्री तैयार की।
है प्रार्थना तुझसे यही
मुझको प्रभो बल-वीर्य दे।
उड़ जाए निर्बलता सकल,
हिय से, मुझे वह वीर्य दे ।।
आनंद से सुख में रहूँ
आनंद से दुःख मैं सहूँ।
सुख-दुःख में इक सा रहूँ
मुझको प्रभो वह वीर्य दे ।।
(गीतांजलि के हिन्दी अनुवाद से कुछ अंश)
गद्य और पद्य दोनों में पण्डित जी ने ऐसे कवियों की कृतियों का हिन्दी रूपांतरण करने का निश्चय किया जो अपनी रचनात्मकता के कारण विश्व विश्रुत थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर कृत ‘गीतांजलि’ की प्रतिभा उन्होंने नोबल पुरस्कार मिलने से पहले ही पहचान ली थी और इसका सर्वप्रथम पद्यानुवाद कर ठाकुर जी को भी मंत्रमुग्ध कर दिया था। भरतपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के २७वें अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ ने स्वयं पण्डित जी से गीतांजलि को देववाणी संस्कृत में अनूदित करने का अनुरोध किया था जिसे पण्डित जी ने शीघ्र ही मूर्त रूप दिया और संस्कृत गीतांजलि का सृजन हुआ। पण्डित जी ने रवीन्द्रनाथ की कई अन्य कृतियों जैसे ‘गार्डनर’, ‘द क्रेसेंट मून’, फ्रूट-गैदरिंग’, ‘चित्रा’ का बांग्ला से हिन्दी (बागवान, बालचन्द्र, फल-संचय तथा चित्रांगदा) में अनुवाद किया। ‘बागवान’ संभवतः हिन्दी की पहली अनूदित काव्यकृति है जिसका उल्लेख महाकवि निराला ने ‘परिमल’ के प्रथम संस्करण की भूमिका में किया था।
संस्कृत के अतुकांत छंदों में पण्डित जी की ‘सावित्री’ खण्ड-काव्य हिन्दी ‘प्रिय प्रवास’ से भी पूर्व की रचना है। उन्होंने जिस भी साहित्य में सुन्दर कृतियाँ देखीं, उनका रूपान्तर हिन्दी में किया और दूसरों को प्रेरणा देकर करवाया। गुजरात के कवि सम्राट् दलपतराम के काव्य को हिन्दी में उपलब्ध कराया; संस्कृत के माघ-काव्य और भर्तृहरि के नीतिशतक को हिन्दी और गुजराती में अनूदित किया; अंग्रेज़ी की अनेकों रचनाओं को अनूदित कर हिन्दी का कंठहार बनाया। शेली, जॉन कीट्स, विलियम वर्ड्सवर्थ, बाइरन, टेनिसन, शेक्सपियर, मिल्टन सरीखे कवियों की कविताओं के अतिरिक्त ऑलिवर गोल्डस्मिथ के प्रसिद्ध काव्य ‘द हर्मिट’ का संस्कृत और हिन्दी रूपांतरण, तथा महाकवि थॉमस ग्रे के सुप्रसिद्ध शोक काव्य ‘एलिजी’ (Elegy) का संस्कृत भाषांतरण ‘करुणप्रशस्ति’ के नाम से किया। उन्होंने अंग्रेज़ी की ‘सौनेट’ (sonnet) को हिन्दी लक्षणों में गूंथकर उन्हें ‘सोन्नत’ नाम दिया। इनके अतिरिक्त सूफ़ी कवि बाबा ताहिर, अंग्रेज़ी कवि फिट्ज़राल्ड, कवि कन्हैयालाल की ‘प्रेमकुंज’ जैसे अनेकों रचनाकारों की पुस्तकों का अनुवाद किया।
पण्डित गिरिधर शर्मा आर्य-भारत के महान् स्वप्नद्रष्टा थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ी भाषा की पराधीनता में जकड़ा यह राष्ट्र सही मायनों में तभी स्वतंत्र होगा जब इसकी अपनी स्वतंत्र भाषा होगी – राष्ट्रभाषा हिन्दी - और दुनिया भर का साहित्य उस भाषा में सहज उपलब्ध होगा। जिस दिन स्वाधीन भारत दो खण्डों में विभाजित हुआ और आगामी पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेज़ी देश की राजभाषा घोषित हुई उस दिन उनकी वेदना का पार न रहा और उनकी ज़ुबान से ये बोल फूट पड़े -
“कैसा हिन्दुस्तान, पाकिस्तान क्या?
आह! मुझको हो रही है वेदना!”
पण्डित जी को संस्कृत से भी अथाह प्रेम था। उन्होंने ‘नवरत्न नीति’ नाम से युगभावना की बोधक अपनी नीति लिखी, नागरिक शास्त्र लिखा, युग बोधिनी ‘प्रश्नोत्तर-रत्नमाला’ लिखी। उन्होंने उमर खैयाम की रुबाइयों का हिन्दी और संस्कृत भाषांतर कर विश्व में ख्याति प्राप्त की, जिसे पढ़कर बर्लिन युनिवर्सिटी के संस्कृत के प्रोफ़ेसर जर्मनी से उनके निवास ‘नवरत्न सरस्वती भवन, झालरापाटन’ आ पहुँचे।
रात-दिन अध्ययन और लेखन में रमे रहने के कारण उनके आँखों की रोशनी क्षीण होने लगी थी और १९३८ आते-आते वे पूर्णतः दृष्टिहीन हो गए। उस अवस्था में भी उनका स्वाध्याय, लेखन, मनन-चिंतन अनवरत चलता रहा। वे सच्चे अर्थों में मानवतावादी महामानव थे।
सुख-दुःख की आँख-मिचौली
यों तो मानव जीवन सुख-दुःख साथ लेकर आता है, किन्तु नवरत्न जी के जीवन में दुःख का भाग अधिक रहा। काशी में अध्यापन के दौरान पिता की मृत्यु का समाचार संभवतः हृदय पर वज्रपात का पहला अवसर था। तभी, आत्म-हत्या की भावना से ग्रस्त वे लिखते हैं, “मैं गंगा के जल में उतरता चला गया। छाती तक गहराई में पहुँच कर सोचा कि आगे छलाँग लगा कर प्रवाह में अपने शरीर को विसर्जित कर दूँ कि एक आवाज़ आई - “ठहर! अभी बहुत काम करना है।” – मैं जैसे सोते से जाग पड़ा और बाहर निकल आया।”
अंग्रज़ों के सितम से रियासत छोटी होती चली गई, सम्पन्नता विपन्नता में बदलने लगी – संचित संपत्ति, उजाड़ भूमि, स्त्रियों के गहने – सभी परिवार की अभावग्रस्त स्थिति को सँवारने में लग गए। एक बार अर्थाभाव ने दरवाज़ा क्या खटखटाया, विपन्नता ने जीवन भर पीछा नहीं छोड़ा। इसी बीच ज्येष्ठ पुत्र प. ईश्वरलाल शर्मा ‘रत्नाकर’ की असामयिक मृत्यु ने परिवार पर मानो कहर बरसा दिया हो। एक नेत्रहीन पिता पुत्र-शोक की हृदय विदारक घटना से टूटने के बजाय मज़बूत इरादों से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा रहा। धीरे-धीरे उनका अपना शरीर रोगग्रस्त हो गया – कैंसर के प्रकोप से शरीर शनैः शनैः क्षीण हो रहा था किन्तु मन का जोश बरकरार रहा - न अनुसंधान में कमी आई, न लेखन-मनन में। उनकी पुत्री शांति ‘साधिका’ अपने पिता को याद करते हुए कहती हैं, “पिता जी ने जीवन भर नैतिक मूल्यों, राष्ट्रीयता और हिन्दी राष्ट्रभाषा के लिए संघर्ष किया। यही उनकी राजनीति थी। उसी के वे स्तम्भ रहे।”
१ जुलाई १९६१ को प्रातः ४ बजे कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी से लड़ते हुए वे समाधिस्थ हो गए। अपने समाधि स्थल पर अंकित करने के लिए उन्होंने निम्न कविता लिखी -
अनुचित-सत्ता वशीभूत हो शीश झुकाना।
कायरता का काम सदा जिसने था माना।।
रहा सदा स्वाधीन, किया निज मन का चाहा।
दिया सत्य उपदेश, उच्चतर चरित निबाहा।।
दुःखों से नहीं डिगा, न फूला सुख में आकर।
सोता है इस ठौर वही कवि गिरिधर नागर।।
पण्डित शर्मा : अपने समकालीन साहित्यकारों की दृष्टि में
“नवरत्न जी सच्चे अर्थो में द्विवेदी युग के सच्चे प्रतीक तो थे ही, इसके आलावा नवयुग के संदेशवाहक भी थे। उनमें नये और पुराने इन दो युगों का अद्भुत सम्मिश्रण था। वे दो युगों की संधि के सच्चे प्रतिबिम्ब थे। उन्होंने अपने नेत्रों की ज्योति खोकर अपनी पारसगुण युक्त दिव्यदृष्टि से दूसरों के मानस के अँधकार को दूर किया और उनका अंतर प्रकाशमान बनाया।” – हरिभाऊ उपाध्याय
“पण्डित जी के घर का वातावरण पुस्तकमय था। हर कमरे में पुस्तकों के अम्बार थे। घर में कोई और सामान शायद ही दिखाई देता। पण्डित जी का देश के चोटी के विद्वानों एवं लेखकों से संपर्क या परिचय था। वे अपनी नव-प्रकाशित पुस्तकें उनके पास भेजते थे। उस ज़माने के शायद ही किसी प्रतिष्ठित हिन्दी लेखक की स्व-हस्ताक्षरित रचनाएँ उनके भण्डार में न रही हों।” – मूलचंद पाठक
पण्डित गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’ : संक्षिप्त जीवन परिचय
|
नाम
|
पण्डित
गिरिधर शर्मा
|
उपनाम
|
नवरत्न
|
अलंकृत
उपाधियाँ
|
'साहित्य वाचस्पति' - हिन्दी साहित्य सम्मेलेन
प्रयाग
'विद्या वाचस्पति' - झालावाड राज्य
'काव्यालंकार' - सनातन धर्मसभा कलकत्ता
'व्याख्यान भास्कर' - चतुःसम्प्रदाय वैष्णव
महासभा पाटलिपुत्र
'विद्या महार्णव' - मध्य भारत विन्ध्य सभा
इन्दौर
'प्राच्य विद्या महार्णव' - संस्कृत सभा
कलकत्ता एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय ने संयुक्त रूप से
|
जन्म
|
६ जून, १८८१ झालरापाटन (झालावाड़ राज्य) (राजस्थान)
|
मृत्यु
|
१ जुलाई
१९६१ (३० जून की देर रात या प्रातः ४ बजे के आस-पास निधन; १ जुलाई को प्रातः ७:०० बजे की रेडियो बुलेटिन में मृत्यु की घोषणा
|
पिता
|
पण्डित बृजेश्वर भट्ट
|
भाषा
ज्ञान
|
संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी, बांग्ला, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, ब्रज, फ़्रेंच तथा जर्मन
|
समितियों
की स्थापना
|
साहित्य
संसद, जयपुर (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ)
१९०६
राजपूताना
हिन्दी साहित्य सभा, झालरापाटन १९१२
हिन्दी
साहित्य समिति, भरतपुर १९१२
मध्य-भारत
हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर १९१४
|
समकालीन
साहित्यकारों की नज़र में
|
आचार्य
रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, निराला, पं. सूर्यनारायण व्यास, क.मा. मुंशी जैसे
राष्ट्रीय साहित्यकारों ने उनकी अपने साहित्य में मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
|
सृजन
संसार
|
|
पं.
नवरत्न ने अपने जीवनकाल में लगभग १५० ग्रन्थ रचे, जिनमें
१२५ प्रकाशित- हस्तलिखित रूप में उपलब्ध हैं। इनमें से तीन चौथाई ग्रन्थ काव्य
के है। इनमें खण्ड- काव्य, कविता, संकलन, दोहावलियाँ, नीतिसूक्तिसुधाकर, लम्बी कविताओं का संकलन, प्रकृति सम्बन्धी कविताएँ, नई धारा की रोशनी
व स्वच्छन्द शैली की रचनाएँ है।
|
खण्ड
काव्य
|
'सावित्री' १९११
युग पलटा
|
संपादन
एवं प्रकाशन
|
विद्याभास्कर
१९०६
वीणा, इंदौर
|
अनुवाद
|
अमर
सूक्ति सुधाकर - उमर खैय्याम की रूबाईयाँ
योगिराज
भतृहिरि, महाकवि माघ, रविन्द्रनाथ टैगोर की क्रमशः नीतिशतक, शिशुपाल
वध, गीतांजलि
|
लोकप्रिय
कृतियाँ
|
अमरसूक्तिसुधाकर, प्रेमपयोनिधि, न्यायवाक्सुधा, नवरत्ननीति, गिरिधर सप्तशती, नीतिसौन्दर्योद्यानम्, रजप्रभा, फल संचय, राई का पर्वत (नाटक), जया जयन्त (नाटक), अमर वचन सुधा, प्रेमकज, भीष्म प्रतिज्ञा
|
अप्रकाशित
रचनाएँ
|
‘सद्वृत्त
पुष्प गुच्छ’, ‘कारक रत्नम’, ‘अभदे रस’ समेत कई गद्य एवं पद्य
|
|
श्री
भवानी सिंह कारक रत्नम्, श्री भवानी सिंह सद्वृत्त गुच्छ:,
नवरत्न नीति:, गिरिधर सप्तशती, प्रेम पयोधि, योगी, अभेद रस:,
माय वाक्सुधा सौरमण्डलम्, जापान विजय,
आर्यशास्त्र, व्यापार-शिक्षा, शुश्रूषा, कठिनाई में विद्याभ्यास, आरोग्य दिग्दर्शन,
जया जयंत, राइ का पर्वत, सरस्वती यश, सुकन्या, करूणप्रशस्ति,
ऋतु-विनोद, शुद्धाद्वैत-कुसुम-रहस्य,
चित्रांगदा, भीष्म-प्रतिभा, कविता-कुसुम, कल्याण-मन्दिर, बार-भावना, रत्न करण्ड, निशापहार
|
सन्दर्भ:
- पण्डित गिरिधर शर्मा नवरत्न व्यक्तित्व और
कृतित्व, नन्द
चतुर्वेदी, प्रथम
संस्करण १९८५
- कविताकोश
- राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर
- राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
लेखक परिचय
मास्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म में स्वर्ण पदक प्राप्त दीपा लाभ विभिन्न मीडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। हिन्दी व अंग्रेज़ी भाषा में क्रियात्मकता से जुड़े कुछ लोकप्रिय पाठ्यक्रम चला रही हैं। इन दिनों ‘हिन्दी से प्यार है’ की सक्रिय सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं।
ईमेल - journalistdeepa@gmail.com
व्हाट्सएप - +91 8095809095
बहुत ही बढ़िया लेख । पंडित जी के बारे में बहुत से विषयों की जानकारी प्राप्त हुई। ' भूली बिसरी महान आत्माओं को ससनेह नमन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख है, दीपा जी।शोध पर मेहनत हुई है; भाषा रोचक है, प्रवाहमय है; उद्धरण अच्छे हैं। आपको इतनी जानकारी निकाल लाने के लिए धन्यवाद, बधाई।
ReplyDelete💐
हम जब वह करते हैं जिससे हम प्यार करते हैं तो हम बहुत कर पाते हैं और अच्छा कर पाते हैं। नवरत्न जी इतना कुछ, इतना अच्छा इसलिए कर पाए कि उन्हें हिंदी से प्यार था। काम उनके प्यार की अभिव्यक्ति था, ढोया जाने वाला बोझ नहीं। 😊🌹
पंडित गिरिधर शर्मा नवीन जी का हिंदी प्रेम और उनके कार्य के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा। दीपा जी, आपने हिंदी के उन रत्नों को ढूंढकर लाया है, जिनके दर्शन करके हम धन्य हुई है। हार्दिक साधुवाद 👏💐
ReplyDeleteदीपा, पंडित गिरिधर शर्मा जी पर यह शोधपरक और जानकारीपूर्ण लेख पढ़कर उनकी लगन, मेहनत और ध्येय के प्रति एकाग्रता के बारे में जानकर विस्मित हूँ। अपने लिए निर्धारित किए पथ पर सदा चलते रहे और कैन्सर जैसी बीमारी या आँखों की रोशनी जाना, जैसी बाधाएँ उन्हें विचलित न कर सकीं। अपने अथक परिश्रम से हिंदी को अन्य भाषाओं का साहित्य दे गए। सादर नमन है गिरिधर जी को। तुम्हें इस भेंट के लिए आभार और उत्तम लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन दीपा जी।आप समाज जीवन के नायकों को समाज के बीच लाने का कार्य अपने लेखनी के माध्यम से कर रहीं हैं।आप और आपका संगठन बधाई के पात्र है।
ReplyDeleteसुंदर आलेख के लिए हार्दिक बधाई हो मेम
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख दीपा जी! परतंत्रता के परिवेश में किस तरह से पं. गिरिधर शर्मा जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सतत प्रयास किया.... आपके लेख से जाना। वास्तव में पंडित जी ने हिंदी के भव्य स्वरूप में नींव के पत्थर की भूमिका निभाई है। बधाई आपको।
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। आपने बहुत मेहनत से यह शोधपूर्ण लेख प्रस्तुत किया है। आपके इस लेख के माध्यम से हिंदी के महान साहित्यकार पंडित गिरिधर शर्मा जी को जानने का अवसर मिला। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteपंडित गिरिधर शर्मा पर मँजे हुए प्रवाहमय आलेख के लिए बधाई दीपा।
ReplyDeleteदीपा जी एक और जानकारी से भरा लेख आपका । आपके इस लेख के माध्यम से हिंदी के महान साहित्यकार पंडित गिरिधर शर्मा जी और उनके हिंदी के लिए किये गए प्रयासों को जानने का अवसर मिला। आपको इस शोधपरक और महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDelete